भारत के मध्यकालीन इतिहास में विदेशियों के हमलों की एक लम्बी और अटूट शृंखला का वर्णन है। जिसने राष्ट्र के प्राणों को कस लिया था; देशजों की कलह के नाग ने व्यवस्था को ही डस लिया था।
अिंहसा और तपस्या जिनका धन था; मन्दिर र्मूित और शास्त्रों को जो उनके उपासक अपना श्वासोच्छवास मानते थे—वे नग्न दिगम्बर साधु और उनके अनुगत श्रमण, मुस्लिम काल में उच्छेद की असि और ध्वंस की लपटों से कैसे बच पाये, यह बहुत बड़ा आश्चर्य है। दक्षिणापथ की महान् यात्रा का संकल्प लेकर आचार्यों और मुनियों के जो संघ पग—पग पर विपत् और मृत्यु को चुनौती देते हुए जब आगे बढ़े तो क्या प्राण रक्षा ही उनका उद्देश्य था ?
नहीं ‘‘उन दिगम्बराचार्यो ने अपने प्राण अहिंसा धर्म के लिये सर्मिपत किये थे। उनका धर्म जिस ज्ञान की आत्मा से र्नििमत था उस ज्ञान की कृतार्थता इस बात में थी कि वे जन—जन के मन को पावन तीर्थ बना दें। वीतरागता को प्रमुख कर रागद्वेष की निवृत्ति कर रत्नत्रय से शुद्ध अर्थात् शुद्ध श्रद्धा ज्ञान और चारित्र के तेज से स्वयं को निरन्तर प्रभावित करते रहना चाहिये तथा इस आत्म साधना के लिये अनुकूल वातावरण समाज में बना रहे इसलिये दान, पूजा, तपस्या तथा विद्याभ्यास के उत्कर्ष द्वारा जिनधर्म का प्रभाव बढ़ता रहे, जीवन का उत्थान हो, आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त हो, सच्चे मार्ग पर चलकर अमिट शाश्वत सुख को प्राप्त हों एवं सदैव निजात्मा का रसास्वादन लेते रहें, इस प्रकार भव्यों को समय—समय पर उपदेश जैनाचार्यो ने दिया।
टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभाव की प्राप्ति ने नुसखे भी इन आचार्यों ने जनता को बताये। ऐसे–ऐसे दिगम्बराचार्य इस जगत् में हुए जिन्होंने जैनधर्म को सच्चे न्याय की कसौटी पर खरा उतारकर प्राणीमात्र के लिये सुख की इच्छा की तथा इस पृथ्वी तल पर भगवान् महावीर की परम्परा को आगे बढ़ाने में विशेष योगदान दिया।
ये दिगम्बराचार्य इतने निस्पृही रहे कि इन्होंने संसार की ओर मुख मोड़कर भी नहीं देखा। इन आचार्यों का इतिहास यदि देखें तो पूर्णरूप से इनका उल्लेख भी प्राप्त नहीं होता है। इनका जन्म कहाँ हुआ ? किस क्षेत्र के रहने वाले थे, माता—पिता आदि का नाम भी पूर्ण रूप से प्राप्य नहीं है। इसी शृंखला में आचार्य शिवकोटि एक महान् आचार्य हुए। शिवकोटि आचार्य के सम्बन्ध में इतिहासकारों के विभिन्न मत पाये जाते हैं।
प्रेमी जी के अनुसार—भगवती आ./मू./२१६५—२१६८ पढ़ने से ऐसा अनुमान होता है कि ये उस समय हुये थे जबकि जैन संघ में कुछ शिथिलाचार का प्रवेश हो चुका था। कोई कोई साधु पात्र भी रखने लग गये थे, तथा घरों से माँगकर भोजन लाने लग गये थे। परन्तु यह संघ अभी अपने मार्ग पर दृढ़ था, इसलिये इन्होंने अपने नाम के साथ पाणिपात्राहारि विषेषण लगाकर उल्लेख किया है। शिवनन्दि, शिवकोटि, शिवार्य इनके अपर नाम हैं।
यद्यपि किसी भी गुर्वावली में आपका नाम प्राप्त नहीं है तदपि भगवती आराधना की गाथाओं में जिननन्दि गणी आर्य सर्वगुप्त और आर्य मित्रनन्दि का नाम दिया गया है जो इनके शिक्षागुरु प्रतीत होते हैं। श्रवण बेलगोल के शिलालेख नं. २०५ के अनुसार तत्त्वार्थ सूत्र के एक टीकाकार भी शिवकोटि शिवार्य हुए हैं।
