मोक्षमार्ग पर चलने वाले प्रत्येक पथिक को श्रद्धा (सम्यग्दर्शन), ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और और वैराग्य (सम्यक्चारित्र) इन तीन सोपानों का आश्रय लेना पड़ता है।
तभी वह जीवन के परमलक्ष्य—मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। ‘‘सम्यक्’’ इस संज्ञा से अभिहित हुए बिना दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों ही मिथ्यात्व कहलाते हैं और ये पत्थर की नौका के समान भवसिन्धु में पातित करने वाले हैं। सबसे पहले अपना प्रतिपाद्य विषय है—श्रद्धा—सम्यग्दर्शन। जैनवाङ्मय में सम्यग्दर्शन की विशद परिभाषायें की गई हैं।
आचार्य उमास्वामी महाराज ने मोक्षशास्त्र महाग्रंथ में ‘‘तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्’’ इस सूत्र द्वारा सम्यग्दर्शन का लक्षण कहा है। आचार्य समंतभद्रस्वामी ने अपने रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है—
श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम्।
त्रिमूढ़ापौढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम्।।
सच्चे निग्र्रंथ दिगम्बर आप्त—सर्वज्ञदेव, शास्त्र और गुरुओं के प्रति त्रिमूढ़ता (देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, लोकमूढ़ता) रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। पं. दौलतराम जी ने छहढाला में अपने शब्दों में जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित सप्ततत्त्वों के यथावत् श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहा है।
इन परिभाषाओं के द्वारा हम स्वयं अनुभव कर सकते हैं कि हम सम्यग्दृष्टि हैं या मिथ्यादृष्टि। वह सम्यग्दर्शन, किस को, कब और कैसे होता है ? ये तीन बातें ही मुख्यतया ज्ञातव्य हैं। सम्यग्दर्शन भव्यजीव को ही होगा, अभव्य को नहीं हो सकता है। काललब्धि आदि के मिले बिना नहीं हो सकता है तथा अन्तरंग कारण गुरु उपदेश आदि से ही होता है, बिना कारण के नहीं होता है।
हम भव्य हैं या अभव्य ? इस बात को हम ओर आप नहीं जान सकते, सर्वज्ञ भगवान् ही इसका निर्णय कर सकते हैं। क्योंकि कोई द्रव्यिंलगी महामुनि ११ अंग तक ज्ञान प्राप्त करके नवमें ग्रैवेयक तक चला जाता है, उसके किस अंश में मिथ्यात्व मौजूद है हम निर्णय नहीं कर सकते, वस्तुस्थिति सर्वज्ञगम्य है।
लेकिन स्थूल रूप में हम देव शास्त्र गुरु के सच्चे श्रद्धानी को सम्यग्दृष्टि कहते हैं। आचार्य शिवकोटि ने मूलाराधना में कहा है—
पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिद्दिटठं।
सेस रोचंतो वि हु मिच्छाइट्ठी मुणेयव्वे।।
जो जीव सूत्र निर्दिष्ट समस्त वाङ्मय का श्रद्धान करता हुआ भी यदि एक पद का श्रद्धान नहीं करता है, तो वह समस्त श्रुत की रुचि करता हुआ भी मिथ्यादृष्टि है।
सम्यग्दर्शन निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो प्रकार का हैं पूर्वजन्म के संस्कारों वश गुरु उपदेश के बिना जो सम्यक्त्व प्रकट होता है, वह निसर्गज है तथा परोपदेश पूर्वक जो सम्यक्त्व उत्पन्न होता है वह अधिगमज है। सराग और वीतराग के भेद से भी सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं।
औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के इन तीन भेदों में से क्षायिक और क्षायोपशमिक, ये दोनों सम्यक्त्व सराग हैं। ये परम्परा से मोक्ष को प्राप्त कराने वाले हैं। आचार्य अमितगति ने भी कहा है—
साध्यसाधनभेदेन द्विधा सम्यक्त्वमिष्यते।
कथ्यते क्षायिकंसाध्यं द्वितीयं साधनं परम्।।
साध्य और साधन के भेद से सम्यक्त्व दो प्रकार का कहा गया है। क्षायिक सम्यक्त्व साध्य रूप है तथा शेष दोनों साधन रूप हैं। इन सभी सम्यग्दर्शन के लक्षणों में व्यवहार प्रधानता की ही दृष्टि है जो सच्चे देव, शास्त्र गुरु और तत्त्वों के श्रद्धान रूप ही है। सभी सम्यक्त्वों में स्व—पर भेदविज्ञान छिपा हुआ है अर्थात् यह सम्यग्दर्शन जिसके प्रकट होता है वह आत्म तत्त्व के अभिमुख नहीं होता है ऐसी बात नहीं है।
