(सूत्रधार द्वारा मंच पर मंचन) आज से २५७० वर्ष पूर्व की घटना है, जब बिहार प्रान्त के जृम्भक गांव में ऋजुकूलानदी के तट पर एक महान पुण्य अवसर आया था । वैशाख शुक्ला दशमी का शुभ दिन, अहा हा! भगवान महावीर को १२ वर्ष की तपस्या के बाद केवलज्ञान (दिव्यज्ञान) प्राप्त हुआ अर्थात् उन्हें अपनी भगवान आत्मा का साक्षात् दर्शन हो गया । फिर तो उनके ज्ञान में तीनों लोकों की सारी चीजें झलकने लगी । भाइयों एवं बहनों! क्या आप जानते हैं कि केवलज्ञान होने के बाद भगवान कहाँ रहते हैं? O My Brothers and Sisters! Do you know where Gods live after getting supreme knowledge ? कोई बात नहीं, आप चिन्ता न करें, मैं बताता हूँ ।Don’t Worry please! I tell you about this. सुनो, ध्यानपूर्वक सुनो Now listen to me with attention-जब तपस्या करते-करते तीर्थंकर महावीर को केवलज्ञान हो गया तो उनका शरीर इतना हल्का हो गया कि वे धरती से बीस हजार हाथ ऊपर आकाश में चले गये । और तुरंत सौधर्मइन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर ने अधर आकाश में एक गोल-गोल सभा भवन बना दिया, जिसे कहते हैं- समवसरण। उसी समवसरण की बात यहाँ आपको नाटक के रूप में बताई जा रही है कि केवलज्ञान होने के बाद गणधर शिष्य के अभाव में महावीर की दिव्यध्वनि नहीं खिरी, वे विहार करते-करते एक बार राजगृही नगर के विपुलाचल पर्वत पर पधारे । वहीं पर समवसरण की रचना हो गई, पुनः राजगृही नगरी में क्या-क्या हुआ? उसे बताने के लिए प्रस्तुत है रूपक-‘‘धन्य हुआ विपुलाचल पर्वत।
(प्रथम दृश्य)
(राजगृही नगरी में मगधसम्राट राजा श्रेणिक अपनी राजसभा में सिंहासन पर आरूढ़ हैं, दरबार लगा है। एक नर्तकी का नृत्य चल रहा है। पुन:)-
वनमाली-(फूलों का गुलदस्ता लिए हुए दरबार में प्रवेश) महाराज की जय हो, मगध सम्राट श्रेणिक महाराज की जय हो । राजन्! एक शुभ संदेश लेकर आया हूँ ।
राजा श्रेणिक-कहो वनमाली! शुभ सन्देश कहने में देर मत करो। जल्दी बताओ, क्या है वह शुभ सन्देश?
वनमाली-महाराज! आपके नगर में विपुलाचल पर्वत पर तीर्थंकर प्रभु महावीर का समवसरण पधारा है ।
अभय कुमार महामंत्री-बाबा! तुम्हें कैसे पता चला यह समाचार? यह तो बताओ कि वहाँ इस समय क्या हो रहा है?
वनमाली-मंत्री जी! वहाँ तो इन्द्र, देव, देवी, सभी खूब आनन्द मंगलपूर्वक महावीर की भक्ति कर रहे हैं और खूब ऊँचाई पर आकाश में बड़ा सुन्दर समवसरण बन गया है। जल्दी चलकर आप लोग उसे देखो तो सही, ऐसी महिमा अपनी नगरी में इससे पहले कभी नहीं हुई है ।
राजा श्रेणिक-(आगे बढ़कर नमस्कार करते हुए) केवलज्ञानी महावीर भगवान को मेरा बारम्बार नमस्कार हो । जल्दी तैयारी करो, अभयकुमार! हम सभी मिलकर महावीर के समवसरण में चलेंगे । सारी नगरी में घोषणा करवा दो कि विपुलाचल पर्वत पर चलकर सभी को भगवान की सामूहिक अर्चना करनी है ।
अभय कुमार महामंत्री-जो आज्ञा महाराज । अभी मैं नगर में घोषणा कराता हूँ । कहाँ हैं सेवकगण! आप लोग पूरे नगर में सूचना कर दो कि अपने नगर में भगवान महावीर का समवसरण आया है, उनके समवसरण में अपने सम्राट श्रेणिक महाराज के साथ चलकर उनका दिव्य दर्शन कर धर्मोपदेश का लाभ लेना है । (सेवक पूरे नगर में घोषणा कर सबको एकत्रित करते हैं और राजा श्रेणिक अपने हाथी पर सवार होकर जयजयकार करते हुए समवसरण के लिए प्रस्थान करते हैं पुन: विपुलाचल पर्वत पर पहुँचकर)
(समवसरण का दृश्य दिखावें)
श्रेणिक-(समवसरण देखकर) ओह! कितना सुन्दर दृश्य है । आज मैंने जाना कि ऐसी दिव्य सभा को समवसरण कहते हैं । जय हो, महावीर भगवान की जय हो। आपके श्रीचरणों में मेरा कोटि-कोटि नमन है। समवसरण की प्रथम सभा में विराजित समस्त मुनिवरों को नमोस्तु। (इतना बोलकर अपनी मनुष्यों की सभा में बैठ जाते हैं कि तभी वहाँ हलचल शुरू हो जाती है।)-
एक मुनि –क्या बात है? महावीर स्वामी कुछ बोल ही नहीं रहे हैं ।
दूसरे मुनि –बोलो भगवन्! बोलो, हम लोग आपकी दिव्यध्वनि झेलने के लिए तैयार बैठे हैं।
श्रेणिक-हाँ प्रभो! आपकी देशना श्रवण करने के लिए हमारे नगर की सारी जनता उमड़ पड़ी है ।
एक देव-हे तीर्थंकर भगवान! हम सभी आपकी वाणी सुनने के लिए आतुर हैं इसलिए स्वर्गों से मध्यलोक में आए हैं।
दूसरा देव-नाथ! अब तो यहाँ सब कुछ तैयार है, बस केवल आपके बोलने मात्र का इन्तजार है ।
धनकुबेर-ऐसा तो नहीं कि इस समवसरण को बनाने में कहीं मुझसे कोई कमी रह गई हो? भगवन्! मेरी गलती माफ कर आप अपनी देशना से असंख्य जनसमूह को धन्य कीजिए ।
एक पुरुष-चलो, फिर वापस चलें, जाने क्यों महावीर का मौन टूट नहीं रहा है ।
एक स्त्री-चलो, तब तक पूरे समवसरण को देख तो लें। यहाँ कितने सारे मन्दिर हैं, भगवान हैं, कल्पवृक्ष हैं । हो सकता है इन सबको देखकर आने तक प्रभु की दिव्यध्वनि खिरने लग जावे?
दूसरी स्त्री-अरे, यहाँ बड़ी-बड़ी नाटकशालाएं भी हैं, लोग कह रहे हैं कि वहाँ खूब अच्छे-अच्छे नाटक चल रहे हैं । चलो, उन्हें ही देख आएं ।
एक देवी-भगवन्! हमने तो सोचा था कि समवसरण में जाकर अपने अगले जन्म के बारे में पूछेंगे कि हम लोग स्वर्ग में मरण को प्राप्त होकर कहाँ जन्म धारण करेंगे, लेकिन यहाँ तो आपको मौन देखकर सब आशाओं पर पानी ही फिर गया ।
दूसरी देवी-अरे भाइयों! चलो सभी मिलकर भगवान की खूब भक्ति करो, तभी वे खुश होकर बोलेंगे । खाली बकवास करने से क्या फायदा?
