अब वह समय तो बीत गया, जब हमारे बुजुर्ग अपने होनहार बालकों को मोरेना, वाराणसी, सागर, हस्तिनापुर आदि स्थानों पर स्थापित जैन संस्कृत गुरुकुलों में भेजकर वहाँ से उन्हें विद्वान् बनकर निकलते देखना पसंद करते थे। पूज्य श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी, पण्डित गोपालदास जी वरैया, महात्मा भगवानदीन जी आदि के प्रयत्नों से जैन विद्याध्ययन के प्रति आई जागृति आज सुषुप्ति के कगार पर है।
संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार बसाने की प्रवृत्ति के बढ़ने, जैन श्रावकों के गाँवों को छोड़कर प्राय: शहरों में बस जाने तथा भौतिकता की आँधी में लोगों के अत्यधिक सुविधाभोगी हो जाने से इन दिनों अर्थकारी विद्यार्जन के प्रति आकर्षण बढ़ा है तथा जैन विद्या के केन्द्र सिकुड़ते जा रहे हैं।
ऐसी स्थिति में स्वाध्याय एवं साधु-संगति ही एक मात्र ऐसे माध्यम हैं, जिनकी शरण में रहकर भव्य एवं जैन तत्त्वजिज्ञासु जीव भवतरणी विद्या का ज्ञान प्राप्त कर आत्म कल्याण कर सकते हैं। ऐसे जिज्ञासुओं की संख्या भी आज अत्यल्प है, यह भी एक तथ्य है।
महामनीषी कौटिल्य ने अपने
एक शतक में लिखा है कि शास्त्र अनन्त और विद्यायें अनेकानेक हैं, किन्तु मनुष्य के पास समय का अभाव है। अपनी लौकिक व्यस्तताओं के चलते यदि ध्यानाध्ययन के लिए वह थोड़ा-सा भी समय निकाल पाता है तो उसमें भी बीमारियों, मुकदमों और प्रतिकूल संयोगों की बाधाएं आती रहती हैं।
ऐसी स्थिति में तत्त्व जिज्ञासुओं के सामने एक समस्या यह रहती है कि वे क्या और कितना पढ़ें? कौटिल्य ने ऐसे जिज्ञासुओं को परामर्श देते हुए कहा है-‘यत्सारभूतं तदुपासनीयम्’ अर्थात् जो सारभूत है, उसे जानें-पढ़ें और उसी की उपासना करें। विदुषी गणिनी आर्यिका पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने अपनी लेखनीरूपी मथानी से चतुरनुयोग-विभक्त विशाल शास्त्र-समुद्र के मंथन द्वारा ज्ञानामृत निकालकर ग्रंथ रूप कलश में भरकर जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत किया है, जिसका आचमन कर वे जैन विद्या के सार को सहजता से हृदयंगम कर सकते हैं।
‘ज्ञानामृत’ ग्रंथ में पूज्य माताजी ने जैनाध्यात्म एवं जैनागम से संबंधित २५ शीर्षकों के साथ जैन विद्या का सार संक्षेप जैन वाङ्मय के ४२ ग्रंथों के आधार पर प्रस्तुत किया है। इस कृति में जैन वाङ्मय का सार समाहित है, यह कहना उपयुक्त ही होगा। किसी विषय-वस्तु की विस्तारपूर्वक प्रस्तुति की तुलना में उसे संक्षेप में लिखना एक कठिन एवं श्रमसाध्य अनुष्ठान है। चिट्ठी तो कोई अल्पज्ञानी भी लिख सकता है, किन्तु तार की भाषा सामान्य लोग नहीं लिख पाते हैं।
तार लिखवाने के लिए अभ्यस्त लोगों का सहारा लेना पड़ता है। ज्ञान के विशेष क्षयोपशम एवं वण्र्य विषय पर पूर्ण अधिकार के बिना संक्षेप में लिखना संभव नहीं है। पूज्य माताजी की प्रबल तर्वणा शक्ति एवं विलक्षण प्रतिभा के मेल से प्रसूत यह तत्त्व जिज्ञासुओं के लिए कितना उपयोगी है, इसका निर्णय इसको पढ़कर कोई भी कर सकता है।
पूज्य आचार्य माणिक्यनन्दी ने लिखा है कि
जैन सिद्धान्त ग्रंथों में वर्णित सूक्ष्म तत्त्वों के सम्यक् परिशीलन के लिए दस जन्मों तक जैन वाङ्मय का स्वाध्याय करते रहने के बाद भी विरले पुण्यशाली जीव ही ‘हिताहितप्राप्ति-परिहार’ में समर्थ हो पाते हैं। इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के विछोह में बुद्धि को लिप्त न करने वाले ही जिनशासन के रहस्य को समझ सकते हैंं।
