एक लाख योजन विस्तृत गोलाकार (थाली सदृश) इस जम्बूद्वीप में हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी इन छह कुलाचलों में विभाजित सात क्षेत्र हैं— भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत। भरत क्षेत्र का दक्षिण उत्तर विस्तार ५२६, ६/१९ योजन है। आगे पर्वत और क्षेत्र के विस्तार विदेह क्षेत्र तक दूने—दूने हैं पुन: आधे—आधे हैं। इनमें से भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्ड में षट्काल परिवर्तन से भोगभूमि और कर्मभूमि की व्यवस्था चलती रहती है जो अशाश्वत कहलाती है। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था है। हरि और रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था है। विदेह क्षेत्र में दक्षिण—उत्तर में देवकुरु—उत्तरकुरु नाम से क्षेत्र हैं जहाँ पर उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था है। ये छहों भोगभूमियाँ शाश्वत हैं। विदेह क्षेत्र में पूर्व—पश्चिम में १६ वक्षार पर्वत और १२ विभंगा नदियों के निमित्त से ३२ क्षेत्र हो जाते हैं। जिनके नाम कच्छा, सुकच्छा आदि हैं। इन बत्तीसों विदेह क्षेत्रों में कर्मभूमि की व्यवस्था सदा काल एक जैसी रहती है अत: इन्हें शाश्वत कर्मभूमि कहते हैं। विदेह क्षेत्र का विस्तार (दक्षिण—उत्तर) ३३६८४, ४/१९ योजन है और इसकी लम्बाई (पूर्व—पश्चिम) १००००० योजन है। इस विदेह के ठीक मध्य में सुदर्शनमेरु पर्वत है जो एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। पृथ्वी पर इसकी चौड़ाई १० हजार योजन है और घटते—घटते ऊपर जाकर ४ योजन मात्र की रह गई है। इस सुमेरु की चारों विदिशाओं में एक—एक गजदंत पर्वत है जो कि एक तरफ से सुमेरु का स्पर्श कर रहें हैं और दूसरी तरफ से निषध— नील पर्वत है जो कि एक तरफ से सुमेरु का स्पर्श कर रहे हैं । और दूसरी तरफ से निषध—नील पर्वत को छूते हुये हैं। इन पर्वतों के निमित्तों से भी विदेह की चारों दिशायें पृथक्—पृथक् विभक्त हो गई हैं। सुमेरु से उत्तर की ओर उत्तरकुरु में ईशान कोण में जम्बूवृक्ष है और सुमेरु से दक्षिण की ओर देवकुरु है जिसमें आग्नेय कोण में शाल्मली वृक्ष है। इन दोनों कुरुवों में दश प्रकार के कल्पवृक्ष होने से वहाँ पर सदा उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। सुमेरु के पूर्व—पश्चिम विदेह क्षेत्र में सीता—सीतोदा नदियाँ बहती हैं। इससे पूर्व—पश्चिम विदेह में भी दक्षिण—उत्तर भाग हो जाते हैं । सुमेरु के पूर्व में और सीता नदी के उत्तर में सर्वप्रथम भद्रसालवन की वेदिका है, पुन: क्षेत्र है । पुन: वक्षार पर्वत है जो कि ५०० योजन विस्तृत १६५९२, २/१९ योजन लम्बा तथा नील पर्वत के पास ४०० योजन एवं सीता नदी के पास ५०० योजन ऊँचा है। यह पर्वत सुवर्णमय है इस पर चार कूट हैं। जिनमें से नदी के पास के कूट पर जिन मंदिर एवं शेष तीन कूट पर देव—देवियों के आवास हैं। इस पर्वत के बाद क्षेत्र, पुन: विभंगानदी, पुन: क्षेत्र, पुन: वक्षार पर्वत ऐसे क्रम से चार वक्षार पर्वत और तीन विभंगा नदियों के अंतराल से तथा एक तरफ भद्रशाल को वेदी और दूसरी तरफ देवारण्यवन की वेदी के निमित्त से इस एक तरफ के विदेह में सीता नदी के उत्तर में आठ क्षेत्र हो गये हैं। ऐसे ही सीता नदी के दक्षिण तरफ ८ क्षेत्र, पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी के दक्षिण—उत्तर में ८—८ क्षेत्र ऐसे बत्तीस क्षेत्र हैं। बत्तीस विदेह क्षेत्रों के नाम— कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला, पुष्कलावती, वत्सा, सुवत्सा, महावत्सा, वत्सकावती, रम्या, सुरम्या, रमणीया, रम्यकावती, पद्मा, सुपद्मा महापद्मा, पद्मकावती, शंखा, नलिनी, कुमुद, सरित, वप्रा, सुवप्रा, महावप्रा, वप्रकावती, गंधा, सुगंधा, गंधिला और गंधमालिनी।
