जैनभारती परमपूज्या गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने जैन साहित्य को समृद्ध करने हेतु विविध प्रकार के साहित्य का सृजन किया है। अनेक महान ग्रंथों की टीकाएँ लिखी हैं तो अनेक विधान, पूजा, कथा साहित्य एवं क्लिष्ट व्याकरण विषयक ग्रंथों की रचना विवेचना की है। उनका उद्देश्य कठिन विषयों को सरल भाषा में प्रस्तुत कर जैन साहित्य को जन साहित्य के रूप में प्रस्तुत करने का रहा है। इसी शृंखला में जैनभारती ग्रंथ की रचना की गई है।
इस कृति में एक ही स्थान पर चारों अनुयोगों को सार रूप में प्रस्तुत किया गया है। पूरा ग्रंथ पढ़ने के पश्चात् लगता है जैसे अब अन्य कुछ पढ़ना बाकी ही नहीं रह गया है। यह ग्रंथ चारों अनुयोगों का सार भूत गं्रथ है। संपूर्ण जैन विद्याओं का समावेश होने से इसका नाम जैनभारती रखा है, जो सार्थक है। मूलत: गणधर देव ने श्रुतरूप जितना भी ज्ञान निबद्ध किया है, वही द्वादशांग रूप में आगम के रूप में विद्यमान है।
भगवान महावीर की वाणी के विवेचक गणधर देव के पश्चात् इसके पूर्ण ज्ञाता अंतिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु आचार्य हुए। उत्तरोत्तर यह ज्ञान घटता गया। श्री धरसेनाचार्य को १२वें दृष्टिवाद अंग के अग्रायणीय नामक द्वितीयपूर्व का ज्ञान था। उन्होंने श्रुत विच्छेद के भविष्य को ज्ञात कर वह ज्ञान पुष्पदंत व भूतबली को दिया जिससे षट्खंडागम की रचना हुई, उसी तरह श्री गुणधर आचार्य को पाँचवे ज्ञान प्रवाद पूर्व की दसवीं वस्तु का ज्ञान था।
जो ‘कषायपाहुड़सुत्त’ के नाम से ग्रंथबद्ध है। इन्हीं सिद्धान्त सूत्रों पर धवला व जयधवला नामक टीकाएँ हुई। इसी परम्परा में कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वामी, समंतभद्र, पूज्यपाद, अकलंकदेव आदि आचार्यों ने प्रमाणभूत ग्रंथों की रचना की। इन आचार्यों की प्रमाणिक वाणी वास्तव में भगवान की ही वाणी है।
जैनदर्शन में कहा है-‘जो न्यूनतम, अधिकता से रहित हैं, विपरीत नहीं है। संदेह रहित हैं, ऐसे वचनों को जैनाचार्य वेद कहते हैं। इन्हें प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग ऐसे चार अनुयोग या वेद माना है।’’ जैनभारती में इन्हीं चार वेदों का समन्वित स्वरूप है। कृति में क्रम से चारों अनुयोगों के विषय का प्रस्तुतिकरण किया गया है।
प्रथमानुयोग
सर्वप्रथम प्रथमानुयोग को समझाते हुए लिखा है-
‘‘प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम्।
बोधि समाधि निधानं बोधति बोध: समीचीन:।।’’
अर्थात् जो शास्त्र परमार्थ के विषयभूत धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष पुरुषार्थ का कथन करते हैं, एक पुरुष के आश्रित कथा को, त्रेषठ शलाका पुरुषों के चारित्र को तथा पुण्यास्रव करने वाली कथाओं को कहता है और बोधि रत्नत्रय, समाधि-ध्यान का निधान-कोष है, ऐसे प्रथमानुयोग रूप शास्त्रों को सम्यग्ज्ञान जानता है अर्थात् जिसमें चार पुरुषार्थ और महापुरुषों के चारित्र का वर्णन हो वह प्रथमानुयोग है।
इसे पढ़ने से पुण्यास्रव-रत्नत्रय की प्राप्ति और समाधि की सिद्धि होती है। इस प्रथम श्लोक की व्याख्या में ही स्पष्ट हो गया है कि इस प्रथमानुयोग के अन्तर्गत ६३ शलाका पुरुषों का चरित्र प्रस्तुत है, जो इस तथ्य का द्योतक है कि ऐसे पुरुषों की जीवनी पुण्यास्रव का कारण बनती है। ऐसे पथ पर चलकर ही मोक्ष का अंतिम पुरुषार्थ सिद्ध हो सकता है।
हम भी इन महापुरुषों जैसे बनें, ऐसी प्रेरणा मिलती है। इससे हमारे ज्ञान में वृद्धि व उत्तम चारित्र धारण की भावना प्रबल होती है। कृति में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करते हुए ‘जिन’ शब्द की व्युत्पत्ति उस मार्ग के प्रणेता जिनराज हैं। उनके द्वारा प्रशस्त मार्ग जैनधर्म है। उनकी दिव्यध्वनि ही जिनवाणी-जिनागम या जिनभारती है।
इससे यह भी बोध हुआ कि इस जैनभारती का प्रतिपाद्य जिनेश्वर की दिव्यध्वनि का ही प्रतिबिंब है। जैनधर्म अनादिनिधन धर्म है। यह विश्व भी अनादि निधन है। जैनाचार्यों ने इस रचना को स्वयं सिद्ध माना है। कृति में सर्वप्रथम सृष्टि के क्रम को जैन वैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है।
इस आर्यखण्ड में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी ऐसे दो काल विभाग हैं, जो मनुष्य या सृष्टि के उत्कर्ष और उपकर्ष को दर्शाते हैं। आचार्यों ने इसी अवसर्पिणी काल के ६ भेद करते हुए उसके सुख के क्रमिक ह्रास और सुख के क्रमिक विकास को प्रस्तुत करते हुए उन्हें सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा एवं अति दुषमा नाम दिए हैं।
इसके विपरीत क्रम उत्सर्पिणी काल के होते हैं। इसमें प्रथमकाल चार कोड़ा-कोड़ी सागर, द्वितीयकाल तीन कोड़ा-कोड़ीसागर, तृतीय काल दो कोड़ा-कोड़ी सागर, चतुर्थ काल ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ीसागर, पंचमकाल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण और छठाकाल भी इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है।
कृति में कालपरिवर्तन के साथ प्रथमकाल की भूमि, मौसम, वृक्ष, समूह की स्थिति, मनुष्य का शरीर, आयु, जीवन शैली, शरीर में स्थित हड्डियों, शक्ति, देह सौन्दर्य आदि का वर्णन किया गया है। इस प्रथम काल में सबकुछ उत्तम ही है। इस काल में असंज्ञी जीव, जाति विरोधी जीव भी नहीं होते। गर्मी-सर्दी, अंधकार और रात-दिन का भेद नहीं होता एवं परस्त्रीहरण, परधन हरण आदि व्यसन नहीं होते ।
इस काल में १० प्रकार के कल्पवृक्षों का बाहुल्य होता है। मनुष्य भोगभूमियों के सुख भोगते हैं। यहाँ वे ही जीव उत्पन्न होते हैं ‘जिन्होंने पूर्व भव में मनुष्य आयु को बांध लिया है और पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है, ऐसे कितने ही सम्यग्दृष्टि पुरुष भी भोगभूमि में जन्म लेते हैं। इसी प्रसंग में भोगभूमि के उत्पत्ति स्थान, युगल वृद्धि आदि का वर्णन है। द्वितीय काल में घटती आयु, संहनन का वर्णन है।
मनुष्य का आहार तीसरे दिन मात्र बहेड़ा के बराबर होने लगता है। यद्यपि यहाँ सुख की हानि है पर वह अत्यधिक नहीं है। तृतीयकाल में मनुष्य की ऊँचाई, बल, बुद्धि, आयु, तेज उत्तरोत्तर घटने लगते हैं। यद्यपि शरीर समचतुरस्र संस्थान से युक्त होता है। एकदिन के अन्तराल में एक आंवले बराबर आहार लेते हैं। अन्य सुख सुषमा-सुषमा जैसे ही होते हैैं। इसी तृतीयकाल में कुलकरों की उत्पत्ति होती है।
इसमें आयु, बल, ऋद्धि, अवगाहना और तेज घटते-घटते जब तृतीयकाल में पल्योपम के आठवें भाग मात्र काल शेष रह जाता है। तब कुलकरों की उत्पत्ति का प्रारंभ होता है। इस काल में प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमवंâर कुलकर हुए। इस काल में यदि किसी से अपराध हो जाता तो हाय! बुरा किया इतना ही कहना पर्याप्त था।
पश्चात् सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वान्, अभिचंद्र इन कुलकरों के समय अपराध करने पर ‘अब ऐसा मत करना’ शब्दों को बढ़ाकर खेद प्रकाशक शब्द कहे जाते थे। पश्चात्-चन्द्रमा, मरुदेव, प्रसेनजित एवं नाभिराज चौदहवें कुलकर में प्रत्येक कुलकर की आयु उनके काल में हुए सृष्टि में परिवर्तन, नवीन बोध आदि का वर्णन, दंडव्यवस्था का वर्णन किया गया है।
मनुष्य जन्म में होने वाले परिवर्तनों को दर्शाया है। अंतिम कुलकर नाभिराज के समय में बालकों के नाभि नाल को काटने का वर्णन मिलता है। इस समय में कल्पवृक्ष नष्ट हो गये, बादल गरजने लगे, वर्षा होने लगी, वनस्पतियाँ उगने लगीं। इन सबसे अनजान लोगों को नाभिराय ने भोजन आदि का ज्ञान दिया-आजीविका के साधन समझाए।
इसी शृंखला में नाभिराज कुलकर के पश्चात् भरतक्षेत्र में ६३ शलाका पुरुष उत्पन्न होने लगते हैं, जिनमें २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण होते हैं।
इन कुलकरों के समय में भी ११वें से लेकर शेष कुलकरों ने ‘हा’, ‘मा’, ‘धिक’ इन तीन दण्डों की व्यवस्था की थी अर्थात् खेद हैं-‘अब ऐसा नहीं करना’, ‘तुम्हें धिक्कार है जो रोकने पर भी अपराध करते हो।’ जब चक्रवर्ती भरत के समय तक अपराधों में वृद्धि हुई तो वध, बंधन, शारीरिक दंड की व्यवस्था हुई। कृति में इन त्रेसठ शलाका पुरुषों के नाम प्रस्तुत किए गए हैं। जिनमें-
