जिन भावों के द्वारा अथवा जिन पर्यायों में जीवों का अन्वेषण (खोज) किया जाए उनको ही मार्गणा कहते है । ये अपने -२ कर्म के उदय से होती है । इनके १४ भेद हैं जिसके बारे में गोम्मटसार जीवकाण्ड में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने एक गाथा में बताया –
गयिइन्द्रियेषुकाये , जोगेवेदे कषायणाणेय ।
संजमदंसणलेस्सा , भविया सम्मत्त सण्णिआहारे ।।
अर्थात् गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्तव, संज्ञित्व और आहार ये चौदह मार्गणाएं है ।।
जिसमें इन्द्रिय मार्गणा का लक्षण है कि जो इन्द्र के समान हो अथवा आत्मा के लिङ्ग को इन्द्रिय कहते है वही इन्द्रिय मार्गणा है ।
इसके ५ भेद हैं – स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु व कर्ण ।