यह कच्छा विदेह क्षेत्र पूर्व—पश्चिम में २२१२, ७/८ योजन विस्तृत है और दक्षिण—उत्तर में १६५९२, २ / १९ योजन लम्बा है। इस क्षेत्र के बीचों—बीच में ५० योजन चौड़ा २२१२, ७/८ योजन लम्बा और २५ योजन ऊँचा विजयार्ध पर्वत है। इस विजयार्ध में भी भरत क्षेत्र के विजयार्ध के समान दोनों पाश्र्व भागों में दो—दो विद्याधर श्रेणियाँ हैं इन दोनों तरफ की श्रेणियों पर विद्याधर मनुष्यों की ५५—५५ नगरियाँ हैं । इस विजयार्ध पर्वत पर ९ वूकूट, इनमें से एक कूट जिनमंदिर और शेष ८ कूट पर देवों के भवन हैं । नील पर्वत की तलहटी में गंगा—सिंधु नदियों के निकलने के लिये दो कुण्ड बने हैं। इन कुण्डों से ये दोनों नदियाँ निकलकर सीधी बहती हुई विजयार्ध पर्वत की तिमिस्र गुफा और खण्डप्रपात गुफा में प्रवेश कर बाहर निकल कर क्षेत्र में बहती हुई आगे आकर सीता नदी में प्रवेश कर जाती हैं। इस कच्छा देश में विजयार्ध और गंगासिंधु के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं। इनमें से नदी के पास के मध्य में आर्यखण्ड है और शेष पाँचों म्लेच्छखण्ड हैं। इस आर्यखण्ड के बीचों—बीच में क्षेमा नाम की नगरी है, जो कि मुख्य राजधानी है। यह एक कच्छा विदेह देश का वर्णन है। इसी प्रकार से महाकच्छा आदि इकतीस विदेह देशों की व्यवस्था है ऐसा समझना।
प्रत्येक विदेह में ९६ करोड़ ग्राम, २६ हजार नगर, १६ हजार खेट , २४ हजार कर्वट , ४ हजार मटंब, ४८ हजार पत्तन, ९९ हजार द्रोण, १४ हजार संबाह और २८ हजार दुर्गाटवी हैं। जो चारों ओर कांटो की बाड़ से वेष्टित हो, उसे ग्राम कहते हैं। चार दरवाजों युक्त कोट से वेष्टित को नगर कहते हैं। नदी और पर्वत दोनों से वेष्टित को खेट कहते हैं। पर्वत से वेष्टित कर्वत हैं। ५०० ग्रामों से संयुक्त मटंब हैं । जहाँ रत्नादि वस्तुओं की निष्पत्ति होती है, वे पत्तन हैं। नदी से वेष्टित को द्रोण , समुद्र की वेला से वेष्टित संवाह और पर्वत के ऊपर बने हुये को दुर्गाटवी कहते हैं। प्रत्येक विदेह देश में प्रधान राजधानी और महानदी के बीच स्थित आर्यखण्ड में एक—एक उपसमुद्र हैं और उस उपसमुद्र में एक—एक टापू हैं, जिस पर ५६ अन्तरद्वीप, २६ हजार रत्नाकर और रत्नों के क्रय—वक्रय के स्थानभूत ऐसे ७०० कुक्षिवास होते हैं। सीता—सीतोदा नदियों के समीप जल में पूर्वादि दिशाओं में मागध, वरतनु और प्रभास नामक व्यंतर देवों के तीन द्वीप हैं।
विदेह क्षेत्र में वर्षाकाल में सात प्रकार के काले मेघ सात—सात दिन तक अर्थात् ४९ दिनों तक और द्रोण नाम वाले बारह प्रकार के श्वेत मेघ सात—सात दिन तक (१२²७·८४) दिनों तक बरसते हैं। इस प्रकार वहाँ वर्षा ऋतु में कुल ४९±८४·१३३ दिन तक मर्यादा पूर्वक वर्षा होती है। विदेह देश में क्या—क्या नहीं है?— विदेह क्षेत्र में सर्वत्र कभी दुर्भिक्ष नहीं पड़ता है। सात प्रकार की ‘‘ईति’’ नहीं हैं। १. अतिवृष्टि, २. अनावृष्टि, ३. मूषक प्रकोप, ४. शलभ प्रकोप (टिड्डी), ५. शुक प्रकोप, ६. स्वचक्र प्रकोप और, ७. परचक्र प्रकोप ये सात ईतियाँ वहाँ नहीं हैं। तथा गाय या मनुष्य आदि जिनमें अधिक मरने लगें उसे मारि रोग कहते हैं वह भी वहाँ नहीं है। वहाँ कुदेव, कुलिंगी साधु और कुमतों का अभाव है त्रिलोकसार गाथा ६७४, से ६८० तक। । वहाँ विदेह में हमेशा चतुर्थकाल सदृश ही वर्तना रहती है। अर्थात् सतत् ही उत्कृष्ट ५०० धनुष की अवगाहना वाले मनुष्य होते हैं और वहाँ मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष की है। वहाँ पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण ही होेते हैं। जो कि असि, मषि, कृषि आदि के द्वारा आजीविका करते हैं। वहाँ पर हमेशा गृहस्थ धर्म और मुनि धर्म चलता रहता है। वहाँ पर हमेशा तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण और प्रतिनारायण होते रहते हैं। इस जम्बूद्वीप के ३२ विदेहों में यदि अधिक तीर्थंकर आज भी विद्यमान हैं जिनके नाम हैं — सीमंधर , युगमंधर, बाहु और सुबाहु। ये विहरमाण तीर्थंकर भी कहलाते हैं। ऐसे ही पाँचों मेरु संबंधी ३२²५·१६० विदेह होते हैं। उनमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि भी अधिक रूप से १६० और कम से कम २० माने गये हैं।त्रिलोकसार गाथा ६८।
हिमवान आदि छह पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापदम, तिगिन्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ऐसे छह सरोवर हैं। इनमें पद्म तथा पुण्डरीक सरोवर से तीन—तीन एवं शेष चार सरोवरों से दो—दो नदियाँ निकलती हैं। जिनके नाम हैं—गंगा सिन्धु, रोहित—रोहितास्या, हरित—हरिकान्ता, सीता—सीतोदा, नारी—नरकांता, सुवर्णकूला—रूप्यकूला और रक्ता—रक्तोदा। ये चौदह नदियाँ दो—दो मिलकर भरत आदि सात क्षेत्रों में बहती हैं। भरत क्षेत्र— इस क्षेत्र का विस्तार ५२६, ६/१९ योजन है। इसके बीच में पूर्व—पश्चिम लम्बा, ५० योजन चौड़ा और २५ योजन ऊँचा एक विजयार्ध पर्वत है। इसमें दक्षिण—उत्तर बाजू में विद्याधरों