(३) ९ बलभद्र-विचल, अचल, सुधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नंदी, नंदिमित्र, रामचंद्र और बलदेव।
(४) ९ नारायण-त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुण्डरीक, नारायण (लक्ष्मण) और श्रीकृष्ण।
(५) ९ प्रतिनारायण-अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुवैâटभ, नि:शुंभ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासंघ।
इसी तृतीयकाल में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए। जब तृतीयकाल में चौरासीलाख वर्ष पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ माह प्रमाण काल शेष रह गया तब अंतिम कुलकर महाराजा नाभिराज की महारानी मरुदेवी ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को जन्म दिया। इन्होंने प्रजा को षट् क्रियाएं सिखाई, विवाह विधि, राजव्यवस्था आदि का प्रारंभ किया। भगवान ऋषभदेव के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष साढ़े आठ माह व्यतीत होने पर दुषमा-सुषमा चतुर्थकाल प्रारंभ हुआ।
भगवान ऋषभनाथ के पश्चात् कितने वर्ष के बाद द्वितीय तीर्थंकर से २३ वें तीर्थंकर तक के जन्म वर्षों को बताया गया है। भगवान पाश्र्वनाथ के २५० वर्षों के पश्चात् वीर भगवान सिद्ध हुए उस समय पंचमकाल के प्रवेश होने में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष थे। पंचमकाल भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद प्रारंभ हुआ तदनुसार आयु-संहनन अल्प होने लगा।
भगवान महावीर के पश्चात् धर्मतीर्थ परम्परा का प्रारंभ हुआ। केवली परम्परा जंबूस्वामी तक चली है। इसी परम्परा में नंदि, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन व भद्रबाहु श्रुतकेवली हुए जिनका काल १०० वर्ष प्रमाण है। पश्चात्-दशपूर्वी आचार्य हुए जिनका १८३ वर्ष प्रमाण काल है। इसके बाद ११ अंगधारी, आचारांगधारी, सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु एवं लोहाचार्य हुए। यह धर्मतीर्थ पंचमकाल के अंत तक चलेगा।
उपरोक्त आचारांग धारी तक ६८३ वर्ष का काल गया, शेष २०३१७ वर्ष तक इस काल में धर्म चलेगा। ग्रंथ में कल्की का जन्म-कार्य व भगवान महावीर के निर्वाण से इस कल्की का काल १२ हजार वर्ष माना गया है। श्री वीरप्रभु के निर्वाण जाने के बाद छ: सौ पाँच वर्ष और पाँच माह व्यतीत हो जाने पर ‘विक्रम’ नामक शकराजा हुआ। उसके बाद ३९४ वर्ष ७ माह बीतने पर प्रथम कल्की उत्पन्न हुआ था। कल्की ने अपना पापरूप प्रकट किया और मुनि आहार में से प्रथम ग्रास शुल्क रूप में मांगने लगा।
जिससे मुनि अन्तराय मानकर निराहार रह जाते। यद्यपि असुरदेव उस कल्की को मार डालते हैं। उसके पुत्र द्वारा रक्षा की याचना करने पर ‘धर्मपूर्वक राज्य करने की शिक्षा देकर उसे छोड़ देते हैं। पर २ वर्षों के बाद ही वही हीनता की ओर प्रवृत्ति बढ़ती है।
’ इस प्रकार एक हजार वर्षों के पश्चात् पृथक्-पृथक् एक-एक कल्की तथा पाँच सौ वर्षों के पश्चात् एक-एक उपकल्की होता है और पापोदय से अनेक प्रकार के पीड़ित मनुष्य दिखाई देने लगते हैं। इस प्रकार से दुषमा काल में धर्म-आयु-ऊँचाई कम होती जाती है और अंत में विषम स्वभावी २१वाँ कल्की उत्पन्न होता है। उस समय सिर्पâ एक मुनि ‘वीरांगज’ एक आर्यिका ‘सर्वश्री’ तथा ‘अग्निदत्त व पंगु श्री’ श्रावक-श्राविका रहेंगे। उन पर भी इस कल्की का अत्याचार होगा।
वे मुनि अवधिज्ञान से ३ दिन की आयु शेष जानकर चारों समाधिमरण ग्रहण करेंगे। पश्चात् इस कल्की का भी अंत हो जायेगा। इस घटना के ३ वर्ष ८ माह और १ पक्ष के अनन्तर विषम छठाकाल आयेगा। धर्म-आयु-ऊँचाई सभी ह्रास की चरमसीमा पर होंगे। लोग कुरूप, बौने, नंगे, मूर्ख होंगे। इस काल में नरक व तिर्यंचगति से आने वाले जीव जन्म लेंगे और जब इस काल के ४९ दिन कम २१ हजार वर्ष बीत जायेंगे तब घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होगा। सातदिन तक घोर प्रलयंकारी आंधी चलेगी जिसमें अत्यंत शीतलजल, क्षारजल, विष, धुंआ, धूलि, वङ्का एवं जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य अग्निज्वाला बरसेगी।
यह ७ प्रकार की वर्षा कुल ४९ दिन होगी। जिससे पृथ्वी एक योजन भाग नीचे तक नष्ट हो जाती है। इसी क्रम में पुन: उत्सर्पिणी काल का क्रम प्रारंभ होता है, जिसमें धर्म, मनुष्य की आयु, कद-संहनन वृद्धिंगत होते जाते हैं। ये दोनों प्रकार के काल परिवर्तन भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के आर्यखंडों में अनन्तानंत होते हैं। ‘असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुंडावसर्पिणी आती है।
उसके चिन्ह इस प्रकार होते हैं-इस काल के भीतर सुषमा-दुषमा नामक तृतीय काल की स्थिति में कुल काल अवशिष्ट रहने पर भी वर्षादि होने लगती है। विकलेन्द्रिय जीव उत्पन्न होने लगते हैं। कल्पवृक्षों का अंत व कर्मभूमि का व्यापार प्रारंभ होने लगता है। इसी काल में प्रथम तीर्थंकर व प्रथम चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं। इस कालदोष के कारण चक्रवर्ती का विजयभंग होता है।
उसके द्वारा ब्राह्मणवर्र्ण की उत्पत्ति होती है। इस काल में ५८ ही शलाका पुरुष होते हैं और ९वें तीर्थंकर से १६वें तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म का विच्छेद हो जाता है। ११ रुद्र व ९ कलहप्रिय नारद उत्पन्न होते हैं। उपरांत छठें, २३वें और अंतिम तीर्थंकर पर उपसर्ग होते हैं।
३-४-५वें काल में धर्म को नष्ट करने वाले पापिष्ठ, कुदेव आदि पैदा होते हैं। अनेक उपद्रव, कल्की का उपद्रव आदि होते हैं। एक ओर ग्यारह रुद्र, नव नारद विकृति फैलाते हैं तो साथ ही २४ कामदेव भी जन्म लेकर धर्म की प्रभावना बढ़ाते हैं। प्रथम कामदेव भगवान बाहुबली थे, तो अंतिम कामदेव जम्बूस्वामी हुए। इसी क्रम में कृति में तीर्थंकरों के जन्म से उनके मोक्ष तक की यात्रा का रुचिकर वर्णन है।
तीर्थंकर की माता के १६ स्वप्न-उनके फल, माता की सेवा में रत श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी षट् कुमारियों एवं दिक्कुमारियों द्वारा माता की सेवा करने का वर्णन है। तीर्थंकर का जन्म, इन्द्राणी द्वारा शिशु का ले जाना, ऐरावत हाथी जो एक लाख योजन विस्तार वाला है उस पर आरूढ़ होकर अयोध्या में आना।
इन्द्र द्वारा बालक को सुमेरु पर्वत की ईशानकोण की पांडुक शिला पर ले जाकर अपनी हजारों भुजाओं द्वारा हजारों कलशों से अभिषेक करना आदि का वर्णन है। उनकी शिक्षा-दीक्षा का निमित्त, केवलज्ञान, समवसरण आदि का वर्णन है। इसमें समवसरण का विस्तृत वर्णन किया गया है।
भगवान ऋषभदेव के पूर्वभवों का वर्णन प्रस्तुत है। गंधिलदेश का राजकुमार महाबल से वङ्काजंघ, स्वर्ग के श्रीधरदेव, वङ्कानाभि तक के जीवन की हजारों लाखों वर्षों की यात्रा करके अहमिन्द्र देव से ऋषभदेव नामक तीर्थंकर तक की कथा प्रस्तुत है। इसी संदर्भ में अयोध्या की रचना उसके महलों का सौन्दर्य वर्णन अति उपमा-युक्त है-‘राजा नाभिराज के उस प्रासाद का नाम सर्वतोभद्र था।
उसके खंभे स्वर्णमय थे, दीवारें नाना प्रकार के मणियों से निर्मित थी। वह पुखराज, मूंगा, मोतियों की माला से सुशोभित था, वह ९१ खंडों से युक्त था। कोट-वाटिका, बाग-बगीचों से अलंकृत था। भगवान ऋषभदेव के जन्म से पूर्व माता की सेवा में स्थित देवियों की सेवा-गर्भ शोधन आदि का अलंकारिक शैली में वर्णन किया गया है।
एक उदाहरण-‘मरुदेवी के निर्मल गर्भ में स्थित तथा मति, श्रुत और अवधि इन तीनों ज्ञानों से विशुद्ध अन्त:करण को धारण करने वाले भगवान ऋषभदेव ऐसे सुशोभित होते थे, जैसे स्फटिकमणि के बने हुए घर के बीच में रखा हुआ निश्चल दीपक सुशोभित होता है। इस कृति में भगवान ऋषभदेव के जन्म से मोक्ष तक की प्रत्येक अवस्था का बड़ा ही विस्तृत, अलंकारिक भाषा में वर्णन किया गया है। कैसे भगवान ने पुत्रियों को विद्याध्ययन कराया, लोगों को जीवन जीने की कला सिखाई।