सौधर्म इन्द्र-यह बात बिल्कुल ठीक है, सब मिलकर खूब ढोल-ढमाके के साथ नाच-गाकर भगवान महावीर का गुणगान करो।
(सामूहिक गीत चल रहा है, देव-देवियाँ, मनुष्य सब मिलकर नृत्य करते हैं।)
– गीत –
तर्ज-धीरे धीरे बोल कोई सुन ना ले………………..
समवसरण आया है वन्दन कर लो, वन्दन कर लो अभिनन्दन कर लो ।
यह केवलज्ञान प्रतीक है, जग भर में अलौकिक एक है। ।।समवसरण आया है.।।
केवलज्ञानी वीरा जब विहरण करें, चरणकमल तल इन्द्र कमल स्वर्णिम धरें ।
उन पर-भी चतुरंगुल आप अधर चलें, वीतरागता अब ही सदा अमर रहे ।।
दर्शन करो, वन्दन करो यह केवलज्ञान प्रतीक है, जगभर में अलौकिक एक है । ।।समवसरण आया है.।।१।।
वीरा की उपदेश सभा यह दिव्य है, समवसरण इसको ही कहते भव्य हैं ।
आज वही साक्षात हमें प्रभु दिख रहे, उनके समवसरण में हम भक्ती करें।।
दर्शन करो, वन्दन करो, यह केवलज्ञान प्रतीक है, जगभर में अलौकिक एक है । ।।समवसरण आया है.।।२।।
सामूहिक स्वर –जय हो महावीर भगवान की जय ‘हो। भगवान के समवसरण की जय हो ।
श्रेणिक – अब भगवान जरूर बोलेंगे । प्रभो! हम लोग भक्ति करना तो भूल ही गये थे, शायद इसीलिए आपकी देशना नहीं खिरी । अब तो हम आपका प्रवचन सुनकर ही वापस चलेंगे।
रानी चेलना-भगवन्! हम लोग संसारी प्राणी नितांत अज्ञानी हैं, आपसे ज्ञान की हमें पल-पल अपेक्षा है अन्यथा हमारे ज्ञानचक्षू कैसे खुलेंगे?
एक देव-देखो! हम और आप लोग ही बोले जा रहे हैं लेकिन महावीर तो अभी भी मौन ही बैठे हैं, कुछ भी नहीं बोल रहे हैं कि बात क्या है?
एक मुनि-सुनो भव्यात्माओं! अब हम साधुगण एक बार भगवान की सामूहिक भक्ति करेंगे अतः तुम लोग भी हाथ जोड़ कर बैठो और अपनी-अपनी भक्ति प्रदर्शित करो।
मुनियों द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाला वन्दना गीत-
महावीर तुम्हारे दर्शन से सम्यग्दर्शन मिल जाता है
चरणों में तुम्हारे वन्दन से निज अन्तर्मन खिल जाता है।।।टेक.।।
जैसे अंगार दहकता है जल सबकी प्यास बुझाता है।
सूरज जैसे देकर प्रकाश धरती का तिमिर भगाता है।।
वैसे ही तव मुख दर्शन से मानो सब सुख मिल जाता है।। ।।भगवान.।।१।।
दर्शन के भाव हुए जिस क्षण उपवास का फल प्रारंभ हुआ।
चलकर जब पहुँच गये मंदिर लक्षोपवास फल सहज हुआ।।
तुम सम्मुख आ गदगद मन से, भव भव का अघ पुल जाता है।। ।।भगवान तुम्हारे……।।२।।
सामूहिक स्वर- तीर्थंकर महावीर की जय हो, विपुलाचल पर्वत की जय हो। बोलो बोलो बोलो बोलो जय बोलो। महावीर भगवान की जय बोलो।
मंत्री अभयकुमार-हे प्रभो! अब तो जल्दी से अपना मौन पूर्ण कीजिए। आपके लघुनन्दन मुनिवरों ने आपकी वन्दना करके तो साक्षात् भक्तिगंगा ही प्रवाहित कर दी है फिर अब देर किस बात की?
ईशान इन्द्र-भगवन्। अब आपका मौन सहन नहीं हो रहा है । प्रभो! या तो आप कारण बताइये अथवा जल्दी देशना देकर सबके मन का सन्देह दूर कीजिए ।
सानत्कुमार इन्द्र-सुना जाता है कि मुनियों की भक्ति में तो अचिन्त्य शक्ति होती है । अतः हे महावीर स्वामी! इनकी भक्ति तो आपको जरूर स्वीकार करनी चाहिए।
माहेन्द्र इन्द्र-प्रभो! ये मुनिगण जो आपके सामने बैठे हे, ये एक से एक विद्वान एवं महान तत्त्वों के ज्ञाता हैं। फिर भी कितने दिनों से आपके समवसरण में बैठे हुए आपकी देशना का इंतजार कर रहे हैं अतः शीघ्र अपनी दिव्यध्वनि प्रसारित कीजिए।
राजा श्रेणिक-स्वामी । इन्हीं मुनिराजों में से आप जिसे चाहें अपना शिष्य बनाकर उपदेश देना प्रारंभ कीजिए क्योंकि पूरे पैंसठ दिन (६५) हो गये हैं केवलज्ञान प्राप्त करके, अभी तक दिव्यधनि का न खिरना आपके केवलज्ञान की पूर्णता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा रहा है ।
एकदेव-ओह! यह तो बड़ा गड़बड़ हो रहा है । महावीर स्वामी को ऐसा नहीं करना चाहिए । इस तरह तो सारी सभा ही बिगड़ी जा रही है । प्रभो! कम से कम इन्द्र को ही कान में बता दीजिए कि आपकी दिव्यध्यनि किसके इन्तजार में रुकी हुई है, मैं कुछ न कुछ उपाय जरूर ढूंढ निकालूंगा, लेकिन ऐसे मौन बैठे रहने से तो लोग आपके प्रति विद्रोह करने लगे हैं ।
एक मुनिराज-हे देव! ऐसा मत कहो, केवलज्ञान होने के बाद तो भगवान पूर्ण वीतरागी हो गये हैं । वे इस समय किसी के इंतजार में मौन नहीं बैठे हैं, बल्कि हम लोगों के अभी पुण्य का उदय नहीं आया है । इसीलिए भगवान की देशना प्रवाहित नहीं हो रही है ।
दूसरे मुनि-हाँ भक्तों! बड़े पुण्यशाली जीवों को ही तीर्थंकर की दिव्यध्यनि सुनने का सौभाग्य प्राप्त होता है । अभी हम लोगों को अपने सौभाग्य का इन्तजार करना है ।
देखो कहा भी है-भवि भागनवश जोगे बसाय, प्रभु ध्वनि है सुनि विभ्रम नशाय ।
सौधर्मेन्द्र-हे गुरुदेव। आपकी बात बिल्कुल सही है किन्तु यह दृश्य अभी कितने दिन और चलेगा पुनः किस प्रकार प्रभु का मौन टूटेगा, आप लोग चिन्तन करके हमें बताइये।
