(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. लाडनूं में मानस्तंभ-जिनबिम्ब प्रतिष्ठा।
२. अनुजा मनोवती का संघ में प्रवेश।
३. मोहिनीदेवी ने आचार्यश्री से दूसरी प्रतिमा ग्रहण की।
४. माताजी संघ में समन्वयक का काम करतीं।
५. माताजी द्वारा जिनमती को अध्यापन।
६. अजितसागर जी को संघ त्याग नहीं करने हेतु समझाया।
७. संघ जोड़ने के लिए जीवनभर के लिए कई वस्तुओं का त्याग।
८. आचार्यश्री से शिखरजी यात्रा के लिए अनुमति।
९. लघु संघ के साथ माताजी का शिखर जी को विहार ।
दूजोद-मूँडवाड़ा-होकर, कूकनवाली किया विहार।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती ने, जैन धर्म का किया प्रचार।।
वहाँ से चलकर गर्इं लाडनूं, आचार्य संघ मिलीं ऐसे।
प्रयागराज में गंगा-जमुना, आपस में मिलतीं जैसे।।४०५।।
आचार्यश्री शिवसागर सन्निधि, हुए धार्मिक आयोजन।
मानस्तंभ जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, का सुंदरतम संयोजन।।
मानस्तंभ देख मानी का, मान-भंग हो जाता है।
श्री जिनवर के दर्शन करके, तमस्तोम भग जाता है।।४०६।।
जब तक काल लब्धि न आती, तब तक बनें न कोई काम।
कितना ही पुरुषार्थ करो तुम, व्यर्थ ही जाते यत्न तमाम।।
लेकिन काल लब्धि आने पर, शीघ्र सफलता मिल जाती।
होनहार जैसी होती है, बुध्दि भी वैसी हो जाती।।४०७।।
मनोवती का रहा मनोरथ, माताजी के दर्श करें।
संयम के पथ पर चल करके, अपना जीवन धन्य करें।।
किन्तु पिता का मोह हमेशा, मार्ग में बाधक बन जाता।
मात मोहिनी का प्रयास भी, उन पर कुछ न चल पाता।।४०८।।
मनोवती का भाग्य एक दिन, माँ संग लाडनूं ले आया।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती ने, उन्हें ब्रह्मचर्य दिलवाया।।
मनोवती का मन वैरागी, नहीं चाहता लौटूँ घर।
अत: साधनालीन हो गई, ज्ञानमती जी संघ रहकर।।४०९।।
एक दिवस माँ ज्ञानमती ने, खुद का किया केशलुंचन।
वैराग्यभाव पैदा करने में, केशलुंच बन गया पवन।।
माताश्री मोहिनीदेवी, संयम नौका हुई सवार।
शिवसागर आचार्यश्री से, दो प्रतिमा कीनी स्वीकार।।४१०।।
धर्म प्यास जिसके मन जगती, अन्य न उसे सुहाता है।
सम्यग्दर्शनज्ञानचरित ही, उसके मन को भाता है।।
जैन समाज लाडनूं में भी, इस ही गुण का रहा निवास।
शिवसागर आचार्य संघ ने, किया यहीं पर चातुर्मास।।४११।।
कुछ होते हैं विघ्नसंतोषी, कुछ करते विघ्नों का नाश।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती का, संघ शांति हित रहा प्रयास।।
रहे संघ सौहार्द-समन्वय, हो न किसी को नाराजी।
पूर्वापर गुण दोष बताकर, समझा देतीं माताजी।।४१२।।
आचार्यश्री वीरसागर जी, पाठ पढ़ाया उत्तम नेक।
सदा काम तुम सुई से लेना, कैची को तुम देना फेंक।।
जैसे सुई जोड़ती सबको, माताजी ने जोड़ा संघ।
अति समझाया अजितसिन्धु को, संघ त्याग जब उठा प्रसंग।।४१३।।
गद्य-पद्य-व्याकरण-न्याय पर, माताजी का पूर्णाधिकार।
लेखन-प्रवचन-ध्यान-साधना, इत्यादिक हैं क्षेत्र अपार।।
गद्य चिन्तामणि, धर्म शर्माभ्युदय, शब्दार्णव चंद्रिका इत्यादि।
जिनमतिजी को किए अध्यापित, माताजी श्री ज्ञानमती।।४१४।।
अहो! धन्य माताजी तुमको, संघ जोड़ना काम किया।
संग्रहणी हित अमृत औषधि, तक्र का तुम परित्याग किया।।
जीवन की परवाह नहीं की, वह भी दाँव पर लगा दिया।
किया कार्य अकलंक देवजी, तुम भी करके दिखा दिया।।४१५।।
भोजन की वस्तुएँ छोड़ना, क्या यह भी कोई है त्याग।
सकल ग्रंथियाँ त्याग चुके जो, अब वे क्या त्यागें बड़भाग।।
जिसके पास जो कुछ होता है, वही त्याग है कर सकता।
रस परित्याग महत्तम तप को, महातपस्वी कर सकता।।४१६।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, चिन्तन-मनन अनन्य करें।
सम्मेदशिखर वंदना करके, अपना जीवन धन्य करें।।
हाथ जोड़कर गुण चरणों में, किया निवेदन सहित प्रणाम।
सिद्धक्षेत्र वंदना करने, गुरुवर अनुमति करें प्रदान।।४१७।।
जैसे पिता, सुता का अपनी, नहीं चाहता कभी वियोग।
वैसे गुरू शिष्य अपनों का, सदा चाहता है संयोग।।
तदपि पुण्य का कार्य जानकर, अनुमति दी आचार्यश्री।
श्री गुरुवर के चरण पखारे, श्रद्धायुत श्रीमाताजी।।४१८।।
श्रावक हों अथवा हों साधु, सबमें होता संवेदन।
सजल नयन हो गये गुरू के, जब आये वियोग के क्षण।।
सकल संघ ने करी विदाई, आचार्यश्री आशीष दिया।
अपने संघ सहित माताजी, सिद्धक्षेत्र को गमन किया।।४१९।।