कैसे ३ वर्णों का अस्तित्व बना इन सबका विषद वर्णन है। समवसरण का वर्णन अत्यंत प्रभावशाली है। उसमें १२ सभाओं का वर्णन है, जिनमें मुनि, कल्पवासिनी देवियाँ, आर्यिकाएं, ज्योतिषी देवों की देवियाँ, व्यंतर देवों की देवियाँ, भवनवासी देवों की देवियाँ, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और तिर्यंचों के स्थानों का वर्णन है। भगवान के आठ प्रतिहार्य के साथ उनके जन्म के दश अतिशय, केवलज्ञान के दश अतिशय विशेष देवकृत चौदह अतिशयों का वर्णन है।
भरत जो चक्रवर्ती थे उनके यहाँ पुत्र जन्म हुआ, चक्ररत्न की प्राप्ति हुई और भगवान को केवलज्ञान हुआ। इन तीनों में वह सर्वप्रथम भगवान के केवलज्ञान के उत्सव को मनाने हेतु समवसरण में जाकर भगवान की पूजा करते हैं। भगवान आदिनाथ से पूर्व उनके एक पुत्र अनन्तवीर्य मोक्ष प्राप्त करते हैं। मारीचि द्वारा मिथ्याधर्म का प्रारंभ भी होता है। भगवान के समवसरण में ८४ गणधर, ८४ ऋषिगण, साढ़े ३ लाख आर्यिकाएं, ३ लाख श्रावक एवं ५ लाख श्राविकाएं थीं।
भरत ने दिग्विजय से लौटने पर ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। उन्हें द्विज बनाया-संस्कारित किया। जब भरत ने इस वर्ण की स्थापना की बात भगवान से कही और गुणदोष के बारे में पूछा तो उन्होंने भविष्य बतलाते हुए कहा-जब तक चतुर्थ काल की स्थिति रहेगी तब तक तो प्राय: ये उचित आचार का पालन करते रहेंगे परंतु जब कलयुग निकट आयेगा, तब ये जातिवाद के अभिमान से सदाचार से भ्रष्ट होकर समीचीन मोक्षमार्ग के विरोधी बन जायेंगे।’
इसी क्रम में ऋषभनाथ के मोक्षगमन के पश्चात् चतुर्थकाल में अजितनाथ से लेकर महावीर स्वामी तक तीर्थंकर हुए। इसी क्रम में भगवान महावीर के जीवन का विस्तृत परिचय प्रस्तुत है। पुरुरवा भील से-मरीचि का जीव बनकर अनेकानेक भव धारण कर सिंह की योनि में मुनि का उपदेश पाकर-संयम धारण कर यह जीव अच्युत स्वर्ग में पुष्पोत्तर विमान में इन्द्र के रूप में जन्म लेता है और वहाँ से चलकर महावीर अंतिम तीर्थंकर बनता है। पूरे पाँचों कल्याणकों का उत्तम ढंग से कथारूप वर्णन सुन्दर रूप से हुआ है।
पश्चात् १२ चक्रवर्तियों का वर्णन है।
सभी के वैभव दृष्टव्य हैं-उनके ९६ हजार रानियाँ (३२ हजार आर्यखंड की कन्याएं, ३२ हजार विद्याधर, ३२ हजार म्लेच्छ कन्याएं) असंख्यात हजार पुत्र-पुत्रियाँ, ३२ हजार गणबद्ध राजा, ३६० अंग रक्षक, ३६० रसोइये, साढ़े ३ करोड़ बंधुवर्ग, ३ करोड़ गायें, १ करोड़ थालियाँ, ८४ लाख भद्रहाथी, ८४ लाख रथ, १८ करोड़ घोड़े, ८४ करोड़ आम वीर, ८८ हजार म्लेच्छ राजा, अनेकों करोड़ विद्याधर, ३२ हजार मुकुटबद्ध राजा, ३२ हजार नाट्य शालाएं, ३२ हजार संगीत शालाएं, ४८ करोड़ पदातिगण होते थे। उनके पास ९६ करोड़ ग्राम, ७५ हजार नगर, १६ हजार खेट, २४ हजार कर्वट, ४ हजार मटंब, ४८ हजार पत्तन, ९९ हजार द्रोणमुख, १४ हजार संचारन, ५६ अन्तद्र्वीप, ७०० कुक्षिनिवास, २८ हजार दुर्गादि, १४ रत्न, ९ नवनिधि एवं दशांग मंत्र होते हैं।
कृति में चक्रवर्ती, बलभद्र नारायण-प्रतिनारायणों का विशद वर्णन किया गया है। कृति में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र का जैन आगमानुकूल वर्णन है। राजा दशरथ के चार पत्नी अपराजिता, सुमित्रा, वैकेई और सुप्रभा हैं। इस चरित्र वर्णन के साथ जुड़े प्रसंग-स्थानों का वर्णन है जिनमें लंकानगरी, सीता विवाह, रामचन्द्र के बनवास, रावण की मृत्यु, सीता के निष्कासन, सिद्धार्थ क्षुल्लक द्वारा सीता के पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा, रामचंद्र का पुत्रों के साथ युद्ध, सीता की अग्निपरीक्षा, रामचंद्र का शोक-दीक्षा, निर्वाणगमन आदि का वर्णन है।
करणानुयोग
कृति का दूसरा खण्ड करणानुयोग से संबद्ध है। करणानुयोग की विशेषता अंकित करते हुए कहा है-
लोकालोक विभत्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च।
आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च।।
उक्त प्रकार का सम्यग्ज्ञान ही लोक-अलोक के विभाग को, युगों के परिवर्तन द्वारा चारों गतियों को दर्पण सदृश ऐसे करणानुयोग को जानता है। जिसमें लोक-अलोक, युग परिवर्तन और चतुर्गति परिवर्तन का वर्णन है, इस अनुयोग से संपूर्ण विश्व का स्वरूप जान लिया जाता है। यह करणानुयोग संपूर्ण जैन भूगोल का ज्ञान प्रदाता है।
सर्वप्रथम सामान्य लोक का वर्णन है। जो अनन्तानंत अलोकाकाश के बहुमध्य भाग में ३४३ राजु प्रमाण पुरूषाकार लोकाकाश है। यह लोकाकाश जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन पाँच द्रव्यों से व्याप्त है। इसके तीन भेद हैं-अधोलोक, मध्यलोक एवं ऊध्र्वलोक। संपूर्ण लोक की ऊँचाई १४ राजु प्रमाण एवं मोटाई ७ राजू है।
लोक का वर्णन करते हुए उसकी १४ राजु ऊँचाई में ७ राजु में अधोलोक, ७ राजु में स्वर्गादि हैं। इन दोनों के मध्य ९९ हजार ४० योजन ऊँचा मध्यलोक है। इसकी चौड़ाई ७ राजु है, जो घटते-घटते १ राजु रह जाती है। पुन: मध्यलोक से ऊपर बढ़ते-बढ़ते ५वें स्वर्ग तक ५ राजु होकर आगे घटते-घटते लोक के अग्रभाग तक १ राजु रह जाती है।
तीनों लोकों के बीच १ राजु चौड़ी १ राजु मोटी त्रसनाली है, जो १३ राजु ऊँची है, इसी में त्रसजीव पाये जाते हैं। इस लोक का घनफल ३४३ राजू है। इस लोकाकाश के चारों तरफ तीन वातवलय हैं। सर्वप्रथम लोकको चारों ओर से वेष्टित करके घनोदधि वातवलय है, इसको वेष्टित करके घनवात है एवं इसको वेष्टित करके तनुवातवलय है। तनुवात के चारों ओर अनन्त अलोकाकाश है। इसमें घनोदधिवात वलय गोमूत्र वर्ण का है, धनवात मूँगे के वर्णवाला एवं तनुवात अनेक वर्ण का है।
अधोलोक में प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी है। उसके नीचे
शर्वâराप्रभा, बालुका प्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा एवं महातम:प्रभा भूमियाँ हैं।
ये ७ पृथ्वियाँ ६ राजु में हैं एवं ७वें राजु में निगोद है। इसी क्रम में
धम्मा, वंशा, मेघा, अंजना, अरिष्टा, मघवी एवं माघवी सात नरक हैं।
इसी क्रम में रत्नप्रभा पृथ्वी के ३ भाग (खर, पंक एवं अब्बहुल) की चर्चा एवं नरकों के बिलों, वहाँ का उष्ण, शीत वातावरण एवं नरक के अतीव दु:खों का वर्णन करते हुए सातों नरकों की आयु प्रस्तुत है। (देखें पृ. ६९) नरक में भी तीसरे नरक तक नारकी जाति स्मरण, दुर्वार वेदना या देवों के संबोधन से भवों को चूर्ण करने में समर्थ सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर लेते हैं।
शेष चार नरकों में जातिस्मरण व वेदना अनुभव से सम्यक्त्व प्राप्त होता है।मध्यलोक १ राजू चौड़ा १ लाख ४० योजन ऊँचा है, चूड़ी के आकार का है। इसी के मध्य एक लाख योजन व्यास वाला जम्बूद्वीप स्थित है। इसमें क्रम से एक-दूसरे को घेरे हुए धातकीखंड, पुष्करद्वीप एवं अंत में स्वयंभूरमण द्वीप है। इनको घेरे हुए क्रमश: कालोदधि एवं अंत में स्वयंभूरमण समुद्र है। जम्बूद्वीप के मध्य एक लाख योजन ऊँचा तथा १० हजार योजन विस्तार वाला सुमेरुपर्वत है।
जम्बूद्वीप में ६ कुलाचल व सात क्षेत्र हैं। ६ कुलाचल हैं-हिमवान, महाहिमवान, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी। ७ क्षेत्र हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत एवं ऐरावत। इसी क्रम में क्षेत्र एवं पर्वतों के शास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत हैं। विजयार्धपर्वत भरत क्षेत्र के मध्य में है, जो ५० योजन²२५ योजन विस्तार का है।
इसी में विद्याधर, देवों के निवास एवं ९ कूट हैं, जिनमें एक कूट सिद्धायतन नाम से है। हिमवान पर्वत ४२१०५२६९/१० मी. विस्तार का है। इसमें पद्मनामक सरोवर १०००५०० योजन का, १० योजन गहरा है। अन्य आगे के पर्वतों पर महापद्म, तििंगच्छ, केशरी, पुण्डरीक, महापुण्डरीक सरोवर हैं। इस सरोवर के मध्य एक योजन का कमल है। जिसकी कर्णिका पर निर्मित भवन में श्रीदेवी का निवास है। अन्य १४०११५ कमल हैं जिन पर श्रीदेवी का परिवार रहता है। अन्य आगे के सरोवर के कमलों पर ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी देवियाँ रहती हैं।