की नगरियाँ हैं। इस पर्वत में दो गुफायें हैं। जिनके नाम हैं— तमिस्र गुफा, खण्डप्रपात गुफा। हिमवान पर्वत के पद्म सरोवर के पूर्व तोरणद्वार से गंगा नदी एवं पश्चिम तोरण द्वार से सिन्धु नदी निकलकर ५००—५०० योजन तक पूर्व—पश्चिम दिशा में पर्वत पर ही बहकर पुन: दक्षिण की ओर मुड़कर पर्वत के किनारे आ जाती हैं। वहाँ पर गोमुख आकार वाली नालिका से नीचे गिरती हैं। हिमवान पर्वत की तलहटी में नदी गिरने के स्थान पर गंगा सिन्धु कुण्ड बने हुये हैं। जिनमें बने कूटपर गंगा— सिन्धु देवी के भवन हैं। भवन की छत पर फूले हुये कमलासन पर अकृत्रिम जिनप्रतिमा विराजमान हैं उन प्रतिमा के मस्तक पर जटाजूट का आकार बना हुआ है। ऊपर से गिरती हुई गंगा सिन्धु नदियाँ ठीक भगवान् की प्रतिमा के मस्तक पर अभिषेक करते हुये के समान पड़ती हैं। पुन: कुण्ड से बाहर निकलकर क्षेत्र में कुटिलाकार से बहती हुर्इं पूर्व पश्चिम की तरफ लवण समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं। इसलिये इस भरत क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत और गंगासिंधु नदी के निमित्त में छह खण्ड हो जाते हैं। इनमें से जो दक्षिण की तरफ में बीच के खंड हैं वह आर्यखंड है, शेष जाँच म्लेच्छ खंड हैं। उत्तर की तरफ के तीन म्लेच्छ खंडों में से बीच वाले म्लेच्छ खंड में एक वृषभाचल पर्वत है। चक्रवर्ती जब इन छहों खंडों को जीत लेता है तब अपनी विजय प्रशस्ति इसी पर्वत पर लिखता है। भरत क्षेत्र के आर्यखंड के मध्य में अयोध्या नगरी है। इस अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है। और पश्चिम में १००० योजना दूरी पर सिन्धु नदी की तट वेदी है अर्थात् आर्यखंड की दक्षिण दिशा में लवण समुद्र, उत्तर दिशा में विजयार्ध, पूर्व दिशा में गंगा नदी एवं पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी हैं ये चारों आर्यखंड की सीमारूप हैं। अयोध्या से दक्षिण में ४७६,००० मील (चाल लाख छियत्तर हजार मील)जाने से लवण समुद्र है और उत्तर में ४,७६,००० मील जाने से विजयार्ध पर्वत है उसी प्रकार अयोध्या से पूर्व में ४०,००,००० (चालीस लाख) मील दूर पर गंगा नदी तथा पश्चिम में इतनी ही दूरी पर सिन्धु नदी है। आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्यखंड में है। हम और आप सभी इस आर्यखंड में ही भारतवर्ष में रहते हैं। इस भरत क्षेत्र के आर्यखंड से विदेह क्षेत्र की दूरी २० करोड़ मील से अधिक ही है। भरत क्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में सदा ही अरहट घटी यंत्र के समान छह कालों का परिवर्तन होता रहता है।
‘‘भरत और ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी इन दो कालों के द्वारा षट्काल परिवर्तन होता रहता है। इनमें अवसर्पिणी काल में जीवों के आयु शरीर आदि की हानि एवं उत्सर्पिणी काल में वृद्धि होती रहती है।भरहेसुरेवदेसु य ओसप्पुस्सप्पिणित्ति कालदुगा। उस्सेधाउबलाणं हाणीवड्ढी य होंतित्ति ।।७७९।।त्रि०सा० अवसर्पिणी के सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादु:षमा, दु:षमा और अतिदु:षमा ऐसे छह भेद हैं। ऐसे ही उत्सर्पिणी के अर्थात् दु:षमदु:षमा, दुषमा, दु:षमासुषमा, सुषमदु:षमा, सुषमा और सुषमासुषमा ये छह भेद हैं। अवसर्पिणी के सुषमसुषमा की स्थिति ४ कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमा की ३ कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमदु:षमा की २ कोड़ाकोड़ी सागर, दुषमसुषमा की ४२ में २१ हजार वर्ष की एवं अतिदु:षमा की २१ हजार वर्ष की है। ऐसे ही उत्सर्पिणी में २१ हजार वर्ष से उल्टे क्रम से समझना । इन छह कालों में से प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल में क्रम से उत्तम, मघ्यम और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है तथा चौथे, पाँचवें और छठे काल में कर्मभूमि की व्यवस्था हो जाती है। उत्तम भोगभूमि में मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई तीन कोश और आयु तीन पल्य प्रमाण होती है। मध्यम भोगभूमि में शरीर की ऊँचाई दो कोश, आयु दो पल्य होती है और जघन्य भोगभूमि में शरीर की ऊँचाई एक कोश और आयु एक पल्य की है। यहाँ पर दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोगोपभोग सामग्री प्राप्त होती है। चतुर्थकाल में उत्कृष्ट अवगाहना सवा पाँच सौ धनुष और उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि वर्ष है। पंचम काल में शरीर की ऊँचाई ७ हाथ और आयु १२० वर्ष है। छठे काल में शरीर २ हाथ का और आयु २० वर्ष है। इस वर्तमान की अवसर्पिणी में ‘‘ तृतीय काल में पल्य का आठवाँ भाग शेष रहने पर प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् , नाभिराय और उनके पुत्र ऋषभदेव ये कुलकर उत्पन्न हुये हैंत्रिलोकसार गाथा ७९२—७९३—७९४।। अर्थात् अन्यत्र ग्रन्थों में नाभिराय को १४ वें अंतिम कुलकर माने हैं । यहाँ पर नाभिराय के पुत्र प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को भी कुलकर संज्ञा दे दी है। इस युग में कर्मभूमि के प्रारम्भ में तीर्थंकर ऋषभदेव के सामने जब प्रजा आजीविका की समस्या लेकर आई, तभी प्रभु की आज्ञा से इंद्र ने ग्राम, नगर आदि की रचना कर दी। पुन: प्रभु ने अपने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की सारी व्यवस्था को ज्ञात कर प्रजा में वर्ण व्यवस्था बनाकर उन्हें आजीविका के साधन बतलाये। यही बात श्री नेमिचन्द्राचार्य ने भी कही है— नगर, ग्राम, पत्तन आदि की रचना, लौकिक शास्त्र, असि, मषि, कृषि आदि लोक व्यवहार और दया प्रधान धर्म का स्थापन आदिब्रह्मा श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर ने किया हैपुरगामपट्टणादी लोयियसत्थ च लोयववहारो। धम्मो वि दयामूलो विणिम्मियो आदिबह्मेण ।।८०२।। त्रिलोकसार।।’’ आर्यखण्ड में ही वृद्धि— ह्रास होता है, अन्यत्र नहीं— मध्यलोेक में असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं। उन सब के मध्य सर्वप्रथम द्वीप का नाम जंबूद्वीप है। यह एक लाख योजन (४० करोड़ मील) विस्तार वाला, थाली के समान गोल है। इस द्वीप के बीचों—बीच एक लाख योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है जिसका भूमि पर विस्तार दस हजार योजन है। इस जम्बूद्वीप में पूर्व—पश्चिम लम्बे, दक्षिण दिशा से लेकर हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ऐसे छह कुल पर्वत हैं। इनसे विभाजित भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक्, हैरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं। भरत क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप का १९० वां भाग अर्थात् (१,०००००´१९०·५२६ ६/१९) पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन प्रमाण है। इससे आगे हिमवान पर्वत का विस्तार भरत क्षेत्र से दूना है। आगे—आगे के क्षेत्र और पर्वत विदेह क्षेत्र तक दूने—दूने होते हुये पुन:आगे आधे—आधे होते गये हैं। अन्तिम ऐरावत क्षेत्र, भरत क्षेत्र के समान प्रमाण वाला है। भरत क्षेत्र के मध्य में विजयार्ध पर्वत है।
यह ५० योजन (२,०००००) मील चौड़ा और २५ (१,००००० मील) उँâचा है यह दोनों कोणों से लवण समुद्र को स्पर्श कर रहा है। रजतमयी है, इसमें तीन कटनी हैं, अन्तिम कटनी पर कूट जिनमन्दिर हैं। दोनों कोणों से लवण समुद्र को स्पर्श कर रहा है। रजतमयी है, इसमें तीन कटनी हैं, अन्तिम कटनी पर कूट जिनमन्दिर हैं। हिमवान आदि छहों पर्वतों पर क्रम से पद्म, महापद्म, तिगिंच्छ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक ये छह सरोवर हैं। इन सरोवरों से गंगा—सिन्धु, रोहित—रोहितास्या, हरित— हरितकान्ता, सीता— सीतोदा, नारी—नरकांता, सुवर्णकूला—रूप्याकूला और रक्ता—रक्तोदा ये चौदह नदियाँ निकलती हैं। प्रथम और अन्तिम सरोवर से तीन—तीन एवं अन्य सरोवरों से दो—दो नदियाँ निकलती हैं। प्रत्येक क्षेत्र में दो—दो नदियाँ बहती हैं। प्रत्येक सरोवर में एक— एक पृथ्वीकायिक कमल हैं। जिन पर क्रम से श्री, हृी, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी देवियाँ निवास करती हैं। इनमें देवियों के परिवार कमल भी हैं जो कि मुख्य कमल से आधे—प्रमाण वाले हैं। भरत क्षेत्र में गंगा सिन्धु नदी और विजयार्ध पर्वत के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं। ऐसे ही ऐरावत क्षेत्र में विजयार्ध पर्वत तथा रक्ता—रक्तोदा नदियों के निमित्त से छह खण्ड हो जाते हैं। इस जम्बूद्वीप में भरत और ऐरावत क्षेत्र में षट्काल परिवर्तन होता रहता है। हैमवत्, हरि, विदेह के अन्तर्गत देवकुरु, उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत इन छह स्थानों पर भोगभूमि की व्यवस्था है जो कि सदा काल एक सदृश