प्रभाचन्द्र व नेमिदत्त के आराधना कथा कोश के आधार से शिवकोटि वाराणसी के राजा थे। शैव थे। इन्हीं के शिव मन्दिर में आचार्य समन्तभद्र द्वारा चर्तुिंवशति स्तोत्र की रचना करना व उसके प्रभाव से शिविंलग का फटना व चन्द्रप्रभ भगवान् की प्रतिमा का प्रगट होना यह देख, मिथ्यामत को छोड़ आचार्य समन्तभद्र के शिष्य बन गये व जैनधर्म स्वाीकार किया। जैनधर्म ही सच्चा धर्म है ऐसा दृढ़ श्रद्धान कर आचार्य समन्तभद्र से जिन दीक्षा ग्रहण की थी। समन्तभद्र के अनुसार इनका समय ई. श. २ आता है।
कथाकोश के आधार पर शिवकोटि आचार्य को यदि समन्तभद्र का शिष्य मानते हैं तो शंका पैदा होती है कि आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के शिष्य आचार्य उमास्वामी ने सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में ग्रंथ रचना प्रारम्भ की। तत्त्वार्थसूत्र संस्कृत भाषा की सर्वप्रथम रचना है। आ. उमास्वामी के पश्चात् समंतभद्र का समय इतिहासकारों से प्राप्त होता है।
आचार्यश्री समतभद्र की सभी कृतियाँ संस्कृत भाषा में उपलब्ध हैं। परन्तु शिवकोटि आचार्य जिनकी यहाँ हमें चर्चा करनी है उनकी ‘‘भगवती आराधना’’ एक अमूल्य कृति की भाषा ‘‘प्राकृत भाषा’’ है। अत: इन शिवकोटि आचार्य को समंतभद्र का शिष्य मानना अनुचित सा लगता है। हाँ—यह संभव हो सकता है कि समंतभद्राचार्य के शिष्य शिवकोटि अन्य रहे हों। भगवती आराधना में ३००० के करीब श्लोक हैं। आपने इस ग्रंथ में साधुओं को सम्बोधा है।
उनकी चर्या किस प्रकार होनी चाहिये। आहार—विहार शुद्धि आदि का वर्णन भी इस ग्रंथ में किया है। आपने इसी में करीब ४० श्लोकों में समाधिमरण पर बहुत सुन्दर ढंग से समझाया है। सल्लेखना के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आपने बताया कि यदि कोई महानुभाव किसी भी श्रावक या मुनि का मरण समाधिपूर्वक करवाता है तो उसे महान् फल की प्राप्ति होती है। एक समाधि कराना और एक करोड़ मन्दिर बनवाना दोनों का पुण्य बराबर है।
जैनेन्द्र कोश के आधार से समंतभद्राचार्य के शिष्य शिवकोटि आचार्य हुए जिन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र की टीका की तथा रत्नमाला ग्रंथ की रचना की। संभवत: ये भगवाती आराधना के रचियता से भिन्न ही हैं।
तथ्यानुसार हमें इस निर्णय पर पहुँचना है कि शिवकोटि आचार्य का समय और दीक्षा गुरु अनिर्णीत होने पर भी इतना तो स्वीकार करना ही होगा कि शिवकोटि नाम के एक महान् आचार्य जैन परम्परा में हुए जिन्होंने प्राकृत में गाथाबद्ध ‘‘भगवती—आराधना’’ नामक एक अनुपम ग्रंथ की रचना की।
भगवती आराधना में साधु जीवन की तपस्या, मन्दिर के शिखर, समाधि का अवर्णनीय उल्लेख पाया जाता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। आपने इस ग्रंथ में चार आराधनाओं का सुन्दर मननीय विवेचन किया है। भगवती आराधना के कुछ चिन्तनीय विषय यहाँ दृष्टव्य हैं—
पद्मक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिछिट्ठं।
सेसं रोचंतो वि हु मिच्छादिट्ठी मुणेयव्वो।।३८।।
जिसे सूत्र में कहा गया एक भी पद और अक्षर नहीं रुचता शेष में रुचि होते हुए भी निश्चय से उसे मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये।
दर्शनविनय
भत्ती पूया वण्णजणणं च णासणमवण्णवादस्स।
आसादणपरिहारो दंसणविणओ समासेण।।४६।।
भक्ति, पूजा वर्णजनन और अवर्णवाद का नाश करना तथा आसादना का दूर करना संक्षेप से दर्शन विनय है। स्वाध्याय के समान कोई तप नहीं है—
सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट बाह्य अभ्यन्तर भेद सहित बारह प्रकार के तप में स्वाध्याय के समान तपक्रिया नहीं है और न होगी ही। सम्यग्ज्ञान से रहित अज्ञानी जिस कर्म को लाख—करोड़ भवों में नष्ट करता है, उस कर्म को सम्यग्ज्ञानी तीन गुप्तियों से युक्त हुआ ‘‘सवेदि अंतोमुहुत्ते’’ अर्थात् अन्तर्मुहूर्तमात्र में क्षय करता है। उपचार विनय का महत्व बताते हुए कहा है कि यह तीन प्रकार से होती है— १. कायिक, २. वाचनिक, ३. मानसिक। तीनों के भी दो—दो भेद—प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से हैं।
विणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं।
विणएणाराहिज्जई आयरिओ सव्वसंद्यो य।।१३१।।
विनय मोक्ष का द्वार है। विनय से संयम तप और ज्ञान की प्राप्ति होती है, विनय से आचार्य और सर्व संघ अपने वश में किया जाता है। अन्तिम समय तक आगम कण्ठ में रहना चाहिए—जिनवाणी का मनन करना चाहिये।
कठगदेिंह वि पाणेिंह साहुणा आगमो दु कादव्वो।
सुत्तस्स य अत्थस्स य समाचारी जध तहेव।।१५३।।
प्राणों के कण्ठ में आने पर भी साधु को आगम का अभ्यास अवश्य करना चाहिये। जैसे वह सूत्र का, अर्थ का और समाचारी का अभ्यास करता है उसी प्रकार उसे आगम का अभ्यास करना चाहिए। सतत् अभ्यास करने से श्रुतज्ञान प्रबल होता है। प्रबल अभ्यास के बल से स्मृति बिना खेद के अपना काम करती है।
आचार्यश्री ने सल्लेखना का वर्णन बहुत ही विस्तृत ढंग से किया है जिससे साधु अपने अन्तिम समय में मनुष्य जीवन का अमोल शिखर चढ़ाकर निरीह वृत्ति से अन्तिम समय में कषायों का शमन कर सम भावों से देह का त्याग कर सके।
सल्लेहणा य दुविहा अब्भंतरिया य बाहिरा चेव।
अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे।।२०८।।
सल्लेखना के दो भेद हैं अभ्यंतर और बाह्य। अभ्यन्तर सल्लेखना क्रोधादि कषायों की होती है और बाह्य सल्लेखना शरीर के विषय में होती है। समाधिमरण सत्तरह प्रकार का बताया है—
आवीचि मरण
तद्भव मरण
अवधि मरण
आद्यन्त मरण
बाल मरण
पण्डित मरण
आसन्न मरण
बाल पण्डित मरण
सशल्य मरण
पलाय मरण
वशात्ते मरण
विप्राणस मरण
गृद्ध पृष्ठ मरण
भक्त प्रत्याख्यान मरण
प्रायोपगमन मरण
इङ्गिनी मरण
केवली मरण
भक्त प्रत्याख्यान
उक्कस्सएण भत्तपइण्णाकालो जिणेिंह णिद्दिट्ठो।
कालम्मि संपहुते बारसवरिसाणि पुण्णाणि।।२५४।।
यदि आयु का काल अधिक शेष है तो जिन भगवान् ने उत्कृष्ट से भक्त प्रत्याख्यान का काल पूर्ण बारह वर्ष कहा है। बारह वर्ष की सल्लेखना ग्रहण करने पर क्रम—क्रम से अन्न, रसों आदि का त्याग करता हुआ काय को सुखाता है। आचाम्ल, र्नििवकृत भोजन भी कालानुसार करता है।
काल का विचार करते हुए बात, पित्त कफ को क्षोभ प्राप्त न हो ऐसा तप करें। जिसने सल्लेखना ग्रहण की है या करना है उसके लिये आचार्य कहते हैं कि कषायोत्पत्ति के कारणों से सदैव बचते रहो। ऐसी वस्तु को अपनाना चाहिये। जिससे कषाय का उपशम हो व ऐसी वस्तु को छोड़ देना चाहिये जिससे कषाय रूपी आग उत्पन्न होती है।
क्षपक को आचार्य शिक्षा देते हैं कि—उत्पत्ति स्थान में छोटी—सी भी उत्तम नदी जैसे विस्तार के साथ बढ़ती हुई समुद्र तक जाती है उसी प्रकार है योगी तुम शील और गुणों से बढ़ो।।२८४।। क्षपक के संस्तर आश्रय का काल कौन—सा है ?