(चिन्तित मुद्रा में, सिर पर हाथ लगाकर) अब तो मुझे शीघ्र इसका कारण खोजना पड़ेगा। आज तक तो किसी तीर्थंकर के समवसरण में ऐसा देखा नहीं है। कुछ समझ नहीं आ रहा है। (कुछ सोचकर मन में) कहीं ऐसा तो नहीं, महावीर के निकट आकर अभी तक किसी ने दीक्षा नहीं ली है, उनकी शिष्यता नहीं स्वीकार की है इसलिए गणधर के अभाव में भगवान नहीं बोल रहे हों ? बस, बस आ गया समझ में, यही बात है । अब मुझे गणधर की खोज करना है, वह कौन पुण्यशाली होगा जो महावीर का शिष्य बनकर उनकी दिव्यध्वनि झेलेगा? मैं जा रहा हूँ अब मुझे विश्वास है कि शीघ्र ही कार्य की सिद्धि होगी। (नमस्कार करके सौधर्मेन्द्र चला जाता है और यह दृश्य यही सम्पन्न होता है।)
(द्वितीय दृश्य)
(राजगृही के निकट ही ब्राह्मणपुर नाम का एक नगर है, वहाँ शाण्डिल्य नामक ब्राह्मण और उसकी पत्नी स्थंडिला के एक पुत्र है-इन्द्रभूति गौतम। गौतम इन लोगों का गोत्र है। ब्राह्मण कुल में उत्पन्न वह इन्द्रभूति वेद वेदांग का ज्ञाता है, जिसके कारण इन्द्रभूति एवं उसके माता-पिता गर्व का अनुभव करते हुए सारे नगर में प्रसिद्धि को प्राप्त हैं।) उपस्थित है उस नगर का दृश्य एवं सौधर्मेन्द्र एक वृद्ध के रूप में पहुँचकर वहाँ क्या करते हैं- ब्राह्मण का घर है, वहाँ माता-पिता के साथ इन्द्रभूति की वार्ता चल रही है-
शाण्डिल्य-(पत्नी से) सुनो! हम लोग कितने भाग्यवान हैं, जो इतना ज्ञानी पुत्र अपने घर में जन्मा है।
स्थंडिला-हम लोगों ने पूरब जनम में कोई विशेष ही पुण्य किया होगा, जो ऐसा बेटा पाया है ।
शाण्डिल्य-अरी महाभाग! यह सब तुम्हारी कुक्षि का ही तो परताप है। तुम्हारे गर्भ से ही तो सब कुछ सीख कर आया है मेरा लाल। (लज्जा से सिर झुकाकर) नहीं स्वामी! इसमें मेरा क्या है, बेटा तो आपकी बदौलत ही मुझे मिला है । यह आपके कुल का दीपक है ।
इन्द्रभूति-(लगभग २० वर्षीय युवक है) पिताजी! माँ ठीक कह रही हैं मैं तो आपके वंश का अग्रिम बीज हूँ । आप दोनों के द्वारा दिये गये ज्ञानपूर्ण संस्कारों के कारण ही आज मुझे इतनी योग्यता मिली है ।
शांडिल्य-बेटा! आजकल तुम्हारी पाठशाला कैसी चल रही है?
इन्द्रभूति-हाँ पिताजी! मैं आपको बताना चाहता था कि आजकल मेरी पाठशाला ने तो बहुत बड़े विद्यालय का रूप धारण कर लिया है ।
शांडिल्य-उसमें कितने विद्यार्थी पढ रहे हैं ?
इन्द्रभूति-पिताजी! अब तो पूरे पाँच सौ विद्यार्थी हो गये हैं पढ़ने वाले। लेकिन दूर-दूर तक आपके पुत्र का नाम इतना फैल चुका है कि कुछ ही दिनों में हजारों विद्यार्थी मेरे पास आकर शिक्षा ग्रहण करेंगे ।
शांडिल्य-पुत्र! यह तो बताओ कि तुम्हारे दोनों छोटे भाई अग्निभूति और वायुभूति भी तुम्हारे पास अध्ययन कर रहे हैं या नहीं?
इन्द्रभूति-हाँ, दोनों भाई मेरे पास बड़े-बड़े शास्त्रों का अध्ययन कर रहे हैं और पिताजी! वे दोनों तो शिष्यों को प़ढ़ाने में मेरा सहयोग भी करते हैं ।
स्थंडिला-इसका मतलब, ये दोनों पुत्र भी तुम्हारे समान योग्य बन जाएंगे ।
इन्द्रभूति-हाँ माताश्री, क्यों नहीं, यह तो सब आपकी कृपाप्रसाद का ही फल है ।
शांडिल्य-अरे! तुम्हारे कहने से अभी मुझे याद आया कि इस इन्द्रभूति के जन्म के बाद मुझे एक ज्योतिषी ने बताया था कि तुम्हारा यह पुत्र अनन्तज्ञानी और मोक्षगामी है ।
इन्द्रभूति-पिताजी! ज्योतिषी जी के शब्द बिलकुल सच दिख रहे हैं, क्याकि इस समय मेरे जैसा ज्ञानी इस धरती पर कोई नहीं है ।
स्थंडिला-पुत्र! मेरा तो यही आशीर्वाद है कि तुम दिन दूनी रात चौगुनी खूब उन्नति करते रहो और तुम्हारे ज्ञान से लाखों-लाख लोग लाभ लेते रहें ।
इन्द्रभूति-अरे अरे मेरे विद्यालय जाने का समय हो गया है । आज बातों बातों में देर हो गई, मेरे पाँच सौ शिष्य मेरा इन्तजार कर रहे होंगे । मैं चला……
(शास्त्रों का थैला लेकर घर से निकल जाता है।)
(तृतीय – दृश्य)
(विद्यालय का दृश्य, वहाँ धोती-दुपट्टा पहने हुए पाँच सौ (जितने पात्र अधिक से अधिक दिखाए जा सकें उतने बिठा देवें) शिष्य अध्ययन कर रहे हैं। वहाँ गुरु इन्द्रभूति जी के (श्वेत धोती-दुपट्टा, तिलक, जनेऊ से सहित पंडित) पहुँचते ही सभी उठकर खड़े होते हैं और गुरु जी को नमस्कार कर बैठ जाते हैं) सामने एक बड़े सिंहासन पर इन्द्रभूति गौतम पहुँचकर बैठ जाते है पुन:-
इन्द्रभूति-शिष्यों! कल का पाठ सबने याद कर लिया?
शिष्यों का सामूहिक स्वर-हाँ गुरुजी! पूरा पाठ याद कर लिया है, आप चाहे जहाँ से सुन सकते हैं ।
इन्द्रभूति-(एक शिष्य से) तुम बताओ कि यह शरीर किस चीज से बना है?
शिष्य-पाँच भूत तत्वों से यह शरीर बना है ।
इन्द्रभूति-(दूसरे शिष्य से) उन पांच भूत तत्वों के नाम बताओ?
शिष्य-गुरुजी । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पंच भूततत्व कहलाते हैं ।
इन्द्रभूति-(तीसरे शिष्य से) इस संसार में सभी प्राणियों को किसने बनाया है?
शिष्य-ब्रह्मा नामक सर्वशक्तिमान ईश्वर परमात्मा ने हम सभी प्राणियों को बनाया है, ऐसा हमारे वेदपुराण बतलाते हैं।
इन्द्रभूति-(चौथे शिष्य से) तुम बताओ कि हम सभी को सुख-दुख कौन देता है?
