१०८ आचार्य शिरोमणि श्री धर्मसागर जी महाराज का परिचय
लेखिका—आर्यिका श्री जिनमती माताजी
गुलाब पुष्प नयन और घ्राण को सुखद है किन्तु कंटकाकीर्ण है, कमल इन्द्रियों को सुखप्रद होते हुए भी पंकज है। (कीचड़ में उत्पन्न हुआ है।) गजराज भद्र है किन्तु केवल जाति की अपेक्षा ही, वनराज की विक्रमता में दया का कोमल पुट नहीं है। श्रीफल कठोर है, सूर्य आदि की रश्मियाँ केवल बाह्य तम विनाशक है किन्तु आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज का जीवन कंटक रहित, सुगन्ध और सुन्दरता दायी था।
उनमें त्याग तपस्या का विक्रम दया युक्त था, हृदय करुणा और शान्तिरस से अत्यन्त मृदु था, आत्मज्ञान की रश्मियाँ मोह और अज्ञान की विनाशक थीं। अत: इन आचार्य पुंगव के लिए सिंह, सूर्य आदि की उपमा देना हीनोपमा हैं। आप तो आप सदृश ही थे।
‘‘नाके नाकौकसां सौख्यं। नाके नाकौकसामिव।’’
भोगलिप्सा से लिप्त, भौतिक विज्ञान के चमत्कार बहुल इस युग में इनका जीवन इन वस्तुओं से सदा दूर रहा, कहते हैं कि काल का प्रभाव पड़ता ही है, किन्तु आचार्यश्री में यह उक्ति लागू नहीं हुई। परमनिस्पृह व्यक्तित्व, सरलता की साकार मुर्ति ऐसे महान् आचार्य के जीवन को हम पढ़ें, सुने, जिससे महान् जीवन जीने की प्रेरणा मिले।
क्षत्रिय वीरों की श्रेष्ठ भूमि राजस्थान के बूंदी जिले में गंभीरा ग्राम में श्रावक कुल अवतंस श्रेष्ठी बख्तावरमल के यहाँ उमराव बाई की कुक्षि से एक शिशु ने जन्म लिया, जन्म नाम रखा गया चिरंजीलाल।
चिरंजीलाल की शिक्षा
आज जैसे ग्राम—ग्राम में शिक्षा की सुविधा है आज जैसे ग्राम—ग्राम में शिक्षा की सुविधा है वैसे ७७ वर्ष पूर्व नहीं थी, अत: बालक चिरंजीलाल अधिक चिरंजीलालप्राप्त नहीं कर सका। माता—पिता का दुलार भी अल्पकाल रहा। वास्तव में महापुरुषों का जीवन अनेक कठिनाई रूप तावों से तप्त होकर स्वर्णवत उज्जवल हो जाता है।
युवक चिरंजीलाल को विवाह बन्धनवत प्रतीत हुआ, अपने आपमें ब्रह्मचर्यव्रत का नियम कर लिया। इन्दौर में आचार्यकल्प श्री वीरसागर जी महाराज का दर्शन हुआ और फलस्वरूप नैष्ठिक जीवन (१२ व्रतों का आचरण रूप दूसरी प्रतिमा) प्रारम्भ हुआ, ठीक ही है
क्षुल्लक दीक्षा
‘कालेन फलति—तीर्थ सद्य: साधु समागम:’’
तीर्थ दर्शन तो यथासमय फलता है, किन्तु साधु दर्शन तत्काल फलता है। सिंहवृत्ति आचार्यकल्प श्री चन्द्रसागर जी महाराज की छत्र छाया में आपने कुछ समय तक सप्तम प्रतिमा के व्रत लेकर वैराग्य बढ़ाया और महाराष्ट्र प्रान्त के बालूज ग्राम में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। वह पावन दिन था चैत्र शुक्ला सप्तमी वि. सं. २००१ का, अब ब्र. चिरंजीलाल क्षुल्लक भद्रसागर जी कहलाने लगे। दीक्षित अवस्था का प्रथम चातुर्मास गुरुदेव के सानिध्य में अडूल ग्राम (महाराष्ट्र) में हुआ।