इसी क्रम में गंगानदी एवं गंगाकुंड का वर्णन है। सुमेरुपर्वत का वर्णन करते हुए कहा है कि वह विदेहक्षेत्र के बीचोंबीच १ लाख ४० योजन ऊँचा है। नींव एक हजार योजन है, पृथ्वी तल पर १० हजार योजन विस्तार है। पृथ्वी तल पर भद्रसालवन है। इसके ऊपर ५ सौ योजन जाकर नंदनवन है। इनकी चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं। इसके ऊपर साढ़े बासठ हजार योजन पर सौमनस वन है, जो ५०० योजन चौड़ा कटनीरूप है। इस वन के ३६ हजार योजन ऊपर पाण्डुक वन है।
सभी के चारों दिशाओं में चार चैत्यालय हैं। पाण्डुक वन की चारों दिशाओं में चार शिलाएँ हैं, जो अर्ध चंद्राकार हैं जो अष्ट मंगलद्रव्यों से सुशोभित हैं। इनमें क्रमश: पाण्डुक शिला पर भरतक्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। दूसरी पाण्डु कंबला शिला पर पश्चिम विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों का, रक्ता शिला पर, ऐरावत क्षेत्र के एवं रक्तकंबला शिला पर, पूर्व विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों का अभिषेक किया जाता है। इसी क्रम में
लवणसमुद्र, पुष्करार्ध द्वीप, १७० कर्मभूमियों, ३० भोगभूमियों, ९६ कुभोगभूमियों का आकार एवं उनके विस्तार का वर्णन है।
यहाँ के कुमानुषों का वर्णन देखिए-‘पूर्व दिशा में रहने वाले मनुष्य एक पैर वाले, पश्चिम दिशा के पूँछवाले, दक्षिण दिशा के सींग वाले एवं उत्तर दिशा के गूंगे होते हैं। वे युगल में जन्मते हैं और युगल में मरते हैं। कृति में जम्बूद्वीप के ७८ अकृत्रिम, मध्यलोक के ४५८ अकृत्रिम चैत्यालयों का वर्णन है।
पश्चात् भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिर्वासी एवं कल्पवासी देवों का वर्णन करते हुए उनके स्थान, भेद, भवनों का प्रमाण, जिनमंदिर भवनवासी देवों के इन्द्र उनके परिवार का वर्णन किया है। इसी प्रकार अन्य व्यंतर ज्योतिर्वासी, कल्पवासी देवों का सविस्तार वर्णन प्रस्तुत हुआ है।
सौधर्म इन्द्र का विशेष वर्णन करते हुए उसका नाम, प्रासाद, परिवारदेव, परिवार, ऐरावत हाथी, देवियाँ, राजांगण, उनकी सभा, जिनमंदिर, शरीर की अवगाहना, उत्कृष्ट आयु, अवधिज्ञान, श्वासोच्छवास ग्रहण काल, लौकांतिक देव, एक भवावतारी देव आदि का वर्णन किया गया है।
इसी करणानुयोग के विभाग में जीव के पंचपरिवर्तन की चर्चा करते हुए जीव के संसारी एवं मुक्त दो भेद बताये हैं। ‘चतुर्गतौ संसरणं संसार:’ अर्थात् चतुर्गति में संसरण करना परिभ्रमण करना इसका नाम संसार है। ये संसार ५ भेदवाला है द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव एवं भाव। इन्हें परिवर्तन भी कहते हैं। द्रव्यसंसार के क्रमश: कर्मद्रव्य परिवर्तन एवं नोकर्म द्रव्य परिवर्तन दो भेद हैं।
कर्मबंध के ५ कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। जीव प्रतिसमय ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के योग्य पुद्गलों के स्कंधों को ग्रहण करता रहता है। आयुकर्म सदा नहीं बांधता। आबाधाकाल पूर्ण होने पर उन्हें भोग कर छोड़ देता है। अनंतबार गृहीत को ग्रहण कर छोड़ दिया। उसके बाद जब वे ही पुद्गल वैसे ही रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि भावों को लेकर उसी के वैसे ही परिणामों से पुन: कर्मरूप परिणत होते हैं, उसे कर्मद्रव्य परिवर्तन कहते हैं।
इसी प्रकार एक जीव के औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीनों शरीरों की ६ पर्याप्तियों के योग्य नोकर्म पुद्गल स्कंध ग्रहण किया और भोगकर छोड़ दिया। पूर्वोक्त क्रम के अनुसार जब वे ही नो कर्म पुद्गल उसी रूप, रस, गंध, आदि को लेकर जीव के पुन: नो कर्म रूप से ग्रहण किए जाते हैं उसे नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं।
इसी क्रम में क्षेत्र, काल, भव, भाव परिवर्तन की चर्चा की गई है। कृति में इसी संदर्भ में कालपरिवर्तन की चर्चा की गई है। जिसमें व्यवहार काल की विशेष संख्याओं का वर्णन है। जो द्रव्यों की पर्यायों को बदलने में सहायक हो, उसे वर्तना कहते हैं। यह काल अत्यंत सूक्ष्म परमाणु के बराबर है और असंख्यात होने के कारण समस्त लोकाकाश से भरा हुआ है अर्थात् कालद्रव्य का एक-एक परमाणु लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर स्थित है। काल के भेद एवं व्यवहार काल का पूरा गणित आंकड़ों के साथ प्रस्तुत किया है। हमारे शास्त्रों में जो पल्य, सागर, धनुष, योजन आदि
के नामों का उल्लेख है उसका पूरा प्रमाण प्रस्तुत किया गया है। इसी में व्यवहार पल्य, उद्धार पल्य, अद्धा पल्य, सागर का गणित-प्रमाण प्रस्तुत है। इसी वेद के अन्तर्गत तीनलोक में सिद्ध जीव कहाँ हैं इसकी चर्चा की गई है। वे अष्टम भूमि अर्थात् तीन भुवन के मस्तक पर ‘ईषत्प्राग्भार’ नामक ८वीं पृथ्वी पर हैं, जो एक राजू चौड़ी व ७ राजू लंबी है एवं आठ योजन मोटी है।
सिद्धशिला-आठवीं पृथ्वी के मध्य रजतमयी, श्वेत छत्राकार, मनुष्य क्षेत्र के समान गोल, ४५ योजन व्यासवाली सिद्धशिला है। सर्वार्थसिद्धि विमान से १२ योजन अन्तराल छोड़कर सिद्धक्षेत्र है। यहाँ पर सिद्धों के सुख एवं निवास का वर्णन है। इस करणानुयोग का आधार तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीपपण्णत्ति आदि ग्रंथों के आधार पर लेखिका ने उसे अपनी शैली में ज्ञानवर्धक रूप से प्रस्तुत किया है।
अर्थात्-सम्यग्ज्ञान ही गृहस्थ और मुनियों के चरित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के अंगभूत चरणानुयोग शास्त्र को जानता है अर्थात् जिसमें श्रावक और मुनिधर्म का वर्णन किया जाता है, वह चरणानुयोग है। सर्वप्रथम धर्म का लक्षण प्रस्तुत है। जो प्राणियों को संसार के दुखों से निकाल कर उत्तम सुखों में पहुँचाता है। यह धर्म रत्नत्रय स्वरूप है।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार के आधार पर सम्यग्दर्शन की व्याख्या,
उसका तीन मूढ़ता रहित व ८ अंग सहित वर्णन किया है।
श्रावक के ७० गुण रयणसार के आधार पर प्रस्तुत हैं,
जिनमें ८ मूलगुण, १२ उत्तरगुण का पालन, ७ व्यसन व २५ सम्यक्त्व के दोषों का त्याग, १२ प्रकार की वैराग्य भावना का चिन्तवन, सम्यग्दर्शन के ५ अतिचारोें का त्याग एवं भक्तिभावना का समावेश है।
सच्चे देव का १८ दोष रहित लक्षण, सच्चे शास्त्र का लक्षण, सच्चे गुरु का लक्षण प्रस्तुत किया गया है।
प्रत्येक शब्द का अर्थ व भावार्थ प्रस्तुत किया गया है। उनकी व्याख्या कर हमारे ज्ञान में वृद्धि की गई है। जिनमें सम्यग्दर्शन के आठ अंग, तीन मूढ़ता, आठ मद (ज्ञान-पूजा-कुल-जाति, बल-ऋद्धि, तप और शरीर) छह आयतन
(कुदेव, कुदेव मंदिर, कुशास्त्र, कुशास्त्र के धारक, खोटी तपस्या एवं खोटी तपस्या करने वाले)
२५ दोष-सम्यग्दर्शन के
८ अंगों के विपरीत आठ दोष, आठ मद, तीन मूढ़ता, ६ आयतन· २५ इसी क्रम में सम्यग्दर्शन की व्याख्या, भेद प्रस्तुत करते हुए-निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकंपा ८ गुणों का परिचय दिया गया है।
सम्यग्ज्ञान की व्याख्या करते हुए कहा है कि-‘संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय रहित पदार्थों को जानना सम्यग्ज्ञान है। इसके ११ अंग १४ पूर्व रूप भेद माने गये हैं अथवा
प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग एवं द्रव्यानुयोग भेद माने गये हैं।’
आ. गुणभद्र का कथन प्रस्तुत करते हुए कहा है-‘‘जो श्रुतस्कंधरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थ रूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, उन्नत है तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञान रूप जड़ से स्थिर है, उस श्रुतस्कंध वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान साधुओं को अपने मनरूपी बंदर को प्रतिदिन रमाना चाहिए। अर्थात् चंचल मन को विषयों की ओर से खींच कर इसे श्रुत के अभ्यास मे लगाने से राग-द्वेष की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है।
