भव्यजन व्यवहार से मोक्षमार्ग का आश्रय लेकर निश्चय से मार्ग का आश्रय लेते हैं अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेकर ही निश्चय मोक्षमार्ग प्राप्त होता है यही क्रम सनातन है-अनादिनिधन है। (प्रत्येक वस्तु अनंतधर्मात्मक है। उनमें से एक-एक धर्म को कहने वाले नय होते हैं। वर्तमान में निश्चय और व्यवहार नयों का विषय एक चर्चा का विषय बना हुआ है। ये नय वस्तु के स्वरूप का ज्ञान कराने में साधन होते हैंं। इनका निर्दोष लक्षण क्या है ? इन दोनों में कौन सा नय सत्य है और कौन सा असत्य ? अथवा दोनों ही सत्य हैं क्या ? इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला जा रहा है।) पहले तो ‘व्यवहार’ शब्द के अनेक अर्थ हैं उन्हें समझ लेना आवश्यक है- भेद, पर्याय, औपाधिक, उपचार आदि अर्थों में व्यवहार शब्द का प्रयोग देखा जाता है। भेद-जैसे जीव के दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्यवहार से हैं। यहाँ भेद से हैं ऐसा अभिप्राय है। पर्याय-जीव अनित्य है। यह पर्याय की अपेक्षा से प्रवृत्त हुआ व्यवहार है। औपाधिक-जीव अशुद्ध है, संसारी है। यह कर्मोपाधि को ग्रहण करने वाला व्यवहार है। उपचार-देवदत्त का घर, घी का घड़ा इत्यादि, इन कथनों में प्रयुक्त हुये व्यवहार के अनेक भेद हैं। ऐसे ही और बहुत से अर्थों में व्यवहार शब्द का प्रयोग देखा जाता है सो आगम के आधार से यथास्थान दिखलाया जायेगा। अभेद, निरुपाधि, द्रव्य, शक्ति और शुद्ध भाव इत्यादि में निश्चय शब्द का प्रयोग देखा जाता है। अभेद-जीव के न दर्शन है, न ज्ञान है, न चारित्र है किन्तु जीव ज्ञायक भाव मात्र है। इसमें अभेद का प्रतिपादक निश्चयनय है। निरुपाधि-जीव सिद्ध सदृश शुद्ध है। यह कर्मोपाधिरहित निश्चय है। द्रव्य-जीव नित्य है। यह द्रव्यमात्र की विवक्षा से प्रवृत्त हुआ है। शक्ति-संसारी जीव को भगवान आत्मा या परमात्मा कहना यह शक्ति की अपेक्षा से है जैसे कि दूध को घी व स्वर्णपाषाण को सुवर्ण कहना। शुद्धभाव-जीव टंकोत्कीर्ण ज्ञान मात्र है। दर्शन-ज्ञान स्वरूप है इत्यादि। तत्त्व विचार के समय तथा ध्यान में निश्चयनय का विषय आश्रयणीय है अर्थात् चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान तक निश्चयनय से तत्त्व का विचार किया जाता है। आगे ध्यान से उसका विषय अवलंबनीय हो जाता है। व्यवहारनय भी तीर्थ प्रवृत्ति निमित्त प्रवृत्त होता है। इसके द्वारा भी वस्तु के औपाधिक भाव आदि का निर्णय करने रूप छठे तक चलता है तथा इसके द्वारा कथित विषय का आश्रय भी छठे तक व कथंचित् सातवें तक भी रहता है। आगे ये नय स्वयं छूट जाते हैं और नयातीत परिणति होकर निर्विकल्प ध्यान होता है। आगम की भाषा में इन नयों का वर्णन देखिये-
नय का लक्षण
प्रमाण के द्वारा सम्यक् प्रकार से ग्रहण की गई वस्तु के एक अंश अर्थात् धर्म को ग्रहण करने वाला ज्ञान नय कहलाता है अथवा श्रुतज्ञान के विकल्प को नय कहते हैं। ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। अथवा जो नाना स्वभावों से हटाकर किसी एक स्वभाव में वस्तु को ले जाता है वह नय है।आलापपद्धति सूत्र १८१, पृ.२८।
