परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से एक विशेष साक्षात्कार
डॉ. श्रेयांस- पूज्य माताजी! वंदामि, आज हम लोग आपसे ‘चतुर्थ गुणस्थान की पात्रता’ के विषय में विद्वानों के बीच चलने वाली ऊहापोह के विषय में समाधान प्राप्त करने हेतु उपस्थित हुए हैं। इस क्रम में मेरा प्रथम प्रश्न है- चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को निश्चल अनुभूति हो सकती है या नहीं?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-श्रद्धा, प्रतीति, विश्वास, अनुभूति ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टी को यह प्रतिभास रहता है कि देह अलग है, आत्मा अलग है अर्थात् उसे भेदविज्ञान का दृढ़ श्रद्धान रहता है अत: इस अनुभूति को मानने में कोई दोष नहीं है पर निश्चल अनुभूति या निर्विकल्प ध्यान या निर्विकल्प समाधि या शुद्धोपयोग जिसे कहते हैं, उस रूप अनुभूति चतुर्थ गुणस्थान में नहीं हो सकती। अर्थात् श्रद्धानरूप से प्रतीति या अनुभूति मानने में दोष नहीं है पर चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग मानना आगमसम्मत नहीं है।
डॉ. श्रेयांस- अर्थात् आगम वाक्य श्रद्धा चतुर्थगुणस्थानवर्ती को हो सकती है पर क्या श्रद्धा रूप अनुभव उसके लिए संभव है? परमात्म प्रकाश गाथा नं. १२ की टीका में चतुर्थ, पंचम, षष्ठ गुणस्थानवर्ती के लिए सराग स्वसंवेदन कहा है तो इस गुणस्थान में आंशिक शुद्धोपयोग की संभावना है क्या?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-शुद्धोपयोग शब्द कहने से आगम में बाधा आती है क्योंकि आचार्यों ने शुद्धोपयोग को सातवें गुणस्थान से ही माना है। अंश में तो हम यह भी कह देते हैं कि हमारा श्रुतज्ञान केवलज्ञान का अंश है, केवलज्ञान का बीज है, परन्तु हमारा श्रुतज्ञान केवलज्ञान नहीं है, केवलज्ञान अलग ही है।
इसी प्रकार मुनियों को जो शुद्धोपयोग होता है, वह अलग ही होता है, उसकी श्रद्धा, विश्वास, प्रतीति तो सातवें गुणस्थान से पूर्व होती है, पर वह साक्षात् नहीं होता है। यदि सातवें गुणस्थान से पूर्व हम शुद्धोपयोग का अंश मानें तो आचार्य स्वयं कहते कि शुद्धोपयोग का प्रारंभ हो गया है, भले ही अत्यंत सूक्ष्म रूप में अथवा अत्यंत अल्प समय के लिए, परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा। वरन् प्रवचनसार गाथा ९ की तात्पर्यवृत्ति टीका (पृष्ठ २०) में स्पष्टतया उल्लिखित है-
अर्थात् मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानोें में तरतमता से अशुभोपयोग है, इसके बाद असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत और प्रमत्तविरत इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से शुभोपयोग है, इसके अनन्तर अप्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय तक इन छह गुणस्थानों में तरतमता से शुद्धोपयोग है आदि।
यहाँ चौथे-पाँचवे और छठे गुणस्थान में आचार्यों ने तरतमता से शुद्धोपयोग नहीं बताया वरन् शुभोपयोग बताया और आगे स्पष्ट रूप से कह दिया कि सातवें गुणस्थान से लेकर अगले ६ गुणस्थानों में अर्थात् १२वें गुणस्थान तक तरतमता से शुद्धोपयोग है।
ऐसा हो सकता है कि उन पूर्वाचार्यों के समक्ष भी इस प्रकार की शंकाएँ आती होंगी, तभी उन्होंने इतना स्पष्ट रूप से बताया है। अत: हम सातवें गुणस्थान से पूर्व शुद्धोपयोग का अंश न मानें। शुद्धनिश्चयनय से मैं सिद्ध हूँ, यह बात श्रद्धान रूप में कही जाती है, श्रद्धान का अर्थ ये नहीं है कि अंश रूप में हम सिद्ध हो गये, वरन् हम श्रद्धानरूप में सिद्ध हैं अत: शुद्धोपयोग रूप चिंतन अवश्य करना चाहिए परन्तु शुद्धोपयोग का अंश प्रारंभ हो गया है, ऐसा मानने में बाधा आती है।
डॉ. श्रेयांस- अर्थात् इसे आगम वाक्य श्रद्धा तो कहा जा सकता है, परन्तु तद्रूप अनुभूति या अनुभव नहीं कहा जा सकता, यदि कहा जा सकता हो तो बतावें?