इससे संवर पूर्वक कर्मों की निर्जरा होकर मोक्ष सुख की प्राप्ति होती है।’’ कृति में सम्यक्चारित्र का वर्णन व भेद कहने के पश्चात् पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत की व्याख्या, इस प्रकार बारह व्रत का वर्णन करने के पश्चात् सल्लेखना के स्वरूप को विविध ग्रंथों के उद्धरण देकर समझाया है। ‘‘प्रतिकार रहित उपसर्ग आने पर, दुष्काल होने पर, बुढ़ापा अथवा रोग विशेष के आने पर रत्नत्रय धर्म की आराधना करते हुए शरीर का त्याग करना सल्लेखना है।
श्रावक के १२ व्रतों के अंत में संल्लेखना करने का विधान है।’’ लेखिका ने वसुनंदिश्रावकाचार का संदर्भ देते हुए लिखा है कि ‘जो सल्लेखना विधि से मरण करता है वह कम से कम १ या २ भव या अधिक से अधिक ७-८ भव ग्रहण कर मोक्ष पा लेता है।’ श्रावक की ११ प्रतिमाओं का वर्णन करते हुए
क्षुल्लक-ऐलक का स्वरूप बतलाया है।
इन प्रतिमाओं में व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त त्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग एवं उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा हैं।
यहाँ पाक्षिक, नैष्ठिक एवं साधक श्रावक के गुण, चर्या के स्वरूप का वर्णन किया गया है।
उसकी ५३ क्रियाओं का उल्लेख है(८ मूलगुण, १२ व्रत, १२ तप, १ समता, ११ प्रतिमा, ४ प्रकार का दान, १ जल जालन, १ रात्रि भोजन त्याग, ३ दर्शन-ज्ञान-चारित्र)।
जीवन के चार आश्रमों का वर्णन करते हुए कैसे भिक्षुक अवस्था तक पहुँचें इसका क्रमिक वर्णन है।
गृहस्थों के ६ कर्मों में- इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम, तप हैं।
इज्या अर्थात् पूजा जिसके नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पद्रुम, अष्टान्हिक एवं इन्द्रध्वज प्रकार हैं।
शास्त्र समुच्चयसार ग्रंथ में पूजा के १० भेद हैं-
(१) देव इन्द्रों द्वारा की जाने वाली पूजा-‘महाभद्र’ हैं। (२) इन्द्रों द्वारा की जाने वाली पूजा-इन्द्रध्वज पूजा है।
(३) चारों प्रकार के देवों द्वारा की जाने वाली पूजा-सर्वतोभद्र’ पूजा है। (४) चक्रवर्ती द्वारा की जाने वाली पूजा-चतुर्मुख पूजा है।
(५) विद्याधरों द्वारा की जाने वाली पूजा-रथावर्तन पूजा है। (६) महामण्डलीक द्वारा की जाने वाली पूजा-इन्द्र
केतु पूजा है।
(७) मण्डलेश्वर द्वारा की जाने वाली पूजा-महापूजा है। (८) अर्ध मंडलेश्वर द्वारा की जाने वाली पूजा- महामहिम पूजा है।
(९) नंदीश्वर में अष्टान्हिका में की जाने वाली पूजा-अष्टान्हिक पूजा है एवं (१०) प्रतिदिन की जाने वाली-दैनिक पूजा है।
भिक्षुक आश्रम अर्थात् अंतिम चतुर्थ आश्रम का वर्णन करते हुए कहा है कि ‘भगवान अरहंत देव की दिगंबर अवस्था को धारण करने वाले भिक्षु कहलाते हैं।’ इनके अनगार, यति, मुनि और ऋषि चार भेद होते हैंं। साधारण साधु अनगार है। जो उपशम-क्षपक श्रेणी में विराजमान हैं वे यति हैं, अवधि-मन:पर्यय व केवलज्ञानी मुनि हैं, ऋद्धिधारी ऋषि हैं। इनमें भी राजर्षि, ब्रह्म्र्षि, देवर्षि एवं परमर्षि चार भेद हैं। जिन्हें विक्रिया सिद्धि एवं अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है वे राजर्षि हैं।
बुद्धि-औषधि ऋद्धि के धारक ब्रह्मर्षि हैं, आकाशगामिनी ऋद्धि के धारक देवर्षि हैं एवं केवलज्ञानी परमर्षि हैं। श्रावक के पूजन-दान-शील, उपवास चार धर्म हैं जबकि देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ६ कर्म हैं। श्रावक के लिए भोजन अर्थात् आहार देने के महान पुण्य का वर्णन करते हुए कहा है कि-‘आहारदान देने मात्र से ही श्रावक धन्य कहलाता है तथा पंचाश्चर्य को प्राप्त होता हुआ देवताओं से पूज्य होता है।’
कहा गया है कि मुनीश्वरों को आहार देने के पश्चात् शेष अन्न प्रसादरूप ग्रहण करने से उत्तम सुखों को प्राप्त कर क्रमश: मोक्ष को प्राप्त करता है। श्रावक के लिए सामायिक विधि समझाते हुए उसकी क्रिया-फल का वर्णन किया है। श्री वामदेव ने भावसंग्रह के उद्धरण देकर कहा है-‘प्रतिदिन तीनों कालों में श्रावक जिनपूजा पूर्वक सामायिक करें क्योंकि जिनपूजा के बिना सभी सामायिक क्रियाएं दूर ही हैं अर्थात् नहीं हो सकती।’
प्रात:काल उठकर शौच, आचमनपूर्वक प्रभातिक करें। शुद्ध जल से स्नान कर मंत्र स्नान व व्रत स्नान ऐसे तीन स्नान करें। धुले वस्त्र पहिनकर जिनमंदिर में नि:सहि का उच्चारण कर ईर्यापथ शुद्धि करके जिनेन्द्र भगवान का स्तवन करें। इसी प्रकार अष्टद्रव्य से पूजा करे। फिर स्वाध्याय करे। इसी अध्याय में सूतक पातक का वर्णन है।
यद्यपि आगम ग्रंथों में पातक शब्द नहीं है। तथापि व्यवहार में प्रयुक्त सूतक-पातक युग्म शब्द का प्रयोग किया गया है। उसके अन्तर्गत घर-परिवार के लोगों का कुछ कालावधि के लिए देवपूजा-आहारदान कार्य वर्जित माने जाते हैं। जातीय बंधुओं में प्रत्यासन्न और अप्रत्यासन्न दो भेद हैं। चार पीढ़ी तक के बंधुवर्ग प्रत्यासन्न हैं इसके आगे अप्रत्यासन्न हैं। जन्म का सूतक चार पीढ़ी तक-१० दिन, पाँचवी पीढ़ी में ६ दिन, ६ठी में ४ दिन, ७वीं में ३ दिन ऐसे ही मरण का जानना। तपस्वियों व राजा को सूतक नहीं लगता। मंत्री, सेनापति, प्रजा, दास एवं दुर्भिक्ष आपत्ति पर मरने से सूतक नहीं लगता।
युद्ध में मरने पर सूतक नहीं लगता। तीन महिने का गर्भस्राव होने पर-३ दिन, तीन से ६ महीने तक-जितने महिने उतने दिन, ६ से ८ महीने तक-१० दिन। ऐसे ही अन्य प्रसंगों के मरण के सूतक का वर्णन है। रजस्वला स्त्री का अशौच दोष वर्णन किया है। आचार्यों ने श्रावक की क्रियाओं का वर्णन किया है।
यह वर्णन आदिपुराण में भी पूरे विस्तार के साथ वर्णित है। इनमें गर्भान्वय क्रियाएं, दीक्षान्वय की ४८ एवं कत्र्रन्वय की ७ क्रियाएं कुल (५३+४८+७=१०८) हैं। गर्भान्वय की ५३ क्रियाओं में से प्रारंभ की १३ क्रियाएं कम करने पर शेष ४० वे ही क्रियाएं होती हैं तथा अन्य अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्य, यज्ञ, दृढ़चर्या एवं उपयोगिता ८ क्रियाएं अन्य होने से ४०+८ कुल ४८ क्रियाएं हो जाती हैं। इस प्रकार गर्भान्वय की ५३+दीक्षा की नवीन ८=६१ क्रियाएँ हैं।
कत्र्रन्वय की ७ क्रियाओं के अन्तर्गत-सज्जाति, सद्गृहीत्व, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, आर्हन्त्य एवं परिनिर्वाण क्रियाएं हैं जिनका संबंध विशेषत: दीक्षा धारण करने योग्य वंश से लेकर षट्कर्म पालन करते हुए दीक्षा ग्रहण कर, सुरेन्द्र पद की प्राप्ति, चक्रवर्ती का साम्राज्य भोगते हुए अरहंतपद प्राप्त कर निर्वाण तक की ऊध्र्वगामी क्रियाओं का परिचय दिया गया है। बारह अनुप्रेक्षा गृहस्थ श्रावक जो पंच अणुव्रतों का धारक व पालक है, वह वैराग्य वृत्ति जागृत करने हेतु इन १२ भावनाओं का चिन्तवन करता है।
ये वैराग्य की जन्मदात्री भावनाएं होने से माता के समान हैं। इनमें अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ एवं धर्म अनुप्रेक्षा हैं। ये भावनाएं वैराग्य की ओर उन्मुख करती हैं, पे्रेरित करती हैं एवं वैराग्यभाव को दृढ़ करती हुई मुनि दीक्षा होने की प्रेरणा देती हैं। श्रावक धर्म के साथ मुनि धर्म का वर्णन व आचरण का वर्णन किया गया है।
मुनि २८ मूलगुण (५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियवश करना, ६ आवश्यक, लोच, आचेलकत्व, स्नानत्याग, क्षितिशयन, अदन्त धावन, खड़े होकर आहार, दिन में एक बार आहार ये मूलगुण हैं।
मुनि के छह आवश्यकों में-समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान एवं व्युत्सर्ग का समावेश है। पिंडशुद्धि प्रकरण-पिंड शुद्धि अर्थात् आहार श्ुाद्धि। इसमें उद्गमदोष, उत्पादन दोष, ऐषणादोष, संयोजना दोष, प्रमाणदोष, इंगालदोष, धूमदोष एवं कारण दोष ८ दोष हैं। इस प्रकरण में उद्गम के १६, उत्पादन के १६, ऐषणा के १० एवं अन्य के १-१ कुल ४६ भेदों का वर्णन किया है।
कृति में सभी दोषों के नाम उसकी व्याख्या आदि का सूक्ष्म वर्णन प्रस्तुत है। साधु को इन ४६ दोषों से युक्त आहार नहीं करना चाहिए। इसी परिप्रेक्ष्य में साधु को आहार लेते समय ३२ प्रकार के कारणों से अन्तराय हो सकता है। यदि इन ३२ प्रकारों में से एक भी कारण हो तो साधु अन्तराय मानकर आहार नहीं लेता या आहार का त्याग कर देता है।
