मात्र भारतीय ही नहीं अपितु विश्व गणित इतिहास में आपकी विशिष्ट कीर्ति आपकी बहुश्रुत कृति गणितसार—संग्रह के कारण है। ज्योतिष के प्रभाव से पूर्णत: मुक्त पाठ्य—पुस्तक की शैली में निबद्ध इस कृति का प्रणयन मान्यखेट (वर्तमान कर्नाटक राज्य एवं उसका समीपवर्ती क्षेत्र) के शासक राष्ट्रकूटवंशीय नृपतुंग अमोघवर्ष—१ (८१४—८७७ ई.) के राज्य शासनकाल में, सम्भवत: उनके ही राज्य क्षेत्र अथवा उसके समीप विहार करने वाले दिगम्बर जैनाचार्य, आचार्य महावीर (महावीराचार्य) ने ८५० ई. के लगभग किया था। आपके जन्म स्थान, जन्म वर्ष, दीक्षा गुरु, दीक्षा वर्ष, माता—पिता आदि के सन्दर्भ में इतिहास पूर्णत: मौन है। व्यक्तित्व के समान ही आपके कृतित्व के सन्दर्भ में भी हमारा ज्ञान अपूर्ण है। भिन्न—भिन्न इतिहास एवं प्राच्यविद्या विशेषज्ञों ने षट्त्रिंशिकाअर्हत् वचन १ (१), सित. ८८, ६५—७४, ज्योतिषपटल, क्षेत्रगणित एवं छत्तीसपूर्वा उत्तर—प्रतिसह शीर्षक चार अन्य कृतियोंविस्तार हेतु देखें—अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल, महावीराचार्य, एक समीक्षात्मक अध्ययन, दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर १९८५ अथवा A. Jain, Mahaviracharya, The Man & The Mathematician, Acta Ciencia Indica (Meerut), 10, (3,4) pp. 275-280, 1984.की रचना का श्रेय भी आपको ही दिया है, किन्तु यह तथ्य र्नििववाद नहीं है। गणितसारग—संग्रह आपकी सर्वमान्य, बहुश्रुत एवं सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति है। सर्वप्रथम १९१२ में एम. रंगाचार्य ने इसको अंग्रेजी अनुवाद, पाद—टिप्पणियों एवं भूमिका सहित सम्पादित कर मद्रास सरकार के माध्यम से प्रकाशित कराया। १९६३ में प्रो. लक्ष्मीचन्द्र जैन ने अंग्रेजी संस्करण को आधार बनाकर इसका हिन्दी अनुवाद विस्तृत पादटिप्पणियों, विशेषार्थ, भूमिका, परिशिष्ट आदि सहित सम्पादित कर जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर के माध्यम से प्रकाशित कराया। मूलत: संस्कृत भाषा में रचित उक्त ग्रंथ की पावलूरिम्मल (११ वीं श. ई.) ने तेलुगू एवं वल्लभ (१२ वीं श. ई.) ने कन्नड़ टीका की थी। दक्षिण भारत में प्राचीनकाल में इस कृति का गणित की पाठ्य पुस्तक के रूप में व्यापक प्रचार था। प्रस्तुत ग्रंथ मूलत: ८ अध्यायों में लिखा गया था, किन्तु उसके दोनों प्रकाशित संस्करणों में प्रथम अध्याय, परिकर्म व्यवहार को संज्ञाधिकार एवं परिकर्म व्यवहार शीर्षक २ अध्यायों में विभक्त कर दिया गया है फलत: अब इसका प्रचार ९ अध्यायों की कृति के रूप में ही है। ग्रंथ के विविध ९ अध्यायों, (संज्ञाधिकार, परिकर्म व्यवहार, कलासवर्ण व्यवहार, प्रकीर्णक व्यवहार, त्रैराशिक व्यवहार, मिश्रक व्यवहार, क्षेत्रगणित व्यवहार, खात व्यवहार एवं छाया व्यवहार) के अन्तर्गत महावीराचार्य ने एक सुगठित पाठ्य पुस्तक की अपेक्षाओं के अनुरूप उस काल तक के लौकिक गणित विषयक