(चतुर्थ खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. कालचक्र गतिमान सदा।
२. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगिनी माता ज्ञानमती।
३. सर्वोत्तम वर्ष-२००७।
४. षट्खंडागम की रचना और माताजी की टीका।
५. एक अद्भुत श्रमसाध्य कार्य।
६. जम्बूद्वीप और तेरहद्वीप रचनाएँ अनुपम हैं।
७. पंचकल्याणक एवं माताजी के प्रवचन।
८. पंचकल्याणक क्या है?
९. डॉ.श्री श्रेयांसकुमार का स्वर्ण जयंती पुरस्कार से सम्मान।
१०. नये भवनों का निर्माण एवं उद्घाटन।
११. अनेक कृतियों का विमोचन।
१२. इक्यावन कृतियों का स्वर्णजयंती महोत्सव में प्रकाशन।
१३. शिक्षण प्रशिक्षण शिविर का आयोजन।
१४. चातुर्मास की स्थापना एवं धर्मसभा।
१५. २००७ का चातुर्मास अद्भुत रहा।
१६. शरदपूर्णिमा जन्म एवं वैराग्य का दिन।
१७. अनेक विद्वानों को सम्मान प्राप्त हुआ।
१८. माताजी द्वारा अहिच्छत्र का विकास।
१९. माताजी का अहिच्छत्र पदार्पण।
२०. तिखालवाले बाबा का सहस्राब्दि समारोह।
२१. माताजी की प्रभु से प्रार्थना।
२२. हस्तिनापुर की वापसी।
२३. नवग्रह शांति जिनालय हेतु पंचकल्याणक।
२४. शरदपूर्णिमा (शुक्ल पक्ष) सरस्वती आराधना के लिए उत्तम दिन।
२५. माँ शारदा की पूजन-आरती का आयोजन।
कालचक्र गतिमान सर्वदा, रुकता कभी न एकहि ठौर।
अभी-अभी जो वर्तमान है, पल भर में हो जाता और।।
जिसको हम भविष्य कहते हैं, वर्तमान बन जाता है।
दो हजार छह हुई विदाई, झपट सात आ जाता है।।१४११।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती के, जीवन का हर पृष्ठ महान्।
सरस्वती अवतार हैं माता, कहें एक स्वर से विद्वान्।।
ज्ञान अभीक्षण लीन रहें माँ, कभी न लेतीं अल्प विराम।
इसीलिए तो कर पाई हैं, ढाई शतक कृति रचना काम।।१४१२।।
कोई वर्ष रहा न ऐसा, हुआ न जिसमें काम विशेष।
तीर्थोधारण, ग्रंथ पूर्णता, चलते रहते कार्य अशेष।।
लेकिन सब वर्षों में उत्तम, दो हजार सन् सात रहा।
हुए कार्य दो पूर्ण महत्तम, जिन स्वर्णिम इतिहास रचा।।१४१३।।
जैनधर्म इतिहास गवाही, श्रीधरसेन हुए आचार्य।
उनसे प्राप्त ज्ञान को मुनिद्वय, ताड़पत्र पर दिया उतार।।
पुष्पदंत-भूतबलि स्वामी, ने यह उत्तम कार्य किया।
प्राप्त केवली श्रुतज्ञान को, मेधाबल से बचा लिया।।१४१४।।
षट्खंडागम नाम ग्रंथ का, पाँच खंड में है विस्तार।
सूत्र लिखे अड़सठ-इकतालिस, व्यक्त किए संक्षिप्त विचार।।
वर्ष व्यतीते हैं बाईस-सौ, शुक्ला ज्येष्ठ पंचमी दिन।
रचना पूर्व करी मुनिवर ने, करी अर्चना आ सुर-गण।।१४१५।।
चला पर्व श्रुतपंचमी तभी, जिनवाणी लिपिबद्ध हुई।
क्षरण-विस्मरण दूर हुए सब, जिनवच गंगा अमर हुई।।