सम्पूर्ण नयों के निश्चयनय और व्यवहारनय ये दो मूल भेद हैं। निश्चय का हेतु द्रव्यार्थिक नय है और साधन अर्थात् व्यवहार का हेतु पर्यायार्थिकनय है। इसी की टिप्पणी में निश्चयनया: · द्रव्यस्थिता:। व्यवहारनया: · पर्यायस्थिता: ऐसा कहा है अर्थात् निश्चयनय द्रव्य में स्थित है और व्यवहारनय पर्याय में स्थित है। इसी बात को श्री अमृतचंद्रसूरि भी कहते हैं- व्यवहारनय: किल पर्यायाश्रितत्वात्…। निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्…। यहाँ पर व्यवहारनय पर्याय के आश्रित होने से पुद्गल के संयोगवश अनादिकाल से जिसकी बंधपर्याय प्रसिद्ध है ऐसे जीव के औपाधिक भाव का अवलंबन लेकर प्रवृत्त होता है। इसलिये वह दूसरे के भावों को दूसरे का कहता है किन्तु निश्चयनय द्रव्य के आश्रित होने से केवल एक जीव के स्वाभाविक भाव का अवलम्बन लेकर प्रवृत्त होता है अत: वह परभावों को पर के कहता है और उन सबका निषेध करता है।’’समयसार गाथा ५६, अमृतचंद्रसूरिकृत टीका। अन्यत्र भी यही सूचना है-यथा- द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च। तत्र न खल्वेकन-यायत्ता देशना किन्तु तदुभयायत्तापंचास्तिकाय गा.४, अमृतचंद्र टीका पृ.२३।। भगवान ने दो नय कहे हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इनमें से भगवान का उपदेश एक नय के आश्रित नहीं है किन्तु उभयनय के ही आश्रित है। धवला में भी कहते हैं- ‘तीर्थंकरों के वचनों के सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिकनय है और उन्हीं के वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिकनय है। शेष सभी ्नाय इन दोनों नयों के विकल्प अर्थात् भेद हैं।धवला पु.१, पृ.१२।’’ इसलिए निश्चय-व्यवहारनयों को अच्छी तरह समझने के लिये सर्वप्रथम द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनय को समझ लेना भी आवश्यक हो जाता है। आलाप पद्धति में श्री देवसेन आचार्य ने नयों और उपनयों का वर्णन बहुत ही सुन्दर ढंग से किया है। न अति संक्षेप और न अति विस्तार से, वह विवेचन अवश्य ही हृदयंगम करने योग्य है। उसमें द्रव्यार्थिकनय के १०, पर्यायार्थिकनय के ६, नैगमनय के ३, संग्रहनय के २, व्यवहारनय के २, ऋजुसूत्रनय के २, शब्दनय का १, समभिरुढ़नय का १ और एवंभूतनय का १, ऐसे सब २८ भेद हो जाते हैंशेष नयों को नयचक्र या आलाप पद्धति से देखना चाहिए।। यहाँ पर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों का लक्षण व उनके भेदों को देखिये-
द्रव्यार्थिकनय
द्रव्यमेवार्थ: प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक:।
द्रव्य ही है अर्थ-प्रयोजन-विषय जिसका वह द्रव्यार्थिकनय है। इसके १० भेद हैं-
१. कर्मोपाधि से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्य को विषय करने वाला ‘शुद्ध द्रव्यार्थिक नय’ है जैसे-संसारी जीव सिद्ध सदृश शुद्धात्मा है।
२.उत्पाद-व्यय को गौण करके सत्तामात्र को ग्रहण करने वाला ‘शुद्ध द्रव्यार्थिक नय’ है जैसे-द्रव्य नित्य है।
३. भेदकल्पना से निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय है जैसे-निजगुण, निजपर्याय और निजस्वभाव से द्रव्य अभिन्न है।
४.कर्मोपाधि की अपेक्षा से वस्तु को ग्रहण करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है जैसे-कर्मजनित क्रोधादिभावरूप आत्मा है।
५.उत्पाद-व्यय से सापेक्ष को ग्रहण करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय होता है। जैसे-एक ही समय में द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप है।
६.भेद कल्पना से सापेक्ष द्रव्य को विषय करने वाला अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय है। जैसे-आत्मा के ज्ञान-दर्शन आदि गुण हैंं।
