(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. सोलापुर से विहार।
२. कुंथलगिरि-पैठण-एलोरा-मांगीतुंगी-गजपंथा-बड़वानी-सिद्धवरकूट होते हुए इंदौर में प्रवास।
३. इंदौर में शिक्षण शिविर का आयोजन।
४. आलाप पद्धति एवं पात्रकेसरी स्तोत्र का अनुवादन।
५. सनावद में चातुर्मास।
६. श्री १०५ क्षुल्लक मोतीसागर जी की जन्मभूमि।
७. मोतीचंद्र संत मोतीसागर हो गये।
८. शिक्षण शिविर का आयोजन।
९. चातुर्मास की अनेक उपलब्धियाँ।
१०. यशवंत छात्र ने ब्रह्मचर्यव्रत लिया जो आज आचार्य श्री वर्धमानसागर हैं।
११. मुक्तागिरि को विहार।
१२. मुक्तागिरि नाम की सार्थकता।
श्रावक के पद स्थिर रहते, दौड़ लगाता रहता मन।
किन्तु संत मन स्थिर रखते, चलते रहते सदा चरण।।
चातुर्मास हुआ निष्ठापित, सोलापुर से संघ चला।
कुंथलगिरि – पैठण – एलोरा – मांगीतुंगी – तीर्थ मिला।।५०७।।
फिर गजपंथा यात्रा करके, बड़वानी संघ पधराया।
बड़वानी से ऊन, वहाँ से, सिद्धवरकूट क्षेत्र आया।।
तदनंतर इंदौर में किया, शिक्षण-शिविर सु आयोजन।
किया यहीं पर माताजी ने, आलापपद्धति अनुवादन।।५०८।।
पात्रकेशरी स्तोत्र का किया, संस्कृत भाषा पद्यानुवाद।
मोतीचंद जी किये प्रकाशित, सकल समाज दिया धन्यवाद।।
इंदौर चाहता हार्दिकता से, माताजी का चातुर्मास।
उधर सनावदवासी प्यासे, बैठे पूर्ण लगाये आश।।५०९।।
बैठे-बैठे काम न चलता, है उद्योग सफलता वास।
भाग्य साथ उसका ही देता, जो करता है पूर्ण प्रयास।।
श्री गुरुवर तक दौड़ लगाई, आज्ञा लाये हाथों-हाथ।
माताजी ने शिरोधार्य की, नगर सनावद किया सनाथ।।५१०।।
संघ सहित श्री माताजी का, यदा नगर आगमन हुआ।
लगा कि जैसे सूखे मरुथल, गुलशन-गुलशन चमन हुआ।।
इसी नगर के रत्न अमोलक, क्षुल्लक जी श्री मोतीचंद।
माताजी संघस्थ संयमी, मोतीसागर जी गुणवन्त।।५११।।
नगर सनावद रहते दम्पति, रूपाबाई-अमोलकचंद।
उनके एक पुत्र वैरागी, ब्रह्मचारी श्री मोतीचंद्र।।
महाजौहरी माताजी ने, एक दृष्टि सब जान लिया।
मुझे गोद दे दो बेटा, माता ने उनसे माँग लिया।।५१२।।
मात-पिता की स्वीकृति पाकर, लगे फूटने मोतीचूर।
गृह-तज हुए संघ में शामिल, माँ आशीष मिला भरपूर।।
सज्जन के मस्तक चढ़ जाता, कीट सुमन का पाकर संघ।
मानव संत संग को पाकर, खुद भी बन जाता है संत।।५१३।।
शिक्षण शिविर हुआ आयोजित, चातुर्मास का सफल उपाय।
छहढाला-तत्त्वार्थसूत्र सह, अध्याये पुरुषार्थ उपाय।।
नगर सनावद चतुर्मास का, एक और है अनुपम फल।
यशवन्त छात्र ने ब्रह्मचर्य ले, अपना जीवन किया सफल।।५१४।।
जिनवर दीक्षा धार अनंतर, वर्धमानसागर मुनि मान्य।
आज आप आचार्य बने हैं, चढ़कर रत्नत्रय सोपान।।
चातुर्मास हुआ निष्ठापित, हुआ पिच्छिका परिवर्तन।
संघ सहित श्रीमाताजी ने, मुक्तागिरि को किया गमन।।५१५।।
मुक्तागिरि के तुुंग शिखर पर, एक गुफा है मनहारी।
उसमें राजित शांतिनाथ की, प्रतिमाद्वय अतिशयकारी।।
लगभग तीस जिनालय शोभित, प्रकृति छटा सर्वत्र ललाम।
होती थी मुतियन की वर्षा, अत: पड़ा मुक्तागिरि नाम।।५१६।।