शिष्य-वही ईश्वर हम सभी को सबके अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार सुख-दु:ख प्रदान करता है ।
इन्द्रभूति-यह बताओ कि अब आप लोग आगे क्या-क्या पढ़ना चाहते हैं?
सामूहिक स्वर-गुरुजी! हम लोग आपसे वेदवेदांग का सारा ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहते हैं क्योंकि इस समय भारत में आपके समान ज्ञानी कोई भी नहीं है ।
इन्द्रभूति – (अहंकार से) अच्छा, आप लोगों के मन में मेरे लिए इतना भारी सम्मान है तो मैं जरूर सभी को सारे वेद-वेदांग पढ़ाऊँगा । अब सभी खोलो ऋग्वेद का ग्रंथ। (इन लोगों का अध्ययन शुरु होने ही वाला है कि एक वृद्ध बाबा का वेष बनाकर सौधर्म इन्द्र लाठी टेकते हुए वहाँ विद्यालय में बेधड़क पहुँच जाते हैं पुन:)-
वृद्ध –भूल गया मैं भूल गया, अर्थ समूचा भूल गया । गुरुवर ने बताया जो कुछ भी, सारा का सारा भूल गया।। भूल गया मैं।।
इन्द्रभूति-अरे! यह कौन घुस आया हमारे विद्यालय में? शिष्यों । देखो, देखो जल्दी इसे बाहर करो ।
एक शिष्य-ओ बाबा! तुम बिना आज्ञा यहाँ कैसे आ गए? दूसरा शिष्य-बाहर जाओ, बाहर जाओ । ऐ बाबा! तुम कहाँ से आए हो ?
बाबा-अरे भैय्या! थोड़ा रहम तो करो । ऐं ऐं……..अभी बताता हूँ कि कहाँ से आया हूँ ।
इन्द्रभूति-अच्छा शिष्यों! थोड़ा रुक जाओ जरा इस बाबा को थकान उतार लेने दो ।
बाबा-स्वामी जी! मैंने आपका बड़ा नाम सुना था, इसलिए बड़ी दूर-दूर से ढूंढता-ढूंढता चला आया हूँ ।
इन्द्रभूति-बाबा! यह भूले-भटके लोगों का विश्रामस्थल नहीं है, यहाँ तो लोग बड़े-बड़े शास्त्रों को पढ़ने और विद्वान् बनने आते हैं।
बाबा-स्वामी जी! मैं भी विद्वान् बनने ही आया हूँ यहाँ विश्राम करने नहीं आया हूँ। मैं जानता हूँ कि आप बहुत बड़े विद्वान् शिक्षक हैं।
इन्द्रभूति-तो ठीक है, तुम कल से आना और हमारे विद्यालय के सारे नियम समझकर इसी में भर्ती हो जाना ।
बाबा-अरे बाबा! मैं कल से बहुत परेशान हूँ । मेरे गुरु ने कल कुछ पंक्तियाँ और उनका अर्थ बताया था। केवल पंक्तियाँ याद हैं उसका अर्थ भूल गया हूँ । इसीलिए आपसे उसका अर्थ जानने आया हूँ ।
इन्द्रभूति-ऐ बाबा! जाओ, अपना रास्ता देखो । मेरे पास इतना समय नहीं है कि भूले-बिसरे श्लोकों का अर्थ बताता फिरूँ।
शिष्यों का सामूहिक स्वर –हाँ, गुरुवर! आप तो हम लोगों को वेद का अध्ययन करवाइये । यह बाबा थोड़ी देर में अपने आप भाग जाएगा ।
बाबा-ठीक है, ठीक है, देख लिया आपकी विद्वत्ता। यदि आप मेरे एक श्लोक का अर्थ भी नहीं बता सकते हैं तो मैं आपका शिष्य क्यों बनने लगा? मैं जा रहा हूँ जा रहा हूँ (जाने का अभिनय करता है)
इन्द्रभूति-(धीरे से शिष्यों को कहते हुए) अरे! यह तो बाहर जाकर मेरी बड़ी निन्दा करेगा । सुनो, बाबा! सुनो, आओ! तुम वह श्लोक बोलो जिसका अर्थ जानना चाहते हो । मैं तो व्यस्तता की वजह से कह रहा था बाबा! संस्कृत श्लोकों का अर्थ करना तो मेरे बाएं हाथ का खेल है।
बाबा-(वापस आकर) तभी तो तुमसे पूछने आया था, लेकिन तुम तो आने वाले की इज्जत नहीं करते हो । पंडित जी। तुम्हें तो अपने ज्ञान का अहंकार हो गया है।
इन्द्रभूति-चलो, चलो, जल्दी बोलो! तुम लोग ज्ञान का महत्व नहीं समझ सकते हो ।
बाबा-चलो खैर, मुझे क्या करना बहस करके, मैं श्लोक बोलता हूँ आप अर्थ बता दो, बस। मैं तो आपका चेला ही बन जाऊँगा । (श्लोक बोलता है)
त्रैकाल्य द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीव षट्कायलेश्या:। पंचान्ये चास्तिकाया, व्रतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदा:।।
इन्द्रभूति-यह बाबा पता नहीं क्या बक रहा है? त्रैकाल्यं.?.. ऐं .? तीन काल, छह द्रव्य यह सब क्या है?
बाबा-हाँ, यही अर्थ मैं भूल गया हूँ सो पूछने आया हू।
इन्द्रभूति-(सिर पर हाथ रखकर) ओह! यह क्या है, तीन काल कौन से होते हैं और ये छह द्रव्य क्या हैं? (मन में धीरे-धीरे कहते हुए) अब इसे क्या उत्तर दूँ? अच्छा बाबा! यह बताओ कि तुम्हें यह सब किसने बताया है? तुम्हारे गुरु कौन हैं?
बाबा-(कुछ ऐक्टिंग करते हुए) मेरे गुरु महावीर, विपुलाचल पर राजें ।
इन्द्रभूति-महावीर! वही जो आकाश में चलते हैं, जिनके पास देवता लोग आते रहते हैं । बाबा-हाँ हाँ।
इन्द्रभूति-देखो बाबा! यह श्लोक जो तुमने बोला है। उसका अर्थ तुम नहीं समझ पाओगे, इसलिए मैं सोचता हूँ कि तुम्हारे गुरु के पास चलकर ही उनसे इस विषय में बातचीत करूँ।
बाबा-यह तो बहुत ही अच्छा होगा स्वामी जी। जहाँ दो विद्वान् इकट्ठे हो जावें वहाँ तो ज्ञान की गंगा ही बह जाती है । चलिए चलिए, मैं आपको सम्मान सहित अपने गुरु महावीर स्वामी के पास ले चलता हूँ।
इन्द्रभूति-चलो, मैं अपने सभी पाँच सौ शिष्यों के साथ तुम्हारे गुरु के पास चलकर शास्त्रार्थ करूंगा ।
बाबा-चलिए महाराज । आप सभी वहाँ चलिए, बड़ा अच्छा लगेगा । (सभी लोग बाबा के साथ (सौधर्म इन्द्र के साथ) चल देते हैं किन्तु इन्द्रभूति गौतम के मस्तिष्क में चक्कर आ रहा है। वह सोचता है कि इसका अर्थ तो मुझे ही नहीं मालूम है । रास्ते में वह अपने दोनों भाइयों से धीरे-धीरे बात करता है ।
इन्द्रभूति-क्यों अग्निभूति । तुम्हीं कुछ सोचो कि ये तीनकाल, छहद्रव्य, नौ पदार्थ कौन-कौन से हैं ?
