हिन्दी साहित्य को जैन साहित्यकारों की सबसे बड़ी देन एक नई विद्या को आरंभ करने के रूप में हैं। पं. बनारसीदास ने अर्ध कथानक लिखकर हिन्दी में ‘आत्मकथा’ विद्या का प्रणयन किया था। इसके बाद अनेक जैन-अजैन विभूतियों ने अपनी आत्मकथाएँ लिखीं किन्तु जो प्रसिद्धि पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी द्वारा लिखित ‘मेरी जीवन गाथा’ को मिली, वैसी अन्य किसी जैन महापुरुष की आत्मकथा को नहीं मिली।
वर्तमान में राष्ट्रगौरव आर्यिकाशिरोमणि गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित ‘मेरी स्मृतियाँ’ ने जो ख्याति अर्जित की है, वह अपना उदाहरण आप है। पूज्य माताजी ने अनेक दुरूह जैन आगम ग्रंंथों की टीका लिखकर जैन साहित्य की जो सेवा की है, वह बेमिशाल है। संस्कृति के संरक्षण में माताजी की प्रेरणा से निर्मित ‘जम्बूद्वीप’ उनकी कीर्ति कौमुदी को दिग्दिगन्तव्यापिनी बना रहा है और ‘यावच्चन्द्रदिवाकरौ’ बनाता रहेगा।
मेरी स्मृतियाँ का दूसरा संस्करण मेरे सामने है किन्तु वस्तुत: यह दूसरा नहीं तीसरा संस्करण है और वह भी पूर्णत: परिवर्धित। १९८४ में ‘मेरी स्मृतियाँ’ एक छोटी पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुई थी। १९९० में यह एक मोटी पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई और अब यह अपने वृहद वर्तमान रूप में ईसवी सन् २००४ में प्रकाशित हुई है। इसका प्रकाशन दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर (मेरठ) उ.प्र. द्वारा किया गया है।
लगभग ६०० पृष्ठों में लिखित ‘मेरी स्मृतियाँ’ में माताजी की १९९० तक की तो विस्तृत स्मृतियाँ हैं, उसके आगे के १४ वर्ष अर्थात् सन् २००४ तक की स्मृतियों को संक्षेप में लेखनीबद्ध किया गया है। आत्मप्रशंसा के भय से अनेक प्रकरण छोड़ दिये गये हैं। जैसा कि ‘कैसे लिखी गई मेरी स्मृतियाँ’ शीर्षक भूमिका में आर्यिका चंदनामती जी ने लिखा भी है-
अरुचिपूर्ण भावना से लिखी इस कृति को देखकर हमें पूरा संतोष तो नहीं हुआ, क्योंकि हमने स्वयं २० वर्षों से पूज्य माताजी के पास रहते हुए अनेकों खट्टे-मीठे अनुभव ऐसे प्राप्त करते देखे हैं, जिनका इसमें उल्लेख ही नहीं किया गया है। शायद आत्मप्रशंसा के भय से ही वे प्रकरण छोड़े गये हैं।’
इसी भूमिका में आर्यिका चंदनामती जी ने ठीक ही लिखा है-‘किसी भी लेखक के लिए मौलिक ग्रंथ रचना अनुवाद कार्य करना तथा अन्य किसी महापुरुष के जीवनवृत्त का लेखनी द्वारा चित्रांकन करना जितना दुरूह कार्य है, उससे कहीं अधिक कठिन कार्य अपने जीवन की स्मृतियों को अपनी ही लेखनी द्वारा बद्ध करना है।’’
‘मेरी स्मृतियाँ’ का प्रारंभ माताजी की सात-आठ वर्ष की अवस्था से होता है। स्वयं माताजी ने लिखा है-‘जब सात-आठ वर्ष की मेरी अवस्था होगी, ग्रंथ में उस सबसे महत्वपूर्ण प्रसंग को लिखा गया है, जिसने एक बालिका को आर्यिका बनने की प्रेरणा दी। उसी घटना ने उन्हें विवाह से वैराग्य की ओर बढ़ा दिया-‘उस लघुवय में ही एक बार पाठशाला में लड़कों ने ‘अकलंक निकलंक’ नाटक खेला था।