७.अन्वय सापेक्ष द्रव्य को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है। जैसे-गुणपर्याय स्वभाव द्रव्य है।
८. स्वद्रव्य आदि के ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है जैसे-स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव, इन स्वचतुष्टय की अपेक्षा से द्रव्य अस्तिरूप है।
९.परद्रव्यादि ग्राहक द्रव्यार्थिकनय है जैसे-परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से द्रव्य नास्तिरूप है।
१०. परमभाव को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिकनय है, जैसे-ज्ञानस्वरूप आत्मा है।
पर्यायार्थिक नय
पर्याय एवार्थ: प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिक:।
पर्याय ही है अर्थ-प्रयोजन-विषय जिसका, वह पर्यायार्थिकनय है। इसके ६ भेद हैं- १. अनादि-नित्य पर्याय को ग्रहण करने वाला पर्यायार्थिकनय है, जैसे-मेरु आदि रूप पुद्गल की पर्यायें नित्य हैं। २. सादि-नित्य पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थिकनय है, जैसे-सिद्ध पर्याय नित्य है। ३. ध्रौव्य को गौण करके उत्पाद-द्रव्य को ग्रहण करने के स्वभाव वाला अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-समय-समय में पर्यायें विनाशशील हैं। ४. सत्ता को सापेक्ष करने रूप स्वभाव वाला नित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-एक ही समय में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप पर्यायें होती हैं। ५. कर्मोपाधि निरपेक्ष स्वभाव वाला नित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-संसारी जीवों की पर्यायें सिद्ध पर्याय सदृश शुद्ध हैं। ६. कर्मोपाधि सापेक्ष स्वभाव वाला अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय है, जैसे-संसारी जीवों के जन्म और मरण होता है। आगे चलकर द्रव्यार्थिकनय के भेदों का व्युत्पत्ति अर्थ कहकर उसके मूल दो भेद किये हैं।
शुद्ध-अशुद्ध निश्चयनय
शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्यार्थिकस्य भेदौ।।२०३।
शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय ये दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं। निश्चयनय का लक्षण-जिसके द्वारा अभेद और अनुपचरितरूप से वस्तु का निश्चय किया जाता है वह निश्चयनय है। इस निश्चयनय का हेतु‘णिच्छयववहारणया’ इत्यादि गाथा में सूचित किया गया है। द्रव्यार्थिकनय है। व्यवहारनय का लक्षण-जिसके द्वारा भेद और उपचार से वस्तु का व्यवहार किया जाता है वह व्यवहारनय है। वह व्यवहारनय का हेतुउसी गाथा में सूचित किया गया है। पर्यायार्थिकनय है। इन नयों का प्रयोग श्री कुन्दकुन्ददेव की गाथाओं में तथा सर्वत्र ग्रंथों में यथासंभव घटित करना चाहिए। नियमसार में श्री कुन्दकुन्ददेव ने जीव के ज्ञान-दर्शन गुणों का वर्णन करते हुए उन्हें स्वभाव और विभाव ऐसे दो रूप से कहा है। उसी प्रकार से जीव की पर्यायोें के भी स्वभाव-विभाव ऐसे दो भेद किये हैं। अंत में जीवद्रव्य के उपसंहार की गाथा ऐसी है-
दव्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पुव्वभणिदपज्जाया।
पज्जणयेण जीवा संजुत्ता होंति दुविहे हिं।।१८।।