सोल्लास हम पर्व मनाते, जिनवाणी की करें संभाल।
नूतन वेष्टन में वेष्टित कर, पूजें, सहस नमाते भाल।।१४१६।।
पढ़ें-पढ़ावें, सुनें-सुनावें, टीकाएँ लिख दें विस्तार।
पठित को जीवन अंग बनावें, करें शक्तिश: ज्ञान प्रसार।।
है सार्थक्य मनाना तब ही, जैसे गणिनी ज्ञानमती।
किया अकथ पुरुषार्थ आपश्री, मन में श्रद्धा धार अती।।१४१७।।
षट्खंडागम के सूत्रों पर, माताजी ने टीका की।
सिद्धांतचिंतामणि सरल संस्कृत, पूज्याश्री अभिव्यक्ति दी।।
विस्मय अद्भुत पृष्ठ लिखे हैं, तीन हजार एक सौ पाँच।
माँ सचमुच अवतार सरस्वती, पढ़ लो नहीं साँच को आँच।।१४१८।।
लिखा है जितना माताजी ने, पठन की हममें शक्ति नहीं।
धन्य अन्य ऐसी नारी का, मिलता नहिं उल्लेख कहीं।।
वर्तमान इक्कीस सदी में, पैदा हुआ न कोई नर।
षट्खंडागम के सूत्रों पर, दे पाया अभिव्यक्ति प्रखर।।१४१९।।
ग्यारह वर्ष दो माह, छह दिवस, चार हजार तीन सौ दिन।
की कठोर साधना श्रुत की, दत्तचित्त घण्टों प्रतिदिन।।
वैशाखकृष्णा दोज तिथि को, चार अप्रैल दो हजार सात।
जजम्बूद्वीप महावीर जिनालय, किया पूर्ण ग्रंथ यह मात।।१४२०।।
गुरुवर श्री वीरसागर जी, एक पंचाशत वर्षों पूर्व।
दिवस रहा आर्यिका दीक्षा, दिया नाम ज्ञानमती अपूर्व।।
पुण्यमयी संयोग यह रहा, ग्रन्थ उसी दिन पूर्ण हुआ।
संज्ञा सार्थक कर दिखलाई, कारण प्रबल पुरुषार्थ रहा।।१४२१।।
पढ़ना-लिखना-प्रवचन करना, यदपि कठिन विद्या का कार्य।
किन्तु पठित का भू-पर चित्रण, महाकठिन कहते हैं आर्य।।
सकल कला नैपुण्य एक थल, मिल पाना सपनों की बात।
लेकिन गणिनी ज्ञानमती को, मिलीं सकल दिव्य सौगात।।१४२२।।
अभीक्ष्ण ज्ञानयोगिनी माता, श्रेष्ठलेखिका प्रवचनकार।
जम्बूद्वीप जैन भू-रचना, पाषाणों में की साकार।।
सन् पैंसठ में श्रवणबेलगुल, माता चातुर्मास किया।
बाहुबली के पद पंकज में, प्रतिदिन बैठी ध्यान किया।।१४२३।।
द्वीप-समुद्र असंख्य परस्पर, मध्यलोक में वलयाकार।
उनमें जम्बूद्वीप प्रथम है, स्वयंभूरमण अंत विस्तार।।
प्रारंभिक तेरहद्वीपों का, ध्यान में पाया दिव्य प्रकाश।
उसे उतारा हस्तिनागपुर, तेरहद्वीप जिनालय खास।।१४२४।।
अभूतपूर्व अनुपम रचना है, अब तक देखी नहीं कहीं।
चतुशत-अष्ट पंचाशत मंदिर, सभी अकृत्रिम बने यहीं।।
प्रथम बार यह हुआ विश्व में, दर्शन का सौभाग्य मिला।
श्रावक-मुनि-आर्यिका-क्षुल्लक, सबका मन उद्यान खिला।।१४२५।।
इसी निमित्त हुआ आयोजित, महामहोत्सव पंचकल्याण।
सत्ताईस अप्रैल-दो मई, हुए प्रयोजित विधि-विधान।।
परम पूज्य माँ ज्ञानमती का, सन्निधान था पावनतम।
प्रज्ञाश्रमणी मात चंदना, दिया महत्तम दिग् दर्शन।।१४२६।।
निर्देशन-नेतृत्व रहा है, मोतीसागर-रवीन्द्र कुमार।