पूज्य ज्ञानमती माताजी- शब्दों में इसे अनुभव रूप कह सकते हैं पर शुद्धोपयोग रूप अनुभव यह नहीं है अथवा निर्विकल्प रूप अनुभव यह नहीं है। यह सविकल्प रूप अनुभव है। निश्चल अनुभूति रूप एकाग्रता मुनियों के शुद्धोपयोग में ही होती है।
पूज्य चंदनामती माताजी- सविकल्प अनुभव को तो शुद्धोपयोग का नाम दिया ही नहीं जा सकता, वह नाम तो निर्विकल्प अनुभव के लिए ही है।
डॉ. श्रेयांस- माताजी! इसका अर्थ क्या हम ये समझें कि उपयोग आत्मा की एक समय की एकाग्रता रूप अनुभूति है और उसमें अंश-अंशी का भेदपना नहीं पाया जाता है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी- हाँ! इसमें यह भेदपना नहीं माना जा सकता है। अंश रूप में यदि शुद्धोपयोग मानें तो आचार्यों की वाणी से बाधा आती है, अत: हम शुद्ध निश्चयनय की प्रतीति, प्रतिभास तो कह सकते हैं, पर उसका अंश नहीं कह सकते।
डॉ. श्रेयांस-माताजी! कृपया हमें बतायें कि आचार्यों के कौन-कौन से ऐसे वाक्य हैं, जिनसे विरोध आता है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-एक तो ‘जयसेन स्वामी’ का मैंने आपको पहले उदाहरण बताया कि ‘तदनंतरमप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तगुण-स्थानषट्केतारतम्येन शुद्धोपयोग:’ अत: यहाँ चौथे-पाँचवे-छठे गुणस्थान में शुद्धोपयोग की बात ही नहीं कही। पुन: अनगारधर्मामृत टीका में भी इसी से मिलते-जुलते वाक्य हैं, उन्होंने ११-१२वें गुणस्थान में ही वीतराग चारित्र को घटित किया है,
जो अभेदरत्नत्रय अथवा शुद्धोपयोग के साथ अविनाभूत है। चारित्र के दो भेद किये हैं-अपहृत संयम और उपेक्षा संयम, इसी प्रकार शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग दो भेद हैं, सराग चारित्र और वीतराग चारित्र ये दो भेद हैं।
पूर्ण वीतराग चारित्र तो ११-१२वें गुणस्थान में ही घटेगा, जहाँ मोहनीय का बिल्कुल अभाव हो गया, लेकिन फिर भी जयसेनाचार्य के शब्दों में सातवें गुणस्थान से ही उपेक्षा संयम अथवा वीतराग चारित्र अथवा शुद्धोपयोग को मान लिया गया है। पण्डित आशाधर जी ने अनगारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टीका में वीतराग चारित्र अथवा वीतराग संयम को ११वें-१२वें गुणस्थान में ही घटित किया है।
डॉ. श्रेयाँस-पूज्य माताजी! अभी आपने चारित्र और सम्यक्त्व को एक रूप में अनुभव के साथ जोड़ने का क्रम बताया है जबकि चारित्र अलग है और सम्यक्त्व अलग है और इसलिए अलग-अलग ही उसकी अनुभूति होनी चाहिए और अलग-अलग ही उसकी पात्रता होनी चाहिए।
पूज्य ज्ञानमती माताजी- देखिए! चतुर्थगुणस्थान में मात्र सम्यग्दर्शन है, चारित्र नहीं है, इसीलिए उसे कहा जाता है ‘असंयत सम्यग्दृष्टि’। जबकि जो चारित्र वीतराग सम्यक्त्व के साथ अविनाभावी है, वह वीतराग चारित्र है अर्थात् यह वीतराग चारित्र वीतराग सम्यक्त्व के बिना घटित ही नहीं होगा।