द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सभी जीव पूर्वकथित पर्यायों से (स्वभाव-विभाव गुण पर्यायों से) रहित हैं एवं पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा सभी जीव स्वभाव-विभाव इन दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित हैं। यहाँ पर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों का सामान्य कथन है, अत: शुद्ध द्रव्यार्थिक और अशुद्ध द्रव्यार्थिक दोनों आ जाते हैं। संसारी जीव अशुद्ध पर्यायों से एवं मुक्त जीव शुद्ध पर्यायों से रहित हैं ऐसा अर्थ स्पष्ट हो जाता है। चूँकि यह द्रव्यार्थिकनय मात्र द्रव्य को ही ग्रहण करता है पर्यायों को नहीं तथा पर्यायार्थिक नय से भी शुद्ध-अशुद्ध दोनों प्रकार की पर्यायों को समझना चाहिए। ये दोनों नय अपने-अपने विषय को स्वतंत्ररूप से ग्रहण करते हुए भी परस्पर सापेक्ष रहते हैं तभी सम्यक् हैं अन्यथा निरपेक्ष होते ही मिथ्या हो जाते हैं। उसी प्रकार से जहाँ कहीं भी गाथाओं में ‘निश्चयनय’ कहा गया है वहाँ पर यथायोग्य शुद्ध या अशुद्ध को घटित करना चाहिए। जैसे-
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारो।
कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदोनियमसार।।।१८।।
यह आत्मा पुद्गल कर्मों का कत्र्ता और भोक्ता है यह व्यवहारनय का कथन है तथा कर्मजनित भावों का कत्र्ता और भोक्ता है यह निश्चयनय का कथन है। अब यहाँ कर्मजनित औपाधिक भावों का कत्र्ता-भोक्ता मानने में अशुद्ध निश्चयनय को ग्रहण करना चाहिए। उसी प्रकार से-
ज्ञानी के चारित्र, दर्शन और ज्ञान ये व्यवहार से कहे जाते हैं किन्तु (निश्चय से) उस ज्ञानी के न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है वह तो मात्र ज्ञायक शुद्ध है। यहाँ पर जो व्यवहारनय है वह मात्र भेद के द्वारा वस्तु का निश्चय कराता है न कि उपचार के द्वारा क्योंकि ज्ञानी आत्मा के ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र व्यवहार से कहे गये हैं, इसका अर्थ-भेद से कहे गये हैं न कि उपचार अथवा कर्मोपाधि से। उसी प्रकार से आत्मा के न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है वह तो मात्र ज्ञायक शुद्ध है। यह कथन ‘भेदकल्पनानिरपेक्ष’ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से है। उसी प्रकार से-
णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव समयसार।।।६।।
जो ज्ञायक भाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है और न प्रमत्त ही है इस तरह उसे शुद्ध कहते हैं और जिसे ज्ञायक भाव के द्वारा लिया गया है वह वही है, अन्य कोई नहीं है। यहाँ पर ‘परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक’ नय के द्वारा आत्मा को कहा गया है। इसी तरह सभी के उदाहरण समझ लेना। द्रव्यार्थिक नय के दश भेदों में ‘कर्मोपाधिनिरपेक्ष’, ‘सत्तामात्रग्राहक’ और ‘भेदकल्पनानिरपेक्ष’ ये तीन नय शुद्ध द्रव्यार्थिक हैं। ‘कर्मोपाधिसापेक्ष’, ‘उत्पादव्ययसापेक्ष’ और ‘भेदकल्पनासापेक्ष’ ये तीन अशुद्ध द्रव्यार्थिक हैं। ‘अन्वयसापेक्ष’ ‘स्वद्रव्यादिग्राहक’ और ‘परद्रव्यादिग्राहक’ ये तीन सामान्य हैं एवं ‘परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक’ यह मात्र वस्तु के शुद्ध स्वभाव को ही कहता है। इसी प्रकार पर्यायार्थिक के ६ भेदों में भी शुद्ध-अशुद्ध व्यवस्था समझ लेना चाहिए।
नैगमनय
नैगमनय के भूत, भावी और वर्तमान काल की अपेक्षा तीन भेद हैं। १. जहाँ पर अतीतकाल में वर्तमान का आरोपण किया जाता है वह भूत नैगमनय है। जैसे-आज दीपावली के दिन वर्धमान स्वामी मोक्ष गये हैं। २. भविष्यत् पर्याय में भूतकाल के समान कथन करना भावी नैगमनय है। जैसे-अर्हंत सिद्ध ही हैं। ३. करने के लिए प्रारंभ की गई ऐसी ईषत् निष्पन्न-थोड़ी बनी हुई अथवा अनिष्पन्न-बिल्कुल नहीं बनी हुई वस्तु को निष्पन्नवत् कहना वर्तमान नैगमनय है। जैसे-भात पकाया जाता है।