मूलत: साधु का आहार लेने का उद्देश्य खाने के लिए जीना नहीं है अपितु-क्षुधा वेदना को मिटाने, वैय्यावृाqत्त करने, सामायिक आदि क्रियाएं करने, संयम का दृढ़ता से पालन करने, प्राणों की चिंता करते हुए धर्मचिंता आदि हेतु आहार ग्रहण करता है। उसका उद्देश्य शरीर को जीवित एवं स्वस्थ रखकर धर्मसाधना, तेरह प्रकार के संयम का पालन करना, रत्नत्रय की सिद्धि हेतु तप में आरूढ़ होना दशधर्मों का पालन करना होता है। कृति में समाचार का वर्णन करते हुए कहा है-
‘रागद्वेष रहित प्रवृत्ति को समाचार कहते हैं अथवा निरतिचार मूलगुणों का आचरण समाचार है अथवा प्रमत्तसंयत आदि मुनियों का अहिंसादिरूप आचार समाचार है अथवा सब क्षेत्रों में कायोत्सर्ग आदि आचारों का पालन करना समाचार है।’ समाचार के औैघिक व पदविभागिक दो भेद हैं। सामान्य आचार को औघिक कहते हैं इसके १० भेद हैं।
सूर्योदय से अहोरात्र तक मुनियों का जितना आचार है वह सब पदविभागिक है। इसमें औघिक के-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदन, सनियंत्रण व उपसंयत भेद हैं। पदविभागिक समाचार में कोई उत्साही मुनि गुरु के पास श्रुत पढ़कर अन्य आचार्य के पास पढ़ने के लिए जाना चाहे तो वह गुरु के पास विनय से अन्यत्र जाने की आज्ञा हेतु बार-बार प्रश्न करता है…….आज्ञा पाकर दो या तीन मुनियों के साथ जाता है।
इसी परिप्रेक्ष्य में आर्यिकाओं का समाचार प्रस्तुत किया है। उनकी वृत्तियों में स्थान, दो साड़ी रखने, बैठकर आहार लेने, निवास आदि का वर्णन किया है। मुनिसंघ के मूलाचार में पाँच आधार बताये हैं उनका यहाँ प्रस्तुतिकरण किया है। जिनमें आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर एवं गणधर पाँच प्रकार हैं।
पूर्वाचार्यों ने एकलविहार का निषेध किया है। कृति में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी के लक्षण प्रस्तुत किए हैं। आचार्य-दर्शन ज्ञान चारित्र तप एवं वीर्याचार का स्वयं आचरण करता है। वे ३६ गुणों के धारक होते हैं। उपाध्याय-जो तत्कालीन परमागम के व्याख्याता हैं। जो शिष्यों को पढ़ाते हैं। इनके २५ गुण होते हैं। वे ११ अंग १४ पूर्व के ज्ञाता होते हैं।
इन अंगों के पठन-पाठन करने से २५ गुणधारी कहलाते हैं। (देखे पृ. १३३) साधु-२८ मूलगुणों का पालन करते हैं। १८ हजार शील के भेदों के धारक ८४ लाख उत्तर गुणों के पालक साधु परमेष्ठी हैं। यहाँ चारित्र के १३ भेद बताये हैं
जिनमें (५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति) करण के १३ भेद (षट्आवश्यक क्रिया, पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, अ:सही व नि:सही) परमेष्ठी, प्रतिक्रमण को समझाते हुए कायोत्सर्ग की व्याख्या करते हुए उसके २८ कायोत्सर्ग भेदों को प्रस्तुत किया है। कृति में अनगार धर्मामृत के आधार से मुनि की दिनचर्या की चर्चा प्रस्तुत की गई है।
‘संयमी साधु शुद्ध स्वात्मोपलब्धि के प्रधान कारणभूत समाधि की सिद्धि के लिए अहर्निश स्वाध्याय आदि परिकर्म को विधिवत् करे।’ इसमें प्रात:काल से अहोरात्रि तक की चर्या का निर्देश है। वह नियमानुसार लघु श्रुतभक्ति, आचार्यभक्ति आदि करते हुए नियमानुसार प्रतिक्रमण करे। सूर्योदय से दो घड़ी तक देववंदना करे। इसमें ईर्यापथ शुद्धि करके सामायिक स्वीकार करके चैत्यभक्ति एवं पंचमहागुरुभक्ति करे। अंत में समाधिभक्ति करे।
अवशिष्ट समय में आत्मध्यान करे। सूर्योदय से दो घड़ी बीतने पर माध्यान्हिक देववंदना करे। लघुश्रुत व आचार्यभक्ति पूर्वक आचार्य वंदना करे। यदि उपवास हो तो ध्यान-आराधना करे अन्यथा गुरुवंदना कर गोचरी को जावे। पश्चात् गुरु के पास आकर लघुसिद्धभक्ति बोलकर प्रत्याख्यान ग्रहणकर, आचार्यभक्ति द्वारा आचार्य की वंदना कर गोचरी संंबंधी दोषों का प्रतिक्रमण करे। पुन: अपराह्निक स्वाध्याय, प्रतिष्ठापन कर सूर्यास्त से दो घड़ी पूर्व विसर्जित करे।
अनन्तर दैविसिक प्रतिक्रमण करे। अंत में रात्रि में सोने से पूर्व लघु योग भक्ति बोलकर-‘‘मैं आज रात्रि में इसी वसति में रहूँगा’’ ऐसा नियम लेकर पुन: लघुश्रुत आचार्य भक्ति द्वारा चार घड़ी पर्यंत शयन करे। साधु की नैमित्तिक क्रियाओं की चर्चा करते हुए प्रत्येक चतुर्दशी, अष्टमी, अष्टान्हिका पर्व में कैसी कितनी भक्तियाँ करनी चाहिए-यह समझाया है। उदाहरण स्वरूप चतुर्दशी के दिन देववंदना में सिद्ध, चैत्य, श्रुत, पंचगुरु एवं शांति ये ५ भक्तियाँ करनी चाहिए।
अथवा चैत्य-पंचगुरु के मध्य में श्रुतभक्ति करके तीन भक्तियां करनी चाहिए। अष्टमी के दिन सिद्ध, श्रुत भक्ति, आलोचना सहित चारित्रभक्ति करके ‘इच्छामि भँते अट्ठमियम्हि’ बोलकर शांतिभक्ति करके समाधिभक्ति करनी चाहिए। अष्टान्हिका पर्व में पौर्वान्हिक स्वाध्याय के बाद सभी साधु मिलकर सिद्ध, नंदीश्वर, पंचगुरु एवं शांतिभक्ति का पाठ करें। साधु के वर्षायोग का वर्णन करते हुए उनकी स्थापना (आषाढ़ शुक्ला १३ के दिन ‘मंगलगोचर मध्यान्ह वंदना’ करके आहार के बाद वृहत् सिद्धभक्ति योगपूर्वक उपवास ग्रहण करके आचार्यभक्ति, वृहत् शांतिभक्ति करे।
अनन्तर आषाढ़ शुक्ला १४ को पूर्वरात्रि में वर्षायोग प्रतिष्ठापन में क्रियाकलाप के आधार से सिद्धभक्ति, योगभक्ति, चैत्यभक्ति करके वर्षायोग ग्रहण करें। इसी तरह कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पश्चिम रात्रि में वर्षायोग का निष्ठापन करके ‘रात्रि प्रतिक्रमण’ कर पुन: वीर निर्वाण क्रिया करें। कृति में आगे मुनियों के दशधर्मों की चर्चा प्रस्तुत की गई है।
इसी संदर्भ में १६ भावनाओं का चिन्तवन करना चाहिए। उसमें दर्शनविशुद्धि का होना आवश्यक है। ये भावनाएं तीर्थंकर प्रकृति के बंध का कारण हैं। ऐसा उल्लेख तिलोयपण्णत्ति में है कि ‘‘अनेक तपस्वी मुनियों को अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। इनमें मुख्य हैं बुद्धि ऋद्धि, विक्रिया, क्रिया, तप, बल, औषधि, रस एवं क्षेत्र ऋद्धि। इनमें क्रमश: बुद्धि ऋद्धि के १८, विक्रिया के ११, क्रियाके २, तप के ७,बल के ३, औषधि के ८, रस के ६ भेद और क्षेत्र के २ ऐसे कुल ५७ भेद हैं।
(विशेष हेतु देखे पृ. १४) कृति में सल्लेखना का उल्लेख करते हुए उसके पंडित-पंडित, पंडित, बाल-पंडित, बालमरण एवं बाल-बाल मरण, ऐसे ५ भेदों की चर्चा की है। इसमें केवलीमरण पंडित-पंडित मरण है। छठे से ११वें गुणस्थान तक का पंडित मरण है। देश संयम का मरण बाल पंडित मरण है, अविरत सम्यग्दृष्टि का बालमरण है जबकि मिथ्यादृष्टि, अपघात आदि बाल मरण हैं।
इसी के साथ इन पंडित मरण के प्रायोगमन, भक्तप्रतिज्ञा एवं इंगिनीमरण के भेदों को समझाया है। इसी के साथ १२ वर्ष के भीतर मरण को स्वीकार करने वाले मुनि कैसे १२ वर्ष व्यतीत करें इसका वर्णन करते हुए कहा है
कि प्रथम ४ वर्ष अनशन, अवमौदर्य, सर्वतोभद्र, एकावली, दिव्यावली, रत्नावली, सिंहावलोकन तप द्वारा बिताये।
आगे के ४ वर्ष रसत्याग करके पूर्ण करें। २ वर्ष कभी अल्प, कभी नीरस भोजन करे। पुन: १ वर्ष अल्प आहार में व्यतीत करे। बाद के ६ महीने तक अनुत्कृष्ट तप करें। बाद के ६ माह सर्वोत्कृष्ट तप करके पूरा करे। इसी के साथ निर्यापक जो सल्लेखना कराये उन ४८ साधुओं का कार्य विवरण है।
(देखें पृ. १४७) कृति में पुलाक, वकुश, कुशील, निग्र्रन्थ एवं स्नातक ५ प्रकार के मुनियों की चर्चा की है।
संयमी मुनियों की संख्या ८९९९९९९७ ( तीन कम नौ करोड़) बताई है। इसी प्रकरण या अनुयोग में ध्यान की व्याख्या, उसके ४ भेद (आर्त-रौद्र-धर्म और शुक्ल) उपभेदों की चर्चा प्रस्तुत है। इनमें धर्मध्यान के ४ भेद आज्ञाविचय, अपाय, विपाक एवं संस्थानविचय की स्पष्टता की है। अन्यत्र प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी में जो १० भेद माने गये हैं।