समयसार में व्यवहार नय से पंचपरमेष्ठी की भक्ति को सम्यक्त्व कहा गया है, परन्तु जहाँ तक निश्चय सम्यक्त्व की बात है वह चौथे गुणस्थान में घटित ही नहीं होता क्योंकि वह वीतरागचारित्र के साथ अविनाभावी है, जो छठे गुणस्थान के बाद ही घटित होगा। यथा-समयसार गाथा १७३ से १७६ की तात्पर्यवृत्ति टीका (पृ. ४३) में लिखा है-
‘‘भक्ति ही पुन: सम्यक्त्व कहलाती है। व्यवहार से सराग सम्यग्दृष्टियों की भक्ति पंचपरमेष्ठी के आराधनरूप है और निश्चय से वीतराग सम्यग्दृष्टियों की भक्ति शुद्धात्मतत्त्व की भावनारूप है।’’ इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि शुद्धात्मतत्त्व की भावनारूप भक्ति छठे गुणस्थान के ऊपर वाले वीतरागियों के ही होती है। पुन: मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा ४३ प्रकृतियों के बंध का अभाव हो जाने से पंचमगुणस्थानवर्ती ‘सराग सम्यग्दृष्टि’ है।
छठे गुणस्थान तक सराग सम्यग्दर्शन है और वहीं तक सराग चारित्र है। डॉ. श्रेयांस- स्वामी अकलंक देव ने क्षायिक सम्यग्दृष्टी को वीतराग सम्यग्दृष्टि कहा है तो इस अपेक्षा से वह निश्चय सम्यग्दृष्टी होकर शुद्धोपयोगी माना जाना चाहिए। पूज्य ज्ञानमती माताजी- यह कथन सम्यक्त्व की अपेक्षा है। निश्चय सम्यक्त्व तो सातवें गुणस्थान से ही होगा, इसके पूर्व नहीं।
मुझे ऐसा लगता है कि चल, मलिन, अगाढ़ आदि दोषों का अभाव हो जाने से उत्पन्न निर्दोषत्व की अपेक्षा क्षायिक सम्यग्दृष्टी को वीतराग सम्यग्दृष्टि कहा गया होगा। चतुर्थगुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टी में आत्मविशुद्धी होती है परन्तु यह आत्मविशुद्धी शुद्धोपयोग रूप नहीं है। शुद्धोपयोग तो श्रेणी में ही होता है। प्रवचनसार की गाथा नं. २३८ में कहा है-
जं अण्णाणी कम्मं, खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं।
तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ उस्सासमेत्तेण।।२३८।।
अर्थात् अज्ञानी कोटिसहस्र भवों में जितने कर्मों की निर्जरा करता है, ज्ञानी तीन गुप्ति से रक्षित होकर एक श्वासमात्र में उतने कर्मों की निर्जरा कर देता है। दौलतराम जी ने भी छहढ़ाला में यही बात कही है-
कोटिजन्म तप तपै, ज्ञानबिन कर्म झरै जै।
ज्ञानी के छिन में त्रिगुप्तितैं सहज टरै ते।।
देखने का विषय यह है कि ‘त्रिगुप्ति’ किन को होती है। अरे! जब मुनियों में से भी सभी मुनियों को त्रिगुप्ति नहीं होती, विरले मुनियों को ही होती है, तो चतुर्थगुणस्थान में तो अभी महाव्रत और समिति ही नहीं है तो गुप्ति कैसे हो जायेगी? इस प्रकार दौलतराम जी की पंक्ति आगम से असम्मत नहीं है, मात्र उसके अर्थ का विर्पयास वर्तमान में हो गया है और इस पंक्ति में वर्णित ‘ज्ञानी’ को लोग चतुर्थगुणस्थान में घटित करने लगे हैं।