यहाँ हम अपने अनुभव से यह कह सकते हैं कि जो भव्य जीव विनयपूर्वक इस ज्ञानामृत का पारायण करेगा, उसकी बुद्धि में ‘स्वोपकारपरो भव’ की प्रशस्त प्रेरणा आए बिना नहीं रहेगी। गागर में सागर को समेटे हुए यह ग्रंथ घर-घर में स्वाध्याय-पीठिका पर विराजमान करने योग्य है।
श्री मज्जिनेन्द्रदेव के दिव्य उपदेश में निहित विविध प्रमेयों को सरल एवं बोधगम्य भाषा में व्याख्यायित करने वाली इस कृति का हम यहाँ एक संक्षिप्त अनुशीलन प्रस्तुत कर रहे हैं- जैनों के लिए णमोकार महामंत्र कल्पतरु के समान है। जो लोग सुख पाना चाहते हैं, उन्हें सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते और खाते-पीते निरन्तर इस मंत्र का भावपूर्वक स्मरण करते रहना चाहिए।
वीतरागता एवं निस्पृहता के प्रतीक पंच परम पद को छोड़कर शेष सब अपद हैं, इस सूत्र को पकड़कर भव्य जीव आत्म-अनात्म तत्त्व में भेद करना सीख जाते हैं। इस मंत्र के पैंतीस अक्षरों में जैनशासन का सार विद्यमान है। सात तत्त्व, नव पदार्थ, रत्नत्रय, गुणस्थान, मार्गणा, अणुव्रत-महाव्रत, कर्म प्रकृतियों आदि का पूरा-पूरा आगमिक चिन्तन इस ग्रंथ में समाहित है।
इस विषय पर प्रस्तुत कृति के ‘णमोकार मंत्र का अर्थ’ शीर्षक आलेख से यथेष्ट जानकारी प्राप्त की जा सकती है। सिद्धों से पूर्व अर्हन्तों को नमस्कार क्यों किया जाता है, इसकी बुद्धि सम्मत व्याख्या विशेषरूप से पठनीय है।
जैनागम में हमारे आचार्यों ने सागार एवं
अनगार रूप द्विविध धर्म का विस्तार से विवेचन किया है। सागार अर्थात् गृहस्थ के कर्तव्यों पर आचार्य पद्मनन्दि, समन्तभद्र, गुणभद्र आदि ने अच्छा प्रकाश डाला है। पण्डित आशाधर जी द्वारा रचित ‘सागारधर्मामृत’ को श्रावकों की आचार-संहिता ही कहा जा सकता है। गौतम स्वामी-प्रणीत प्रतिक्रमण सूत्र भी सभी के लिए मार्गदर्शक हैं।
पुराणों के स्वाध्याय से एक आदर्श श्रावक के स्वरूप को समझने में पर्याप्त सहायता मिलती है। एक सद्गृहस्थ की चर्या में अष्ट मूलगुण, षडावश्यक क्रियाओं, बारह भावनाओं, बारह व्रतों, दान आदि का बड़ा महत्व है। सप्त व्यसन-त्यागपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करने वाले सद्गृहस्थ को सन्त तिरुवल्लवर ने ‘पूतात्मा सा ऋषेरपि’ कहकर महिमा-मण्डित किया है। आचार्य पद्मनन्दि ने भी ‘पूज्यं तद् गार्हस्थ्यं’ कहकर उसकी प्रशंसा की है।
प्रस्तुत ‘ज्ञानामृत’ ग्रंथ में विविध आचार्यों द्वारा वर्णित श्रावकाचार का सार गृहस्थ धर्म, उपासक धर्म, दान, सुदं मे आउस्सन्तो, जैनधर्म आदि शीर्षक आलेखों में प्रस्तुत किया गया है। जिन सुधी श्रावकों के पास विविध ग्रंथों के स्वाध्याय के लिए समय का अभाव है, उनके लिए यह कृति एक सरल एवं सुवाच्य कुंजी के समान है।
एक आदर्श श्रावक में श्रद्धा, विवेक और आचरण का संगम दृष्टिगत होना चाहिए। इस तरह के संगम से ही सदाचारी नागरिक बनने का मार्ग प्रशस्त होगा। यह ग्रंथ किसी भी गृहस्थ का इस दिशा में यथेष्ट मार्गदर्शन करने में समर्थ सिद्ध होगा। इसमें हमें संदेह नहीं है।
श्रावक धर्म से भी यति या अनगार धर्म श्रेष्ठ है
यति या साधु एक सद्गृहस्थ के लिए आदर्श होते हैं। इसीलिए आचार्य अमृतचन्द्र जी ने सर्वप्रथम उच्च वीतराग साधु धर्म का उपदेश करने का निर्देश दिया है। जिन पुरुषों में सामथ्र्य है, उन्हें मुनि बनकर अपना आत्मकल्याण करना चाहिए, किन्तु किसी कारण से-कर्मोदयवश या शक्ति की न्यूनता से यदि कोई मुनि बनने का संकल्प नहीं जुटा पाए तो उसके लिए घर में रहकर सागार धर्म का पालन करना ही इष्ट है। पण्डित आशाधर जी ने लिखा है कि सज्जन पुरुषों को दीक्षा के लिए प्रेरित करो।