अग्निभूति-भैय्या! मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि इस गूढ़ श्लोक में क्या रहस्य छिपा है ।
वायुभूति-भाई! यह बाबा भी कोई महापंडित मालूम पड़ता है। इसके गुरु के पास चलकर अपने को बड़ी सावधानी से बात करना है ।
इन्द्रभूति-ठीक है भाइयों! तुम लोग अपने सभी पाँच सौ शिष्यों को लेकर मेरे पीछे रहना और बड़ी युक्ति से मैं महावीर से बात करुँगा ताकि अपनी विद्वत्ता की पोल भी न खुलने पाए और अर्थ भी ठीक से समझ में आ जाए ।
दोनो भाई-बिल्कुल ठीक है, भैय्या! हम लोग आपके आदेशानुसार सारे शिष्यों का पूरा ध्यान रखेंगे कि कोई बहककर वहाँ महावीर को अपना गुरु न मान ले । (थोड़ी दूर चलने के बाद बाबा बोलते हैं)-
बाबा-स्वामी जी! बस, महावीर के समवसरण में आप पहुँचने ही वाले हैं । हम लोग बिल्कुल पास आ गए हैं ।
इन्द्रभूति-(अपने भाइयों से) यह क्या कह रहा है? समवसरण ऐं…. यह क्या होता है समवसरण का मतलब क्या है? मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है ।
अग्निभूति-भइया! जो भी कुछ होगा, सब अभी सामने आ जाएगा । आप चिंता क्यों कर रहे हैं?
वायुभूति-ऐसा लगता है कि समवसरण कोई दिव्यस्थल है । चलो अपने को इसी बहाने आज एक सुन्दर चीज देखने को मिलेगी । बाबा-देखो, देखो, पंडित जी! वह आकाश में बहुत ऊँचाई पर चमक रहा है न, यही है महावीर का समवसरण । (यहां पर्दे पर पीछे से समवसरण का चित्र दिखावें) ।
इन्द्रभूति-अरे बावले! क्या तू इतनी ऊँचाई पर मुझे ले जाएगा? मेरे बस का नहीं है इतने ऊपर चढ़ना । लगता है कि तू तो आज मेरी चटनी ही बना देगा । बाबा-स्वामी जी! आप बिल्कुल चिंता ना करें, वहाँ तो ऐसा चमत्कार है कि आप तो क्या, लूले, लंगड़े मनुष्य भी केवल अड़तालिस मिनट में बिना थकान के धरती से बीस हजार सीढ़ियाँ चढ़कर उस समवसरण में पहुँच जाते हैं ।
अग्निभूति-अच्छा, वहाँ ऐसा चमत्कार है? तब तो जल्दी चलो, मेरा मन देखने को उत्सुक हो रहा है ।
बाबा-पंडित जी! वहाँ तो आप लोग ऐसी-ऐसी चीजें देखेंगे जो बिल्कुल नई और दुनिया की अद्भुत वस्तुएँ हैं ।
इन्द्रभूति-बस बस, ज्यादा प्रशंसा मत कर, वहाँ पहुँचकर सब कुछ देख लूँगा । अरे! संसार में वेदों के ज्ञान के सामने ये सभी चीजें बेकार हैं (घमंड से सिर में तनाव होता है।)
बाबा-और स्वामी जी! वह वेदज्ञान तो आपके सिवाय किसी को है ही नहीं । अरे वाह! हम तो आ गए विपुलाचल पर्वत पर । (समवसरण का दृश्य) बस, आप लोगों की अब इन्तजार की घड़ियाँ समाप्त हो गईं । स्वामी जी! चलिए, मेरे गुरुदेव प्रभु महावीर के पास और उनसे छह द्रव्य, नौ पदार्थ आदि के बारे में वाद-विवाद करके मेरी शंका का समाधान कीजिए ।
इन्द्रभूति-(अपनी चोटी, तिलक, जनेऊ, माला आदि ठीक करते हुए) चल, चल मैं सब निपट लूंगा उनसे, तू चिन्ता मत कर, बस एक बार महावीर से मिलवा तो दे । (सभी लोग बाबा के साथ समवसरण के समक्ष पहुँच जाते हैं, वहाँ इन्द्रभूति आश्चर्यचकित हो एक क्षण उसे देखकर ठगा सा रह जाता है और मानस्तंभ के निकट पहुँचते ही उसका सारा अभिमान गलित (समाप्त) हो जाता है । अकस्मात् वह अपना सब कुछ भूलकर महावीर के गुणों को गाता हुआ अन्दर प्रवेश करता है । उस समय उन इन्द्रभूति गौतम द्वारा पढ़ी गई सर्वप्रथम चैत्यभक्ति का प्रथम श्लोक यहाँ उद्धृत है और पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा किए गए उसके पद्यानुवाद का भी एक पद्य यहाँ प्रस्तुत है । इन्द्रभूति गौतम का अभिनय करने वाले पात्र की योग्यतानुसार संस्कृत या हिन्दी का पद्य चयन करें ।) –
-शिखरिणी छन्द-
जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविवृभिता ।
वमर मुकुटच्छायोद्गीर्णप्रभापरिचुम्बितौ ।।
कलुषहृदया मानोद्भ्रान्ता:परस्परवैरिणो ।
विगतकलुषा: पादौ यस्य प्रपद्य विशश्वसु: ।।१।।
-चौबोल छन्द (हिन्दी)-
जय हे भगवन्! चरणकमल तव, कनक कमल पर करें विहार।
इन्द्रमुकुट की कांतिप्रभा से, चुम्बित शोभें अतिसुखकार।।
जातविरोधी कलुषमना, क्रुध मान सहित जन्तुगण भी ।
ऐसे तव पद का आश्रय ले, प्रेम भाव को धरे सभी।।१।।
(इस प्रकार चैत्यभक्ति नामक स्तुति को पढ़कर इन्द्रभूति गौतम समवसरण के अन्दर पहुँचकर भगवान महावीर को पंचांग नमस्कार करके अपने वस्त्रादिक उतारकर दिगम्बर मुनि बन जाते हैं । इन्द्र उन्हें तत्काल पिच्छी-कमंडलु प्रदान करता है और इन्द्रभूति गौतम के दिगम्बर मुनि बनते ही उनके दोनों भाई एवं पूरे पाँच सौ शिष्य सभी लोगों ने दिगम्बर जैन मुनि की दीक्षा स्वीकार कर ली और समवसरण में बैठकर भगवान महावीर की स्तुति करने लगे । महानुभावों! उन इन्द्रभूति गौतम के दीक्षा लेते ही भगवान महावीर स्वामी की ६६ दिनों के मौन के पश्चात् दिव्यध्वनि खिरने लगी, वही दिन श्रावण कृष्णा एकम का था जिसे ‘वीरशासन जयन्ती‘‘ के नाम से जाना जाता है । दिव्यध्वनि के उन क्षणों का दृश्य तो वास्तव में अवर्णनीय था किन्तु यहाँ पर उसी का अंश निम््ना प्रकार प्रस्तुत करें)