डॉ. श्रेयांस-माताजी! आपने बताया कि चतुर्थगुणस्थान में चारित्र नहीं होता, जबकि स्वामी भट्टाकलंकदेव ने ‘राजवार्तिक’ की प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र में ही लिख दिया है-‘सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रं उत्तरं भजनीयम्।’ भजनीयम् का अर्थ हो जाता है कि चारित्र हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है, तब ऐसा कैसे संभव है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी- इसका सीधा अभिप्राय यही है कि सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान होने के पश्चात् कोई चारित्र ग्रहण कर भी सकता है अथवा नहीं भी कर सकता है अर्थात् चौथे गुणस्थान में ही बना रह सकता है। इसका अर्थ ये नहीं है कि चतुर्थगुणस्थान में चारित्र है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में भी कहा है-
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान:।
रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधु:।।
अत: भजनीयम् का अर्थ यही है कि कोई उसी भव में चारित्र ग्रहण कर लेता है, कोई नहीं करता है। जैसे-नारकी चारित्र ग्रहण नहीं कर सकते, देव भी चारित्र ग्रहण नहीं कर सकते, तिर्यंचों और मनुष्यों में चारित्र ग्रहण कर भी सकते हैं, नहीं भी कर सकते हैं अन्यथा असंयत सम्यग्दृष्टि में उनकी गणना हो ही नहीं पायेगी। डॉ. श्रेयांस- आपकी बात बिल्कुल ठीक है, उत्तरपुराण में भी यही बात कही है-
सततमेव सम्यक्त्वज्ञानाभ्यां चरितंं मतम्।
स्यातां विनापि तेन तेन गुणस्थाने चतुर्थके।।
अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान से सहित ही सम्यग्चारित्र होता है, परन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो होता है, पर सम्यग्चारित्र नहीं होता। अर्थात् ‘भजनीयम्’ का अर्थ ‘हो सकता है’, यह न लेकर ग्रहण करने के ही अर्थ में लेना चाहिए।
पूज्य ज्ञानमती माताजी- हाँ! यह बिल्कुल उचित है क्योंकि ‘निश्चयचारित्राविनाभावीवीतरागसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा।’ (समयसार गाथा ७४, तात्पर्य वृ.टी.पृ. १२२) अर्थात् जो निश्चय चारित्र के साथ अविनाभावी है वही वीतराग सम्यग्दर्शन होता है।
डॉ. श्रेयांस- एक प्रश्न और है, माताजी! चतुर्थगुणस्थानवर्ती का वेद्य-वेदक भाव क्या है? क्या वह मात्र सुख का वेदक है या उसे दुख का अनुभवन भी है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी- चतुर्थगुणस्थानवर्ती दु:ख का अनुभव तो करते हैं। उदाहरण के लिए राजा श्रेणिक का जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टी एवं चतुर्थगुणस्थानवर्ती है तथा इस समय नरक में हैं तो वहाँ उनके प्रतिक्षण सुख का वेदन हो रहा है, यह हम कह ही नहीं सकते। जिस क्षण तत्व की ओर दृष्टि जाती होगी, अवधिज्ञान से सोचते होंगे कि मैं तीर्थंकर का जीव हूँ, कर्म के उदय से मुझे यह दु:ख मिल रहा है, उस समय उन्हें शांति मिल जाती होगी परन्तु जो त्रास-संताप एवं शारीरिक पीड़ा उस जीव को प्रतिक्षण झेलनी पड़ती है,उससे दु:ख का अनुभवन न आये, ऐसा नहीं है।
