परम पूज्य महान् तपस्वी शात मुद्रा १०८ आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज ने समस्त भारत में पद—यात्रा करते हुए हजारों प्राणियों को आत्म—कल्याण में जगाते हुए राजस्थान के प्राचीन ऐतिहासिक नगर नागौर में वि. सं. २००२ को वर्षायोग किया। इतने बड़े विशाल संघ को लाने का विशेष श्रेय ब्र. दीपचन्द्र जी बड़जात्या, ब्र. चांदमल जी चूड़ीवाल आदि को था। धर्म—पिपासु श्रावकों ने दर्शन कर आहारदान का पुण्योपार्जन किया।
आषाढ़ शुदि ११ को अपार जनसमुदाय के समझ अनेक दैगम्बरी, क्षुल्लक, र्आियकाओं का दीक्षा समारोह हुआ। वर्षा न होने से कुएं, तालाबों का पानी सूख गया था, दूर—दूर से पानी लाना पड़ता था—अजैन लोग कहने लगे कि नगर में नग्न साधु आये हैं, इसलिये वृष्टि नहीं हो रही है आदि। अनेक तरह का वातावरण फैल गया। परन्तु दिगम्बर जैन साधु जहाँ जाते हैं, वहाँ र्दुिभक्ष का क्या काम ? तब कुछ दिन के बाद अकस्मात् वर्षा हुई, जिससे सभी कुएं— तालाब भर गये।
जिससे अजैन जैन समस्त नगरवासी दिगम्बर साधुओं की प्रशंसा करने लग गये। कुछ मास बाद महाराज की पीठ में अदीठ फोड़ा हो गया जिससे समस्त समाज चिन्तातुर हो गया। डाक्टरों, वैद्यों ने उत्तर दे दिया कि यह अदीठ ठीक होना मुश्किल है। महाराज के मुखमंडल पर लेशमात्र भी खेद, खिन्नता नहीं थी, वह थी इनकी आत्मानुभूति की दृढ़ता। ‘‘णमोकार महामंत्र’’ के प्रभाव से रोग मुक्त होकर—सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये।
डेह की जनता को अनेक अनुष्ठान, दीक्षा समारोह, प्रवचन सुनने का अवसर मिला, विशेष प्रार्थना करने पर— मि. माघ कृष्ण २ को २८ त्यागी व्रतियों का विशाल संघ सर्वश्री आदिसागरजी, शिवसागरजी, क्षु. सिद्धसागरजी, धर्मसागरजी, सुमतिसागर जी एवं र्आियका सर्व श्री वीरमती जी, विमलमती जी, इन्दुमती जी आदि सैकड़ों नर नारियों, राजकीय सम्मान के साथ डेह में प्रवेश किया। १४ वर्ष के बाद दिगम्बर साधुओं के आगमन से जैनाजैन जनता में अपूर्व आनन्द उत्साह की लगर दौड़ गई।
कुछ वयक्तियों के कारण समाज में प्रथम अशान्त वातावरण फैल गया, जिससे गुरुवर संघ सहित सरोवर के तट पर चमत्कारी श्री पाश्र्वनाथ नशियां में चले गये। जनता के हृदय में अशान्ति हो गई, परन्तु गुरुदेव १०८ श्री वीरसागरजी एवं र्आियका श्री इन्दुमती जी, श्री विमलमती जी की सूझ—बूझ से वातावरण शान्त हो गया। चमत्कारी पाश्र्वनाथ के प्रभाव से— समस्त संघ श्री शान्तिनाथ मन्दिर के हाल में जो प्रतिदिन पंचामृताभिषेक, पूजन पाठादि, प्रवचन आदि होता था।
जब आहार के लिए साधुगण निकलते तब दृश्य देखते ही बनता था। जैनाजैन समाज दर्शन, प्रवचन एवं उनकी क्रियाओं, त्याग, तपस्या को देखकर दंग रह जाती थी। आपके धर्मोपदेश से काफी नर—नारियों का आत्म—कल्याण हुआ एवं अनेक तरह के व्रत, नियम आदि लिये। सार्वजनिक उपदेश, भाषणों, केशलोंच आदि के होने से समय—समय पर काफी धर्म की प्रभावना हुई।
आचार्यश्री का केशलोंच वट वृक्ष के नीचे हुआ, हजारों की संख्या में जन—समुदाय केशलोंच की क्रिया को देखकर आश्चर्य करने लगा कि—‘‘धन्य है जैनियों के साधुओं को, जो केशों को अपने हाथों से उपाड़ कर फैक रहे हैं।’’—फिर आपका सारर्गिभत भाषण हुआ—‘‘शरीर सबका बराबर है, इसमें जो शक्ति है, दर्द उसे होता है न कि शरीर को। जब अपने को कोई तकलीफ दे तो दर्द, दु:ख होता है, ठीक वैसे ही सबको भी।’’
