संजय – गुरु जी! आपने कहा था कि विदेह में षट्काल परिवर्तन नहीं होता, सो वह क्या है? गुरुजी – सुनो! काल के दो भेद हैं-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। जिसमें जीवों की आयु, ऊँचाई, भोगोपभोग संपदा और सुख आदि बढ़ते जावें, वह उत्सर्पिणी है और जिसमें घटते जावें, वह अवसर्पिणी है। इन दोनों को मिलाकर एक कल्पकाल होता है जो कि बीस कोड़ाकोड़ी सागर का है। अवसर्पिणी के छह भेद हैं – सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दु:षमा, दु:षमा-सुषमा, दु:षमा और दु:षमा-दु:षमा। इसी प्रकार उत्सर्पिणी के भी दु:षमा-दु:षमा आदि को लेकर छह भेद हैं। सुषमा-सुषमा – इसमें उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। सुषमा – इसमें मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। सुषमा-दु:षमा – इसमें जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है। दु:षमा-सुषमा – इसमें कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है। इसी चतुर्थकाल में २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण ऐसे ६३ शलाका पुरुष-महापुरुष जन्म लेते हैं।
दु:षमा – जो कि वर्तमान में यहाँ चल रहा है। इसमें पाप की बहुलता होने से दिन पर दिन आयु, संपदा, सुख आदि का ह्रास होता रहता है। दु:षमा-दु:षमा – इस काल में अग्नि का अभाव हो जाने से लोग कच्चा ही माँस खाने वाले, महापापी, दु:खी, दरिद्री, घर, वस्त्र, कुटुम्ब आदि से रहित होते हैं तथा मरकर नरक और तिर्यंच गति में ही जाते हैं। संजय – फिर क्या होता है? गुरुजी – इस काल के ४९ दिन शेष रहने पर भयंकर प्रलय काल आता है। उस समय सात दिन तक बहुत ही भीषण संवर्तक वायु चलती है, जो वृक्ष, पर्वत, शिला आदि को चूर्ण कर देती है। उस समय सभी जीव बहुत दु:खी होते हैं।
तब कुछ देव और विद्याधर दयालु होकर जिनका कुछ पुण्य है, ऐसे मनुष्य और तिर्यंचों के बहत्तर युगलों को तथा और भी कुछ जीवों को वहाँ से ले जाकर विजयार्ध की गुफा आदि स्थानों में रख देते हैं। उस समय यहाँ गंभीर गर्जना के सहित मेघ सात-सात दिन बर्पâ, खाराजल, विषजल, धुआं, धूलि, वङ्का और अग्नि को वर्षाते हैं। उससे यह चित्रा पृथ्वी जो एक योजन (४००० मील) ऊँची बढ़ गई है, वह जलकर नष्ट हो जाती है। संजय – प्रलय के बाद फिर क्या होता है? गुरुजी – पुन: उत्सर्पिणी काल शुरू हो जाता है। इसमें पहले दु:षमा-दु:षमा काल होता है। इस काल के प्रारंभ में पुष्कर मेघ सात दिन अच्छा जल बरसाते हैं।
पुन: दूध, अमृत और दिव्यरस आदि की वर्षा होने से वातावरण ठीक हो जाता है। तब गुफाओं में छिपाये गये वे युगल मनुष्य, तिर्यंच आदि बाहर निकल आते हैं। उनसे संतान परम्परा चलती है। आगे-आगे आयु, ऊँचाई आदि बढ़ते जाते हैं। धीरे-धीरे यह काल पूर्ण होकर दु:षमा काल आता है। इस काल के प्रारंभ में उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष और ऊँचाई तीन हाथ की रहती है। इसमें हजार वर्ष के शेष रहने पर कुलकर (श्रेष्ठ पुरुष) उत्पन्न होने लगते हैं।
ये कुलकर चौदह होते हैं। ये कुलकर समयोचित शिक्षाएँ देते हैं। वनस्पति आदि के होते हुए भी अग्नि नहीं रहती। यह उपदेश देते हैं कि घर्षण कर अग्नि उत्पन्न करो, भोजन पकाओ आदि समझाते हैं। अंतिम कुलकर के समय विवाह विधि चालू हो जाती है। पुन: दु:षमा-सुषमा काल का प्रारंभ होता है, उसमें तीर्थंकर चक्रवर्ती आदि महापुरुष उत्पन्न होते हैं। आगे पुन: सुषमा-दु:षमा काल में जघन्य भोगभूमि, सुषमा काल में मध्यम भोगभूमि एवं सुषमा-सुषमा काल में उत्तम भोगभूमि हो जाती है। इस तरह असंख्यात उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी बीत जाने पर हुंडावसर्पिणी काल आता है जो कि वर्तमान में चल रहा है। संजय – आज मुझे सही बात मालूम हुई। कुछ लोग कहते हैं कि पहले सब बंदर थे। उनकी पूँछ घिसते-घिसते धीरे-धीरे मनुष्य बन गये। यह कल्पना बिल्कुल ही गलत है। अब यह बतलाइये कि यह परिवर्तन कहाँ पर होता है? गुरुजी – हाँ संजय! यह काल परिवर्तन भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंड में ही होता है, अन्यत्र नहीं होता है। जैन सिद्धान्त के अनुसार यही सृष्टि का क्रम है और सब कल्पना बिल्कुल गलत है।