चातुर्मास के अनन्तर गिरनार जी सिद्धक्षेत्र की वन्दना हेतु गुरूदेव ने ससंघ विहार किया। क्रमश: मार्ग में मुक्तागिरि, सिद्धवर कूट, पावागिरि की वंदना करते हुए संघ बावनगजा सिद्ध क्षेत्र पहुँचा वहाँ गुरुवर्य आ. क. श्री चन्द्रसागर जी महाराज का सल्लेखना पूर्वक स्वर्गवास हो गया। आप आ. क. श्री वीरसागर जी महाराज के चरण सान्निधि में रहकर साधना करते रहे। आपके मन में पूर्ण संयम की भावना वृधिगत हो रही थी, अल्पवस्त्र का परिग्रह भी बड़ा भार प्रतीत होता था।
अत: फुलेरा में पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव पर ऐलक दीक्षा ग्रहण की और ६ मास के अनन्तर ही जैनेश्वरी दिगम्बर दीक्षा धारण की, समय था कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी वि. सं. २००८। गुरु सचमुच में पारसमणि से बढ़कर होते हैं। पारस तो स्र्पिशत लोह को मात्र सुवर्ण बनाता हैं परसर्माण नहीं, किन्तु गुरुदेव रूपी पारस अपने निकटस्थ भव्य को स्वसमान गुरु पारस ही बना डालते हैं।
दीक्षा के अनन्तर चातुर्मास समापन होते ही परमपूज्य १०८ आ. क. वीरसागरजी महाराज ने संघ सहित तीर्थराज सम्मेदाचल की वंदना हेतु मंगल विहार किया, मार्गस्थ राजगृही आदि सम्पूर्ण तीर्थों की वंदना करते हुए संघ सम्मेदाचल पर पहुँचा और अनन्त तीर्थंकरों की परमपावन भूमि को वंदन कर कृतकृत्य हो गया। यह चातुर्मास ईसरो बाजार में हुआ।
इस प्रकार गुरुवर के साथ–साथ ही विहार किया एवं उनकी सल्लेखना तक साथ ही रहे। वि. सं. २०१४ में जयपुर खानियां में युगल आचार्य श्री वीरसागर जी तथा महावीर कीर्ति महाराजों का चातुर्मास सम्पन्न हो रहा था कि सहसा आचार्य वीरसागर जी महाराज का समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो गया। अश्विन कृष्णा अमावस्या रूप राहु ने आचार्य देव रूप चन्द्रमा ग्रस लिया।
वर्षायोग के अनन्तर नूतन आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज ने संघ सहित सिद्धक्षेत्र ऊर्जयन्त की वंदना हेतु विहार किया। तीर्थयात्रा के अनन्तर मुनिराज श्री धर्मसागर जी महाराज ने संघस्थ मुनि श्री पद्मसागर जी के साथ धर्म प्रभावना हेतु संघ से पृथक् विहार किया।
क्रमश: दो वर्षायोग व्यतीत कर बुन्देलखण्ड के तीर्थ क्षेत्रों की वंदना के लिए विहार किया। आगम में आज्ञा है कि साधुजन गुरुवंदना, निषद्या वंदना, तीर्थ वंदना आदि हेतु विहार करते हैं। व्यर्थ परिभ्रमण या मनोरंजन हेतु नहीं। शाहगढ़, सागर, और खुरई नगरों में क्रमश: गुरुदेव के चातुर्मास महान धर्म प्रभावना पूर्वक सम्पन्न हुए। ग्राम—ग्राम में, नगर–नगर में अपनी सरल मिष्ट वाणी द्वारा धर्मामृत बरसाते हुए वि. सं. २०२५ का चातुर्मास बिजौलिया शहर में किया।
महावीर जी के शान्तिवीर नगर में होने वाले पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव पर भक्तजनों के अत्यन्त आग्रत के कारण महावीर जी के लिये प्रस्थान किया, वहाँ उनके गुरुभाई आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज विशाल संघ सहित विराजमान थे, उभय गुरुभाई का ससंघ सम्मिलन बड़ा ही सुहावना था, दृश्य अपूर्व था। तपकल्याण के दिन दीक्षा—प्राप्ति हेतु अनेक मुमुक्षुओं ने आचार्य शिवसागर जी से प्रार्थना की।
