वर्तमान में दिगम्बर जैन समाज की सर्वाधिक वरिष्ठ, सर्वाधिकमान्य साध्वी, ज्ञान, लेखन, गुणग्राहकता, धर्मवात्सल्य, अद्भुत अनुशासन क्षमता की धनी गणिनीप्रमुख पीयूषवर्षिणी आर्यिकारत्न १०५ श्री ज्ञानमती माताजी पिछले पचास वर्षों से देशभर में ज्ञानामृत की वर्षा कर रही हैंं। वे अपनी तपोपूत और ज्ञान वृद्धकाया के बावजूद युवकोचित क्रियाशीलता से दिगम्बर जैन संस्कृति के नये-नये अध्याय लिख रही हैं।
पूज्य माताजी अध्यात्म-आगम साहित्य की दुरुह और विस्मृतप्राय: कृतियों की टीका, अनुवाद और जनसामान्य को सुपाच्य और सुपाठ्य शैली में प्रस्तुत करने में तथा ज्ञान के प्रकाश के प्रसार में दीपशिखा की भांति स्वयं जल कर जिनवाणी को जनवाणी में प्रस्तुत कर रही हैं।
पूज्य माताजी विविध विषयों पर लगभग २०० से अधिक मौलिक, अनुवाद, टीका आदि ग्रंथों का प्रणयन कर चुकी हैं और सम्प्रति वे जैन आगम के आधार ग्रंथ ‘षट्खण्डागम’ के कुल १६ में से १४ ग्रंथों पर संस्कृत टीका लिखने का कार्य पूर्ण करके शेष दो ग्रंथों की टीकाएं वर्तमान में लिखती हुई वे मानो समय के शिलाखण्ड पर अपनी कीर्ति अमिट अक्षरों में लिखने जा रही हैं।
पूज्य आर्यिकारत्न के हीरे के समान जाज्वल्यमान व्यक्तित्व का एक और तेजोमय और प्रदीप्त पहलू है जैन तीर्थंकरों और तीर्थ स्थानों के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा, समर्पण भाव, आगमनिष्ठ दृष्टि तथा उपेक्षित, विलुप्त अथवा विस्मृत वैभवशाली सांस्कृतिक विरासत/धरोहर की रक्षा करके उन्हें उनके सम्पूर्ण वैभव के साथ उजागर करने की ललक या बेचैनी।
अयोध्या, वैâलाशपर्वत इलाहाबाद, मांगीतुंगी, राजगृही और हाल ही में कुण्डलपुर (नालंदा) का पुनरुद्धार पूज्य माताजी की इसी सद्वृत्ति का परिणाम है। इन सबसे ऊपर जैन करणानुयोग ग्रंथों में वर्णित शोधपूर्ण खगोल विज्ञान ण्देस्दत्दुब् पर आधारित हस्तिनापुर की जम्बूद्वीप संरचना एवं दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान एक एकल अपूर्व प्रयास है, जो उन्हें अमर करने के लिए पर्याप्त है।
उन्होंने केवल श्रेय लेने के लिए जीर्णोद्धार/सुधार/संशोधन नहीं किए/ कराए वरन् परिपक्व मस्तिष्क से, पूर्वा-पर संतुलित विचार के पश्चात् कार्य की उपयोगिता तथा औचित्य का पूर्ण ध्यान रखते हुए एक समय में एक परियोजना को हाथ में लेकर तीर्थंकर जन्मभूमियों/कल्याणकभूमियों/सिद्धक्षेत्रों की खोई हुई प्रतिष्ठा में नवनिर्माण की प्रेरणा देकर, उनकी पुनप्र्रतिष्ठा कर महिमामण्डित किया है।
पूज्य ज्ञानमती माताजी की कार्यशैली की विशेषता है कि
वे एक समय में एक ही परियोजना को हाथ में लेती हैं, उस पर अपने स्वयं के दीर्घ अनुभव, उस क्षेत्र के विशेषज्ञों से पूर्ण परामर्श करके और अपने दृढ़ आत्मबल तथा पुष्कल प्रभावकारिता का समयोचित प्रयोग करके पूर्णता प्रदान करती हैं। उनमें कुशल संचालन क्षमता के साथ-साथ व्यक्ति के सही मूल्याकंन की क्षमता, किससे क्या काम लेना है, उस कार्य के लिए देशभर में उपयुक्त कौन व्यक्ति हो सकता है, उसे हाजिर करने और उनसे काम लेनमे की जादुई क्षमता है।
हर व्यक्ति माताजी द्वारा निर्दिष्ट कार्य को पूरे मनोयोग से पूर्ण करता है और पूज्य माताजी के प्रति पूर्ण श्रद्धापूर्वक हृदय से जुड़कर स्वयं को धन्य/उपकृत समझता है। उनके सानिध्य में एक आल्हादकारी भाव जागृत होता है, जो उनके प्रति हृदय की श्रद्धा को गहरा स्थापित कर देता है।
पूज्य ज्ञानमती माताजी के सर्वप्रथम दर्शनों का सौभाग्य मिला वर्ष १९७९ में, जब जम्बूद्वीप सुदर्शनमेरु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर देशभर के विद्वान एकत्रित हुए थे, इस महोत्सव के पूर्व १९७६ में आचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज के पावन सानिध्य में फलटण में हुए विद्वत् सम्मेलन में उनके संघस्थ ब्र. मोतीचंद जी के द्वारा पूज्य माताजी का परिचय हो चुका था, जहाँ मुझे सोनगढ़ के एकान्तवाद के विरुद्ध मेरे द्वारा किये गये मनसा वाचा कर्मणा उग्र विरोध के कारण मुझे आचार्यरत्न देशभूषण जी महाराज ने ‘‘वीर निकलंक’’ की उपाधि से अलंकृत करने की कृपा की थी।