एवं वासास्ते फासेदूण विविध तवोकम्मं।
संथारं पड़िवज्जदि हेमन्ते सुह विहारम्मि।।६३०।।
वर्षाकाल में नाना प्रकार के तप करके सुख विहार वाले हेमन्त ऋतु में (माघ—फाल्गुन) संस्तर का आश्रय लेता है। हेमन्त ऋतु में अनशन आदि करने का महान् परिश्रम नहीं होता, सुखपूर्वक हो जाता है इसलिये उसे सुख विहार कहा है। समाधि के निमित्त उस क्षपक का संस्तर किस प्रकार होना चाहिये जो आचार्यश्री बताते हैं—
पुढवीसिलामओ वा फलयमओ तणमओ य संथारो।
होदि समाधिणिमित्तं उत्तरसिर अहव पुव्वसिरो।।६३९।।
समाधि के निमित्त संस्तर पृथिवीमय, शिलामय या फलकमय लकड़ी का अथवा तृण का होता है। उसका सिर उत्तर की ओर अथवा पूरब की ओर होना चाहिये।
पूर्व दिशा या उत्तर दिशा ये मंगल दिशायें हैं। पूर्व दिशा में सूर्योदय होता है अर्थात् यह उत्थान की सूचक है अर्थात् पूर्व दिशा शुभ मानी गयी है। उत्तर दिशा में विदेह क्षेत्र स्थित तीर्थंकरों के प्रति भक्ति प्रर्दिशत करने के उद्देश्य से यह भी शुभ मानी जाती है। क्षपक (सल्लेखना धारी) की देखभाल, आदि समस्त क्रियाएँ नियुक्त किए गए निर्यापक आचार्य के अनुसार होती हैं।
जघन्य रूप से दो निर्यापक आचार्य होते हैं, एक नहीं क्योंकि यदि निर्यापक भिक्षा के लिये, भ्रमण करता है, सोता है, और शरीर मल त्यागने जाता है तो क्षपक का त्याग करता है। (अत: क्षपक का असमाधि मरण होगा।।६७४. क्षपक के आक्षेपणी, संवेजिनी, निर्वेजनी प्रकार की कथाएँ सुनाना चाहिये जिससे की वैराग्य दृढ़ होता है, शरीर भोग आदि से विरक्ति आती है।
ज्ञान व चारित्र की वृद्धि होती है तपो भावना बढ़ती हैं भरत ऐरावत क्षेत्रों में द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुकूल गुण वाले ४४ निर्यापक स्थापित करना चाहिए।
ज्यों—ज्यों काल खराब होता है ४—४ निर्यापक कम करते जाना चाहिए अधिक काल खराब होने पर कम से कम दो निर्यापक भी होते हैं किसी विशेष अवस्था में एक निर्यापक भी होता है। नमस्कार का अर्थ—अर्हंत आदि पाँचों का मन से गुणानुस्मरण वचन से गुणानुवाद और काय से नमस्कार यह नमस्कार पद का अर्थ है णमो शब्द विशेष आदर का सूचक है।
अरहंत णमोक्कारो एक्को वि हविज्ज जो मरणकाले।
सो जिणवयणे दिट्ठो संसारुच्छेण समत्थो।।७५४।।
मरते समय यदि एक बार भी अर्हंतों को नमस्कार किया जाता है तो उसे जिनागम में संसार का उच्छेद करने में समर्थ कहा है।