जिसमें अकलंक और उनके पिता के संवाद में अकलंक ने एक पंक्ति कही-‘‘प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरं’’ कीचड़ में पैर रखकर धोने की अपेक्षा कीचड़ में पैर नहीं रखना ही अच्छा है, वैसे ही विवाह करके पुन: छोड़कर दीक्षा लेने की अपेक्षा विवाह नहीं करना ही उत्तम है।
यह पंक्ति मेरे हृदय में पूर्णतया उतर गई और उसी क्षण से लेकर मैं हमेशा सोचती रहती तथा यह पंक्ति मन में रटा करती।’ उपरोक्त उद्धरण से हम एक बात और सिद्ध करना चाहते हैं कि ‘मेरी स्मृतियाँं’ में जगह-जगह सूक्तियों, उद्धरणों, आगम वाक्यों को दिया गया है। इस संदर्भ में पृ. १२, ६१, ८७, ८८, ५४६ आदि विशेष दृष्टव्य हैं।
पूज्य माताजी जिस स्थान, विशेषत: तीर्थों की यात्रा का वर्णन करती हैं, उसका पूरा इतिहास लिख देती हैं। इस दृष्टि से पावापुरी (१६१), चम्पापुर (१६१) पावापुरी आदि के वर्णन दृष्टव्य हैं। माताजी की शैली की यह विशेषता है कि वे यदि कुछ अतिरिक्त कहना चाहती हैं तो उसे फुटनोट में देती हैं। स्वयं उन्हें लगता है कि इस शब्द का अर्थ पाठकों को कठिन लगेगा या देशान्तर में इसका अन्य अर्थ हो सकता है तो उस शब्द का अर्थ फुटनोट में दे देती हैं। जैसे पृष्ठ ५७ के फुटनोट में लिखा गया है-
‘यहाँ बाई शब्द वात्सल्यपूर्वक बेटी वाचक है।’ इस ग्रंथ से ऐसे अनेक रहस्य खुलते हैं, जो पाठकों को कभी मिल ही नहीं सकते थे। इस संदर्भ में जम्बूद्वीप निर्माण प्रकरण या विभिन्न विधानों के प्रकरणों को लिया जा सकता है। विभिन्न ग्रंथों की रचना किस प्रेरणा से और कब माताजी ने की? इसका खुलासा भी इन स्मृतियों से हुआ है।
कहीं-कहीं तो माताजी लिखते-लिखते एकदम वैराग्य की प्रतिमूर्ति के समान दिखाई देती हैं। जैसे अपनी माँ (गृहस्थ अवस्था की) आर्यिका रत्नमती माताजी के संदर्भ में यह संस्मरण- .मैं दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करना चाहती हूँ, मैं तो कई बार प्रेरणा देती ही रहती थी अत: मैं इतना सुनते ही बहुत प्रसन्न हुई और बोली ‘‘आपने बहुत अच्छा सोचा है-जब लों न रोग जरा गहे तव लों झटिति नित हित करो।’
इस पंक्ति के अनुसार अभी आपका शरीर भी साथ दे रहा है अत: अब आपको किसी की भी परवाह न करके आत्मसाधना में ही लग जाना चाहिए । अच्छा, एक बात मैं आज आपको और बता दूँ, मैंने सुगंध दशमी के दिन माधुरी को ब्रह्मचर्यव्रत दे दिया है, अत: उसकी तो शादी का सवाल ही नहीं उठता है।
(पृ. ३०१) इसी प्रकार पृष्ठ ३३८ के एक संस्मरण में जैन पंचरंगी ध्वजा के संदर्भ में माताजी के विचार महत्वपूर्ण हैं। पृष्ठ ३१५ से ज्ञात होता है कि अष्टसहस्री ग्रंथ के अंतिम प्रूफ माताजी स्वयं देखती थीं। यदि लेखक ही ग्रंथ के प्रूफ देखे, तो उस ग्रंथ की प्रामाणिकता शत-प्रतिशत होती है। यहीं वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला की स्थापना का भी पाठकों को पता चलता है।