अधिकांश ज्ञान को रोचक एवं सरल रूप में व्यवस्थित किया है। यद्यपि विषयों के प्रस्तुतीकरण की शैली, प्रश्नों के संयोजन एवं विवेचन की दृष्टि से सम्पूर्ण ग्रंथ वैशिष्ट्यपूर्ण है तथापित निम्नांकित बिन्दु ग्रंथकार द्वारा प्रस्तुत विचारों की मौलिकता के कारण विशेष उल्लेखनीय हैं। १. पूर्ववर्ती गणितज्ञ श्रीधराचार्य (७५० ई. ल.) द्वारा प्रस्तुत स्थानमान की १८ स्थानों की सूची (एक, दश, शत, सहस्र, अयुत, लक्ष, प्रयुत, कोटि, अर्बुद, अव्ज, खर्व, निखवं, महासरोज, शंकु, सरितापति, अन्त्य, मध्य, परार्ध) का विस्तार/परिष्कार करते हुए आपने १. इकाई, २. दहाई, ३. सैकड़ा, ४. सहस्र, ५. दस सहस्र, ६. लक्ष, ७. दस लक्ष, ८. कोटि, ९. दस कोटि, १०. शत कोटि, ११. अर्बुद, १२. न्यूबुर्द, १३. खर्व, १४. महाखर्व, १५. पद्म, १६. महापद्म, १७. क्षोणी, १८. महाक्षोणी, १९. शंख, २०. महाशंख, २१. क्षित्या, २२. महाक्षित्या, २३. क्षोभ, २४. महाक्षोभ के रूप में २४ पदों वाली स्थानमान की सूची प्रस्तुत की।गणितसार—संग्रह, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर १/६३—६८ पृ. ८ २. वर्ग एवं घन करने की अन्य विधियों के साथ आपने एक ऐसी विधि भी दी है जिसमें दो संख्याओं के योग का वर्ग करने के आधुनिक सूत्र का भाव निहित है। धन करने का यह सूत्र अन्य गणितज्ञों को भी ज्ञात है। (A + ँ)२ ृ A२ + २A. ँ + ँ२, (A + ँ)३ ृ A३ + ३ A२ ँ + ३Aँ२ + ँ३ इसका व्यापकीकरण करते हुए आपने निम्न सूत्र दिया।४ (A + ँ + ण् + D ……)३ ृ A३ + ३A२ (ँ + ण् + D + …..) + ३A (ँ + ण् + D+ …..)२ + (ँ + ण् + D + …. )वही, २/३१ पृ. १४ ३. शून्य से किसी संख्या को भाग देने के सन्दर्भ में आचार्य का नियम असत्य प्रतीत होता है। आपने लिखा है कि यदि संख्या को शून्य से विभाजित कर दिया जाये, उसमें जोड़ या घटा दिया जाये तो संख्या अपरिर्वितत रहती है।वही, १/४९, पृ. ७ अर्थात् A /० ृ A, A + ० ृ A, A — ० ृ A यहाँ A / ० ृ A असत्य प्रतीत होता। किन्तु यदि हम यहाँ िंकचित भिन्न पृष्ठभूमि पर विचार करें तो यह स्पष्ट होता है कि वितरण के नियमानुसार यदि ह वस्तुओं में से असत वितरित करें अर्थात् २० वस्तुओं को शून्य लोगों में बाँटे तो संख्या अपरिर्वितत रहती है। आधुनिक गणित में A / ० ृ (अनन्त) होता है। किन्तु क्या प्राचीन जैन गणित में अनन्त का यही स्वरूप था ? यदि नहीं तो महावीराचार्य द्वारा A / ० ृ (अनन्त) लिखना क्या उपयुक्त होगा ? इस प्रश्न पर अन्यत्र, विस्तार से विचार करेंगे। ४. ऋणात्मक संख्याओं का वर्गमूल ज्ञात करने के संदर्भ में महावीराचार्य ने वैज्ञानिक रूप में बढ़ते हुए उस काल तक उपलब्ध सामग्री के अन्तर्गत अत्यन्त प्रतिभापूर्ण निष्कर्ष निकाला है। आपने लिखा है कि‘‘धन धनर्णयोर्वर्गों मूले स्वर्णे तयो क्रमात्। ऋणं स्वरूपतोऽवर्गो यतस्तस्मान्न तत्पदम्।।