विक्रम संवत् १९८२ में भोपाल के पास आष्टा नामक कस्बे के समीप प्राकृतिक सुरम्यता से परिपूर्ण भौंरा ग्राम पद्मावती पुरवाल गोत्रोत्पन्न परम पुण्यशाली श्री जबरचन्द्र जी के घर माता रूपाबाई की कुक्षि से आपका मंगल जन्म हुआ था। जन्म के बाद माता—पिता ने आपका नाम राजमल रखा।
शीलरूपा माँ रूपाबाई सुगृहणी, कार्य कुशल एवं धर्म परायण महिला हैं। फलत: उनके आदर्शों का असर होनहार सन्तान पर भी पड़ा। आपके पिता श्री स्वभाव से सरल र्धािमक बुद्धि के व्यक्ति थे। आपसे बड़े तीन भाई श्री केशरमल जी, श्री मिश्रीलाल जी एवं श्री सरदारमल जी हैं, वे घर पर ही अपने उद्योग के साथ परिवार सहित र्धािमक जीवन यापन करते हैं। आपकी रुचि प्रारम्भ से ही विरक्ति की ओर थी। बालपन से ही आपका स्वभाव मृदु एवं व्यवहार नम्रता पूर्ण रहा।
विद्यार्थी जीवन में आपकी बुद्धि प्रखर एवं तीक्ष्ण थी। वस्तु परिज्ञान आपको शीघ्र हो जाता था। आपकी प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा कक्षा चार तक ही इन्दौर जिला के ‘‘अजनास’’ ग्राम में हुई। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा के बाद सम्वत् २००० में आपने आचार्यवर श्री वीरसागर जी महाराज के प्रथम दर्शन किए फलत: आपके हृदय में परम कल्याणकारी जैनधर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा ने जन्म लिया।
१७ वर्ष की अल्प आयु में ही आचार्यश्री की सत्प्रेरणा से प्रभावित होकर आप संघ में शामिल हो गये और जैनागम का गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। जैसे—जैसे आपकी निर्मल आत्मा को ज्ञान प्राप्त होता गया वैसे—वैसे आपकी प्रवृत्ति वैराग्य की ओर होने लगी। वि. सं. २००२ में ही आपने झालरापाटन (राज.) में आचार्यवर श्री वीरसागर जी महाराज से सातवीं प्रतिमा के व्रत अंगीकार कर लिए। पूज्य र्आियका श्री ज्ञानमती माताजी के मुखारबिन्द से आपने ब्रह्मचारी अवस्था में ब्यावर सन् १९५९ के अजमेर चातुर्मास में पंचाध्यायी, पात्रकेशरी—स्तोत्रादि अनेक विषय पढ़े।
प्रकाशचन्द जी टिवैतनगर वाले (मेरे गृहस्थावस्था के भाई) के मुख से मैंने कई बार सुना है कि ब्र. राजमल जी को मुनि दीक्षा लेने के लिए माताजी बहुत प्रेरणा देती थीं क्योंकि प्रकाशचन्द जी ब्र. जी के पास ६ महीने तक रहे थे। इस अवस्था में आकर आपने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की कठिन प्रतिज्ञा लेकर सांसारिक भोग—विलासों को ठुकराते हुए कठोर व्रतों का अभ्यास कर शरीर को दुद्धंर तपस्या का अभ्यासी बनाया। इस पवित्र ब्रह्मचर्यावस्था में आकर आपने अपने अथक श्रम से जिस आगम का ज्ञान प्राप्त किया उससे आपकी समाज के बीच उचित प्रतिष्ठा हुई।
आपमें एक विशिष्ट गुण का प्राधान्य पाया जाता है, वह यह है कि जब भी आप तर्वâ–संगत विद्वत्तापूर्ण विशेष कल्याणकारक कोई भी कार्य करते तो उसका श्रेय अन्य किसी व्यक्ति विशेष को इंगित कर देते, तथा स्वयं नाम—प्रतिष्ठा के निर्लोभी बने रहते। कार्य का सम्पादन स्वयं करते और उसकी प्रतिष्ठा, इज्जत के अधिकारी अन्य व्यक्ति होते—यह आपकी व्यामोह विहीनता, महानता, प्रबल सांसारिक वैराग्य और क्षणभंगुर शरीर के प्रति निर्ममत्व के साथ ही मानव समाज के कल्याण की उत्कृष्ट भावना का प्रतीक है। यदि आपकी विशिष्ट कार्य—सम्पन्नता से प्रभावित होकर किसी व्यक्ति विशेष ने आपके गुणों की गरिमा गाई तो आप उससे प्रसन्न होने के बजाय अप्रसन्न ही हुए। धन्य है आपकी इस महानता को। आपके द्वारा प्रशिक्षित अनेक श्रावक—श्राविका अपना आत्म—कल्याण करते हुए क्षुल्लक, क्षुल्लिका व र्आियकाओं के रूप में धर्मसाधन कर आपकी गुण—गरिमा का परिचय दे रहे हैं।