उनका उल्लेख है। (पृ. १४९) संस्थानविचय के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत भेदों की चर्चा की गई है। इसमें पिंडस्थ ध्यान की पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वायवी एवं तत्त्वरूपवती धारणाओं की चर्चा है। अंत में शुक्ल ध्यान का लक्षण प्रस्तुत करते हुए उसके पृथकत्व वितर्वâ, एकत्व वितर्व सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति एवं व्युपरतक्रियानिर्वृत्ति भेदों की चर्चा की गई हैं।
उसके लक्षणों को समझाया गया है। इन चार में से प्रथम दो छद्मस्थ योगी-१२वें गुणस्थान पर्यन्त श्रुतकेवलियों के होते हैं, अंतिम दो केवलज्ञानियों के होते हैं। लेखिका आर्यिका जी ने किन ग्रंथों से ये वर्णन प्रस्तुत किए हैं उनका उल्लेख करते हुए विशेष ज्ञान हेतु
रत्नकरण्ड- श्रावकाचार, पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय, सागारधर्मामृत, मूलाचार, भगवती आराधना, चारित्रसार, आचारसार, अनगार धर्मामृत ग्रंथों के स्वाध्याय करने की प्रेरणा दी है।
द्रव्यानुयोग
द्रव्यानुयोग के गुणों का चित्रण करते हुए कहा है-
‘‘जीवाजीव सुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च।
द्रव्यानुयोग दीप:, श्रुतविद्यालोकमातनुते।।’’
अर्थात् द्रव्यानुयोगरूपी दीपक जीव-अजीव रूप सुतत्त्वों को, पुण्य-पाप और बंध-मोक्ष का तथा भावरूपी प्रकाश को विस्तृत करता है। अर्थात् जिसमें छहों द्रव्यों का,पुण्य-पाप और बंध-मोक्ष का विस्तृत वर्णन रहता है, वह द्रव्यानुयोग है। सर्वप्रथम द्रव्य का लक्षण ‘सत्’ कहते हुए जीव-पुद्गल, धर्म-अधर्म-आकाश एवं काल द्रव्यों के नाम प्रस्तुत किए हैं। इसमें तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर जीव द्रव्य को समझने हेतु नव अधिकारों को बताया है जिनमें-जीवत्व, उपयोगमयत्व, अमूर्तिकत्व, कर्तृत्व, स्वदेह परिणामत्व, भोक्तृत्व, संसारित्व, सिद्धत्व एवं स्वभाव से उध्र्वगमन ये नव अधिकार होते हैं।
इनके लक्षणों को समझाते हुए आगे १४ गुणस्थानों का वर्णन करके उनके लक्षणों को या जो इन गुणस्थानों में प्रतिष्ठित होता है उसकी स्थिति कैसी बनती है इसे समझाते हुए साधक की सिद्धावस्था तक का वर्णन किया है। लिखा है-‘इन चौदह गुणस्थानों के अनन्तर गुणस्थानातीत सिद्ध होते हैं, वे अपर कर्मों से रहित, शांतिमय, निरंजन, सम्यक्त्व आदि गुणों से सहित कृतकृत्य हो चुके हैं और लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं-उन्हें सिद्ध कहते हैं।’
कृति में जीवसमास, पर्याप्ति उसके भेद (आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास भाषा और मन) का परिचय दिया है। प्राण उसके भेदों की चर्चा की है। जैनदर्शन में ‘मार्गणा’ विशेष शब्द प्रयोग है, जिसका अर्थ है ‘अन्वेषण’ जिन भावों द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीव का अन्वेषण किया जावे उसका नाम मार्गणा है।
मार्गणा के १४ भेद हैं जिनमें ‘‘गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञा एवं आहार है।’
पुनश्च प्रत्येक वर्गणा का लक्षण भेद-उपभेद समझाये गये हैं। (देखिए पृष्ठ १५९ से १६२) इसके पश्चात् उपयोग अर्थात् जीव के भाव को समझाते हुए कहा है कि जीव का जो भाव ज्ञेय वस्तु को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होता है उसको उपयोग कहते हैं। यह साकार व निराकार है। साकार के अन्तर्गत ५ ज्ञान व ३ कुज्ञान हैं जबकि चार प्रकार का दर्शन निराकारोपयोग है।
इस प्रकार के गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग सब मिलाकर २० प्ररूपणाएं होती हैं।
इसी क्रम में अजीव द्रव्य, उसके लक्षण, प्रकार, पर्यायें समझाई गई हैं।
उसमें पाँच अस्तिकाय (जीव-पुद्गल, धर्म-अधर्म, आकाश को समझाकर छहों द्रव्यों के प्रदेशों की स्थिति समझाई है। तत्त्वार्थ सूत्र के आधार पर प्रमाण और नयों द्वारा जीवादि पदार्थों के बोध को प्रमाण के वर्णन के अन्तर्गत समझाया है। जिसमें सम्यग्ज्ञान प्रमाण है। इसके प्रत्यक्ष व परोक्ष दो भेद हैं।
इसी परिप्रेक्ष्य में पदार्थ को जानने की पद्धति जैसे- अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा को प्रस्तुत कर अवग्रह के १२ प्रकारों को सोदाहरण समझाया गया है।
इसको गणितीय स्वरूप में इस प्रकार कहा गया है। ईहा-अवाय-धारणा, के भी १२-१२ भेद हैं अत: कुल चारों के १२*४=४८ भेद हुए। इनमें से प्रत्येक का ज्ञान ५ इन्द्रिय व १ मन से होता है अत: ४८*६=२८८ भेद होते हैं। कृति में आगे श्रुतज्ञान के लक्षण-भेद प्रस्तुत करते हुए जिनके अक्षरात्मक व अनक्षरात्मक मुख्य दो भेद कहे हैं। लेखिका ने यह प्रस्तुत किया है कि श्रुतज्ञान जो द्वादशांग रूप है उसमें समस्त पद १ अरब,१२ करोड़, ८३ लाख, ५८ हजार-पाँच मध्यम पद हैं। जिनमें
(१) आचारांग-१८ हजार पद-मुनिचर्या का वर्णन हैं।
(२) सूत्रकृतांग-३६ हजार पद-इसमें सूत्ररूप व्यवहार क्रिया। स्व-समय का वर्णन हैं।
(३) स्थानांग-४२ हजार पद-समस्त द्रव्यों के एक से लेकर समस्त संभव विकल्पों का वर्णन हैं।
(४) समवायांग-१ लाख ६४ हजार पद समस्त द्रव्यों के पारस्परिक सादृश्य का वर्णन हैं।
(५) व्याख्या प्रज्ञप्ति-२ लाख, २८ हजार पद-इसमें ६० हजार प्रश्नों के उत्तर हैं।
(६) ज्ञातृकथा-५ लाख ५६ हजार पद हैं। इनमें गणधर आदि की कथाएं तीर्थंकरों का महत्त्व वर्णित है।
(७) उपासकाध्ययन-११ लाख ७० हजार पद हैं। जिसमें श्रावकाचार वर्णन है।
(८) अन्त:कृतदशांग-२३ लाख २८ हजार पद हैं। इसमें प्रत्येक तीर्थंकर के समय के १०-१० मुनियों के तीव्र उपसर्ग सहन करके मुक्ति का कथन हैं।
(९) अनुत्तरौपपादिक दशांग में ९२ लाख ४४ हजार पद हैं। प्रत्येक तीर्थंकर के समय में १०-१० मुनियों के घोर उपसर्ग को सहन कर विजय आदि अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने का कथन हैं।
(१०) प्रश्न व्याकरण में ९३ लाख १६ हजार पद हैं इनमें नष्ट, मुष्टि, चिंता आदि प्रश्नों के अनुसार हानि-लाभ आदि बतलाने का विवरण है।
(११) विपाकसूत्र में१८ लाख ४० हजार पद हैं, इसमें कर्मों के फल देने का विशद वर्णन हैं।
(१२) दृष्टिवाद में १ अरब ८६ करोड़, ८५ लाख ६ हजार ५ पद हैं।
इनमें ३६३ मिथ्यामतों का वर्णन एवं उनके निराकरण का वर्णन है। इनके ५ भेद हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत एवं चूलिका। कृति में इन पांचों के विवरण शास्त्र उनके पद का विषद वर्णन प्रस्तुत है। (देखे पृष्ठ ६८ से १७०) कृति में प्रकारान्त से प्रमाण के भेद प्रभेदों का वर्णन किया है एवं उसके प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण की व्याख्या भेद-प्रभेद को समझाया गया है। नय-मूलत: नय अर्थात् पदार्थ के एक देश को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं।
इसके मूल ९ भेद हैं इन्हीं के द्वारा पदार्थ को पूर्णरूप से जाना जा सकता हैं वे हैं-द्रव्यार्थिकनय, पर्यायार्थिक नय, नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ एवं एवंभूत। इन सभी भेदोपभेदों को सोदाहरण समझाया गया है। इसी परिप्रेक्ष्य में अध्यात्म की अपेक्षा निश्चय व्यवहार नय को प्रस्तुत किया है।
कहा है-‘निश्चयनय अभेदोपचार से पदार्थ को जानता है अर्थात् अभेद को विषय करता है। व्यवहारनय भेदोपचार से पदार्थ को जानता है अर्थात् भेद को विषय करता है। इसी शृंखला में इन नयों के भेदोपभेदों का स्वरूप समझाया है।’ सप्तभंगी-कृति में सप्तभंगी को समझाते हुए लिखा है-
‘‘स्व द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव और भव की अपेक्षा जीव ‘अस्तिरूप’ है। पर द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से जीव नास्ति रूप है। क्रम से स्व-पर चतुष्टय की अपेक्षा जीव अस्ति नास्ति रूप है। युगपत् स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा से जीव अवक्तव्य रूप है। स्व-चतुष्टय की विविक्षा करने से एवं युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से जीव अस्ति अवक्तव्य हैंं पर चतुष्टय की विविक्षा करने एवं युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से जीव नास्ति अवक्तव्य है।