अपने में बेजोेड़ रहा यह, पंचकल्याणक सभी प्रकार।।
प्रतिदिन माता ज्ञानमती के, होते थे अमृत प्रवचन।
सुनकर श्रोता अनुभव करते, रोम-रोम अतिशय पुलकन।।१४२७।।
भारत के कोने-कोने से, आये थे उद्भट विद्वान्।
नरेन्द्र-श्रेयांस-अनुपम-भागेन्दु, शिव-सुशील-निर्मल-धीमान्।।
राज्य-समाज के नेता आये, माँ का चरण स्पर्श किया।
आशीर्वाद प्राप्त कर माँ का, सबने जीवन धन्य किया।।१४२९।।
माताजी के अमृत प्रवचन, समय-समय पर होते थे।
श्रोताओं की मनोभूमि में, बीज पुण्य के बोते थे।।
महामहोत्सव के पहले दिन, गई पताका फहराई।
पता पताका बतलाती है, उत्सव पुण्य घड़ी आई।।१४३०।।
पंचकल्याणक सुनो बन्धुवर! रही आत्मकल्याण क्रिया।
आत्मा से परमात्मा बनने, की यह धार्मिक प्रक्रिया।।
जिसने निज कल्याण किया है, संग करेंगे पर कल्याण।
ऐसे तीर्थंकर भगवन्तों, के होते हैं पंचकल्याण।।१४३१।।
जब तीर्थंकर गर्भ में आते, जननी देखें सोलह स्वप्न।
छह महिने पहले माँ आँगन, होने लगती वृष्टि सुरत्न।।
माता ने उपदेश दिया जग, भ्रूण की हत्या पाप महान।
अरहन्तादि हुए कन्या से, कन्या है मंगल पहचान।।१४३२।।
होता जन्म यहाँ तीर्थंकर, हलचल मचती स्वर्गों में।
धरती पर सुकाल छा जाता, सुख क्षण आते नरकों में।।
सहस अठोत्तर कलशों द्वारा, जिन सुमेरु होता अभिषेक।
प्रभु दर्शन से तृप्ति न पाता, एक सहस्र नयनों से देख।।१४३३।।
अनंतानंत भवों का संचित, पुण्य उदय जब आता है।
तीर्थंकर की पुण्य प्रकृति का, मनुष बंध कर पाता है।।
भव-तन-भोग विरक्त हुआ वह, कर लेता संयम धारण।
संयम ही है कर्म दहन का, सर्वोत्तम-समर्थ कारण।।१४३४।।
कर्म दग्ध जब हो जाते हैं, प्रकटित होता केवलज्ञान।
समवसरण की रचना होती, खिरती दिव्यध्वनि भगवान।।
बैर-विरोध त्याग सब प्राणी, धारण करते मैत्री भाव।
शेर-गाय मिल पानी पीते, वीतराग छवि अमित प्रभाव।।१४३५।।
आयुकर्म पूर्ण होने पर, प्रभुवर करते मोक्ष गमन।
सिद्धशिला पर जो विराजते, निराकार रूप भगवन।।
अग्निकुमार मुकुटाग्नि द्वारा, करते हैं शरीर संस्कार।
निर्वाणकल्याणक हर्ष मनाते, इंद्रादिक सब दीप प्रजार।।१४३६।।
गणिनी प्रमुख पूज्य माताजी, रखतीं विद्वज्जन अनुराग।
समय-समय पाते ही रहते, पुरस्कार पात्र बड़भाग।।
दीक्षा स्वर्णजयंति महोत्सव, हुआ समापन भलीप्रकार।
हुए पुरस्कृत पुरस्कार से, डॉक्टर श्री श्रेयांसकुमार।।१४३७।।
दीक्षा स्वर्ण जयंति भवन का, किया गया सुष्ठु निर्माण।
माताजी के स्वर्णकाल का, इससे होगा सबको ज्ञान।।
इसी वर्ष निर्माण हुआ है, सुन्दर पीठाधीश-भवन।
मोहन-धन्ना अजमेरा ने, किया भवन का उद्घाटन।।१४३८।।