जिस प्रकार वंश चलाने के लिए पुत्र को गोद लेते हैं, उसी प्रकार समाज के सम्यक् संचालन के लिए साधु बनाइए। प्रस्तुत ज्ञानामृत ग्रंथ में मुनिचर्या एवं आर्यिकाचर्या शीर्षक आलेखों में मूलाचार में वर्णित श्रमणाचार का दिग्दर्शन कराया गया है। मुनियों और आर्यिकाओं की समाचारी विधि को लेकर उठने वाली शंकाओं का शास्त्रोक्त समाधान भ्रम-निवारण में सहायक है। इस कृति को पढ़कर किसी का इस भव में मुनि बनने का भाव बने या न बने, पर मुनियों के प्रति श्रद्धा का भाव अवश्य जागृत होगा और श्रद्धाभाव से जीव एक दिन अजर-अमर बन जाता है, ऐसा आगम का मत है।
‘सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं’ के अनुसार जिनेन्द्र कथित सूत्र सम्यग्दर्शन में निमित्त हैं और इस सम्यग्दर्शन को धर्म का मूल कहा गया है। दर्शन-भ्रष्ट निर्वाण को प्राप्त नहीं हो सकता। चरित्र-भ्रष्ट तो एक बार सुलट भी सकता है, किन्तु दर्शन-भ्रष्ट के सुलटने का कोई उपाय नहीं है। श्रावक या मुनि के ज्ञान और चारित्र यदि सम्यक्त्व सहित हों तो वह भव-सन्तति को छेदने की सामथ्र्य रखते हैं। ‘सम्यक्त्व सार’ शीर्षक आलेख में पूज्य माताजी ने ठीक ही लिखा है-‘सम्यक्त्व ज्योति आत्मा के स्वभाव को प्रकट कर समस्त परभाव को आत्मा से जुदा दिखलाने वाला एक अमूल्य और अलौकिक पारदर्शक यंत्र है।’
प्रस्तुत अध्याय में दस प्रकार के सम्यक्त्व की चर्चा करते हुए वर्तमान दु:षम काल में द्वादशांग श्रुत के उपलब्ध न होने से अन्त के चार प्रकार के विस्तार, अर्थ, अवगाढ़ और परमावगाढ़ सम्यक्त्व तो नहीं होते, किन्तु आज्ञा समुद्भव, मार्ग समुद्भव, उपदेश समुद्भव आदि छह प्रकार के सम्यक्त्व हो सकते हैं, यह बताया गया है।
कुछ लोगों की धारणा है कि यह सम्यक्त्व केवल समयसार आदि अध्यात्म ग्रंथों के पढ़ने से ही होता है, अन्य अनुयोगों का स्वाध्याय उसमें सहायक नहीं है। इस कृति में युक्ति और आगम से यह सिद्ध किया गया है कि यह धारणा सही नहीं है। भव्य जीव को चारों ही अनुयोगों का स्वाध्याय करना चाहिए।
समयसार जैनाध्यात्म का सिरमौर ग्रंथ है,
किन्तु नय एवं गुणस्थान-विवक्षा का समीचीन ज्ञान न होने से अर्थ का अनर्थ होने की संभावना रहती है। पण्डित-प्रवर बनारसीदास जैसे सुधी व्यक्ति भी पाण्डे राजमल्ल जी की समयसार की टीका को पढ़कर इसी कारण सोलह वर्षों तक भ्रमित रहे और यह मान बैठे कि एक द्रव्य दूसरे का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता।
एकान्त मिथ्यात्व के भँवर में पँâसकर वह पूर्व में लिए अपने नियमों को छोड़ बैठे। अपनी आत्मकथा ‘अर्ध कथानक’ में अपनी इस भूल का उन्होंने विस्तार से वर्णन किया है। ऐसी भूल से बचने के लिए इस ग्रंथ का ‘समयसार का सार’ शीर्षक आलेख आँख खोलने वाला है। इसे पढ़कर समयसार का स्वाध्याय करने वाले भटकेगे नहीं।
यह आलेख एक महत्वपूर्ण निर्देशिका के समान है। सप्त परमस्थान, गतियों के आने-जाने के द्वार, जीव के स्वतत्त्व, चारित्र प्राभृतसार, बोध प्राभृतसार, त्रलोक विज्ञान, अलौकिक गणित आदि आलेख जैनधर्म के मर्म एवं गूढ़-गंभीर रहस्य का उद्घाटन करने वाले हैं। हम अधिक विस्तार में न जाते हुए मात्र यह कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार डाक्टरों के लिए ‘मेटेरिया मीडिका’ की और वकीलों के लिए ‘इण्डियन पिनल कोड’ की उपयोगिता है, उसी प्रकार यह ‘ज्ञानामृत’ ग्रंथ धर्म-जिज्ञासुओं के लिए उपयोगी है।
सुधीजनों को इसका स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए, इस अनुशंसा के साथ हम प्रस्तुत अनुशीलन को विराम दे रहे हैं।