गणितसार संग्रह १/५२, पृ. ७अर्थात् धनात्मक एवं ऋणात्मक राशि का वर्ग धनात्मक होता है। और उस वर्ग राशि के वर्गमूल क्रमश: धनात्मक एवं ऋणात्मक होते हैं। चूँकि वस्तुओं के स्वभाव से ऋणात्मक राशि वर्गराशि नहीं होती है अत: उसका वर्गमूल नहीं होता है। आधुनिक गणित के अनुसार भी ऋणात्मक राशियों का वर्गमूल वास्तविक राशि नहीं होती है। वस्तुत: उनके उपरोक्त प्रतिभायुक्त कथन ने ही काल्पनिक संख्याओं के आविष्कार का पथ प्रशस्त किया। महावीरचार्य ने एतदर्थ आवश्यक सूक्ष्म दृष्टि सम्भवत: धवलादि प्राचीन जैन ग्रंथों में सहजता से उपलब्ध असंगति प्रदर्शन विधि से विकसित की होगी। ऐतिहासिक दृष्टि से उल्लेखनीय है कि जो परिकल्पना महावीराचार्य ने ८५० ई. के लगभग की वही ण्aल्म्प्ब् ने योरोप में १८४७ ई. में की। ने इस परिकल्पना हेतु महावीराचार्य की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है एवं उसके आविष्कार का श्रेय महावीराचार्य को दिया है।E. T. Bell, Development of Mathematics, Magraw Hill, New York, P. 175, 1940. ५. भिन्नों के प्रकरण में महावीराचार्य ने असमान हरों वाली भिन्नों को जोड़ने हेतु निरुद्ध (लघुत्तम समीपवत्र्य) ज्ञात करने का नियम दिया है।‘‘छेदपर्वतका नाम् लब्धानां चाहतौ निरूद्ध: स्यात्। हरहृत निरुद्ध गुणिते हारांशगुणे समाहार:।।’’गणितसार—संग्रह ३/५६ पृ. ४९अर्थात् हरों के सभी सम्भव गुणनखण्डों और उनके सभी अन्तिम भजन फलों के सन्ततगुणन से निरुद्ध (लघुत्तम समापवत्र्य) प्राप्त होता है। निरुद्ध को हरों द्वारा भाजित करने से प्राप्त भजनफलों में हरों और अंशों का गुणन करते हैं। इस प्रकार से प्राप्त हरों और अंशों सम्बन्धी अपवत्र्यो के हर समान होते हैं। उल्लेखनीय है कि यूरोप में १५वीं श. में लघुत्तम समापवत्र्य निकालने सम्बन्धी नियम का आविष्कार हुआ तथा १७वीं श. में इसका व्यापक प्रयोग प्रारम्भ हुआब. ल. उपाध्याय, प्राचीन भारतीय गणित, विज्ञान भारती, दिल्ली, पृ. १६८, १९७१ जबकि महावीराचार्य ने इसका आविष्कार ९वीं श. में ही कर दिया था। किसी भी पूर्णांक अथवा भिन्न को १ अंश वाली भिन्नों के पदों में व्यक्त करने सम्बन्धी अनेक नियम महावीराचार्य के साहित्य में उपलब्ध हैं।गणितसार—संग्रह, ३/७५—८५, पृ. ५२—५३ ऐसी भिन्नों को एकांशक भिन्न, रूपांशक भिन्न की संज्ञा दी जाती है। इनके अध्ययन को अपने अध्ययन की परिधि में लेने वाले आप प्रथम भारतीय गणितज्ञ थे। आपके पश्चात् भास्कर (११५० ई.) ने भी इसका विवेचन नहीं किया मात्र नारायण पण्डित (१३वीं श. ई.) ने इसका व्यापक विवेचन किया है। ६. क्रमचय एवं संचय पर प्रश्नों के विवेचन की शृंखला में पूर्ववर्ती जैनाचार्यों, जिन्होंने हम्१ , हम्२, ह म्३ आदि (ह वस्तुओं में से १ को चुनने की कुलविधियाँ, ह वस्तुओं में से २ वस्तुओं को चुनने की कुल विधियाँ….