गुरुदेव ने स्वीकृति भी दी, किन्तु विधि का विधान कुछ ओर ही था। आचार्य शिवसागर जी महाराज का अकस्मात् चन्द दिनों के ज्वर के पश्चात् समाधि—युक्त स्वर्गवास हुआ। प्रतिष्ठा महोत्सव के उत्साह में कमी आ गई। नूतन आचार्य प्रतिष्ठापना होना भी आवश्यक था, चर्तुिवधसंघ ने विवेक—पूर्वक परामर्श करके दीक्षा ज्येष्ठ मुनि श्री धर्मसागर जी को लाखों जन—समुदाय युक्त होकर तीर्थंकरदेव के निष्क्रमण कल्याणक के पुनित अवसर पर आचार्य पद प्रदान किया,
उसी समय आपके कर—कमलों से ग्यारह दीक्षायें सम्पन्न हुई, जिनमें र्आियका श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से वैराग्य को प्राप्त क्षुल्ल श्री सम्भवसागर जी महाराज, ब्र. यशवन्तकुमार जैन ने मुनिदीक्षा ली एवं क्षुल्लिका श्री अभयमती माताजी, ब्र. अशरफीबाई, ब्र. विद्याबाई ने आर्यिका दीक्षा धारण की और एक श्रावक ने क्षुल्लक दीक्षा ली जो आगे मुनि बनकर बुद्धिसागर जी के नाम से जाने गए हैं। जो कि उनके आगामी कालीन शिष्य संग्रहत्वगुण की अभिव्यक्ति कर रही थी।
विशाल संघ सहित आचार्यश्री का प्रथम चातुर्मास (आचार्य पद के अनन्तर) जैन नगरी जयपुर में अत्यन्त प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ। तदन्तर टोंक, अजमेर, लाडनू और सीकर नगरी में क्रमश: वर्षायोग सम्पन्न हुए।
आर्यिका दीक्षा
सन् १९७१ अजमेर के चातुर्मास में मगशिर वदी ३ को श्री ज्ञानमती माताजी ने अपनी गृहस्थावस्था की माँ मोहनी को आर्यिका दीक्षा आपके करकमलों से दिलवाई थी, जो आर्यिकाश्री रत्नमती जी के नाम से प्रसिद्ध हुई हैं। उसी समय ब्र. कु. बिमला और ब्र. फूलाबाई की भी आर्यिका दीक्षा हुई थी।
त्रैलोक्यवन्द्य समस्त पदार्थ साक्षात्कारी सर्वज्ञ तीर्थंकर श्री वर्धमान भगवान् के निर्वाण समय को २५०० संवत्सर पूर्ण हो रहे थे, धीमान् और श्रीमान् राष्ट्रीय स्तर पर इसको सम्पन्न करना चाहते थे, रूपरेखा बनी। कलिकाल के दोष के कारसा अखण्ड जिन धर्म चार खण्डों में विभाजित है, उन सबके समुदाय मिलकर इस महामह उत्सव को करना चाहते थे।
दिगम्बर सम्प्रदाय के परम्परागत पट्टाधीश आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज के पादपद्मों में भक्त श्रावकों ने प्रार्थना की और सीकर शहर से भारत की राजधानी देहली की और आचार्यदेव ने ससंघ विहार किया। अत्यन्त सरल, मृदु स्वभावी, स्पष्टवक्ता खुली पुस्तक के समान खुला जिनका जीवन ऐसे महान् आचार्य के सानिध्य को पाकर महानगरी के श्रावक धन्य हो गये।
आचार्यश्री का व्यक्तित्व, उनकी जन्मजात बुद्धि का वैभव, प्रज्ञाश्रमणत्व आदि को देख देखकर बड़े—बड़े दिग्गज विद्वान् आश्चर्यान्वित हुए। अनेक प्रसंग आये जो चारों सम्प्रदायों में क्षोभ पैदा कर सकते थे, किन्तु आचार्यश्री का गांभीर्य सागर से अधिक था, क्रोध की छटा तो कभी किसी को किसी प्रसंग पर दृष्टिगोचर नहीं हुई।
