‘‘यदि कल्याण की इच्छा है तो विषयों को विष के समान त्याग देना चाहिए। क्षमा, सरलता, दया, पवित्रता और सत्य को अमृत के समान ग्रहण करना चाहिए’’ इस तथ्य का बोध महाराष्ट्र प्रान्त की एक बाला को हुआ और वह आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के उपवन का एक सुरभित पुष्प बन गईं।
कु. प्रभावती का जन्म वि. सं. १९९० (सन् १९३३) फाल्गुन शु. १५ के दिन म्हसवड़ (महा.) में हुआ था, इनके पिता का नाम श्री फूलचंद जैन एवं माता का नाम श्रीमती कस्तूरी देवी था। जैैनधर्म के कर्मसिद्धान्तानुसार बालिका प्रभावती के दुर्भाग्य से पितृ एवं मातृ वियोग उन्हें बचपन में ही हो गया अत: उनका लालन-पालन मामाजी के घर पर हुआ था।
सन् १९५५ की बात है, उस समय पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी, क्षु.वीरमती माताजी के रूप में थीं और चारित्र चक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री शांतिसागर जी महाराज के सल्लेखना के समय आचार्य श्री के दर्शनार्थ क्षु. विशालमती माताजी के साथ दक्षिण भारत में विहार कर रही थीं, उन्होंने म्हसवड़ में चातुर्मास किया।
उस चातुर्मास के मध्य अनेक बालिकाएँ पूज्य माताजी से कातंत्र व्याकरण, द्रव्य संग्रह, तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों का अध्ययन कर रही थीं और उन्हीं बालिकाओं में वह २२ वर्षीया बालिका कु. प्रभावती भी थी।
माताजी ने उसके मनोभावों को जानकर अपने वात्सल्य के प्रभाव से कु. प्रभावती को त्यागमार्ग के प्रति आकर्षित किया और सन् १९५५ की दीपावली की पावन तिथि में वीरप्रभु के निर्वाणदिवस पर उन्हें आजीवन ब्रह्मचर्य एवं १०वीं प्रतिमा का व्रत दे दिया।
वास्तव में गुरु का सानिध्य एवं वात्सल्य जीवन को मात्र सुवासित ही नहीं करता अपितु उसे परमपूज्य भी बना देता है। इस विषय में एक दोहा बड़ा प्रसिद्ध है-
गुरु प्रजापति सारिखा, घड़-घड़ काढ़े खोट।
भीतर से रक्षा करे, ऊपर मारे चोट।।
जिस प्रकार कुम्हार मिट्टी के बर्तन बनाता है तो वह मटके पर चोट मारता है लेकिन भीतर में दूसरे हाथ से सहारा भी रखता है, उसी प्रकार गुरु भी एक-एक दोष निकालने के लिए ऊपर से भले ही कठोरता दिखाए पर भीतर में वात्सल्य एवं अपनत्व होता है, जो शिष्य को कुन्दन बनाकर चमका देता है, यही हुआ उस बालिका प्रभावती के साथ।
संघ में यद्यपि न्याय, व्याकरण आदि ग्रंथों का पठन-पाठन बहुत ही अल्प मात्रा में होता था फिर भी न्याय ग्रंथों की परम्परा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी को न्याय ग्रंथों के पठन-पाठन से बड़ा ही प्रेम रहा है अत: वे अपनी सभी शिष्याओं को न्याय के परीक्षामुख से लेकर अष्टसहस्री आदि उच्चतम ग्रंथों का एवंं कातंत्र व्याकरण, जैनेन्द्र प्रक्रिया आदि का अध्ययन कराती थीं। क्षु. जिनमती माताजी ने श्रावक के व्रतों का परिपालन करते हुए पूज्य माताजी से क्रमश: न्याय, व्याकरण और सैद्धान्तिक ग्रंथों का अध्ययन किया और अपनी कुशाग्रबुद्धि के कारण परम विदुषी हो गई ।
ज्ञान और चारित्र की बढ़ती धारा ने महाव्रत धारण की क्षमता उत्पन्न कर दी, परिणामस्वरूप वि. सं. २०१६ (सन् १९६१) कार्तिक शु. ४ के दिन सीकर (राज.) के मनोरम समारोह में आचार्यश्री शिवसागर महाराज से जिनमती माताजी ने आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। आर्यिका श्री जिनमती माताजी प्रारंभ से ही निरन्तर पूज्य माताजी के सानिध्य में ज्ञानार्जन करती रहीं, सन् १९६२ में पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने सम्मेदशिखर यात्रा के लिए गुरु आज्ञा से संघ से अलग प्रस्थान किया, तब उनके साथ आर्यिका श्री पद्मावती माताजी, आर्यिका श्री जिनमती माताजी, आर्यिका श्री आदिमती माताजी एवं क्षुल्लिका श्री श्रेयांसमती माताजी थीं। पूज्य माताजी में यह विशेषता रही है कि यात्रा के प्रवास में भी अपनी शिष्याओं को सदैव अध्ययन में व्यस्त रखती हैं, उस समय भी वह अपनी शिष्याओं को सदा व्यस्त रखती थीं।