और उदाहरण हम देख सकते हैं। सीता का वियोग हुआ तो राम को दु:ख हुआ, यदि दु:ख व चिंता नही हुई होती, तो वह अनेक उपाय करके सीता को खोजने का प्रयास क्यों करते? इसी प्रकार जब चक्ररत्न अयोध्या में प्रविष्ट नहीं हुआ, तब भरतचक्रवर्ती को क्लेश हुआ और जब उन्होंने चक्र चलाया होगा, तो आर्तध्यान न हुआ हो, ऐसा संभव नहीं है।
अंतर यही है कि शारीरिक वेदना की स्थिति में सम्यग्दृष्टी जीव जब यह चिंतन करता है कि वेदना शरीर को है आत्मा को नहीं तो उसको उस क्षण मानसिक शांति मिल जाती है, परन्तु शारीरिक वेदना तो बनी ही रहती है। इस प्रकार सुख और दु:ख दोनों का वेदन होता है।
डॉ. श्रेयांस –क्या वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीव दु:ख को अपना मानता है या उसमें उदासीन रहता है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी-बार-बार उस दु:ख की ओर से अपनी दृष्टि को हटाना, उदासीन न होने का प्रयास करना सम्यग्दृष्टी का कार्य है परन्तु वह दु:ख का अनुभव करता ही नहीं है, ऐसा हम नहीं मान सकते। आप मुनियों का उदाहरण लें। छठे गुणस्थान में असाता की उदीरणा मानी है, अर्थात् उपसर्ग छठे गुणस्थान तक होता है अथवा दूसरे शब्दों में कहें तो छठे गुणस्थान तक मुनियों को उपसर्ग का अनुभव आता है, अब जैसे ही उपसर्ग से उनका ध्यान हटा और आत्मा में स्थिर हुआ, उन्हें दु:ख का अनुभव आना समाप्त हो जाता है।
देखिए! भगवान पाश्र्वनाथ पर सात दिन तक उपसर्ग हुआ और इन सात दिनों तक यदि उनकी निर्विकल्प ध्यान की स्थिति मानी जाये, तो उन्हें केवलज्ञान हो जाना चाहिए था परन्तु ऐसा नहीं हुआ, सात दिन तक वह छठे-सातवें गुणस्थान में आते जाते रहे, छठे में आते तो उन्हें उपसर्ग का अनुभव आता और सातवें में चढ़ जाते तो उन्हें उपसर्ग का अनुभव आना बंद हो जाता, यही स्थिति सात दिन तक चलती रही।
डॉ. श्रेयांस- पूज्य माताजी! एक पद्य आता है-
‘चिन्मूरति दृगधारी की मोहे रीति लागत अटापटी सदन निवासी तदपि उदासी तातैं आस्रव छटाछटी’
अर्थात् सम्यग्दृष्टी बिल्कुल उदास रहता है, इस कथन के विषय में आप क्या कहना चाहेंगी? पूज्य ज्ञानमती माताजी- यह कथन प्रतिक्षण की अपेक्षा नहीं है।
सम्यग्दृष्टी अधिकतम उदास रह सकता है पर जिस समय खाना खाता है अथवा अन्य क्रियाएँ करता है, उस समय तद्रूप परिणाम होना कोई असंभव नहीं है। वास्तव में तो सम्यग्दृष्टी को रौद्रध्यान भी हो सकता है। जैसे मुनियों के छठा-सातवाँ गुणस्थान अंतर्मुहूर्तू-अंतर्र्मुहूर्त के लिए हुआ करता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टी को भावों में तरतमता चला करती है, उसे गुणस्थान बदलना नहीं कहते हैं।
कोई समय ऐसा आता है कि वह सांसारिक कार्यों में दत्तचित्त हो रहा है, उस समय उसे ‘चिदानंद चैतन्य के रस की गटागटी’ नहीं है परन्तु अधिकतम समय वह तत्वचिंतन करता है, संसार से उदासीन रहता है, यह समझना है।
डॉ. श्रेयांस-माताजी! इस संदर्भ में कोई गाथा भी है क्या?