दी थी), से एक कदम आगे बढ़कर व्यापक सूत्र हम्r की प्रतिस्थापना की है। आपके अनुसार—प्रस्तार योगभेदस्य सूत्रं—एकाद्येकोत्तरत: पद मूध्र्वार्धयत: क्रमोत्क्रमश:। स्थाप्य प्रतिलोमघ्न प्रतिलोमघ्नेन भाजितं सारं।। वही, ६/२१८, पृ. १४६। बीजीय रूप से—ऐतिहासिक अभिरुचि का विषय यह है कि महावीराचार्य द्वारा आविष्कृत यह नियम योरीप में प्ीग्ुदह (१६३४ ई.) द्वारा पुन: आविष्कृत हुआ। ७. बीजगणित से ही जैनाचार्यों की ही नहीं अपितु समस्त भारतीय गणितज्ञों की अभिरुचि का केन्द्र बिन्दु रहा है। महावीराचार्य ने एक अज्ञात राशि के एक घातीय, द्विघातीय एवं उच्च घातीय समीकरणों, दो अज्ञात राशि के एक घातीय एवं द्विघातीय युगपत् समीकरणों, अनेक अज्ञात राशि के समीकरणों को हल करने की अनेक मौलिक विधियाँ भी दी हैं। इन समीकरणों के हल का एक विशिष्ट पहलू इनकी रोचकता एवं व्यावहारिक है। आपने ब्याज, क्रय—विक्रय, प्राकृतिक जीवन में सम्बन्धित घटनाओं पर प्रश्न बनाकर इनके हल में उपरोक्त विधियों का समावेश किया है। त्रैराशिक एवं कुट्टीकार के प्रश्नों में भी सहजता एवं रोचकता विद्यमान है। कई प्रश्नों, जिन्हें अन्य गणितज्ञों ने जटिल रीति से हल किया है, को आपने समानुपाती भाग के नियम से सहज रूप में हल किया है। ८. श्रेणियों का उपचार करते हुए आपने समान्तर एवं गुणोत्तर श्रेणी के अलावा मिश्रित श्रेणियों का भी अध्ययन किया है। आपने ढ a + ( ह — १ ) ्२ ल आदि का मान ज्ञात किया है। आपने कई नितान्त नवीन परिणामों को प्राप्त किया था। आपका यह विवेचन रोचक, सरल किन्तु व्यापक है। श्रेणियों के विकास में भारतीय गणितज्ञों के योगदान का अध्ययन करने वाले वरिष्ठ शोधक प्रो. लाल ने इस क्षेत्र में महावीराचार्य के कृतित्व को सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादित किया है। R. S. Lal, Contribution of Mahaviracarya to the development of Theory of Series, Paper presented in 4th Annual conference of I. S. H. M. 8-9, Dec. 1980, Delhi. ९. गणितसार संग्रह का क्षेत्रगणित व्यवहार अनेक विशिष्टताओं से परिपूर्ण है। आपने विविध प्रकार के त्रिभुजों, चतुर्भुजों, वृत्त आदि के क्षेत्रफल ज्ञात करने के साथ ही दीर्घवृत्त, यवाकार, मुरजाकर, पणवाकार, वङ्कााकार एक निषेध क्षेत्र, उभय निषेध क्षेत्र तीन एवं चार संस्पर्शी वृत्तों से आबद्ध क्षेत्र, हस्तदन्त क्षेत्र का क्षेत्रफल निकालने के नियम भारतीय गणित में सर्वप्रथम प्रतिपादित किये हैं। दीर्घवृत्त के अतिरिक्त अन्य आकृतियों की तो चर्चा भी सर्वप्रथम आपने ही की। मात्र वृत्त ही नहीं अपितु गोलीयखण्डों (नतोदर + उन्नतोदर) के आयतन ज्ञात करने के सूत्र भी उपलब्ध हैं। अनेक स्थानों पर सुन्दर निर्वचन करने के बावजूद आपके कुछ सूत्र पूर्णत: सत्य नहीं हैं। यथा चतुर्भुज का क्षेत्रफल ज्ञात करने का सूत्र— A ृ न्न्े ( े — a) (े — ं) ( े — म् ( े — ्), े ृ मात्र चक्रीय चतुर्भुजों हेतु ही सत्य है सर्वत्र नहीं।