आध्यात्मिक भाषा में मुनियों के छठे गुणस्थान तक सराग सम्यक्त्व होता है उससे आगे र्नििवकल्प ध्यान में वीतराग सम्यक्त्व प्रकट होता है। आज पंचम काल में वीतराग सम्यक्त्व का अभाव है। हालाकि क्षायिक सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थान में होता है किन्तु केवली, श्रुतकेवली के पादमूल के बिना नहीं उत्पन्न हो सकता है। केवली श्रुतकेवली का पादमूल इस कलियुग में प्राप्त नहीं है अत: क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति भी असम्भव है।
औपशमिक सम्यक्त्व का काल अन्तर्मूहूर्त है उसके बाद वह नियम से छूटता ही है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आज के श्रावक तथा मुनियों को क्षयोपशम सम्यक्त्व ही है। सम्यग्दृष्टि जी व नरक गति में, तिर्यंच गति में, नपुंसकों में, स्त्री पर्याय में, नीच कुल आदि में जन्म नहीं धारण करते हैं।
देव गति में स्वर्ग का अभ्युदय भोगकर क्रमश: मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस संसार में सम्यक्त्व के समान कोई सुखकारी वस्तु नहीं है तथा मिथ्यात्व सदृश दुखकारी नहीं है, इनका अधिक विस्तार आगम ग्रंथों द्वारा ज्ञेय है। भावी तीर्थंकर स्वामी समन्तभद्र ने कहा है-
न सम्यक्त्वसमं किचित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम्।।
जब संसारी जीवात्मा में सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो जाती है तब उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा जाता है। इन्द्रभूति गौतम को अगाध ज्ञान होते हुए भी सम्यक्त्व नहीं था अत: उनका सम्पूर्ण ज्ञान मिथ्याज्ञान था। भगवान महावीर के समवशरण में प्रवेश करते ही जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता’’ इत्यादि चैत्यभक्ति रूप हृदय के उद्गार निकले।
समवशरणभूमि के प्रभाव वश उनका समस्त मिथ्यात्व गलित हो गया तथा वे अपने समस्त शिष्यों सहित वद्र्धमान स्वामी के शिष्य हो गए। मतिश्रुत, अवधि, मन: पर्यय इन ज्ञानों के स्वामी होकर वीर प्रभु के प्रथम गणधर हुए जिनके निमित्त के अभाव में केवलज्ञान के ६६ दिवस तक वीरप्रभु की अनक्षरी दिव्यध्वनि नहीं खिरी।
सन्मति भगवान् के मोक्ष जाने के बाद उसी दिन सायंकाल में गौमतगणधर को भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उन्हीं महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि को, द्वादशांग रूप में निबद्ध शास्त्रांशों को यथातथ्य जानना सम्यग्ज्ञान है। मुक्तिपथ पर चलने के लिए ‘‘सम्यग्ज्ञान’’ द्वितीय सीढ़ी है। ज्ञानचक्षु के बिना हम मोक्ष की मंजिल को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में सम्यग्ज्ञान के ५ भेद कहे हैं।
‘‘मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम्’’।
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान। इनमें से आदि के दो ज्ञान परोक्ष कहलाते हैं क्योंकि इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं। अवधि और मन:पर्यय ज्ञान आत्मा से प्रगट होकर रूपी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं अत: देश प्रत्यक्ष हैं तथा केवलज्ञान के प्रगट होने पर जीव त्रैलोक्य और अलोक को चराचर प्रत्यक्ष रूप से जानते देखते हैं इसलिये केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है।
केवली भगवान् छद्मस्थ जीवों की तरह अपने ज्ञान के एक अंश से ज्ञेय को नहीं जानते हैं किन्तु वे समस्त ज्ञानांशों से युगपत् अपने ज्ञेय को ग्रहण करते हैं। जिस प्रकार सूर्य के उदित होते ही गहन अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार केवलज्ञान सूर्य के प्रगट होने पर सम्पूर्ण मोहान्धकार नष्ट हो जाता है तथा समवशरणादि विभूतियाँ भी स्वयंमेव प्राप्त हो जाती हैं।
शंका— एक साथ एक आत्मा में अधिक से अधिक कितने ज्ञान हो सकते हैं ?