पूज्य ज्ञानमती माताजी- रत्नकरण्डश्रावकाचार में कथन है-
सम्यग्दर्शनशुद्ध: संसारशरीरभोगनिर्विण्ण:।
पंचगुरुचरणशरण: दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्य:।।
सम्यग्दृष्टी संसार, शरीर, भोगों से उदास तो रहता है, पर यह उदासीनता २४ घंटे उपयोग रूप नहीं मानी जा सकती, कभी शक्तिरूप से तो कभी व्यक्तरूप से हमें मानना पड़ेगा। सर्वथा एकांतरूप से सदैव व्यक्त अवस्था ही नहीं मानी जा सकती।
डॉ. श्रेयांस- माताजी! यह स्पष्ट हो गया है कि-
‘‘परिणमदि जेणदव्वं तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं’’
अर्थात् कुन्दकुन्द स्वामी के कथन सर्वथा उचित सिद्ध होते हैं कि जिस काल में जीव जो कार्य करता है, उस काल में उसका वैसा ही परिणमन हो जाता है।
पूज्य ज्ञानमती माताजी- हाँ! अंतर इतना ही है कि मिथ्यादृष्टि के भावों में दु:ख-सुख से एकमेक अवस्था रहती है और सम्यग्दृष्टी के भावों में भिन्नता जरूर अनुभव में आती है तथा मिथ्यादृष्टी की पापबंध की ओर कोई दृष्टि नहीं रहती जबकि सम्यग्दृष्टी तत्वचिंतन द्वारा इससे बचने का सदैव प्रयास करता है।
पूज्य चन्दनामती माताजी- पूज्य माताजी! जहाँ तक मैंने समझा है कि अविरत सम्यग्दृष्टी को शुद्धोपयोग नहीं हो सकता तो कृपया ये बताएँ कि क्या पंचम काल के मुनियों को शुद्धोपयोग माना जा सकता है तथा ग्यारह अंग तक का ज्ञान धारण करने वाली आर्यिकाओं को शुद्धोपयोग की संभावना है क्या?
पूज्य ज्ञानमती माताजी- शास्त्रों में यह स्पष्ट है कि पंचमकाल के अंत तक भावलिंगी मुनि रहेंगे, जिनके छठा-सातवाँ गुणस्थान निश्चित ही रहेगा, तो उनके सातवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग मानने में कोई बाधा नहीं आती है। क्योंकि उनको स्वस्थान अप्रमत्त ही है, सातिशय अप्रमत्त नहीं हो सकता तो भी उनके लिए शुद्धोपयोग का प्रारंभ माना जा सकता है।
जहाँ तक आर्यिकाओं का प्रश्न है तो अनुभूति, श्रद्धा, प्रतीति तो उन्हें है तथा ग्यारह अंग का ज्ञान होने से उनमें आत्म-निर्मलता भी है पर यह शुद्धोपयोग रूप नहीं है, यह निश्चित है। वास्तव में वस्त्रधारी को शुद्धोपयोग नहीं हो सकता है।
डॉ. श्रेयांस- माताजी! आचार्यश्री जयसेन स्वामी ने सातवें गुणस्थान में निरअतिशय में भी शुद्धोपयोग को माना है, जबकि आचार्यश्री अमृतचंद्रसूरि ने श्रेणी से पूर्व शुद्धोपयोग को माना ही नहीं है, शुक्लध्यान और शुद्धोपयोग को पर्यायवाची माना है, उस पर आपका क्या अभिमत है?
पूज्य ज्ञानमती माताजी- मूलाचार एवं षट्खण्डागम की दसवीं पुस्तक में धर्मध्यान को दसवें गुणस्थान तक माना है, शुक्लध्यान को ग्यारहवें से ही माना है। परन्तु ज्ञानार्णव, सर्वार्थसिद्धि आदि में श्रेणी में भी शुक्लध्यान को मान लिया गया है, धर्मध्यान को सातवें तक पुन: सातिशय अप्रमत्त से लेकर आगे के गुणस्थानों में अर्थात् श्रेणी में शुक्लध्यान माना है, इसी प्रकार हम शुभोपयोग एवं शुद्धोपयोग की बात भी आचार्यों के कथन की अपेक्षा ग्रहण कर सकते हैं।
डॉ. श्रेयांस-माताजी! आज आपके पास आकर बहुत सी जिज्ञासाएँ शांत हुई हैं, मुझे विश्वास है कि पाठकगणों को भी इस चर्चा से उचित मार्गदर्शन प्राप्त हो सकेगा। आपका दिशानिर्देश इसी प्रकार हमें प्राप्त होता रहे, इसी भावना के साथ आपके श्रीचरणों में विनम्र वंदन ज्ञापित करता हूँ।