जैन दिगम्बर सब संतों की, पिच्छी-कमण्डलु है पहचान।
प्राणि-रक्षा, शुद्धिक्रिया को, श्रावक करते उन्हें प्रदान।।
सुभाषचंद अंकुश दिल्ली ने, भेंट करी इस वर्ष नई।
गणिनी माँ के कर कमलों में, मयूर पंख निर्मित पिच्छी।।१४३९।।
तेरहद्वीप पंचकल्याणक, के सुमध्य में समय को देख।
हिन्दी-संस्कृत-अंग्रेजी में, हुर्इं विमोचित कृती अनेक।।
जैनभारती अंग्रेजी में, संस्कृत पद्मनंदि-कातंत्र।
हिन्दी प्रवचन-जीवन दर्शन, जम्बूद्वीप-स्तोत्र स्वतंत्र।।१४४०।।
दीक्षा स्वर्णजयंति महोत्सव, हुआ सभी को मंगलमय।
एक पंचाशत उत्तम कृतियाँ, हुई प्रकाशित इसी समय।।
एक लाख प्रतियों के दीपक, फैलाया जग उजियाला।
कार्य महत्तम किया है किसने, वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला।।१४४१।।
हस्तिनागपुर जम्बूद्वीप में, ज्ञानयज्ञ प्रारंभ हुआ।
ज्ञानज्योति विद्वज्जन देने, शिविर प्रशिक्षण शुरू हुआ।।
शतकाधिक विद्वान् पधारे, तथा प्रशिक्षक अति-उत्तम।
एक जून से सात जून तक, चलता रहा व्यवस्थित क्रम।।१४४२।।
गणिनी प्रमुख आर्यिका शिरोमणि, माताजी श्री ज्ञानमती।
दिया आशीष प्रवचन पद्धति, स्व-पर हितैषी ज्ञान अती।।
पूज्य आर्यिका प्रज्ञाश्रमणी, श्री चंदना माताजी।
सैद्धांतिक-जीवन उपयोगी, गूढ़तत्त्व की चर्चा की।।१४४३।।
श्री क्षुल्लक मोतीसागर जी, यथासमय निर्देशन दे।
कैसे सुष्ठु बनायें प्रवचन, सान्ध्यसभा इंगित करते।।
श्री ब्रह्मचारी रवीन्द्रकुमारजी, करें समन्वित सारे काम।
उनके बिना सभी कुछ फीका, जैसे बिन पानी पकवान।।१४४४।।
कुलपति पद को किया सुशोभित, श्री प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश।
उनकी अतिशय बुद्धि प्रखर है, ज्ञान क्षितिज विस्तृत आकाश।।
वाणी में माधुर्य अनोखा, स्वर बुलंद, अभिव्यक्ति अनूप।
कैसा भी हो विषय सामने, धारावाहिक रहे अटूट।।१४४५।।
जिनवाणी का संदोहन कर, पाये जो सिद्धांत रतन।
शिवचरणलालजी मैनपुरी ने, प्रतिदिन किया उन्हें वितरण।।
श्री डॉक्टर श्रेयांस कुमार जी, दर्शन के उद्भट विद्वान।
उमास्वामी के मोक्ष शास्त्र का, दिया सभी को सम्यग्ज्ञान।।१४४६।।
डॉक्टर श्री भागचंद भागेन्दु, दैनन्दिन आते उपयोग।
उन विनती स्तोत्र आदि का, सम्यक् सबै कराते बोध।।
श्री प्राचार्य निहालचंद बीना, करते थे प्रवचन दशधर्म।
आकर्षक शैली के द्वारा, बतलाते अंगों का मर्म।।१४४७।।
महावीर की जन्मभूमि है, श्री कुण्डलपुर क्षेत्र महान।
किन्तु कहाँ पर है यह स्थित, मत विभिन्न रखते विद्वान्।।
कुछ कहते बिहार नालंदा, कुछ कहते हैं वैशाली।
कुछ बिहार लिछुआड़ मानते, बुद्धि लगा तर्कशाली।।१४४८।।
विद्वज्जन स्पष्ट कथन है, सब ही स्थल करें विकास।
