(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. टोड़ारायसिंह से पुन: टोंक आगमन-पंचकल्याणक प्रतिष्ठा संपन्न।
२. टोंक में अनुज कैलाश-रवीन्द्र का दर्शनार्थ आगमन।
३. माताजी द्वारा सम्बोधन-श्री रवीन्द्र ने अध्ययन कर नये जीवन का शुभारंभ किया।
४. टोंक से अजमेर आगमन।
५. मोइनियाँ हाई स्कूल प्रांगण में माताजी द्वारा जैन ज्योतिर्लोक पर अनुपम प्रवचन।
६. श्री भागचंद सोनी इत्यादि प्रवचन में आते थे।
७. यहीं माता मोहिनीदेवी ने आचार्य धर्मसागर से आर्यिका दीक्षा ली, नाम रत्नमती रखा।
८. यहीं कु.माधुरी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लिया।
९. श्री मोतीचंद श्री रवीन्द्र को घर से वापस लाये।
१०. श्री रवीन्द्र द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत।
११. तेरह रत्नों की माता-आर्यिका रत्नमती।
१२. पूज्य माताजी ज्ञानमती ने सम्पूर्ण परिवार का कल्याण किया।
१३. माताजी का ब्यावर में प्रवास।
टोड़ारायसिंह से विहार कर, संघ टोंक फिर पधराया।
श्रीमज्जिनेन्द्र पंचकल्याणक, का अमूल्य अवसर आया।।
पंचकल्याणक एक प्रक्रिया, जिसमें पूज्य बने पाषाण।
अगर मनुज पुरुषार्थ करे तो, वह भी बन सकता भगवान।।५६५।।
टिकैैतनगर से आये इसमें, कैलाश-रवीन्द्र युगल भ्राता।
मानवजीवन के महत्त्व को, उन्हें समझाया तब माता।।
पंच परावर्तन को करने, काल अनंत गमाया है।
आज महापुण्य से तुमने, यह मानव भव पाया है।।५६६।।
इसे प्राप्त कर तुम्हें चाहिए, इसका सद् उपयोग करो।
काम-भोग में नष्ट करो मत, मोक्षप्राप्ति उद्योग करो।।
माताजी के सदुपदेश का, श्री रवीन्द्र पर रंग चढ़ा।
अत: रोककर गुरूरूप धर, उनका जीवन नया गढ़ा।।५६७।।
सर्वप्रथम तो माताजी ने, उन्हें ज्ञान का दान दिया।
श्री रवीन्द्र ने चातक जैसे, स्वाति बूंद-सम पान किया।।
शास्त्री के तीनों खण्डों का, एक साथ ही मनन किया।
ज्ञानकूप से जल निकालने, उसका निशदिन खनन किया।।५६८।।
राजवार्तिक-अष्टसहस्री, आलाप पद्धति, गोम्मटसार।
पढ़े परीक्षा भी उत्तीर्ण की, पढ़ा सर्वान्त समय का सार।।
लगे पढ़ाने शिष्यजनों को, तत्त्वार्थसूत्र , इष्टोपदेश।
इससे हुआ ज्ञान परिमार्जित, स्मृति में आ गया अशेष।।५६९।।
पंचकल्याणक पूर्ण हुआ ज्यों, आचार्य संघ का गमन हुआ।
पीपल-मालपुरा-लावा हो, अजमेर नगर आगमन हुआ।।
चातुर्मास हुआ स्थापित, सोनीजी नशिया प्रांगण।
आचार्यसंघ के जयकारों से, लगे गूँजने धरा-गगन।।५७०।।
यहाँ मोइनिया हाईस्कूल के, बृहद्-विशाल-सभा प्रांगण।
जैन ज्योतिर्लोक विषय पर, माताजी के हुए प्रवचन।।
वहाँ पधारे उच्चकोटि के, प्रोफैसर, ज्योतिर्विद्वान।
पत्रकार-श्रेष्ठी-वैज्ञानिक, समझे-जाते देश की शान।।५७१।।
सूरज-चन्द्र-नक्षत्र की संख्या, गमन ऊँचाई-गली आकार।
अति सूक्ष्म-सटीक-प्रामाणिक, माताजी के सुने विचार।।
इतना तीव्र क्षयोपशम अब तक, नहीं देखने में आया।
जिसको कोई कर न सका था, माँ ने करके दिखलाया।।५७२।।
अभीक्ष्ण ज्ञानयोगिनी माँ का, रहा पूर्ववत् अध्ययन क्रम।
प्रतिदिन ही आयोजित होते, पूज्याश्री उत्तम प्रवचन।।
सरसेठ श्री भागचंद सोनी, प्रभृति बहुज्जन आते थे।
धर्म-ज्ञान अमृत को पीकर, जीवन सफल बनाते थे।।५७३।।
माताजी की जन्मदात्री, माता श्री मोहिनी जी।
आचार्यश्री धर्मसागर से, यहाँ आर्यिका दीक्षा ली।।
यहीं कुमारी माधुरी जी ने, आजीवन ब्रह्मचर्य लिया।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती ने, शिष्या इनको बना लिया।।५७४।।
उपादान तो अपना होता, इसमें कुछ संदेह नहीं।
पर निमित्त के बिना अकेला, कर सकता वह काम नहीं।।
रवीन्द्र-मोहिनी-मनो-माधुरी, उपादान निज काम किया।
किन्तु आर्यिका ज्ञानमती ने, नैमित्तिक अवदान दिया।।५७५।।
श्री मोहिनी देवी जी ने, जन्मे उत्तम तेरह रत्न।
सबका उत्तम तीव्र क्षयोपशम, मिला ज्ञानधन अल्प प्रयत्न।।
संयम में चतु हुए अग्रणी, बने जगत को एक मिसाल।
ज्ञान-अभय-चंदना-रवि-सह, अमर मोहिनी-छोटेलाल।।५७६।।
तेरह रत्नों की माता का, रत्नमती गुरु नाम दिया।
सभी उपस्थित जनसमूह ने, सादर जय-जयकार किया।।
जीवन श्रेष्ठ उसी का जिसने, रत्नत्रय व्रत पाला है।
सफल किया उसने मानव भव, जिसने अंत संभाला है।।५७७।।
चातुर्मास हुआ निष्ठापित, आचार्य संघ का हुआ गमन।
धर्म प्रभावना करते-करते, हुआ ब्यावर में शुभागमन।।
कुछ ही दिवस प्रवास अनंतर, संघ गया अन्यत्र कहीं।
गुरु आज्ञा से माताजी ने, किया अल्प प्रवास यहीं।।५७८।।
टिकैतनगर से श्री रवीन्द्र को, मोतीचंद ब्यावर लाये।
उन्हें पे्ररणा दे माताजी, ब्रह्मचर्य आजन्म दिलवाये।।
इस प्रकार माताजी उनको, किया मुक्त गृहकारा से।
आज संघ में अलंकार हैं, घर नहिं गये दुबारा से।।५७९।।
अष्टसहस्री लिखित प्रति, मिली यहाँ शास्त्र भंडार।
माताजी ने किया यहाँ पर, पाठान्तर लिखने का कार्र्य।।
दिल्लीवासी श्रीफल लाये, करी विनय बहुश: कर जोर।
वहाँ पधारें, हमें ज्ञान दें, गमन करें दिल्ली की ओर।।५८०।।