इन्द्रभूति मुनि – (पिच्छी से सहित हाथ जोड़कर खड़े हुए) हे प्रभो! महावीर स्वामी! आज तो आपके दर्शनमात्र से मेरे ज्ञानचक्षु खुल गए हैं। भगवन्! अब तक तो मैं अपने को कुछ शिष्यों का गुरु मानकर मिथ्या अहंकार से परिपूर्ण था किन्तु आज मैं आपकी शिष्यता स्वीकार करके धन्य-धन्य हो गया हूँ । (बैठ जाते हैं)
भगवान महावीर- ओऽऽऽम्, ओऽऽऽम् (दिव्यध्वनि में ॐकार ध्वनि की गड़गड़ाहट प्रारम्भ हो जाती है ।) (दिव्यध्यनि के प्रारम्भ होते ही भक्तों द्वारा महावीर प्रभु की जयजयकार से पूरा समवसरण गूंज उठता है पुनः)- (इन्द्रभूति गौतम स्वामी गणधर के रूप में महावीर की दिव्यध्वनि का सार भक्तों को बताते हैं) इस दृश्य में पर्दे के पीछे से आवाज दिखाएं-
-गौतम गणधर-
सुदं मे आउस्संतो! (३ बार बोलें) हे आयुष्मन्तों! वीर प्रभु की, ध्वनि से मैंने सुना यही ।
वे महाश्रमण भगवान महति, महावीर महाकाश्यप गोत्री।।
सर्वज्ञ सर्वलोकदर्शी, युगपत् सबको जानते हुए ।
सब देव असुर मानवयुत इस, तिहुंजग को भी देखते हुए।।१।।
श्रीविहार करते भगवन् जब समवसरण में राजे हैं ।
मुनियों के लिए धर्म सम्यक्, उसको उपदेशा उनने हैं।।
सर्वज्ञज्ञानयुत सर्वलोकदर्शी उनने उपदेश दिया।
श्रावक व श्राविका क्षुल्लक अरु, क्षुल्लिका सभी के लिए कहा।।२।।
(यह सब सुनकर सौधर्मइन्द्र अपना असली रूप प्रगट कर हर्ष से फूला नहीं समाता है और कहने लगता है)-
सौधर्म इन्द्र-(हाथ जोड़कर) हे तीनलोक के नाथ! आज मेरी इच्छा पूर्ण हुई। बस, यही तो भावना थी मेरी । धन्य हैं हमारे गौतम गणधर स्वामी! भगवन्! आज आपके ज्ञान में चार चाँद लग गए हैं। इस समवसरण में उपस्थित समस्त भव्यप्राणी समझ गए होंगे कि भगवान महावीर स्वामी की दिव्यध्यनि ६६ दिन क्यों नहीं खिरी थी? ईशान इन्द्र-हाँ इन्द्रराज! हम सभी समझ गए कि अब तक उनकी साक्षात् शिष्यता किसी ने स्वीकार नहीं की थी । अनेक मुनिगण तो यहाँ विराजमान थे किन्तु आज जब इन्द्रभूति गौतम ने पधारकर महावीर के समक्ष मुनिदीक्षा लेकर उनकी शिष्यता स्वीकार कर ली तो उसी क्षण भगवान की दिव्यदेशना खिरने लगी । (उसी समय समवसरण में वैशाली के राजा चेटक सपत्नीक (भगवान महावीर के नाना-नानी), उनके दश पुत्र एवं सबसे छोटी पुत्री चन्दना ये सभी प्रवेश करते हुए महावीर की जय जयकार करते हैं, पुनः वहाँ क्या होता है) – चन्दना-(सफेद धोती में खड़ी होकर) हे प्रभो! आज मैं आपके समक्ष आर्यिका व्रतों को धारणकर अपनी स्त्रीपर्याय को सार्थक करना चाहती हूँ । (तत्काल गणधर स्वामी उन्हें पिच्छी-कमण्डलु प्रदान करते हैं और उन्हें प्राप्त कर आर्यिका चन्दना भगवान महावीर को, गौतम गणधर को एव समस्त विराजित मुनिराजों को नमोस्तु करती हुई आर्यिकाओं के कोठे में सबसे आगे बैठ जाती हैं। उनके साथ अनेक साध्वियाँ और भी हैं । उन सबके साथ बालब्रह्मचारिणी आर्यिका चन्दना माताजी भगवान महावीर की वन्दना करती हैं)
सामूहिक वन्दना गीत (शेर छन्द)
जय जय प्रभो महावीर तुमने जन्म जब लिया।
इन्द्रों ने भक्ति करके जन्म धन्य कर लिया।।
सब राजसुख को त्याग के वैराग्य ले लिया।
यौवन में कठिन तप से ज्ञान प्राप्त कर लिया।।१।।
तुमने ही मुझे बन्धन से मुका कर दिया।
माता पिता से वापस मुझको मिला दिया।।
संसार की असारता को जानकर मैंने।
आकर समवसरण में दीक्षा धार ली मैंने।।२।।
महावीर तुम्हारे चरण में वन्दना करूँ।
त्रैलोक्यगुरु तुम चरण की अर्चना करूँ।।
बस बोधि समाधी की प्रभो याचना करूँ।
संसार दु:ख नाश हेतु प्रार्थना करूँ।।३।।
आर्यिकाओं का सामूहिक स्वर-नमोस्तु भगवन्! नमोस्तु नमोस्तु । महावीर स्वामी -ओऽऽऽम् ओऽऽऽम् ओऽऽऽम् (दिव्यध्वनि की गड़गड़ाहट) ।
गौतम गणधर – हे आर्यिका चन्दना माता! आज आप तीर्थंकर महावीर स्वामी के समवसरण की प्रधान गणिनी माता बन गई हैं अर्थात् इन समस्त उपस्थित आर्यिका माताओं को संभालने, शिक्षा देने एवं योग्य श्राविकाओं को दीक्षा देने की आपकी जिम्मेदारी रहेगी ।
अन्य समस्त आर्यिका माताएँ – पूज्य गणिनी श्री चन्दना माताजी को मेरा बारम्बार वन्दामि, वन्दामि, वन्दामि है । (गवासन की मुद्रा में बैठकर)
समवसरण में सामूहिक स्वर-जय हो गणिनी आर्यिका श्री चन्दना माता की जय हो । (३ बार) (उसी समय वहाँ मनुष्यों के कोठे में बैठे महाराज श्रेणिक भगवान महावीर स्वामी से एक प्रश्न पूछते हैं और वहीं उन्हें प्रमुख श्रोता का पद प्राप्त हो जाता है अर्थात् महावीर स्वामी से राजा श्रेणिक ने एक-दो नहीं, साठ हजार प्रश्न करके उनकी दिव्यध्वनि के द्वारा गौतमगणधर से उनके जो उत्तर प्राप्त किए थे उन्हीं के आधार पर रचा गया वर्तमान में सम्पूर्ण जैन साहित्य है।)
राजा श्रेणिक-(खड़े होकर हाथ जोड़कर) हे केवलज्ञानी जिनेश्वर! इन गौतमगणधर महाराज के साथ जिन पाँच सौ शिष्यों ने दीक्षा धारण की है उनका भवितव्य कैसा होगा?