पूजा-अर्चा करें वहाँ पर, जिसका हो जिस पर विश्वास।।
लेकिन किसी अन्य के ऊपर, छोड़ें नहीं विषैले बाण।
कोई गर करता है ऐसा, स्तर से गिरता विद्वान्।।१४४९।।
जन्मभूमि श्री महावीर की, कुण्डलपुर नालंदा ही।
कई पीढ़ियों से इसके प्रति, जैन जगत् की श्रद्धा भी।।
माताजी, विद्वान् संगठन, सब सच इसे मानते हैं।
किन्तु आधुनिक कुछ ही व्यक्ति, वैशाली को जानते हैं।।१४५०।।
परम पूज्य माँ ज्ञानमती जी, साध्वी समता की अवतार।
ज्ञान-साधना-वयोवृद्ध हैं, रखतीं पौराणिक अधिकार।।
चिन्तन-सोच-सकारात्मक है, याथातथ्य कहें जिनवाणि।
उनके वचन प्रमाणिक मानें, वंदन करें जोड़ जुग पाणि।।१४५१।।
हुआ समापन शिविर प्रशिक्षण, विद्वज्जन सम्मान किया।
माताजी द्वय, द्वय-द्वय कर से, बहुत-बहुत आशीष दियाा।।
ज्ञानज्योति प्रकाशित करने, शिविर पूर्णत: हुआ सफल।
स्वास्थ्य और दीर्घायू पाये, माताजी का संघ सकल।।१४५२।।
जून माह में ग्रीष्म ऋतू ने, करी स्वयं की मनमानी।
तब जगती को शीतल करने, आ पहुँची वर्षा रानी।।
भारत के कोने-कोने से, श्रावक आये की अरदास।
हे माताजी! जम्बूद्वीप में, हो स्थापित चातुर्मास।।१४५३।।
जुलाई माह में माताजी ने, किया स्थापित चातुर्मास।
अभय-चंदना-मोतीसागर जी, शांतिमती क्षुल्लिका के साथ।।
गुरू पूर्णिमा के उपलक्ष्य में, शांति-वीर-माँ ज्ञानमती।
हुई अर्चना भक्तिभाव से, भर मन में उत्साह अती।।१४५४।।
माताजी का पद प्रक्षालन, कुसुमलता से किया गया।
नूतन पिच्छी तथा कमण्डलु, भेंट भी सविनय दिया गया।।
महाराष्ट्र भक्तमण्डल ने, किया प्रज्वलित दीप प्रथम।
वीर निधि का परिचय पुस्तक, हुआ विमोचन अपने क्रम।।१४५५।।
जिसको देखो, माताजी के, मृदु वचनों का दास हुआ।
वर्षाऋतु ऋतु बसंत के, आने का एहसास हुआ।।
हुआ नहीं जो कभी यहाँ पर, ऐसा ही कुछ खास हुआ।
जम्बूद्वीप में माताजी का, अद्भुत चातुर्मास हुआ।।१४५६।।
तरल-सरल भाषा औ उस पर, बोली कितनी भाव भरी।
इसीलिए तो बात हृदय की, सीधी दिल में जा उतरी।।
प्रवचन में वाणी के संग-संग, वीणा का आभास हुआ।
जम्बूद्वीप में माताजी का, अद्भुत चातुर्मास हुआ।।१४५७।।
ज्ञानोदधि से श्रीमाताजी, चुन-चुन मोती लाती हैं।
वस\क्षश्रोता-मन के तम स्तोम को, रवि-सम दूर भगाती हैं।।
चंदन सम शीतल वाणी में, स्वाति बिन्दु का वास हुआ।
जम्बूद्वीप में माताजी का, अद्भुत चातुर्मास हुआ।।१४५८।।
आचार्यश्री वीरसागर का, जन्मदिवस भी मना यहॉं।
श्री गुरुवर की पुण्यतिथि का, आयोजन भी हुआ यहाँ।।
दिवस पचहत्तर मना महोत्सव, भारत भर में खास हुआ।
जम्बूद्वीप में माताजी का, अद्भुत चातुर्मास हुआ।।१४५९।।
तेरहद्वीप की सुंदर रचना, माता भू-पै उतारी है।
