सर्वप्रथम तपोनिधि मुनि श्री वीरसागर जी महाराज के दर्शन मथुरा में किए। वे सप्त ऋषियों की मणिमाला में एक दैदीप्यमान रत्न थे। यों तो सभी ऋषिराज अपनी—अपनी विशेषताओं से सुशोभित थे, परन्तु वीरसागर जी महाराज का अपना ही स्थान था। वीरसागर जी महाराज को यह गौरव प्राप्त हुआ कि आचार्य ने सल्लेखना के पुनीत अवसर पर अपना उत्तराधिकारी चुना। उन्होंने देखा कि किसमें जिनशासन की प्रभावना करने को सामथ्र्य है ?
सामाजिक वात्सल्य बढ़ाने में कौन समर्थ हैं ? प्राचीन परम्पराओं और आगम के अनुकूल किस व्यक्ति के नेतृत्व में संघ प्रगति कर सकता है ? कठिन समस्याओं को सुलझाने में कौन समर्थ है ? विरोधी विचारधारा में आगम की रक्षा कैसे हो ? जनता धर्मनिष्ठ कैसे बने ? भविष्य में जैन धर्म किस प्रकार उन्नतिशील हो ? श्रावकों में रत्नत्रय की वृद्धि करने में किसकी प्रतिभा कार्य कर सकती है ? जटिल उलझनों के बीच में कौन अपनी मौलिकता से समाज की नाव किनारे पर लगा सकता है ?
जब इन प्रश्नों ने आचार्य के मस्तिष्क में ऊहापोह करना शुरू किया तो उन्होंने समाज के प्रतिनिधियों के प्रश्न करने पर धैर्य और निस्पृह भाव से उत्तर दिया—मैं अपने बाद संघ का प्रधान आचार्य बनाकर वीरसागर की संघ की बागडोर सौंपता हूँ। यों कहकर संतोष की सांस ली और निरतिचार सल्लेखना को सिद्धि में अग्रसर हो गए। वीरसागर जी में कुछ अपनी विशेषतायें थीं। जब हमने उनके दर्शन किए तब १०, १०, वर्ष की आयु थी। हमने देखा, सुधर्म सागर जी दिग्गज विद्वान थे।
न्याय, व्याकरण, सिद्धांत और साहित्य के ग्रंथों का मुनियों में पठन—पाठन कराना, शास्त्र छपवाना और भिन्न—भिन्न पंचायतों को भिजवाना; इन कार्यों में उनकी रुचि थी। वे उस समय क्षुल्लक थे। चन्द्रसागर जी सामाजिक कठिनाइयों को सुलझाने और किसी बात का निर्णय करने में कुशल थे। वे एक दबंग और तेजस्वी साधु थे। नेमिसागर जी और नमिसागर जी दोनों ही दीर्घ तपस्वी थे। िंसह निष्क्रीड़ित व्रत करना, आठ—आठ दिन का उपवास करना उनके बायें हाथ का काम था।
कुन्थुसागर जी मनोज्ञ साधु थे। शरीर से हष्ट—पुष्ट और स्वाध्यायी थे। जब उनके पास जाते, तो कहते—मेरे पास बैठो तो संस्कृत में ही वार्तालाप करो। अध्ययन करना उनका व्यसन था। आचार्य महाराज के मन में हम बच्चों से बड़ा प्रेम था। वे संघ में सुमेरु के समान थे। सभी मुनियों और त्यागियों पर दृष्टि रखते थे कि किसी को किसी प्रकार कष्ट न उठाना पड़े। शास्त्र प्रवचन होता, शंकाओं का समाधान करते, पूछते—तुमने क्या समझा ?