समाधान— मोक्ष शास्त्र के सूत्र में कहा है कि-
‘‘एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुभ्र्य:’’
अर्थात् एक जीव के एक से लेकर चार ज्ञान तक हो सकते हैं। यदि एक होगा तो केवलज्ञान होगा क्योंकि केवलज्ञानावरण कर्म सर्वघाती है वह आत्मा के समस्त ज्ञानादि गुणों का घात करता है तथा उसके नष्ट हो जाने पर पूर्ण समस्त गुण प्रगट हो जाते हैं अत: मतिश्रुत आदि ज्ञानों की कोई आवश्यकता नहीं होती है।
यदि दो ज्ञान होंगे तो मति, श्रुत ये दोनों होंगे। आजकल इस पंचम काल में सभी जीवों को मति श्रुतज्ञान ही होते हैं, ये ज्ञान क्षायोपशमिक कहलाते हैं तथा केवलज्ञान क्षायिक कहलाता है। सम्यग्दृष्टियों के ये ज्ञान सम्यक् रूप होते हैं तथा मिथ्यादृष्टियों के कुमति और कुश्रुत अर्थात् मिथ्यारूप होते हैं।
यदि एक आत्मा में तीन ज्ञान हों तो मति, श्रुत अवधि या मति, श्रुत, मन:पर्यय। तीर्थंकर जन्म से ही मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञानों के धारी होते हैं।
देवगति में और नरकगति में ये तीन ज्ञान सम्यक् मिथ्या रूप में प्रत्येक देवों और नारकियों में होते हैं किन्तु मन:पर्यय ये चारों ही हो सकते हैं। गणधर देव इन चारों ज्ञानों से समन्वित होते हैं। पाँच ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते हैं। इनका विशेष वर्णन सिद्धान्त ग्रंथों से देखना चाहिये।
सामान्य से ज्ञान पाँच प्रकार कहा है तथा भेद करने पर असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं। मतिज्ञान के अवग्रह, ईहादि के भेद से ३३६ प्रकार हो जाते हैं।
श्रुतज्ञान के २ भेद हैं—अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट।
‘‘श्रुतमतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम्’’
इस सूत्र के अनुसार अंग बाह्य के अनेकों भेद हैं तथा अंगप्रविष्ट के आचारांग आदि १२ भेद हैं। इन्हीं १२ अंगों में दृष्टिवाद नाम का जो बारहवां अंग है
उसके पांच भेद हैं— परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका।
पूर्वगत के चौदह भेद रूप चौदह पूर्व कहलाते हैं। द्वादशांग के अन्तर्गत ११ अंग और १४ पूर्वों के ज्ञाता को श्रुत केवली कहते हैं। गौतमस्वामी ने सम्पूर्ण द्वादशांग को श्रुतनिबद्ध किया तथा परम्पराचार्यों ने उसे लिपिबद्ध किया।
आज द्वादशांग की उपलब्धि तो नहीं है किन्तु गुणधर आदि महान् आचार्यों की महती कृपा से पूर्व का अंश भी हमें उपलब्ध है जो कि सिद्धांत ग्रंथ धवल, जयधवल, महाबन्ध आदि नामों से जाने जाते हैं। जयधवला में गुणधर स्वामी ने कहा है—
पुव्वम्मि पंचमम्हि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए।
पेज्जंति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम।।१।।
इसी पर र्चूिण सूत्रकार श्री यतिवृक्षभ आचार्य ने कहा है—
अर्थात् ज्ञानप्रवाद नाम के पांचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे प्राभृत से कषायप्राभृत ग्रंथ का उद्भव हुआ है। जिसका अपरनाम जयधवला है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि गुणधर स्वामी पूर्व अंशों के ज्ञाता थे। वर्तमान शताब्दी में आचार्य सम्राट श्री शांतिसागर महाराज का महान् उपकार हुआ जिनकी सद्प्रेरणा से धवला आदि ग्रंथों का प्रकाशन हुआ जिसके द्वारा हम सभी को साक्षात् तीर्थंकर वाणी को हृदयंगम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