ज्ञान और चारित्र में श्रेष्ठता
इस प्रकार ज्ञान और चारित्र में श्रेष्ठता पा जाने पर आपके अन्तर में वैराग्य की प्रबल ज्योति का उदय हुआ तथा सीकर (राज.) में र्आियका श्री ज्ञानमती माताजी की असीम प्रेरणा से अपार जनसमूह के बीच परमपूज्य दिगम्बर जैनाचार्य श्री शिवसागर जी महाराज के समस्त अंतरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग करके र्काितक सुदी चतुर्थी संवत् २०१८ की शुभतिथि व शुभ नक्षत्र में आपने दिगम्बर मुनिदीक्षा धारण कर ली। आचार्यश्री ने आपका नाम— संस्कार श्री अजितसागर नाम से किया।
दीक्षित नाम पूर्व नाम की अपेक्षा यथार्थवादी होता है, अर्थात्—‘‘यथा नाम तथा गुण’’ की युक्ति को चरितार्थ करने वाला ऐसा अजितसागर नाम पूज्य आचार्यवर ने रखा। नवीन वय, सुगठित, सानुपातिक और बलिष्ठ शरीर, सौम्य शांत मुद्रा, चेहरे पर ब्रह्मचर्य का तेज, ऐसी अवस्था में नग्नमुद्रा धारणकर अपनी विषय वासना को कठोर नियन्त्रण में करते हुए समाज के बीच सफल नग्न परीक्षण देना कितना कठिन है ? यह एक ऐसी अवस्था होती है जहाँ पर शारीरिक मोह छोड़ते हुए लज्जा और इन्द्रियों पर महान् विजय पानी होती है।
इन्द्रिय निग्रह का महान् आदर्श उपस्थित करना होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आप अपने तेजोबल से मुनि धर्म का कठोरता से पालन करते हुए अपनी दिनचर्या का अधिकांश समय जैनागम अध्यापन में व्यतीत करते हैंं आपका संस्कृत ज्ञान परिपक्व एवं अनुपम है। आपने निरन्तर कठोर अध्ययन एवं मनन से जिस ज्ञान का भण्डार अपनी आत्मा में समाहत किया उससे अच्छे–अच्छे विद्वान् दांतों तले अंगुली दबाकर नत हो जाते हैं। आपने ५ हजार श्लोकों का संग्रह किया है जो ‘‘सर्वोपयोगी श्लोक संग्रह’’ नाम से समाज के सामने आ चुका है।
आपके अध्ययन की प्रक्रिया को मात्र इस उदाहरण से कह सकते हैं कि—जैसे एक विद्यार्थी परीक्षा की सफलता के लिये अतिनिकट परीक्षा अवधि में तन्मयता और श्रम के साथ अध्ययन करता है, उससे कहीं बहुत तीव्र लगन के साथ महाराजश्री अपने आत्म—कल्याणरूपी परीक्षा की सफलता के लिये अनवरत तैयारी करते रहते हैं। आपने अनेकों ग्रंथों का प्रकाशन कराया है।
जब हम आपके जीवन पर दृष्टि डालते हैं
जब हम आपके जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो यह पाते हैं कि आपने मात्र १७ वर्ष का समय घर में व्यतीत किया और फिर आचार्यश्री के संघ में मिलकर आत्कल्याण की ओर मुड़ गये। अल्पवय में इतना त्याग, इतना वैराग्य और ऐसी कठोर साधना के साथ मुनिधर्म जैसी कठोर चर्या का पालन करना विरले पुरुषार्थी महापुरुषों के लिये ही सम्भव हो सकता है। आपने अपने विशाल संघ के साथ यत्र—तत्र—सर्वत्र विहार किया एवं आचार्यश्री धर्मसागर महाराज की समाधि के बाद ७ जून १९८७ को उदयपुर (राज.) में विशाल जनसमूह के मध्य चर्तुिवध संघ सानिध्य में आपको आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की परम्परा का चतुर्थ पट्टाधीश आचार्य घोषित किया गया।
अन्त में ऐसे महान् साधक चर्तुिवध संघ के अधिनायक आचार्यश्री अजितसागर महाराज के पावन युगल चरणों में उनकी इस उत्कृष्ट महानता के लिये बार—बार नमन हैं तथा वीरप्रभू से कामना है कि आप शारीरिक आरोग्यता प्राप्त करते हुए चिरकाल तक पृथ्वी तल पर धर्म की ध्वजा फहराते रहें। यह जीव जितनी पर की चिन्ता करता है, यदि उसके अनन्तवें भाग भी अपनी चिन्ता करे तो आप तो सुखी होवे ही, पर को भी सुखी बना देवे।
—गणिनीप्रमुख र्आियका श्री ज्ञानमती
पर को मोक्षमार्ग में लगाने के लिये व्याकुल
होना धर्मध्यान है, किन्तु पर को मात्र शरीर से व इन्द्रिय सुखों से सुखी करने के लिये व्याकुल होना आर्तध्यान है।