सारांश
दूसरों को िंकचित भी तकलीफ नहीं देना सो ‘‘अिंहसा’’ है। फिर आगे कहा—‘केशलोंच करना कोई आसान नहीं है, कायर का एक बाल टूट जाय तो ‘रूतोड़’ दर्द हो जाता है, लेकिन जैन साधु अपने शरीर का ममत्व बिल्कुल नहीं रखते। शरीर को तकलीफ दिये बिना साधना नहीं होती और तपस्या इसी का नाम है।
जिस प्रकार भंवरा पूâलों पर फिरता है लेकिन उससे उन्हें तकलीफ नहीं होती, वैसे—जैन साधु भी किसी को कष्ट नहीं देते। अपनी साधना के वास्ते जैसा भी मिले, ठीक है। साधु सबके लिये समान हैं, यह एक ऐसी नदी है, जिससे अपना मैल धो सकते हैं और आत्मा अजर अमर पद् को प्राप्त कर सकती है।’’ स्थानीय नवयुवकों ने मोटर स्टैंड (गवाड़) पर पण्डाल बनाया। वहां पर पब्लिक भाषण केशलोंच पर एक सप्ताह तक हुये, जिससे जैनाजैन जनता पर काफी प्रभाव पड़ा एवं तरह—तरह के व्रत, नियम लिये तथा जनता अपने को धन्य समझने लगी।
जनवरी मास में—राजस्थान सरकार ने जैन मन्दिरों में भी हरिजन प्रवेश का एक्ट लागू करने के लिए पेश किया तथा आचार्यश्री १०८ वीरसागर जी ने अन्न का त्याग करके आदेश दिया कि—‘‘जैन धर्म स्वतन्त्र है, यह कानून नहीं होना चाहिये; जैन समाज को समय रहते विरोध जोर—शोर से करना चाहिये।’’
डेह के समाज तथा नवयुवकों ने महाराज के आदेशों को जैन—पत्रों में, पैफ्लेटों को निकाल करके समस्त समाज को सावधान किया जिससे जागृति हुई। समाज के कर्णधार, गुरुभक्तों द्वारा दिल्ली, राजस्थान में उच्च अधिकारियों से सम्पर्क एवं डेपुटेशन मिलने से सरकार ने ३१-१-१९५० को जैनधर्म को स्वतन्त्र धर्म घोषित किया। समाज में आनन्द की लहरें दौड़ गर्इं एवं पूर्ण सफलता प्राप्त हो गई। यह सब गुरुदेव के त्याग, तपस्या का ही प्रभाव है।
धन्य है ऐसे ऋषिराज को। झुलसाती धूप में, कड़ाके की ठण्ड में आप घण्टों एक आसन से ध्यानमग्न होकर तप की साधना निर्भय होकर करते थे। आपके तप एवं तेज के प्रभाव से विरोधी भी आकर नतमस्तक हो गये। अनेक प्रकार के विधान—अनुष्ठान फाल्गुन की आष्टान्हिक पर्व पर हुए वृहत् श्री सिद्ध चक्र विधान का आयोजन श्री बालचन्द्र जी पाटनी की तरफ से किया गया, जिससे काफी नर—्नाारियाँ विधान में सम्मिलित हुये।
विशेष ठाठ—बाट से प्रभावना से पंचामृतभिषेक सहित पूजन फल—पूâल, नैवेद्य, दीप आदि से होता था, सैकड़ों वर्षो के बाद विधान आगमोक्त विधि से आचार्य संघ के समक्ष र्आियका श्री इन्दुमती जी, ब्र. सूरजमल जी की देख—रेख में हुआ, वह दृश्य देखते ही बनता था एवं काफी प्रभावना हुई। ऐसे अनुष्ठान के प्रभाव से नेमिचंद एवं दुलीचंद्र पाटनी तालाब में डूबते हुए बच गये।
गुरुदेव से—गुरुभक्त, धर्म श्रद्धानियों को देखकर करीबन तीन मास डेह में रहकर भूले गुए पथिकों को सही रास्ता बताकर आत्म—कल्याण में लगाया। फिर आपका विहार लाड़नुं सुजनागढ़ की तरफ हुआ, सैकड़ों ही नर—नारियां, बाल—वृद्ध कई मीलों तक पहुँचाने गये। हम लोगों के हृदय में अमिट छाप छोड़ गये धर्म, गुरुभक्ति की। ऐसे महान् ऋषिराज मधुर मुस्कान तपस्वी को बारम्बार शत्—शत् नमोस्तु।