होने से शाश्वत है। विदेह क्षेत्र में पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह ऐसे दो भेद हो गये हैं। इन सभी में विजयार्ध पर्वत हैं तथा गंगा—सिन्धु और रक्ता—रक्तोदा नदियाँ बहती हैं। इस कारण प्रत्येक विदेह में भी छह—छह खण्ड हो जाते हैं। सभी में मध्य का एक आर्यखण्ड है शेष पाँच म्लेच्छखण्ड हैं। सभी विदेह क्षेत्र में चतुर्थ काल के प्रारम्भ के समान कर्मभूमि की व्यवस्था सदा काल रहती है अत: इन विदेहों में शाश्वत कर्मभूमि की रचना है। मात्र भरत—ऐरावत क्षेत्र में ही वृद्धि—ह्रास होता है। जैसा कि उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थ सूत्र महाशास्त्र में कहा है—
‘‘भरतैरावतयोर्वृद्धि—ह्रासौ षट्समयाभ्यामुत्सर्पिण्यव— सर्पिणीभ्याम्’’।।२८।।
भरत और ऐरावत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह काल परिवर्तन के द्वारा वृद्धि—ह्रास होता रहता है। इस सूत्र के भाष्य में श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं। कि
‘‘तात्स्थ्याताच्छब्द्यसिद्धेर्भरतैरावतयोर्वृद्धिह्रास योग:
अधिकरण निर्देशो वा तत्रस्थानां हि मनुष्यादीनामनुभवायु:
प्रमाणादिकृतौ वृद्धि ह्रासौ षट्कालाभ्यामुत्सर्पिण्यव—सर्पिणीभ्याम् ।।’’
भरत और ऐरावत क्षेत्रों के वृद्धि और ह्रास का योग बतला दिया है। अथवा अधिकरण निर्देश मान करके उनमें स्थित हो रहे मनुष्य, तिर्यंच आदि जीवों के अनुभव, आयु, शरीर की ऊँचाई, बल, सुख आदि का वृद्धि— ह्रास समझना चाहिये१तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, पंचम खण्ड, पृ० ३४६।। आगे के सूत्र में स्वयं ही श्री उमास्वामी महाराज ने कह दिया है—
‘‘ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिता:’’।।२९।।
इन दोनों क्षेत्रों के अतिरिक्त जो भूमियाँ हैं वे ज्यों की त्यों अवस्थित हैं। अर्थात् अन्य हैमवत आदि क्षेत्रों में जो व्यवस्था है सो अनादि निधन है वहाँ षट्काल परिवर्तन नहीं है। इस बात को इसी ग्रन्थ में चतुर्थ अध्याय के
‘‘ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगत्यो नृलोके।।’’
इस सूत्र के भाष्य में श्री विद्यानंद आचार्य ने अपने शब्दों में ही स्पष्ट किया है। जिसकी हिन्दी पं० माणिकचन्द जी न्यायाचार्य ने की है। ‘‘ वह भूमि का नीचा—ऊँचापन भरत, ऐरावत क्षेत्रों में काल वश हो रहा देखा जा चुका है। स्वयं पूज्यचरण सूत्रकार का इस प्रकार वचन है कि भरत—ऐरावत क्षेत्रों के वृद्धि और ह्रास छह समय वाली उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों करके हो जाते हैं। अर्थात् भरत और ऐरावत में आकाश की चौड़ाई न्यारी—न्यारी एक लाख के एक सौ नब्बेवें भाग यानी पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन की ही रहती हैं। किन्तु अवगाहन शक्ति के अनुसार इतने ही आकाश में भूमि बहुत घट—बढ़ जाती है। न्यून से न्यून पाँच सौ छब्बीस सही छह बटे उन्नीस योजन भूमि अवश्य रहेगी। बढ़ने पर इससे कई गुनी अधिक हो सकती है। इसी प्रकार अनेक स्थूल कहीं बीसों कोस ऊँचे—नीचे, टेढ़े— तिरछे, कोनियाये हो जाते हैं। अत: भ्रमण करता हुआ सूर्य जब दोपहर के समय ऊपर आ जाता है , तब सूर्य से सीधी रेखा पर समतल भूमि में खड़े हुए मनुष्यों की छाया किंचित् भी इधर—उधर नहीं पड़ेगी। किन्तु नीचे, ऊँचे, तिरछे प्रदेशों पर खड़े हुए मनुष्यों की छाया इधर—उधर पड़ जायेगी । क्योंकि सीधी रेखा का मध्यम ठीक नहीं पड़ा हुआ है। भले ही लकड़ी को टेढ़ी या सीधी खड़ी कर उसकी छाया को देख लो।
तन्मनुष्याणामुत्सेधानुभवायुरादिभिर्वृद्धिह्र्रासौ प्रतिपादितो न भूमेरपरपुद्गलैरिति न मन्तव्यं,
गौणशब्दाप्रयोगान्मुख्यस्य घटनादन्यथा मुख्यशब्दार्थातिक्रमे प्रयोजनाभावात् ।
तेन भरतैरावतयो: क्षेत्रयोर्वृद्धिह्रासौ मुख्यत: प्रतिपत्तव्यो,
गुणभावतस्तु तत्स्थमनुष्याणामिति तथावचनं सफलतामस्तु ते प्रतीतिश्चानुलंघिता स्यात् ।