अपनी सौम्य, पुलकित दृष्टि से निहारते तो सभी निहाल हो जाते, मानो निधि पा ली हो। पीयूषमयी वाणी से वात्सल्य का भाव प्रकट करते तो सभी का मन उनकी ओर आर्किषत हो जाता। आदर्श मुनि का स्वरूप उनके जीवन का लक्ष्य था। उन्होंने दक्षिण और उत्तर के पुल को जोड़ दिया। श्रेष्ठी रावजी सखाराम दोशी अपनी विदुषी पत्नी राजुबाई के साथ हारमोनियम पर मृगसेन धीमर की कथा कहते तो सभी टकटकी बांध यह भूल जाते कि ये मराठीभाषी हैं।
मथुरा के प्रसिद्ध सेठ घराने के व्यक्ति स्वयं अपने हाथों से पानी भरकर लाते। पचासों चौके एक साथ लगते और साधु धीरे—धीरे चर्या को निकलते तो चतुर्थ काल का दृश्य उपस्थित हो जाता और ऐसा मालूम पड़ता कि धर्मचक्र जंगमतीर्थ बनकर दक्षिण से उत्तर की ओर विहार कर रहा है। आचार्य महाराज के प्रत्येक कार्य में वीरसागर जी महाराज का हाथ था। उनकी दो अपनी विशेषतायें थीं। बच्चों का र्धािमक शिक्षण देने के लिए प्रोत्साहन और श्रावक—श्राविकाओं को संयम की ओर लगाना।
इसलिए उनके पास जब भी हम पहुँचते, भीड़ लगी रहती। स्वभाव से गृहस्थों की मुनिराजों के प्रति ममता थी क्योंकि सैकड़ों वर्षों के बाद मुनिराजों के दर्शन मिले थे। १६वीं शताब्दी तक दिगम्बर साधु सर्वत्र विहार करते थे सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी ऐसी मनहूस आई जिसमें विदेशियों का शासन रहा और सघन धर्म वृक्ष सूखने लगा; तभी तो कविरत्न भूधरदास जी रात दिन भावना भाते थे—
कर जोर भूधर बीनवै, कब मिलिंह वे मुनिराज।
यह आश मन की कब फलै, मम सरिंह सगरे काज।।
संसार विषम विदेश में, जे बिना कारण वीर।
ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर।।
वे चाहते थे—
बन्दों दिगंबर गुरु चन्दन, जग तरन तारन जान।
जे भरम भारी रोग को है, राज वैद्य महान।।
जिनके अनुग्रह बिन कभी निंह, कटैं कर्म जंजीर।
ते साधु मेरे उर बसहु, मम हरहु पातक पीर।।
उस समय लोगों के मन में कुछ कौतुक था। कुछ पढ़े—लिखे जैन ब्रह्मचारी उनके दर्शन करना अपनी हेटी समझते थे। या तो हमारा सम्मान गया या शास्त्रों में र्विजत भाव िंलगी मुनि अब कहां, इसलिए दर्शन करने भी नहीं जाते पर उनकी प्रत्येक घटना पर दृष्टि रखते। कुछ अन्य धर्मावलम्बी मथुरा में पधारे मुनियों के प्रति शंकाओं से देखते क्योंकि वे अपरिचित थे। सुनी—सुनाई बातों पर विश्वास करने के कारण गलत धारणायें लोगों ने बना ली थी जिनके कारण कठिनाइयाँ आती थीं।
परन्तु कतिपत मुनियों के प्रवचन और उनकी सौम्य शैली के कारण अनायास विरोध के बादल हट गए। मथुरा शहर में जैन रथोत्सव निकला, बड़ा आनन्द रहा। उसमें वीरसागरजी का प्रमुख हाथा था। वेदों, पुराणों, भागवत, महाभारत, रामायण आदि ग्रंथों में दिगम्बरत्व की महिमा गाई है—
एकाकी निस्पृह: शान्त: पाणि पात्रो दिगम्बर:।
कदा शम्भो भविष्यामि, कर्मनिर्मूलनक्षम:।।
नाहं रामो न मे वांछा, भावेषु च न मे मन:।
शांतिमास्थातुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनो यथा।।
अब हमें यह विचार करना है कि हमारे आगम में गुरु का लक्षण जो बताया है—
रत्नत्रय विशुद्ध: सन्, पात्रस्नेहीपरार्थकृत्।
परिपालित धर्मोहि, भवाब्धेस्तारको गुरु:।।