१९७० में जब पूज्य माताजी अष्टसहस्री का अनुवाद कर रही थीं, उस समय उन्होंने जिनमती माताजी को प्रमेयकमल मार्तण्ड का अनुवाद करने की प्रेरणा प्रदान की, वे प्रतिदिन अनुवाद करके प्राय: दिखाती रहती थीं। उन्होंने उस अनुवाद को पूर्ण कर माताजी के करकमलों में समर्पित किया। उस समय माताजी बहुत ही प्रसन्न हुर्इं।
इस प्रकार आर्यिका जिनमती माताजी ने १६ वर्ष तक निरन्तर पूज्य माताजी की छत्रछाया में रहकर सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपी निधि को प्राप्त किया है। वास्तव में कोई माता तो केवल जन्म ही प्रदान करती है लेकिन पूज्य गणिनी माताजी ने अपनी सभी शिष्याओं को घर से निकालकर उनको केवल चारित्र पथ पर ही नहीं आरूढ़ किया बल्कि उनके ज्ञान का पूर्ण विकास करके निष्णात बनाया है।
कई बार जिनमती माताजी स्वयं भी कहा करती थीं कि गर्भाधान क्रिया से न्यून ज्ञानमती माताजी ही हमारी सच्ची माता और पिता हैं, इनके मेरे ऊपर बहुत ही उपकार हैं। माता की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने तो यहाँ तक कह दिया कि भगवान भी माता के समान हैं।
‘‘मातेव बालस्य हितानुशास्ता’’ भगवन्! आप माता के समान बालकों के लिए हित का अनुशासन करने वाले हैं, वास्तव में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में हाथ पकड़कर लगाने वाले गुरु ही सच्ची माता होते हैं।
पूज्य आर्यिका श्री जिनमती माताजी सदैव
पूज्य ज्ञानमती माताजी को ही अपना मूल गुरु मानती थीं, उनकी प्रेरणा से जहाँ उन्होंने ‘प्रमेयकमल मार्तण्ड’ ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद किया, वहीं पूर्व में दी गई प्रेरणा के आधार पर आगे जाकर सन् १९८८-८९ में मरणकण्डिका का भी अनुवाद किया। भगवती आराधना ग्रंथ की गाथाओं के आधार से श्री अमितगति आचार्य द्वारा रचित संस्कृत श्लोकों की भी हिंदी की है।
जिसे कि गणिनी माताजी ने ‘भगवती आराधना सार’ के नाम से उन्हें अनुवाद करने की प्रेरणा दी थी तथा अन्य कतिपय पुस्तकों का लेखन भी किया है। सन् १९८५ में राजस्थान से वे पुन: अपनी गुरु पूज्य माताजी के दर्शनार्थ हस्तिनापुर पधारीं और एक निश्छल बालक की भाँति अनेक वर्षों का अपना सुख-दु:ख माँ से कहकर मन शांत किया, कई प्रायश्चित्त ग्रहण किये तथा माताजी की वैयावृत्ति अपने हाथों से करते हुए हार्दिक संतोष एवं प्रसन्नता का अनुभव किया।
सन १९९६ में जब पूज्य ज्ञानमती माताजी संघ सहित मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र की ओर जा रही थीं तब ३ फरवरी को राजस्थान के ‘इन्द्रगढ़’ नगर में सूचना मिली कि महाराष्ट्र के ‘सांगली’ नगर में ३१ जनवरी १९९६ को जिनमती माताजी की रक्तक्षय के कारण कमजोरी अधिक आ जाने से विधिवत् समाधि हो गई है। सुनकर माताजी को दु:ख होना स्वाभाविक था किन्तु तत्त्वज्ञान से चिन्तन करके वैराग्य भावना भाई और अपनी शिष्या के कुछ संस्मरण हम लोगों को सुनाकर गुरु-शिष्य का महत्त्व समझाया। उन आर्यिका श्री जिनमती माताजी के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करती हूँ।