थोड़े आकाश में बड़ी अवगाहना वाली वस्तु के समा जाने में आश्चर्य प्रगट करते हुए कई विद्वान यों मान बैठे हैं कि भरत, ऐरावत क्षेत्रों की वृद्धि—हानि नहीं होती है, किन्तु उनमें रहने वाले मनुष्यों के शरीर की उच्चता अनुभव, आयु, सुख आदि करके वृद्धि और ह्रास हो रहे सूत्रकार द्वारा समझाये गये हैं। अन्य पुद्गलों करके भूमि के वृद्धि और ह्रास सूत्र में नहीं कहे गये हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं मानना चाहिए। क्योंकि गौण हो रहे शब्दों का सूत्रकार ने प्रयोग नहीं किया। अत: मुख्य अर्थ घटित हो जाता है। इसलिये भरत—ऐरावत शब्द का मुख्य अर्थ पकड़ना चाहिए। तिस कारण भरत और ऐरावत दोनों क्षेत्रों की वृद्धि और हो रही मुख्यरूप से समझ लेनी चाहिए। हाँ, गौणरूप से तो उन दोनों क्षेत्रों में ठहर रहे मनुष्यों के अनुभव आदि करके वृद्धि और ह्रास हो रहे समझ लो, यों तुम्हारे यहाँ सूत्रकार का जिस प्रकार वचन सफलता को प्राप्त हो जावों और क्षेत्र की वृद्धि हानि मान लेने पर प्रत्यक्ष सिद्ध या अनुमान सिद्ध प्रतीतियों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।
भावार्थ— समय के अनुसार अन्य क्षेत्रों में नहीं, केवल भरत—ऐरावत में ही भूमि ऊँची—नीची, घटती—बढ़ती हो जाती है तदनुसार दोपहर के समय छाया का घटना—बढ़ना या क्वचित् सूर्य का देर या शीघ्रता से उदय—अस्त होना घटित हो जाता है। तभी तो अगले ‘‘ताभ्यामपरा भूमयोवस्थिता:’’ इस सूत्र में पड़ा हुआ ‘‘भूमय:’’ शब्द व्यर्थ संभव न होकर ज्ञापन करता है कि भरत—ऐरावत क्षेत्र की भूमियाँ अवस्थित नहीं हैं। उँची—नीची, घटती—बढ़ती हो जाती हैं। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र लिखा है कि कोई गहरे कुएँ में खड़ा है, उसे मध्यान्ह में दो घंटे ही दिन प्रतीत होगा बाकी समय रात्रि ही दिखेगी।’’तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक, पंचम खण्ड, पृ० ५७२—५७३। इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि आज जो भारत और अमेरिका आदि में दिन—रात का बहुत बड़ा अन्तर दिख रहा है वह भी इस क्षेत्र की वृद्धि—हानि के कारण ही दिख रहा है। तथा जो पृथ्वी को गोल नारंगी के आकार की मानते हैं उनकी बात भी कुछ अंश में घटित की जा सकती है। श्री यतिवृषभ आचार्य कहते हैं— छठे काल के अन्त में उनंचास दिन शेष रहने पर घोर प्रलय काल प्रवृत्त होता है। उस समय सात दिन तक महागम्भीर और भीषण संवर्तक वायु चलती है जो वृक्ष, पर्वत और शिला आदि को चूर्ण कर देती है पुन: तुहिन— बर्पâ, अग्नि आदि की वर्षा होती है। अर्थात् तुहिन — बर्फीला खारा जल, विषजल, धूम, धूलि, वङ्का और महाग्नि इनकी क्रम से सात—सात दिन तक वर्षा होती है। अर्थात भीष्ण वायु से लेकर उनंचास दिन तक विष ‘‘ तब भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखण्ड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिंगत एक योजन की भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कन्ध स्वरूप को छोड़कर लोकान्त तक पहुँच जाती है।एवं कमेण भरहे अज्जाखण्डम्मि जोयणं एक्वंâ ।। यह एक योजन २००० कोस अर्थात् ४००० मील का है। इस आर्यखण्ड की भूमि जब इतनी बढ़ी हुई है तब इस बात से जो पृथ्वी को नारंगी के समान गोल मानते हैं उनकी बात कुछ अंशों में सही मानी जा सकती है हाँ यह नारंगी के समान गोल न होकर कहीं—कहीं आधी नारंगी के समान ऊपर में हुई हो सकती है—
चित्ताए उवरि ठिदा दज्झइ वड्ढिंगदा भूमि।।१५५१।।
वज्जमहाग्गिबलेणं अज्जाखण्डस्स वड्ढिंया भूमि। पुव्विल्ल खंधरूवं मुत्तूणं जादि लोयंतं।।१५५२।
‘‘तिलोयपण्णत्ति अधिकार ४।।’’
त्रिलोक सार में कहते हैं— पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी नाम के दो काल वर्तते हैं। अवसर्पिणी काल के सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदु:षमा, दु:षमसुषमा, दु:षमा और अतिदु:षमा नाम से छह काल होते हैं। उत्सर्पिणी के इससे उल्टे अतिदु:षमा, दु:षमा, दु:षमसुषमा, सुषमदु:षमा, सुषमा और सुषमसुषमा नाम से छह काल होते हैं। उन सुषमा—सुषमा आदि की स्थिति क्रम से चार कोड़ाकोड़ी सागर, तीन कोड़ाकोड़ी सागर, दो कोड़ाकोड़ी सागर, ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, इक्कीस हजार वर्ष और इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है। उत्सर्पिणी में इससे विपरीत है । इनमें से सुषमा—सुषमा आदि तीन कालों में उत्तम, मध्यम और जघन्य भोग भूमि की व्यवस्था है। प्रथम काल की आदि में मनुष्यों की आयु का प्रमाण तीन पल्य है, आगे ह्रास होते—हेते अंत में दो पल्य प्रमाण है। द्वितीय काल के प्राररम्भ में दो पल्य अन्त में एक पल्य प्रमाण है। तृतीय के प्रारम्भ में एक पल्य और अनत में १२० वर्ष है। पंचम काल की आदि में १२० वर्ष, अन्त में २० वर्ष है। छठे काल के प्रारम्भ में २० वर्ष अन्त में १५ वर्ष प्रमाण है। उत्सर्पिणी में इससे उल्टा समझना । प्रथम काल के मनुष्य तीन दिन बाद भोजन करते हैं, द्वितीय काल के दो दिन बाद, तृतीय काल के एक दिन बाद, चतुर्थ काल के दिन में एक बार, पंचम काल के बहुत बार और छठे काल के बार—बार भोजन करते हैं । तीन काल तक के भोगभूमिज मनुष्य दश प्रकार के कल्पवृक्षों से अपना भोजन आदि ग्रहण करते हैं।