मंदिर-मेरु-देव-जिनदर्शन, कोटि-कोटि बलिहारी है।।
तेरहद्वीप विधान स्वरों से, गुंजित भू-आकाश हुआ।
जम्बूद्वीप में माताजी का, अद्भुत चातुर्मास हुआ।।१४६०।।
गणिनी प्रमुख आर्यिका शिरोमणि, पूज्या साध्वी वरिष्ठतमा।
माताजी श्री ज्ञानमती का, जन्म महोत्सव यहाँ मना।।
जन्म और दीक्षादिन दोनों, एक ही तिथि पर आते हैं।
शरदपूर्णिमा को उत्सव सब, सह उत्साह मनाते हैं।।१४६१।।
माताजी की हुई अर्चना, चढ़ा-चढ़ाकर अघ्र्य सहर्ष।
वर्ष चौहत्तर जन्म में बीते, त्याग के बीते छप्पन वर्ष।।
वीर प्रभू की रथयात्रा भी, निकली जम्बूद्वीप मंझार।
हुई शांतिधारा-प्रभुपूजा, प्रांगण गूँजे जय-जयकार।।१४६२।।
शरदपूर्णिमा के उत्सव में, हुए पुरस्कृत कई विद्वान्।
ऊषा-उत्तम-खेमचंदजी, संजीव सर्राफ-गजेन्द्र मतिमान।।
सहस्र-सहस्र जनता ने आकर, सविनय माँ को किया प्रणाम।
जुग-जुग जिएँ पूज्य माताजी, यावच्चन्द्र-दिवा हो नाम।।१४६३।।
परमपूज्य श्री माताजी का, महा व्यक्तित्व है बहुमुखी।
ज्ञान-साधना साथ क्षेत्र की, उन्नति करतीं चतुर्मुखी।।
तीर्थंकर श्री पार्श्र्वनाथ की, केवलभूमि क्षेत्र अहिच्छत्र।
किया विकास, नाम फैलाया, माताजी ने ही सर्वत्र।।१४६४।।
तीस चौबीसी महा जिनालय, की निर्मात्री माताजी।
पार्श्र्वनाथ खड्गासन प्रतिमा, की स्थापित माताजी।।
अतिशय सुंदर छटा बिखेरी, अहिच्छत्र में माताजी।
महामस्तक अभिषेक कराया, सहस्राब्दि का माताजी।।।१४६५।।
तीर्थक्षेत्र श्री अहिच्छत्र है, पार्श्र्वनाथ-उपसर्ग धरा।
भव-भव शत्रु कमठ-शंबर ने, प्रभु पर यहाँ उपसर्ग करा।।
पूर्व उपकृत नाग-नागिनी, ने आकर उपसर्ग हरा।
अहि ने फण का छत्र बनाया, अहिच्छत्र यह नाम परा।।१४६६।।
सुरनिर्मित तिखाल के भीतर, राजित हैं श्री पारसनाथ।
महामस्तक अभिषेक है होना, सहस्राब्दि उत्साह के साथ।।
माताजी के सन्निधान में, होना है यह आयोजन।
अत: संघ सह माताजी ने, अहिच्छत्र को किया गमन।।१४६७।।
पूज्य आर्यिका श्री चंदना, पीठाधीश श्री मोतीनिधि।
क्षुल्लक श्री समर्पणसागर, की भी है पावन सन्निधि।।
ब्रह्मचारी श्री रवीन्द्र कुमार जी, कुशल करेंगे निर्देशन।
उनके ही नेतृत्व में होगा, पूर्ण सफल यह आयोजन।।१४६८।।
जैनधर्म का ध्वज फहराते, नगर-गाँव में अलख जगा।
जहाँ गया संघ माताजी का, वहाँ धर्म का सूर्य उगा।।
पथकंकरीला-भीषण सर्दी, रहा काँपता दुर्बल तन।
आदि दिसम्बर अहिच्छत्र में, हुआ संघ का शुभागमन।।१४६९।।
माताजी का संघ चतुर्विध, यदा क्षेत्र नियराया है।
दौड़ पड़ी जनता स्वागत को, जय-जयकार सुनाया है।।
पद प्रक्षालन करन आरती, पुण्य कमाया बढ़-बढ़के।
पारस प्रभु के दर्शन करने, माँ पहुँचीं जीना चढ़ के।।१४७०।।