महावीर स्वामी-ओऽऽऽम् ओऽऽऽम् ओऽऽऽम् (दिव्यध्वनि की गड़गड़ाहट)
गौतम गणधर-हे मगध सम्राट श्रेणिक। आज आपने इस समवसरण में सबसे पहला प्रश्न पूछा है अतः आपको समवसरण के प्रमुख श्रोता की पदवी प्रदान कर आपके प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है।
राजा श्रेणिक-भगवन्! आपके अनुग्रह का मैं सदैव ऋणी रहूँगा । गौतम गणधर-श्रेणिक! सुनो, मेरे साथ दीक्षा लेने वाले ये सभी पाँच सौ मुनिराज तीर्थंकर महावीर के शिष्य बन चुके हैं। ये सभी तपस्या करके इसी भव से मोक्षधाम को प्राप्त करेंगे ।
रानी चेलना-हे भगवन्! हमें भी बतलाइए कि हम श्रावक-श्राविकाओं का कल्याण कैसे हो सकता है?
महावीर स्वामी-ओऽऽऽम् ओऽऽऽम् ओऽऽऽम्
गौतम गणधर-हे श्राविकारत्न चेलनी! आप जैसे गृहस्थ श्रावक-श्राविकाएँ सर्वप्रथम अष्टमूलगुण धारण करें पुन: क्रमश: ग्यारह प्रतिमा के व्रत धारणकर मुनि-आर्यिका आदि पद प्राप्त कर जीवन का कल्याण करें ।
(चतुर्थ दृश्य)
(राजगृही नगरी के बाहर का दृश्य, तमाम स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएं हाथों में फल, फूल, पूजन सामग्री, घंटा-घंटी लिए हुए महावीर भगवान को जय-जयकार करते हुए उनके दर्शन के लिए भागे जा रहे हैं । उन्हीं के साथ सड़क पर एक मेंढक अपने मुख में कमल का फूल दबाकर चला जा रहा है। उसे देखकर कुछ भक्तगण आपस में चर्चा करने लगते हैं।)
श्रावक नं.-१-अरे अरे! देखो तो सही, यह मेंढक कहाँ जा रहा है? उसकी पत्नी-बेचारा सुबह-सुबह किसी तालाब से निकल कर सड़क पर आ गया है ।
श्रावक नं. २-लेकिन इसके मुंह में तो कमल का सुन्दर फूल दिख रहा है ।
श्राविका-किसी तालाब में टर्र-टर्र करता हुआ फूल देखकर इसका भी मन रीझ गया होगा, सो बेचारा तोड़ लाया। (सामूहिक हंसी की आवाज)
श्रावक नं. ३-आखिर मेंढक भी तो पाँच इन्द्रिय वाला समझदार प्राणी है । उसे कमल फूल की खुशबू अच्छी लगी होगी, इसलिए तोड़कर मुँह में पकड़े घूम रहा है ।
श्राविका-देखो! यह तो अपने साथ ही साथ बढ़ता चला जा रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं कि यह मेंढक भी प्रभु महावीर के दर्शन करने जा रहा है?
श्रावक नं. ४-हो सकता है, इसे भी किसी तरह महावीर के समवसरण की महिमा पता चल गई हो तो इसके भी भाव बन गये हो?
श्राविका-हाँ, कोई असंभव भी नहीं है क्योंकि समवसरण में पशु-पक्षी सभी पहुँचे हैं और महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि को वे अपनी-अपनी भाषा में समझ कर बड़े प्रसन्न हो रहे हैं।
श्रावक नं. ५-मैंने तो कल भी देखा था कि सांप, नेवला, हिरण, गाय सभी वहाँ बैठे शांत भाव से उपदेश सुन रहे थे ।
श्राविका-और वहाँ बड़ा भारी शेर भी तो था। मैं तो उसे देखकर आश्चर्य कर रही थी लेकिन देखा कि वहाँ तो सभी जन्मजात विरोधी पशु वैर-भाव छोड़कर एक दूसरे को प्यार से चाट रहे थे ।
श्रावक नं. ६-यह सब और कुछ नहीं, महावीर स्वामी की तपस्या का अतिशय चमत्कार है ।
श्राविका-देखो तो सही, वह मेंढक फुदकता हुआ हम लोगों से आगे भाग रहा है ।
श्रावक नं. ७-फिर भी उसके मुंह से कमल का फूल नहीं छूटा है । कितनी मजबूती से पकड़ रखा है इस छोटे से मेंढक ने ।
श्राविका-अब तो मुझे पूरा विश्वास है कि यह मेंढक समवसरण में ही जा रहा है ।
श्रावक नं. ८-धन्य है इसकी भक्ति, भगवान् इसकी इच्छा अवश्य पूर्ण करो । जय हो जय हो महावीर भगवान की जय हो, भगवान के समवसरण की जय हो ।
(इतने में ही पीछे से महाराजा श्रेणिक अपने हाथी पर सवार होकर उधर से निकलते हैं और भारी भीड़ के साथ वे समवसरण की ओर प्रस्थान कर रहे है अतः सैनिक आगे-आगे रास्ता साफ करते हुए आवाज करते हैं) (यहाँ मेंढक को हाथी के पैर के नीचे न दिखाकर केवल कहानी ही बताना है) –
सैनिकों का स्वर – रास्ता छोड़ दो, सब लोग किनारे हो जाओ, मगध सम्राट महाराजा श्रेणिक अपने परिवार के साथ समवसरण की ओर प्रस्थान कर रहे हैं।
पथिकों का स्वर – (भागते हुए) चलो चलो, किनारे चलो। राजा का हाथी आ रहा है, रास्ता छोड़ दो।
सामूहिक स्वर-जय हो, भगवान महावीर की जय हो । विपुलाचल पर्वत की जय हो, भगवान के समवसरण की जय हो ।
एक पथिक-इतनी भीड़ में उस मेंढक का क्या हुआ होगा? दूसरा पथिक-नहीं नहीं, कुछ नहीं हुआ होगा, ये छोटे-छोटे प्राणी भी जीवन रक्षा में बड़े चतुर होते हैं ।
एक स्त्री-अरे वह जरूर किनारे हो गया होगा?