स्वपर चतुष्टय की विविक्षा से एवं युगपत दोनों धर्मों को न कह सकने से जीव अस्ति-नास्ति अवक्तव्य है। इन नयों को प्रश्नोत्तरी के माध्यम से समझाया है। मूलत: वस्तु का मूल्याकंन ७ ही प्रकार से संभव है। इसी के साथ सम्यव्â एकांत, मिथ्या एकांत, सम्यव्â अनेकांत एवं मिथ्या अनेकांत को समझाया गया है।
आगे जीव के असाधारण पाँच भावों को जो उसके स्वतत्त्व कहलाते हैं उन्हें समझाया है जो ५ हैं (औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदाायिक एवं पारिणामिक) दर्शन समीक्षा-इस प्रकरण के अन्तर्गत दर्शन को समझाते हुए कहा है कि जिसके द्वारा वस्तु तत्व का निर्णय किया जाता है वह दर्शन शास्त्र है। ‘‘दृश्यते निर्णीयते वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम्’’ अर्थात् दर्शन शास्त्र तर्वâ-वितर्वâ मन्थन में परीक्षा स्वरूप हैं जो कि तत्त्वों के निर्णय में प्रयोजक हैं।
जैसे यह संसार नित्य है या अनित्य? इसका स्रष्टा कोई है या नहीं? आत्मा का स्वरूप क्या है? इसका पुनर्जन्म होता है या नहीं? इत्यादि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना दर्शन शास्त्र का काम है। इसमें भारतीय व पाश्चात्य दर्शन दो भाग हैं। वैदिक दर्शन में मुख्यत: साँख्य, वेदान्त, मीमांसा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन हैं। अवैदिक दर्शन में-जैन-बौद्ध, चार्वाक माने गये हैं। इसी प्रकरण में इन सभी दर्शनों की विवेचना करते हुए उनके स्वरूप आदि विशेषताओं को समझाया गया है।
कृति में मोक्षमार्ग को प्रस्तुत करते हुए निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग को स्पष्ट किया गया है। जैसे-सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र तीनों की एकता व्यवहारनय से मोक्ष का कारण है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी निज आत्मा निश्चयनय से मोक्ष का कारण है क्योंकि आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता। इस कारण से रत्नत्रयमयी आत्मा ही निश्चयनय से मोक्ष का कारण है। इन भेदों को कृति में समझाते हुए उसके स्वरूप, आदि का कथन किया है।
(विशेष ज्ञान हेतु देखे पृष्ठ १८५ से १९०) कर्म सिद्धांत की चर्चा करते हुए उसके बंध-खिरने की अवस्था आदि के वर्णन के साथ ८ कर्मों की चर्चा उसके उदाहरण देकर समझाया गया है। उसे प्रतीकात्मक रूप में कहा है यथा- ज्ञानावरण-जो आत्मा के गुणों को प्रकट न होने दे-देवता के मुख पर पड़ा हुआ वस्त्र। दर्शनावरण-जो आत्मा के दर्शन न होने दे-राजा का पहरेदार।
वेदनीय-जो सुख-दुख का वेदन कराये-शहद से लपेटी तलवार की धार। मोहनीय-जो आत्मा को मोहित करे जैसे मदिरापान।
आयु-जो जीव को उस-उस पर्याय में रोके रहे-सांकल-काठ का यंत्र।
नाम-जो अनेक तरह के शरीर की रचना करे-जैसे चित्रकार।
गोत्र-जो ऊँच-नीचपने को प्राप्त करावे-जैसे कुंभकार।
अंतराय-जो दाता और पात्र में अन्तर-व्यवधान करे जैसे भंडारी राजा को दान देने से रोके।
कृति में पुनश्च इन कर्मों के भेदोपभेदों का वर्णन है। (देखे पृष्ठ १९५ से २०२) इन भेदोपभेदों के पश्चात् आठों कर्मों के आस्रव के कारणों को प्रस्तुत किया है।
ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म के आस्रव हैं:-ज्ञान और दर्शन में किए गए प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात।
वेदनीय के आस्रव-निज, पर तथा दोनों के विषय में स्थित दुख-शोक, ताप, व्रंâदन, वध और परिदेवन।
इसी प्रकार अन्य कर्मों का भी वर्णन है। कृति में तीर्थंकर पद के आस्रव में १६ प्रकार या कारण बताये हैं।
कर्मबंध के मुख्य कारण हैं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग।
इनके भेदोपभेद प्रस्तुत किए गये हैं। ३६३ मत-जिसमें सर्वथा एकनय का ही ग्रहण पाया जाता है, ऐसे जो एकांत मत हैं। इनमें क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७, वैनयिकवादियों के ३२ भेद हैं। आर्यिका माताजी ने इन ३६३ मतों के भेदों के कारण भी संख्या में प्रस्तुत किए हैं। (विशेष समझने हेतु देखें पृ. संख्या २०७ से २०९) मुक्ति के कारण-इसमें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को मोक्षमार्ग माना गया है। इसको लब्धि का अर्थ बताते हुए उनके ५ प्रकारों को प्रस्तुत किया है।
इनमें प्रथम चार साधारण हैं जो भव्य-अभव्य दोनों को होती हैं परंतु ५वीं करणलब्धि-सम्यक्त्व और चारित्र की ओर झुके हुए भव्यजीव को ही होती है। क्षयोपशमलब्धि-अशुभ ज्ञानावरण आदि कर्मों का अनुभाग जिस काल में समय-समय पर अनन्तगुना घटता हुआ उदय को प्राप्त होवे उस काल को क्षयोपशम लब्धि कहते हैं। विशुद्धिलब्धि-क्षयोपशम लब्धि के जीव के साता आदि प्रकृति के लिए बंधन के कारणभूत जो शुद्ध परिणाम हैं वह विशुद्धि लब्धि है।
देशनालब्धि-सच्चे तत्त्वों का उपदेश देने वाले आचार्य का लाभ या उपदेश का लाभ होना देशनालब्धि है। नरक में चूूूँकि उपदेशक नहीं हैं, अत: वहाँ पूर्वभव के श्रवण किए गये उपदेशों के संस्कार के बल से देशनालब्धि होकर सम्यक्त्व हो सकता है। प्रायोग्य लब्धि-पूर्वोक्त तीन लब्धि वाला जीव हर समय विश्ुाद्धि की बढ़ोत्तरी होने से आयु के बिना सात कर्मों की स्थिति घटाता हुआ कर्मों के फल देने की शक्ति को कमजोर कर दे, ऐसे कार्य की योग्यता प्रायोग्य लब्धि है।
करणलब्धि-इस प्रकार अभव्य के भी योग्य ४ लब्धिरूप परिणामों को समाप्त कर भव्यजीव ही अध:प्रवृत्त, अपूर्व व अनिवृत्तिकरण इन तीन परिणामों को करता है ये तीनों करण अन्तर्मुहूर्त में हो जाते हैं और तीनों का काल भी पृथक्-पृथक् अन्तर्मुहूर्त है। इसी के अन्तर्गत तीनों कारणों का स्वरूप, प्रकार प्रस्तुत करते हुए देश चारित्र एवं सकल चारित्र की व्याख्या एवं उसके कारणों को दर्शाया है एवं कर्मों के नाश का कारण भी प्रस्तुत है।
किस गुणस्थान में कौन से कर्मों का नाश होता है और कैसे ६३ प्रकृत्तियों का नाश करके महामुनि अर्हं्त बनते हैं। कृति में केवली के कवलाहार का निराकरण करते हुए कहा है कि केवली के मोहनीयकर्म का अभाव होने से राग-द्वेष नष्ट हो जाते हैं एवं ज्ञानावरण के अभाव से इन्द्रिय जनित ज्ञान भी नष्ट हो जाता है।
अर्थात् सुख-दुख नहीं रहते। इस कारण क्षुधादि परीषह नहीं रहते। अत: उन्हें दूर करने के लिए आहारादि संभव नहीं। उनके औदारिक शरीर के योग्य उत्तम कर्म परमाणु प्रति समय आते रहते हैं तथा नोकर्म वर्गणा को ग्रहण करने का नाम ही आहारवर्गणा है। उसका उद्भव केवली को है। उसमें-ओज, लोप, मानस, केवल, कर्म और नोकर्म हैं जिनमें केवली के कर्म-नोकर्म ये दो आहार होते हैं कवलाहार नहीं।
कृति में ७२ प्रकृतियों के नाम प्रस्तुत किए हैं। मुक्तजीव अलोकाकाश के बाहर नहीं जाते क्योंकि वहाँ धर्म द्रव्य नहीं है। सिद्धों की अवगाहना ५२५ धनुष हैं। जघन्य ३.५ अरत्नि प्रमाण है। एक समय में एक ही जीव सिद्ध होता है अधिक से अधिक एक समय में १०८ जीव सिद्ध होते हैं। अन्त में सिद्धपरमेष्ठी के आठ गुणों को प्रस्तुत किया है।
‘‘सम्मत्तणाणदंसण वीरिय सुहुमं तहेव अवगहणं।
अगुरुलघुमव्वावाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं।।’’
सिद्धों के ८ कर्मों के क्षय से आठ गुण प्रकट होते हैं।
मोहनीय कर्म के क्षय से सम्यक्त्व, ज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान, दर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शन, अंतराय कर्म के क्षय से अनंतवीर्य, नामकर्म के अभाव से सूक्ष्मत्व, आयुकर्म के अभाव से अवगाहनत्व, गोत्रकर्म के अभाव से अगुरुलघु तथा वेदनीय कर्म के अभाव से अव्याबाध सुख, सिद्धों में ये ८ गुण होते हैं।
वास्तव में माताजी का यह उपकार है कि अनेक आगम ग्रंथों का दोहन एक ही ग्रंथ में प्रस्तुत कर पाठकों को ज्ञान प्राप्ति की सुविधा प्रदान कराई है। इस ग्रंथ के अध्ययन से अल्पज्ञ भी जैन दर्शन का ज्ञान प्राप्त कर उसके विशेष अध्ययन के लिए प्रस्तुत हो सकता है। यह तो गागर में सागर भरने की बात है। इस आलेख में कृति का मात्र आचमन ही प्रस्तुत है अधिक ज्ञान हेतु पूरे ग्रंथ का स्वाध्याय कर विशेष ज्ञान प्राप्ति के हेतु स्वयं को प्रस्तुत किया जा सकता है।