और जो शिष्य का लक्षण कहा है—
गुरुभक्तो भवाद्भीतो, विनीतो र्धािमक: सुधी:।
शान्तस्वांतोह्यतंद्रालु, शिष्ट शिष्योऽयमीष्यते।।
अब विचार करो, क्या हम इस प्रकार के गुरु और शिष्यों की संख्या बढ़ा रहे हैं जबकि निन्दक छिद्रान्वेषी बनकर बुराइयों को ढूंढ ढूंढकर जन साधारण तक पहुँचाने में अपना गौरव समझते हैं। यद्यपि शास्त्रों में स्पष्ट कहा है जो—
ये गुरुं नैव मन्यंते, तदुपास्ति न कुर्वंते।
अंधकारी भवेत्तेषां, मुदितेऽपि दिवाकरे।।
कुछ लोगों में इस प्रकार का व्यसन है, वे स्वयं तो कोई व्रत आचरण करते नहीं; परन्तु आलोचना करने में अपना बड़प्पन समझते हैं। पर उन्हें यह मालूम नहीं—
न केवलं यो महतोऽपभाषते, शृणोति तस्मादपि य: स पाप भाक्।
जो महात्माओं की बुराई करता है, वही पाप का भागी नहीं है; सुनने वाला भी पाप का भागी है। हमारे शास्त्रों में मुनियों का अिंचत्न महात्म्य दर्शाया है—
पद्मििनी राजहंसाश्च निग्र्रंथाश्च तपोधना:।
यं देशमुपसर्पंति, र्दुिभक्षं तत्र नो भवेत्।।
काले कलौ चले चित्ते, देहे चान्नादिकीटके।
एतच्चित्रं यदद्यापि, जिनरूपधरा नरा:।।
इसी प्रकार हमारी धरा अक्षुण्ण चले, इसलिए हमें गम्भीरता से विचार कर सत्पथ की ओर अग्रसर होना चाहिए। वीरसागरजी महाराज के समय ४० साधु थे और अब सैकड़ों साधु हैं। योजनाबद्ध होकर उनके द्वारा जनकल्याण विशेष हो, इसलिए सतर्क रहना है। ज्ञान के बिना चारित्र के बिना ज्ञान की शोभा नहीं है। इसलिए वर्तमान दिगम्बर मुनिराजों में पठन—पाठन की तीव्र अभिलाषा जगाना है। बड़े—बड़े संघों की अब आवश्यकता नहीं।
छोटे—छोटे संघ ज्ञान और चारित्र की र्मूितमान आभा को लेकर विहार करें तो सर्वत्र मंगलमय सुप्रभाव दृष्टिगोचर हो। तेरह पंथ, बीस पंथ के झगड़ें—टंटों से हमें कुछ मतलब नहीं। आर्ष मार्ग का अनुकरण करना ही हमारा कर्तव्य है। र्धािमक शिक्षण संस्थाओं को प्रोत्साहन देना चाहिए और वहां ऐसे बालकों का चुनाव करना चाहिए जिनके कुल में धर्म की परिपाटी चली आई हो। त्यागियों के लिए या तो वर्तमान संस्थाओं में उनके पड़ने की व्यवस्था करनी है या फिर कोई नई संस्था बनाकर कुछ समय तक वहां रखकर उन्हें इस योग्य बनाना है कि वे जनसाधारण के लिए अधिक उपयोग बन सके क्योंकि शिक्षा के प्रचार से ज्ञान की अधिक उन्नति हुई है, इसलिए उपदेष्टा भी कुशल होना चाहिए। महावीर निर्वाण महोत्सव के कारण समस्त देश में जागृति हुई है। मुनियों के प्रति सम्मान बढ़ा है।
आचार्य देशभूक्षण जी के महावीर निर्वाण कमेटी में र्पािलयामेंट में जाने के कारण सारे देश में मुनियों का निर्बाध विहार होने लगा। ऐसे समय वीरसागर जी महाराज की सुरुचि के प्रधान साधन बालकों में धर्म शिक्षा और गृहस्थों में संयम की ओर रुचि जगाना ही हमारा कर्तव्य है। हम इस अवसर यह कामना करें कि वे शाश्वत लक्ष्मी के अधिकारी बनें और उनका आशीर्वाद समाज में शक्ति, उत्साह और ज्ञान की ज्योति जगाने में समर्थ हो।
हमारे मुनिराज आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, विद्यानन्द और अकलंक देव के पदचिन्हों पर चलें; तभी हम अिंहसा और अनेकान्त का भगवान् महावीर का मंगलमय संदेश जनसाधारण तक पहुँचा सकेगे।