दूसरी स्त्री-आज तो एक मेंढक को देखते-देखते सारा रास्ता ऐसा पार हो गया कि कुछ थकान का पता ही नहीं चला।
पथिक-देखो, पशु पर्याय का कष्ट! ये बेचारे सब कुछ महसूस करते हुए भी मनुष्य जैसी भाषा बोल नहीं पाते हैं, इसलिए हम लोग उनकी भावना समझ नहीं पाते हैं ।
सामूहिक स्वर-जय हो, भगवान महावीर स्वामी की जय हो ।
पंचम दृश्य
(मंच पर समवसरण का दृश्य उपस्थित है, नर-नारी जयजयकार करते हुए वहाँ पहुँचकर अपने-अपने स्थान पर बैठ जाते हैं । पुन:)
राजा श्रेणिक-हे त्रैलोक्यपति महावीर भगवान्! आपकी महिमा अपरम्पार है, हम लोग आपकी जितनी भी भक्ति करें वह कम है । (श्रेणिक के साथ सभी भक्तगण सामूहिक स्तुति कर रहे हैं)
वीरा तेरे चरणों में, हम वन्दन करते हैं।
तेरे ज्ञान की गरिमा का, अभिनन्दन करते हैं।।
मेरे मन के अन्धेरे में, कुछ ज्ञान प्रकाश भरो।
जीवन के सवेरे में, अब कुछ तो विकास करो।।
पावन पदकमलों में, शत वन्दन करते हैं ।
तेरे ज्ञान की गरिमा का, अभिनन्दन करते हैं।।
इसी बीच में एक सुन्दर देव समवसरण में आकर भक्ति में विभोर हो नृत्य करने लगता है – स्तुति चल रही है-देव के मुकुट में मेंढक का चिन्ह बना हुआ है –
चंचल चित का चिन्तन, चिरकाल से भी न रुका।
अज्ञान में उलझा मन, निज ज्ञान पे भी न टिका।।
श्रुतज्ञान के उपवन में, अभिसिंचन करते हैं।
तेरे ज्ञान की गरिमा का, अभिनन्दन करते हैं।।
सामूहिक स्वर-महावीर भगवान की जय हो, भगवान के समवसरण की जय हो । गौतम गणधर महाराज की जय हो, गणिनी माता चन्दना की जय हो ।
महावीर-ओऽऽऽम्, ओऽऽऽम्, ओऽऽऽम् (दिव्यध्वनि की गड़गड़ाहट) गौतम गणधर-भव्य प्राणियों! इस संसार में आप सभी के लिए दो प्रकार के कल्याण मार्ग हैं-१. निवृत्ति मार्ग (मुनिधर्म) २. भक्तिमार्ग (गृहस्थधर्म) अपनी शक्ति के अनुसार इन दोनोें में से किसी भी मार्ग को स्वीकार करके जीवन का कल्याण कीजिए।
राजा श्रेणिक-हे केवलज्ञानी प्रभो । आज मेरे मन में एक जिज्ञासा उठ रही है कि इस सभा में यह जो देव नृत्य कर रहा है, उसके मुकुट में मेंढक का चिन्ह क्यों बना है? कृपया उत्तर बतलाकर मेरी शंका का समाधान करें ।
महावीर-ओऽऽऽम्, ओऽऽऽम्, ओऽऽऽम् (दिव्यध्वनि की आवाज)
गौतम गणधर-हे श्रेणिक सुनो। इसकी विचित्र कहानी है। राजन् । अभी-अभी जब आप समवसरण में आ रहे थे, तब रास्ते में कमलफूल लेकर यहाँ महावीर की भक्ति के लिए आता हुआ एक मेंढक आपके हाथी के पैर के नीचे दबकर मर गया । उसी मेंढक का जीव भगवान की भक्ति के प्रभाव से तुरन्त स्वर्ग में जाकर देव बन गया । जन्म लेते ही अन्तर्मुहूर्त (४६ मिनट के अन्दर) में उसे अवधिज्ञान से पता चल गया कि मैं मेंढक की पर्याय से देवपर्याय में जन्मा हूँ । फिर तो, वह खुशी से फूला न समाया और तत्काल यहाँ आकर भक्ति में मगन हो रहा है । इसने कौतुकवश ही सभा को अपनी कहानी से परिचित कराने हेतु अपने मुकुट में मेंढक का चिन्ह बना लिया है ।
कुछ पुरुष-महिलाओं का सामूहिक स्वर –अहा हा हा! हम लोगों ने रास्ते में उस मेंढक को अपनी आँखों से यहाँ आते देखा था । हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, आपका ज्ञान धन्य है ।
राजा श्रेणिक-भगवन्! कैसी भाग्य विचित्रता है, एक तुच्छ प्राणी मेंढक देवता बन गया । प्रभो! आपकी भक्ति में अचिन्त्य शक्ति है ।
रानी चेलना-हे महावीर स्वामी! मेरी बहिन त्रिशला की कोख को धन्य करने वाले महापुरुष! त्रिशलानन्दन! मैं यह जानना चाहती हूँ कि वह मेंढक उससे पहले किस पर्याय में था? अर्थात् पिछले जन्म के किस पाप कर्म के कारण वह मेंढक बना था?
गौतम गणधर-चेलना । आपके मन में यह जिज्ञासा उठना स्वाभाविक हे । त्रिकालदर्शी भगवान महावीर ने बताया है कि एक बार एक सेठजी का मरते वक्त अपनी पत्नी में मन बसा होने के कारण आर्तध्यान के फलस्वरूप वे मरकर अपने घर की बावड़ी में मेंढक हो गये पुनः उस घर की सेठानी जब भी वहाँ पानी भरने जाती तो उसी के ऊपर मेंढक उछल-उछल कर आता । परेशान होकर एक दिन सेठानी ने एक मुनि से ‘ अपनी समस्या बताई तब उन्होंने अवधिज्ञान से उसे बताया कि तुम्हारे पति ही तुम्हारे मोह में मरकर वह मेंढक हुए हैं । सेठानी ने जाकर उस मेंढक को सम्बोधित किया तो उसे पूर्वजन्म का जातिस्मरण हो गया । पूर्व जन्म में की गई प्रभुभक्ति की उसकी भावना फिर जाग उठी, इसीलिए तमाम लोगों को महावीर के समवसरण में आते देखकर वह भी एक कमल का फूल लेकर दर्शन करने चला था और बेचारा यहाँ तक आ भी न सका, बीच में ही मरकर देव बन गया । देखो चेलना! एक मनुष्य आर्तध्यान से मरकर मेंढक बन गया और वही मेंढक धर्मध्यान के प्रभाव से देवता बन गया, यह सब परिणामों की विचित्रता है। इसलिए सभी को अपने जीवन में खूब धर्मध्यान करना चाहिए ।
चेलना-हे प्रभो! आपका सम्बोधन हम सबका बेड़ा अवश्य पार करेगा । आपके चरणों में हमारा कोटि-कोटि नमन है । गणिनी चन्दनामाता – जन-जन के उद्धारक हे महावीर! मुझे भी आप यह बतलाने की कृपा करें कि हम आर्यिकाओं की चर्या कैसी होती है?
महावीर-ओऽऽऽम्, ओऽऽऽम्, ओऽऽऽम् गौतम गणधर-हे महासती चन्दना । समस्त दिगम्बर मुनियों के समान आर्यिका माताओं की जीवनचर्या होती है । स्त्रीपर्याय के कारण आप लोगों को एक सफेद साड़ी धारण करना आवश्यक है तथा बैठकर करपात्र में आहार गृहण करना है । इन दोनों विशेष नियमों के साथ आर्यिकाएं पूरी तरह से मुनियों के समान ही पूज्य हैं । इसी प्रकार की आर्यिका परम्परा आपको इस धरती पर सदैव चलाने के लिए यहाँ गणिनीपद से विभूषित किया गया है, आपको एक आचार्य की भाँति सभी आर्यिकाओं, क्षुल्लिकाओं एवं ब्रह्मचारिणी बहनों का संरक्षण करते हुए धर्म की गंगा प्रवाहित करनी है ।
चन्दना माता-नमोस्तु भगवन्! नमोस्तु नमोस्तु । आपका उपकार अनंतकाल तक इस धरती पर बना रहेगा क्योंकि आपने जगत का उद्धार करने के लिए कुण्डलपुर में जन्म धारण किया है। हे सिद्धार्थ पुत्र! आपकी महिमा अपरम्पार है। (पुनः सभी मनुष्य मिलकर सामूहिक रूप में स्तुति करते हैं)
– गीत –
सारे जग में तेरी धूम, वीरा हो वीरा । सारे…… तूने मोक्षमार्ग बतलाया,
अंतिम तीर्थंकर कहलाया, सबने तुझको गुरू बनाया ।
सारे जग में तेरी धूम-वीरा हो वीरा । ।
(इसी गीत को गाते-गाते दृश्य का समापन करें और समवसरण की महिमा से सबको परिचित करावें।