केवली श्रुतकेवली के अभाव में ये आगम ही हमारे लिए चक्षु हैं तथा इनका ज्ञान कराने वाले गुरु ही आधार हैं जिनके द्वारा हम अपने सम्यक्त्व को उज्जवल कर मोक्ष परम्परा की सिद्धि कर सकते हैं। अवधिज्ञान के देशावधि, परमावधि, सर्वावधि ये तीन भेद हैं। जयधवला में वीरसेन स्वामी ने कहा है कि देशावधि का उत्कृष्ट विषय, क्षेत्र की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक, काल की अपेक्षा द्रव्य की असंख्यात लोकप्रमाण पर्यायें हैं।
इसके अनन्तर परमावधि ज्ञान प्रारम्भ होता है। उत्कृष्ट देशावधि के ऊपर और सर्वावधि के नीचे जितने अवधिज्ञान के विकल्प हैं वे सब परमावधि के भेद हैं। ये तीनों ही उत्कृष्ट अवधि संयत के ही होते हैं तथा जघन्य देशावधि मनुष्य और तिर्यंच दोनों के होता है। देशावधि के मध्यम विकल्प यथासम्भव चारों गतियों के जीवों में पाये जाते हैं।
अवधिज्ञान के छह भेद भी हैं— अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित।
एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्र रूप भी अवधि हैं। देव, नारकियों के अनेक—क्षेत्र अवधिज्ञान होता है। तीर्थंकरों के भी अनेक क्षेत्र अवधि होती है। यहाँ एक क्षेत्र का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार प्रतिनियत स्थान में निश्चित चक्षु आदि इन्द्रियाँ मतिज्ञान की प्रवृत्ति में साधकतम कारण होती हैं उसी प्रकार नाभि से ऊपर के विभिन्न स्थानों में स्थित श्रीवत्स आदि आकार वाले अवयवों से अवधिज्ञान की प्रवृत्ति होती हैं, इसीलिये वे अवयव अवधिज्ञान की प्रवृत्ति में साधकतम कारण हैं।
इन स्थानों में से किसी के एक स्थान से किसी के दो आदि स्थानों से ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। ये स्थान तिर्यंच तथा मनुष्य दोनों के ही नाभि से ऊपर होते हैं। किन्तु विभंगज्ञान नाभि से नीचे के अशुभ आकार वाले स्थानों व प्रकट होता है। जब किसी विभंग ज्ञानी के सम्यग्दर्शन के फलस्वरूप सुअवधिज्ञान प्रकट हो जाता है तब उसके अशुभ आकार वाले स्थान मिटकर नाभि के ऊपर श्रीवत्स आदि शुभ आकार प्रकट हो जाते हैं। इसी प्रकार सम्यक्त्व से मिथ्यात्व में परिर्वितत होने पर शुभ आकार मिटकर अशुभ आकार प्रकट हो जाते हैं और वहाँ अवधिज्ञान की प्रवृत्ति होने लगती है।
मन:पर्ययज्ञान में विशुद्धि अधिक होती है तथा उसका विषय भी सूक्ष्म हो जाता है। ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान एक बार होकर पुन: छूट भी सकता है किन्तु विपुलमती ज्ञान होने के बाद केवलज्ञान होने तक नहीं छूट सकता है। विपुलमति मन:पर्ययज्ञान का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र मानुषोत्तर पर्वत के भीतर स्थित जीवों के मनोगत विषयों को जानना है। मानुषोत्तर पर्वत यहाँ ४५ लाख योजन का उपलक्षण है इससे यह अभिप्राय हुआ कि इस ज्ञान का उत्कृष्ट विषयक्षेत्र ४५ लाख योजन है जो मानुषोत्तर पर्वत के बाहर भी हो सकता है।
