(चतुर्थ_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. चातुर्मास स्थापना-प्राचीन मंदिर हस्तिनापुर।
२. आहार-विचार-व्यवहार-व्यापारशुद्धि पर प्रवचन।
३. मूलाचार की हिन्दी टीका करना।
४. अनेक पुस्तकों-विधानों-पूजाओं की रचना।
५. जम्बूद्वीप रचना के प्रगति चरण।
६. माताजी एवं जैन मंत्रों के प्रभाव से वर्षा का उचित समय पर होना।
७. चातुर्मास में प्रशिक्षण शिविर का आयोजन।
८. प्रवचन निर्देशिका की रचना।
९. शिविर में १५० शिविरार्थी, उच्च कोटि के विद्वान् पधारे।
१०. माताजी को विद्वानों द्वारा सिद्धांतवाचस्पति की उपाधि।
११. चातुर्मास निष्ठापित-दरियागंज दिल्ली प्रस्थान।
१२. हस्तिनापुर आगमन-सुदर्शन मेरु की प्रतिष्ठा।
१३. उत्तरप्रदेश में प्रथमबार गजरथ।
१४. दश झाँकियों का निर्माण।
१५. वीरसागर विद्यापीठ की स्थापना।
१६. सूर्यकांत (सुरेश) कोटड़िया प्रथमछात्र बने-जो आज रविनंदी मुनिराज हैं।
१७. पंचकल्याणक-गजरथ सम्पन्न।
१८. माताजी का दिल्ली को विहार।
हस्तिनागपुर माताजी का, शुरू हुआ ज्यों चातुर्मास।
होने लगी धर्म की वर्षा, स्वच्छ हुआ जीवन आकाश।।
जैसा हम करते हैं भोजन, हो जाता है वैसा मन।
भोजन द्वारा आने लगता, है वैचारिक परिवर्तन।।६५९।।
परम पूज्य श्री माताजी ने, दिया शुद्धभोजन पर जोर।
जिन-वच-सूरज के प्रकाश में, होेने लगी सुनहरी भोर।।
दीपक अंधकार खाता है, अत: उगलता है काजल।
कमल सुरभि फैलाता चहुँदिशि, पीकर सर का मीठा जल।।६६०।।
मैले वस्त्र स्वच्छ हो जाते, जल-साबुन का पा संयोग।
श्रोता मन निर्मल हो जाते, पाकर साधुसंघ का योग।।
है प्रधानता उपादान की, बात उचित जानी-मानी।
पर निमित्त बिन काम न होता, कहती माता जिनवाणी।।६६१।।
माताजी ने कहा सभी से, चातुर्मास चरण हैं चार।
आहार शुद्धि-वैचारिक शुद्धि, व्यवहार शुद्धि, शुद्धि व्यापार।।
माताजी ने सबसे पहले, व्यापार शुद्धि पर जोर दिया।
न्यायपूर्ण हो धन का अर्जन, जग हितकारी कथन किया।।६६२।।
पंडित जी श्री आशाधर की, रचना धर्मामृत-सागार।
कहा उन्होंने सबसे पहले, होवे न्यायोचित व्यापार।।
तदनंतर श्रीमाताजी ने, आहार शुद्धि पर जोर दिया।
जैसा अर्जन, वैसा भोजन, तद्वत् हो व्यवहार क्रिया।।६६३।।
शरीर प्रथम साधन है धर्म का, उसके बिना न चलता काम।
अत: रुग्णतावश माँ श्री का, हस्तिनागपुर रहा मुकाम।।
ऐतिहासिक प्राचीन जिनालय, में पधराई माताजी।
चातुर्मास हुआ स्थापित, जन-जन पुण्य घड़ी आई।।६६४।।
माताजी ज्ञानोपयोग में, सदा-सदा रहती हैं लीन।
नित-नूतन रचना करने में, पूज्य श्री हैं परम प्रवीण।।
ग्रंथ-पुराणों की टीकाएँ, करना मन को भाता है।
संस्कृत से हिन्दी कर देतीं, इक क्षण व्यर्थ न जाता है।।६६५।।
वट्टकेर स्वामी की रचना, महाग्रंथ है मूलाचार।
संस्कृत से हिन्दी कर उसकी, किया मात श्री महदुपकार।।
विद्वत् गोष्ठी के प्रसंग में, आदि-अंत कवि किया पठन।
उमड़ा श्रद्धाभाव अपरिमित, ज्ञापित श्रद्धा सहित नमन।।६६६।।
माताजी के विपुल ज्ञान का, अथक परिश्रम का यह फल।
सतत साधना, श्रुताभ्यास से, सम्पन्ना यह कार्य सकल।।
भाषा सरल, ग्राह्य सबही से, अति वैशिष्ट्य रहा अनुवाद।
कह सकते यह जैन जगत को, माताजी का आशीर्वाद।।६६७।।
धरती के देवता, मुनि दिगम्बर, वर्षायोग रचनाएँ कई।
लिखे विधान, रची पूजाएँ, माताजी ने नई-नई।।