गणितसार—संग्रह, ७/५०, पृ. १९३। जैनाचार्यों की सुदीर्घ परम्परा के अनुरूप आपने भी अथवा स्थूलरूप से ३, मान स्वीकार किया है। १०. स्वेच्छापूर्वक चयनित समुचित बीज संख्याओं द्वारा जनित आकृतियों (त्रिभुजों, आयतों) के निर्धारण में आपने कुशलता पूर्वक बीजगतिणतीय समीकरणों का प्रयोग किया है। निश्चित लम्ब (एक भुजा), निश्चित आधार (द्वितीय भुजा), एवं निश्चित कर्ण (विकर्ण) वाले समकोण त्रिभुजों (आयतों) के निर्धारण, निश्चित परिमिति, निश्चित क्षेत्रफल, क्षेत्रफलों/परिमितियों में परस्पर विशिष्ट अनुपात रखने वाले आयतों के निर्धारण में आपने कुशलता पूर्वक बीज—गणितीय समीकरणों का प्रयोग किया है। बीज गणित के माध्यम से ही आपने बीजराशियों से प्रारम्भ कर अथवा एक निश्चित माप की एक भुजा वाले समद्विबाहु, समबाहु, विषमबाहु एवं समकोण त्रिभुज बनाने के नियम दिये।देखें, सन्दर्भ—२ निश्चित विकर्ण ण् वाले विविध आयतों निश्चित कर्ण ण् वाले विविध समकोण त्रिभुजों को प्राप्त करने का आपने निम्नलिखित नियम दिया है। यदि कर्ण/विकर्ण की मात ण् हो तो शेष दो लम्बवत् भुजायें, लम्ब एवं आधार निम्नलिखित सूत्र से ज्ञात किये जा सकते हैं। कर्ण ृ ण्, लम्ब ण्, एवं आधार ृ ण् इसके उपरान्त विविध उदाहरणों के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है। ६५ कर्ण वाले विभिन्न समकोण त्रिभुजों की शेष २ भुजाओं के समूह (३९, ५२)ए (२५, ६०), (३३, ५६), (१६ ६३) प्राप्त होते हैं। उल्लेखनीय है कि यही नियम योरोप में (१२०२ ई.) तथा न्गूa) (१५८० ई.) द्वारा पुन: आविष्कृत किया गया तथा इसे (इग्ंदहaम्म्ग् एाqलहमे) की संज्ञा दी गयी।L. E. Dicson, History of Theory of Numbers, Vol. II P. 167, Washigton, 1919-1923. वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ में इस ग्रंथ के प्रकाश में आने पर सर्वप्रथम १९०८ में प्रकाशित किया। इसके उपरान्त प्रकाशित गणित इतिहास की प्राय: समस्त पुस्तकों में इसके न्यूनाधिक उल्लेख विद्यमान हैं। एस्ग्ूप् (१९१२), दत्त (१९२८), ाँत्त् (१९३६) बागी (१९६३) अग्रवाल (१९६४), श्रीनिवास आयंगर (१९६७) सरस्वती (१९६७—८०) (१९६८), गुप्ता (१९७४—७५), जैन बी. एस. (१९७७), जैन अनुपम (१९८०—८४) लाल (१९८२) ने महावीराचार्य के कृतित्व पर विस्तृत लेख लिखे हैं।For all ref. see. A. Jain, Survey of Work done on Jaina Mathematics, Tulsi Prajna, Landnun, 11 (1-3), pp. 15-27, 1983. संक्षेप में महावीराचार्य का मात्र भारतीय गणित ही नहीं अपितु विश्व गणित इतिहास में अप्रतिम स्थान है। ज्योतिषपटल, क्षेत्रगणित एवं छत्तीसपूर्वाउत्तरप्रतिसह के अन्वेषण एवं समीक्षात्मक अध्ययन की तत्काल अपरिहार्य आवश्यकता है। हमें विश्वास है इन ग्रंथों में निहित सामग्री भारतीय इतिहास की अत्यन्त मूल्यवान निधि होगी। क्या ही अच्छा हो यदि भारत सरकार आर्यभट्ट एवं भास्कर के समान अपने किसी उपग्रह का नामकरण ‘महावीर’ कर हम सभी भारतीयों को गौरवान्वित होने का अवसर दें। प्रो. दत्त जन्म शताब्दी वर्ष १९८८ में यह भारतीय गणित को सरकार को विशिष्ट देन होगी।