महा महोत्सव शुभारंभ में, झंडारोहण किया गया।
घटयात्रा पूजन विधान का, शुभ आयोजन किया गया।।
पंचकल्याणक हुई प्रतिष्ठा, दस दिनाँक से पंद्रह तक।
प्रथमाभिषेक हुआ सोलह का, चलता रहा क्रमिक अनथक।।१४७१।।
सत्रह से जनवरी चार तक, मुख्य-मुख्य हुए आयोजन।
पूजा-विधान-अभिषेक अधिवेशन, धरणेन्द्र-पद्मावती आराधन।।
श्रीजी की रथयात्रा निकली, हुई प्रभावना जैन धरम।
माताजी के प्रवचन द्वारा, समझ में आया सच्चा मर्म।।१४७२।।
बंधु! इसे अत्युक्ति न समझें, हुआ क्षेत्र का आज विकास।
तीस-चौबीस जिनालय शिखरें, बातें करती हैं आकाश।।
तब धरणेन्द्र-पद्मावती जिनालय, अतिशय शोभा क्षेत्र बनी।
माताजी के सुप्रयास से, हुई तरक्की सहस गुनी।।१४७३।।
पार्श्र्वनाथ के श्री चरणों में, बारम्बार प्रणाम किया।
चरण-शरण मैं आई भगवन्! चाह रही आत्म कल्याण।
भवों-भवों तक कमठ जीव के, सहे आपने अत्याचार।
लेकिन क्षोभ न मन में आया, नहीं किया कुछ भी प्रतिकार।।१४७४।।
चरण-शरण मैं आई भगवन्! चाह रही आत्म कल्याण।
मुझको प्रभु वह शक्ति देवें, प्राप्त करूँँ अंत निर्वाण।।
आयोजित है आपश्री का, महामहोत्सव श्री अभिषेक।
जन-जन के संताप दूर हों, कर-पूजन-मुद्रा को देख।।१४७५।।
पार्श्र्वनाथ जिन महामहोत्सव, सफल-शांति-सम्पन्न हुआ।
अहिच्छत्र से माताजी का, हस्तिनागपुर गमन हुआ।।
पाँच जनवरी पद विहार कर, मुरादाबाद पधराया संघ।
सकल समाज जागृति आई, मंगलप्रद सु-प्राप्त प्रसंग।।१४७६।।
मुरादाबाद से नगर सरधना, फिर वहाँ से मेरठ आई।
नगर-ग्राम सब पावन करके, हस्तिनागपुर पधराई।।
की अगवानी माताजी की, सहस्र-सहस्र भक्तों ने आ।
परम पूज्य श्री माताजी ने, सबको शुभ आशीष दिया।।१४७७।।
जम्बूद्वीप-हस्तिनागपुर, मातृसंघ आगमन हुआ।
नवग्रहशांति जिनालय के हित, पंचकल्याणक शुरू हुआ।।
नवग्रहों की नवतीर्थंकर, अष्टधातु की प्रतिमा जी।
हुई विराजित नव जिनमंदिर, सन्निधान श्रीमाताजी।।१४७८।।
प्रथमबार उत्तरभारत में, मंदिर नवग्रह शांति बना।
कोटि-कोटि जन इस विचार की, की अनुमोदन शीश नमा।।
नवग्रहों की शांति के लिए, जैन न भटके यहाँ-वहाँं।
बचे रहें मिथ्यात्व से सभी, जिन चरणों में रमें यहाँ।।१४७८।।
ज्येष्ठ-माघ-आश्विन माहों का, शुक्ल पक्ष जब आता है।
पक्ष शारदा कहलाता है, यह अति शुभ माना जाता है।।
माँ जिनवाणी सरस्वती की, जो जन करते आराधन।
वे निश्चित ही प्राप्त करेंगे, केवलज्ञान लक्ष्मी धन।।१४७९।।
तब सांसारिक सुक्ख-अभ्युदय, पा जायें क्या बात बड़ी।
माताजी ने कहा सभी से, बिखराकर उपदेश लड़ी।।
माताजी के सन्निधान में, हुआ शारदा आराधन।
पद्मावती-महालक्ष्मी का, भक्तिभावपूर्वक पूजन।।१४८०।।