इस कारण हस्तिनापुर में उपस्थित प्रथम पंक्ति के विद्वानों से मेरा प्रत्यक्ष परिचय भी था और उनकी आत्मीय निकटता भी प्राप्त थी। जम्बूद्वीप प्रतिष्ठा महोत्सव के समय स्वाभाविक रूप से पूज्य माताजी हर समय विद्वानों और महोत्सव के उच्च पदाधिकारियों से घिरी रहती थीं।
ऐसे ही एक समय पं. बाबूलाल जी जमादार ने मेरा परिचय उत्साही युवक के रूप में कराया। माताजी ने आशीर्वाद दिया। ठीक उसी समय लखनऊ से पधारे भक्त समूह के एक सज्जन ने उनके लिए निर्धारित आवास व्यवस्था में बिजली न होने की शिकायत की। माताजी ने मुस्कुराकर मेरी ओर देखा। मेरे लिए इतना संकेत बहुत था।
उन सज्जन को लिए-लिए मैं बाहर आया और बिजली के प्रभारी शासकीय अधिकारी से मिलकर समस्या का तत्काल समाधान करा दिया। इस प्रकार मेरे पास अघोषित रूप में बिजली का प्रभार आ गया। तब से अनेकों बार माताजी के दर्शन होते रहे।
पिछले २० दिसम्बर २००४ को तीर्थराज
शिखर जी की पांचवीं बार सपरिवार वंदना करते हुए कुण्डलपुर में गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के ससंघ दर्शनों का सौभाग्य मिला। पहले के कुण्डलपुर में आज चमत्कारी अंतर था।
कुण्डलपुर की काया ही पलट गई थी, तेजी से निर्माणकार्य चल रहा था। कुण्डलपुर के अभिनंदन ग्रंथ के संपादक मण्डल में कार्य करने हेतु माताजी के आदेशानुसार मैं कुण्डलपुर दो बार में लगभग २० दिन रहा। उस दौरान पूज्य माताजी को और अधिक निकट से देखने-समझने का सौभाग्य मिला।
मैं स्वयं ३५ वर्ष तक शासकीय सेवा में रहा हूँ और एक उच्च प्रशासकीय पद से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली है, फिर भी मैंने उनके जैसा आत्मविश्वास, कुशल नेतृत्व, वत्तृता, लेखन क्षमता, अध्ययन क्षमता, संचालन क्षमता, प्रशासनिक क्षमता, उनके जैसा दृष्टिकोण, सोच, दृढ़ निश्चय, नियमबद्धता और समयबद्धता किसी एक व्यक्ति में, एक साथ इतने गुणों का समावेश नहीं देखा।
उस पर कमाल यह कि सब कुछ शास्त्रोक्त रूप से निर्धारित निरतिचारपूर्वक मूलाचार का परिपालन करना और मानव जीवन में जैन साध्वी के लिए निर्धारित सर्वोच्च पद पर बने रहना। मैंने भी थोड़ा-बहुत लिखा-पढ़ा है लेकिन पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न, ज्ञानगंगा, पीयूषवर्षिणी ज्ञानमती माताजी के गुणों का वर्णन करते हुए हमेशा मेरे शब्द चुक जाते हैं।
एक विवशता के साथ लिखना पड़ता है-
‘‘जो देखा आँख ने उसको जुबान क्या कहती।
किसी का हाल किसी से कहा नहीं जाता।।’’
यद्यपि श्रीराम स्वयं में सम्पूर्ण हैं
किन्तु जैसे उनका आख्यान-स्मरण श्रीकृष्ण जी और श्री हनुमान जी का उल्लेख किए बिना परिपूर्ण नहीं होता, आलाप के बिना रागिनी परिपूर्णता को प्राप्त नहीं होती और अलंकार के बिना भाषा में बोधगम्यता नहीं आती, ठीक उसी तरह मेरे विचार से पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी, क्षुल्लक मोतीसागर जी और कर्मयोगी बा. ब्र.रवीन्द्र भाई जी के उल्लेख के बिना आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी का वर्णन-विवरण परिपूर्ण नहीं होता।
यह सच है कि जैन साधु एकाकी एकत्व के लिए स्वयं में लीन स्वतंत्र होता है फिर भी सांसारिक स्वरूप में उसे श्रावक और सुशील सहायक की भी आवश्यकता पड़ती है। आर्यिका श्री चंदनामती जी का जन्म ही मानो इसी स्थान की पूर्ति के लिए हुआ है। वे श्री ज्ञानमती माताजी की शिष्या, सहायिका, सहोदरा, सुहृद और सुमन्त हैं और क्षुल्लक मोतीसागर महाराज, भाई रवीन्द्र जी ज्ञान रथ के ध्वजवाहक या ज्ञान साम्राज्य की अक्षौहिणी सेना के प्रधान सेनापति हैं।
आर्यिका श्री चन्दनामती जी और भाई रवीन्द्र जी के समान सुदृढ़ दोनों किनारों के बीच ज्ञान की पावन धर्म सरिता निर्बाध, अपने अभीष्ट लक्ष्य की ओर निरंतर प्रवाहमान है। पूज्य माताजी शतायु हों और उनके श्रीमुख तथा लेखनी से निरन्तर इसी प्रकार की ज्ञान गंगा नि:सृत होकर हमारा कल्याण करती रहे, यही कामना करते हुए मैं सपरिवार उनके श्रीचरणों में वंदना करता हूँ।