धवला टीका के इस कथन के अनुसार जो उत्कृष्ट म्ना:पर्ययज्ञानी मानुषोत्तर पर्वत और सुमेरु पर्वत के मध्य में मेरुपर्वत से जितनी दूर स्थित होगा उस ओर उसी क्रम से उसका क्षेत्र मानुषोत्तर के बाहर बढ़ जाएगा और दूसरी ओर उन मन:पर्ययज्ञानी के क्षेत्र से मानुषोत्तर पर्वत उतना ही दूर रह जाएगा।
केवलज्ञान मात्र अकेला है, उसके कोई भेद नहीं हैं क्योंकि ज्ञान से भिन्न आत्मा नहीं पायी जाती है, जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही रात्रि का गहन अन्धकार एक साथ ही क्षण भर में समाप्त हो जाता है उसी प्रकार केवलज्ञान सूर्य के उदय होते ही सभी ज्ञानों का कार्य समाप्त होकर लोकालोक प्रत्यक्ष झलकने लगते हैं। इस प्रकार श्रुतज्ञान रूप द्वादशांग का अंश जो उपलब्ध है, वे ही हमारे लिए उपादेय हैं यही परम्परा से केवलज्ञान को प्राप्त कराने में कारण है।
आगे हमारा तृतीय प्रतिपाद्य विषय हैं—‘‘वैराग्य’’ जिसे चारित्र कहते हैं। जैन धर्म में वैराग्य को अधिक प्रधानता दी गई है। किसी व्यक्ति में अधिक ज्ञान न होते हुए भी यदि वह मन्दबुद्धि है लेकिन उसके अंतरंग में वैराग्य की अधिकता है, संसार और विषय—भोगों के प्रति संवेग भावना है तो वह जिनिंलग रूप चारित्र को प्राप्त करके मोक्ष की प्राप्ति भी कर लेता है।
जैसे कि शास्त्रों में शिवकुमार आदि मुनि का उदाहरण देखने में आता है। किन्तु ज्ञान जब चारित्र से युक्त होता है, तभी शोभा पाता है, और मोक्ष प्राप्ति में सहायक होता है अन्यथा मात्र व्यवहारिक ज्ञान कितना ही हो जाए परमार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती है। मोक्ष प्राभृत में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है—
तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो।
तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं।।५९।।
धुवसिद्धि तित्थयरो चउणाणजुदो करेइ तवयरणं।
णाउण धुवं कुज्जा तवयरणं णाणुजुत्तो वि।।६०।।
तप रहित ज्ञान और ज्ञान रहित तप दोनों भी अकार्यकारी हैं अर्थात् मुक्ति को प्राप्त कराने में असमर्थ हैं अत: ज्ञान और तप से संयुक्त योगी ही निर्वाण प्राप्त करते हैं। जिनको नियम से मोक्ष होना है ऐसे तीर्थंकर भी, जो दीक्षा लेते ही अन्तर्मुहूर्त में मन:पर्यय के सहित हो जाते हैं, तो भी वे तपश्चरण करते हैं, ऐसा समझकर, ज्ञानयुक्त होकर भी, तपश्चरण करना चाहिए।
संयम को धारण किये बिना आज तक कोई भी ऐसा उदाहरण आगम में नहीं दिखाई देता कि किसी ने मोक्ष को प्राप्त किया हो। चारित्र ही ज्ञान को परमावधि, सर्वावधि तथा मन:पर्ययज्ञान बना सकता है, पुन: केवलज्ञान भी करा सकता है। इस चारित्र के बिना असंयमी मोक्षमार्गस्थ नहीं है। प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है।
णहि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु।
सद्दहणादो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि।।२३७।।