सबल-सफल लेखिनी माँ की, रुकने का लेती नहिं नाम।
गद्य-पद्य-धार्मिक रचनाएँ, रचती रहती हैं अविराम।।६६८।।
आराधना नाम एक ग्रंथ का, संस्कृत पद्य में रचना की।
चार शतक, चालीस, चार पद, रची कृति यह माताजी।।
पंचमेरु-विधान मातुश्री, इस ही चातुर्मास लिखा।
सम्यग्ज्ञानी विशेषांक में, वर्षायोग विशिष्ट दिखा।।६६९।।
जम्बूद्वीप सुमेरू पर्वत, ऊँचा उठता जाता था।
बादल लगें डराने, माँ का, जाप शुरू हो जाता था।।
फिर तो पानी नहीं बरसता, पूरा हो जाता सब काम।
निशा काल में सिंचन करते, मेघदूत आ चारों याम।।६७०।।
अचरज में पड़ जाते सब ही, जो भी करते कार्य यहाँ।
उमड़-घुमड़ कर काले बादल, उड़ जाते न जाने कहाँ।।
माँ मंगलमय-चरण आपके, जैन मंत्र में शक्ति अपार।
फूले नहीं समाते सब ही, हर्षित होते अपरम्पार।।६७१।।
सन् उन्नीस अट्ठत्तर आया, हुआ स्थापित चातुर्मास।
हस्तिनागपुर बड़ा जिनालय, माताजी का रहा प्रवास।।
धर्म का अमृत लगा बरसने, चहुँदिशि छाई खुशहाली।
धर्म पिपासू, जन जिज्ञासू, पीते थे भर-भर प्याली।।६७२।।
परम पूज्य माताजी सन्निधि, हुआ प्रशिक्षण शिविर यहाँ।
मोतीचंद कोठारी फल्टण, शिविर के कुलपति रहे यहाँ।।
बाबूलाल जी जमादार ने, ग्रहण किया संचालक भार।
परम पूज्य श्री माताजी ने, प्रवचन निर्देशिका की तैयार।।६७३।।
लगभग एक शतक पंचाशत, प्रशिक्षणार्थी पधराये।
लालबहादुर-मक्खनलाल से, योग्य प्रशिक्षक भी आये।।
जैन श्वेताम्बर बालाश्रम में, आयोजन दश दिवस रहा।
सहनशीलता गुण सर्वोत्तम, सराहनीय है सभी कहा।।६७४।।
परम पूज्य श्रीमाताजी खुद, दिया प्रशिक्षण विद्वज्जन।
किस शैली में सुकरणीय है, धर्म सभा उत्तम प्रवचन।।
उपकृत हुए सकल विद्वज्जन्, तदा कृतज्ञता ज्ञापित की।
सिद्धांतवाचस्पति की उपाधि से, हुर्इं अलंकृत माताजी।।६७५।।
लेकिन माताजी के मन में, हुआ न किंचित् हर्ष या मान।
दर्शन-ज्ञान-चरित आराधन, से बनते हैं साधु महान।।
आर्ष परम्परा रक्षा करना, शिविर दिया सबको सुविचार।
चातुर्मास हुआ निष्ठापित, माताजी का हुआ विहार।।६७६।।
दाँत किटाकिट करती सर्दी, माताजी कर रहीं विहार।
पूज्य आर्यिका रत्नमती-सह, पालन करतीं पंचाचार।।
सन् अठहत्तर, माह दिसम्बर, दरियागंज विराजा संघ।
मेरु प्रतिष्ठा, गजरथ उत्सव, हुआ सुनिश्चित सकल प्रसंग।।६७७।।
पुन: संघ गजपुर पधराया, सन् उन्यासी चौथा मास।
हुई सुदर्शन मेरु प्रतिष्ठा, श्रेयांससिन्धु शुभ सन्निधि खास।।
प्रथमबार उत्तरप्रदेश में, गजरथ उत्सव सम्पन्ना।
सहस-सहस नर-नारी देखा, धन्य किया जीवन अपना।।६७८।।
इसी प्रतिष्ठाकाल यहाँ दस, बनीं झाँकियाँ सुंदरतम।
अब भी परिसर में स्थित हैं, अवलोकन कर सकते हम।।
इतनी सुंदर-मुखर कि मानों, हम से बोल रही हैं।
पृष्ठ पुराणों के चुन-चुन कर, निश-दिन खोल रही हैं।।६७९।।
श्री वीरनिधि विद्यापीठ की, हुई स्थापना काल तदा।
सूर्यकांत (सुरेश) कोटड़िया, प्रथम छात्र बन हुए मुदा।।
रविनंदी मुनिराज रूप में, आज साधना रत रहते।
नरेश-प्रवीण-संस्थान कार्यरत, धर्मप्रभावना हैं करते।।६८०।।
पंचकल्याणक-गजरथ उत्सव, निर्विघ्नरूप सम्पन्न हुआ।
हृदयकमल खिल उठे सभी के, माताजी मन मुदित हुआ।।
दिल्ली की महिला समाज ने, माताजी की करी पुकार।
ज्येष्ठ मास की तीव्र तपन में, मोरीगेट को किया विहार।।६८१।।