पृष्ठ ५८ और ६५ में मुनिराज एवं आर्यिका के २८ मूलगुणों की चर्चा की गई है, जिससे इस विषय में लेखिका के विचारों का आभास मिलता है। पृष्ठ ५४३ से सप्तम खण्ड प्रारंभ होता है और आरंभ में ही ज्ञात हो जाता है कि आगे क्या लिखा जाने वाला है? इस प्रकार पाठकों में एक जिज्ञासा उदित होती है, जो संस्मरण साहित्य की विशेषता ही नहीं, अपरिहार्यता भी है।
लगभग पूरी पुस्तक में ही इस शैली के दर्शन होते हैं। पाठक जब एक प्रकरण को प्रारंभ करता है, तो उसे पूरा पढ़कर ही दम लेता है। पृष्ठ ५९२, जहाँ ग्रंथ का समापन होता है, के दो संदर्भ यहाँ उल्लिखित हैं। प्रथम से चौंसठ ऋद्धि विधान कराने में माताजी की यह भावना उनके अन्त:करण को प्रकट करने में पूर्णत: सक्षम हुई है। जिसमें कहा गया है कि ‘संसारी प्राणी जैनधर्म जैसे सच्चे धर्म को छोड़कर इधर-उधर मिथ्यादेवी-देवताओं के पास जाकर अपनी श्रद्धा को तिलांजलि न देने पावें।’’ इसी पृष्ठ के दूसरे संदर्भ में ग्रंथ रचना का उद्देश्य बतलाया गया है।
यथा-इस ‘मेरी स्मृतियाँ’ को भी मैंने शिष्यों के हठाग्रह, विद्वानों के विशेष आग्रह से एक अरुचिपूर्ण भाव से ही लिखा है, स्वप्रशंसा के भाव से नहीं। इसका अनुभव मुझे ही है। इसके अतिरिक्त मैंने जो भी ग्रंथ व पुस्तके लिखी हैं, उनमें से किसी के लिए भले ही किसी की प्रेरणा रही हो, फिर भी मैंने अतीव रुचि से आत्मा की शुद्धि व परोपकार की भावना से ही लिखे हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है।’ ग्रंथ की भाषा अत्यन्त सरल, सरस और प्रवाहमयी है किन्तु कहींं-कहींr अधिक संदर्भों के देने से बोझिल बन गई है।
जैसे पृष्ठ १६५ के स्वरचित छंद, पूजन तथा उनका हिन्दी अनुवाद दिया जाना है किन्तु यह एक अध्यात्मयोगिनी की आत्मकथा है अत: इसमें ऐसे उद्धरण रचनाएं, दूषण नहीं, उसके भूषण हैं। ग्रंथ की एक विशेषता यह भी है कि जैन समाज का बीसवीं-इक्कीसवीं सदी का काफी इतिहास इसमें संग्रहीत हो गया है। जैन समाज अपने इतिहास के लेखन के प्रति गंभीर नहीं रहा है, फलत: बहुत से तथ्य काल के गाल में समा गये हैं।
इस ग्रंथ में घटनाओं की तिथियाँ दे दी गई हैं। मैं नहीं जानता कि माताजी अपनी डायरी लिखती हैं कि नहीं किन्तु इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि यदि बिना डायरी के इतनी तिथियाँ लिखी गई हैं, तो यह अपने आप में एक उदाहरण है। इस दृष्टि से माताजी का ‘विलक्षण प्रतिभा की धनी’ विशेषण सर्वथा सार्थक है।
मेरी स्मृतियाँ को पूज्य माताजी का प्रामाणिक जीवन चरित भी कहा जा सकता है। यह इसलिए भी कि आज विपुल मात्रा में जीवन चरित लिखे जा रहे हैं। जिन्होंने कभी हमारे साधकों का कमण्डलु नहीं उठाया, किलो-दो किलोमीटर पदयात्रा नहीं की, वे कल्पना के आधार पर ही जीवन चरित लिख रहे हैं, यह चिंता का विषय है। संक्षेप में मेरी स्मृतियाँ एक अध्यात्म पथ की साधिका द्वारा अपने साधनामय जीवन का प्रामाणिक लेखा-जोखा है, जो साधना पथ के साधकों को साधनामयी प्रेरणा देता है और साधना पथ पर अग्रसर करता है।