यदि पदार्थों का श्रद्धान न हो तो आगम से सिद्धि नहीं होती है और पदार्थों का श्रद्धान करने वाला भी यदि असंयत है तो भी निर्वाण को प्राप्त नहीं कर सकता है। और तो क्या द्वादशांग में भी आचारांग नामक सबसे प्रथम अंग है उसमें मुनियों के चारित्र का सांगोपांग वर्णन है।
भगवान् के समवशरण में भी बारह सभाओं में से भगवान् के सन्मुख पहली सभा में मुनिगण ही विराजे हैं, चूँकि भगवान् के उपदेश को साक्षात् ग्रहण करके मोक्ष की सिद्धि करने वाले वे ही हैं। आज इस पंचम काल में भी मोक्षमार्ग का दर्शन कराने वाले दिगम्बर साधु विचरण करते हैं, जिनके द्वारा हम सभी को तीर्थंकर महावीर की वाणी को परम्पराग श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। वर्तमान शताब्दी में आचार्य सम्राट श्री शांतिसागर महाराज के असीम उपकार स्वरूप यत्र—तत्र निग्र्रंथ साधुओं का विहार सुलभ है।
आचार्यश्री ने समस्त संसारी प्राणियों को वीतराग धर्म का उपदेश देते हुए अन्तिम सम्बोधन दिया कि ‘‘चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय करने के लिये संयम ही धारण करना चाहिए, डरना नहीं चाहिए। वस्त्र में संयम नहीं है, वस्त्र में सातवां गुणस्थान नहीं है, सातवें गुणस्थान के अभाव में आत्मानुभव नहीं हो सकता। आत्मानुभव के बिना कर्मनिर्जरा नहीं, कर्मनिर्जरा के बिना केवलज्ञान नहीं और केवलज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता है।
इसलिए घबड़ाना नहीं, संयम धारण करने के लिये डरना नहीं। मुनि, र्आियका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका विद्यमान हैं। सोमदेव सूरि ने उपासकाध्ययन में कहा है—
कलौ काले चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके।
एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नरा:।।
इस कलिकाल में जब कि मनुष्यों का चित्त अति चंचल है और शरीर अन्न का कीड़ा बना हुआ है तो भी आश्चर्य है कि जिनिंलग को धारण करने वाले मनुष्य धरातल पर विचरण करते हैं।
मानव जीवन का सार संयम ही है चाहे वह देशसंयम हो अथवा सकलसंयम। न मात्र सम्यग्दर्शन के द्वारा मोक्ष की सिद्धि हो सकती है, न ज्ञान से और न ही केवल तपस्या से किन्तु जहाँ इन तीनों का एकीकरण हो जाता है वहीं साध्य की सिद्धि हो जाती है। इसी को दूसरे शब्दों में श्री वीरसेन स्वामी में जयधवला में बताया है।
णाणं पयासओ तवो सोहओ संजमो य गुत्तियरो।
तिण्हं पि समाजोए मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।।
अर्थात् ज्ञान प्रकाशक है, तप शोधक है और संयम गुप्ति करने वाला है। तथा ज्ञान, तप और संयम तीनों के मिलने पर मोक्ष होता है, ऐसा जिनशासन में कहा है। अत: हमें भी यथाक्रम देशसंयम को धारण करके रत्नत्रय की साधना करते हुए लक्ष्य की सिद्धि करनी चाहिए।
‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।’’
जैन श्रुततदाधारौ तीर्थ द्वावेव तत्त्वत:।
संसारस्तीर्यते ताभ्यां तत्सेवी तीर्थसेवक:।।
जैन आगम और उसके आधार—भूत जिनागम—ज्ञाता महामुनि, परमार्थ से ये दो ही तीर्थ माने हैं। इन दोनों के द्वारा ही संसार समुद्र तिरा जाता है। अत: इन दोनों की उपासना करने वाला ही तीर्थ—सेवक माना जाता है। (अनगार धर्मामृत)