आचार्यश्री का कहना रहता था कि चारों सम्प्रदाय में सौहार्द हो, किन्तु समानाचरण कैसे सम्भव हैं ? भारत के नगर—नगर के ग्राम—ग्राम के निवासी श्रावकों की आँखें उस समय राजधानी पर लगी हुई थीं। उस समय दिगम्बरत्व की सुरक्षा ही नहीं अपितु अनादि निधन वास्तविक जिनधर्म के मूल स्वरूप की सुरक्षा का भार आचार्यश्री पर था और उन्होंने उस भार को अपेक्षा से भी अधिक कुशलता से वहन किया।
आचार्य संघ के दिल्ली आगमन में भी विशेष रूप से श्री ज्ञानमती माताजी की ही प्रेरणा थी, इसके पश्चात् तो उत्तर भारत में तीन चातुर्मास सम्पन्न हुए। औत्तरीय जैन जनता ऐसे परम निस्पृह व्यक्तित्व स्वरूप आचार्य को पाकर हर्ष विभोर हुई अद्यप्रभृति उन्हीं महामना का स्मरण यशोमान करके भी अघाती नहीं है। सन् १९७५ में आचार्यसंघ का मंगल पदार्पण हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर भी हुआ था। तब वहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में आचार्यश्री ने जम्बूद्वीप—स्थल पर भगवान महावीर स्वामी एवं प्राचीन मन्दिर की प्रतिमाओं पर सूरिमन्त्र भी प्रदान किये थे।
किशनगढ़ में चातुर्मास
राजस्थान में पुन: आगमन हुआ, मदनगंज–किशनगढ़ में चातुर्मास किया। आचार्यश्री का प्रत्येक चातुर्मास महाप्रभावना युक्त होता था, किसी प्रकार सामाजिक वैमनस्य आदि का प्रसंग तो दूर रहा, यदि पहले से वैसी कुछ घटना हो तो वह अवश्य दूर हो जाती थी।
यह उनकी मन वचन काय की एकता का सुफल था। आचार्यश्री प्राय: मौन बैठकर अध्ययन, पाठ या जाप्य किया करते, दर्शनार्थी भक्त की ओर मात्र एक मन्दर मुस्कान के साथ देख लेने से दर्शनार्थी कृत—कृत्य हो जाता था, प्रसन्न हो जाता था मानों आचार्यश्री की आंतरिक शान्ति और प्रसन्नता भक्त में संक्रांत हो जाती थी। आचार्य पद में जैन शासन को निर्बाध गति से वृद्धिगत करते हुए आचार्यश्री के १८ वर्ष व्यतीत हुए जैसे कि भारत में कांग्रेस शासन को चलाते हुए
आद्य प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू के १८ वर्ष व्यतीत हुए थे। मैं (आर्यिका जिनमति) उनके आचार्य पद के अथ से लेकर इति तक संघ में उनकी छत्र छाया में रहीं। कोप उनसे मानों भय से कोसों दूर रहता था। मान उनके हृदय का स्पर्श करने में असमर्थ रहा। मायारूपी वनिता तो मानों उनको आगर्भ ब्रह्मचारी देखकर निकट नहीं आ पाती थी।
अपने प्रतिपक्षी निर्लोभ का निवास स्थल मानकर लोभ विलीन हुआ था। चालीस वर्ष के दीर्घ संयम साधना के अनंतर सीकर नगरी में अत्यन्त शांत—भाव युक्त आधि—व्याधि—उपाधि से रहित आचार्यश्री ने समाधि को प्राप्त किया। उनकी तप:पूत आराधना पूर्ण हुई, जैन जगत ने एक महान् ज्योति व धर्मनायक को खो दिया। महापुरुषों का जीवन निरावरण दीपकवत् होता हैं उनके गुणों की गरिमा का गान कौन गा सकता है ? केवल अपने ही कल्याणार्थ कथन और लेखन होता है। जैसा कि कहा है—