इस अवसर्पिणी काल के तृतीय काल में पल्य का आठवाँ भाग अवशिष्ट रहने पर प्रतिश्रुति से लेकर ऋषभदेव पर्यन्त १५ कुलकर हुए हैं। तृतीय काल में ही तीन वर्ष साढ़े आठ मास आवशिष्ट रहने पर ऋषभदेव मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। ऐसे ही अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर भी चतुर्थ काल में तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहने पर मोक्ष गये हैं तथा पंचमकाल के अन्त में अंतिम वीरांगद मुनि के हाथ से कल्की राजा द्वारा ग्रास को कर रूप माँगें जाने पर मुनि का चतुर्विध संघ सहित सल्लेखना ग्रहण व धर्म का अन्त एक साथ होगा। प्रलय काल— छठे काल के अन्त में संवर्तक नाम की वायु पर्वत, वृक्ष और भूमि आदि को चूर्ण कर देती हैं तब वहाँ पर स्थित सभी जीव मूचछत हो जाते हैं। विजयार्ध पर्वत, गंगा, सिंधु नदी और क्षुद्र बिल आदि के निकट रहने वाले जीव इनमें स्वयं प्रवेश कर जाते हैं । तथा दयावान देव और विद्याधर कुछ मनुष्य आदि युगलों को वहाँ से ले जाते हैं। इस छठे काल के अन्त में पवन, अतिशीत क्षाररस, विष, कठोरअग्नि, धूलि, वङ्का और धुवाँ इन सात वस्तुओं की क्रम से सात—सात दिन तक वर्षा होती है। अर्थात् ४९ दिनों तक इन अग्नि आदि की वर्षा होती है। उस समय अवशेष रहे मनुष्य भी नष्ट हो जाते हैं। काल के वश से विष और अग्नि से दग्ध हुई पृथ्वी एक योजन नीचे तक चूर—चूर हो जाती है। इस अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी काल आता है उस समय मेघ क्रम से जल, दूध, घी, अमृत और रस आदि की वर्षा सात—सात दिन तक करते हैं। तब विजयार्ध की गुफा आदि में स्थित जीव पृथ्वी के शीतल हो जाने पर वहाँ से निकल कर पृथ्वी पर फैल जाते हैं। आगे पुन: अतिदु:षमा के बाद दु:षमा आदि काल वर्तते हैं। इस प्रकार भरत और ऐरावत के आर्य खण्डों में यह षट्काल परिवर्तन होता है अन्यत्र नहीं है।
देवकुरु और उत्तरकुरु में सुषमासुषमा काल अर्थात् उत्तम भोगभूमि सदा एक सदृश है। हरिक्षेत्र और रम्यकक्षेत्र में सुषमा काल अर्थात् मध्यम भोग—भूमि की व्यवस्था है। और हैरण्यवत में सुषमा—दुषमा काल अर्थात् जघन्य भोग—भूमि की व्यवस्था है। तथा विदेह क्षेत्र में सदा ही चतुर्थ काल वर्तता है। भरत और ऐरावत के पाँच—पाँच म्लेच्छ खण्डों में तथा विजयार्ध की विद्याधर की श्रेणियों में चतुर्थ काल के आदि से लगाकर उसी काल के अन्त पर्यंत हानि—वृद्धि होती रहती है। इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्षेत्र में व क्षेत्रस्थ मनुष्य, तिर्यंचों में जो आयु, अवगाहना आदि का ह्रास देखा जा रहा है वह अवसर्पिणी काल के निमित्त से है तथा जो भी जल के स्थान पर स्थल, पर्वत के स्थान पर क्षेत्र आदि परिवर्तन दिख रहे हैं वे भी इसी आर्यखण्ड में ही हैं। आर्यखण्ड के बाहर में न कहीं कोई ऐसा परिवर्तन हो सकता है और न कहीं ऐसा नाश ही सम्भव है, क्योंकि प्रलय काल इस आर्य खण्ड में ही आता है, यही कारण है कि यहाँ आर्यखण्ड में कोई भी नदी, पर्वत, सरोवर, जिनमन्दिर आदि अकृत्रिम रचनायें नहीं हैं। ये गंगा आदि नदियाँ जो दृष्टिगोचर हो रही हैं वे अकृत्रिम न होकर कृत्रिम हैं। तथा अकृत्रिम नदियाँ व उनकी परिवार नदियाँ भी यहाँ आर्य खण्ड में नहीं हैं जैसा कि कहा है— गंगा महानदी की ये कुण्डों से उत्पन्न हुई १४००० परिवार नदियाँ ढाई म्लेच्छ खण्डों में ही हैं आर्य खण्ड में नहीं हैतिलोयपण्णत्ति प्रथम भाग पृ० १७१। आर्य खण्ड किता बड़ा है ? यह भरत क्षेत्र जम्बूद्वीप के १९० वें भाग (५२६,६/१९) योजन प्रमाण है। इसके बीच में ५०योजन विस्तृत विजयार्ध है। उसे घटाकर आधा करने ये दक्षिण भरत का प्रमाण आता है। यथा (५२६,६/१९-५०) ´ २·२३८,३/१९) योजन है। हिमवान पर्वत पर पद्मसरोवर की लम्बाई १००० योजन है, गंगा—सिन्धु नदियाँ पर्वत पर पूर्व पश्चिम में ५-५ सौ योजन बहकर दक्षिण में मुड़ती हैं। अत: यह आर्यखण्ड पूर्व—पश्चिम में १०००±५००±५००· २००० योजन लम्बा और दक्षिण उत्तर में २३८ योजन गुणा २०००·४,७६००० वर्ग योजन प्रमाण आर्यखण्ड का क्षेत्रफल हुआ। इसके बनाने से ४७६०००²४०००· १९०,४०,००० (एक सौ नब्बे करोड़ चालीस लाख)मील प्रमाण क्षेत्रफल होता है। इस आर्य खण्ड के मध्य में अयोध्या नगरी है । अयोध्या के दक्षिण में ११९ योजन की दूरी पर लवण समुद्र की वेदी है और उत्तर की तरफ इतनी ही दूरी पर विजयार्ध पर्वत की वेदिका है। अयोध्या से पूर्व में १००० योजन की दूरी पर गंगा नदी की तट वेदी है अर्थात् आर्य खण्ड की दक्षिण दिशा में लवणसमुद्र, उत्तर में विजयार्ध, पूर्व में गंगा नदी एवं पश्चिम में सिन्धु नदी है। ये चारों आर्यखण्ड की सीमारूप हैं। अयोध्या से दक्षिण में (११९²४०००·४,७६०००)चार लाख छियत्तर हजार मील जाने पर विजयार्ध पर्वत है। ऐसे ही अयोध्या के पूर्व में (१०००²४०००·४०,००,०००) चालीस लाख मील जाने पर गंगा नदी एवं पश्चिम में इतना ही जाने पर सिन्धु नदी है। आज का उपलब्ध सारा विश्व इस आर्य खण्ड में है। जम्बूद्वीप, उसके अंतर्गत पर्वत, नदी, सरोवर, क्षेत्र आदि के माप का योजन २००० कोस का माना गया है। जम्बूद्वीपपण्णत्ति की प्रस्तावना में प्रो० लक्ष्मीचन्द्र जैन एम०एस—सी० ने भी इसके बारे में अच्छा विस्तार किया है। जिसके कुछ अंश देखिये— इस योजन की दूरी आजकल के रैखिक माप में क्या होगी ? यदि हम २ हाथ · १ गज मानते हैं तो स्थूल रूप से एक योजन ८०,००,००० गज के बराबर अथवा ४५४५.४५ मील के बराबर प्राप्त होता है। यदि हम एक कोस को आजकल के २ मील के बराबर मान लें तो एक योजन ४००० मील के बराबर प्राप्त होता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि जम्बूद्वीप में जो भी सुमेरु, हिमवान आदि पर्वत, हैमवत,हरि, विदेह आदि क्षेत्र , गंगा आदि नदियाँ, पद्म आदि सरोवर हैं ये सब आर्यखण्ड के बाहर हैं
इस युग की आदि में प्रभु श्री ऋषभदेव की आज्ञा से इन्द्र ने देश, नगर, ग्राम आदि की रचना की थी तथा स्वयं प्रभु श्री ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था बनाई थी, जिसका विस्तार आदिपुराण में हैं। उस समय के बनाये गये बहुत कुछ ग्राम, नगर, देश आज भी उपलब्ध हैं। यथा— अथानंतर प्रभु के स्मरण करने मात्र से देवों के साथ इन्द्र आया और उसने नीचे लिखे अनुसार विभाग कर प्रजा की जीविका के उपाय किये। इन्द्र ने शुभ मुहूर्त में अयोध्यापुरी के बीच में जिनमन्दिर बनाये। तदनंतर कौशल आदि महादेश, अयोध्या आदि नगर, वन और सीमासहित गाँव तथा खेड़ों आदि की रचना की। सुकोशल, अवन्ती, पुण्ड्र, उण्ड्र, अश्मक, रम्यक, कुरु, काशी, कलिंग, अंग, बंग, सुहम, समुद्रक,काश्मीर, उशीनर, आनर्त, वत्स,पंचाल, मालव, दशार्ण, कच्छ, मगध, विदर्भ, कुरुजांगल, कराहट, महाराष्ट्र, सौराष्ट, आभार, कांकर्ण, वनवास, आन्ध्र, कर्नाटक, कौशल, चोल, केरल, दारु, अभिसार, सौवीर, शूरसेन, अपरान्तक, विदेह, सिंधु, गान्धार, यवन, चेदी, पल्लव, काम्बोज, आरट्ट, बाल्हीक, तुरुड़क, शक और केकय, इन देशों की रचना की तथा इनके सिवाय उस समय और भी अनेक देशों का विभाग किया। अब सारभूत विषय यह समझने का है कि— १. एक राजू चौड़े निन्यानवें हजार चालीस योजन ऊँचे इस मध्य लोक में असंख्यात द्वीप—समुद्र हैं उनमें सर्वप्रथम द्वीप जम्बूद्वीप है। यह एक लाख योजन अर्थात् ४० करोड़ मील विस्तृत है। २. इस जम्बूद्वीप के मध्य में सुमेरु पर्वत है । इसी में भरत, हैमवत आदि सात क्षेत्र हैं। हिमवान आदि छह पर्वत हैं। नदी, सरोवर आदि अनेक रचनाएँ हैं। ३. इसके एक सौ नब्बेवें भाग प्रमाण भरतक्षेत्र व इतने ही प्रमाण ऐरावत क्षेत्र में जो आर्यखण्ड हैं उन आर्यखण्ड में ही षट्काल परिवर्तन से वृद्धि ह्रास होता है। अन्यत्र कहीं भी परिवर्तन नहीं है। ४. अवसर्पिणी के कर्मभूमि की आदि में तीर्थंकर ऋषभदेव की आज्ञानुसार इन्द्र ने ग्राम, नगर, देश आदि की रचना की थी । जिनमें से अयोध्या, हस्तिनापुर आदि नगरियाँ आज भी विद्यमान हैं। ५. इस भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में ही आज का उपलब्ध सारा विश्व है। इस आर्यखण्ड के भीतर में गंगा—सन्धु नदी, सुमेरु पर्वत और विदेह क्षेत्र आदि को मानना त्रिलोक—सार आदि ग्रन्थों के अनुकूल नहीं है क्योंकि अकृत्रिम गंगा—सन्धु नदी तो आर्यखण्ड के पूर्व—पश्चिम सीमा में हैं। सुमेरु पर्वत विदेह क्षेत्र के मध्य में है इत्यादि।