संग्रहनय
संग्रहनय के दो भेद हैं-सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह। १. सभी को सामान्यरूप से ग्रहण कर लेना सामान्य संग्रह है। जैसे-सर्व द्रव्य परस्पर अविरोधी हैं-अर्थात् एक हैं। इसी नय के एकांत से ब्रह्माद्वैत आदि अद्वैतवाद हो गये हैंं। २. एक जातिविशेष से सबको ग्रहण करना विशेष संग्रह है। जैसे-सभी जीव परस्पर अविरोधी हैं-अर्थात् एक हैं।
व्यवहारनय
व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-सामान्य और विशेष। १. सामान्यसंग्रहनय के विषयभूत पदार्थ में भेद करने वाला सामान्य संग्रह भेदक व्यवहारनय है। जैसे-द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव। २. विशेष संग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये विषय में भेद करने वाला विशेष संग्रह भेदक व्यवहारनय है। जैसे-जीव के संसारी और मुक्त दो भेद हैंं।
ऋजुसूत्रनय
ऋजुसूत्रनय के भी दो भेद हैं-सूक्ष्मऋजुसूत्र और स्थूलऋजुसूत्र। १. एक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करने वाला सूक्ष्मऋजुसूत्रनय है। जैसे-शब्द क्षणिक हैं। २. अनेक समयवर्ती पर्यायों को ग्रहण करने वाला स्थूलऋजुसूत्रनय है। जैसे-मनुष्यादि पर्यायें अपनी-अपनी आयु प्रमाण काल तक रहती हैं।
शब्दनय-लिंग, संख्या आदि के व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ को ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे-दारा, भार्या, कलत्र अथवा जल व अप एकार्थवाची हैं। यह नय एक ही है।
समभिरूढ़नय- नाना अर्थों को छोड़कर जो प्रधानता से एक अर्थ में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़नय है। जैसे-‘गो’ शब्द के वाणी शब्द आदि अनेक अर्थ होते हुए भी वह ‘पशु’ अर्थ में रूढ़-प्रसिद्ध है।
एवंभूतनय- जिस नय में वर्तमान क्रिया ही प्रधान होती है वह एवंभूतनय है जैसे-इंदन क्रिया में तत्पर देवराज को ‘इंद्र’ कहना। इस प्रकार द्रव्यार्थिक से लेकर एवंभूत तक नयों के २८ भेद होते हैं। अब उपनयों को देखिये।
उपनय- जो नयों से समीप रहें वे उपनय हैं। इसके तीन भेद हैं-सद्भूतव्यवहार, असद्भूतव्यवहार और उपचरित असद्भूत व्यवहार।
सद्भूतव्यवहार उपनय- जो नय संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन आदि के भेद से गुण और गुणी के भेद करता है वह सद्भूत व्यवहार उपनय है। इसके दो भेद हैं-शुद्ध सद्भूतव्यवहार और अशुद्ध सद्भूत व्यवहार। १. जो नय शुद्धगुण और शुद्धगुणी में तथा शुद्धपर्याय और शुद्ध पर्यायी में भेद करता है वह शुद्धसद्भूत व्यवहार उपनय है। जैसे-जीव का केवलज्ञान गुण है, जीव गुणी है तथा जीव की सिद्ध पर्याय है। २. जो नय अशुद्धगुण अशुद्धगुणी में और अशुद्धपर्याय-अशुद्धपर्यायी में भेद करता है वह अशुद्ध सद्भूतव्यवहार उपनय है। असद्भूतव्यवहार उपनय अन्य में प्रसिद्ध धर्म (स्वभाव) का अन्य में समारोपण करना असद्भूत-व्यवहारोपनय है। इनके तीन भेद हैं-स्वजात्यसद्भूतव्यवहार, विजात्यसद्भूत-व्यवहार और जातिविजात्यसद्भूतव्यवहार। १. जो नय स्वजातीय द्रव्यादिक में स्वजातीय द्रव्यादि के संबंध से होने वाले धर्म का आरोपण करता है वह स्वजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-‘परमाणु बहुप्रदेशी है’ ऐसा कहना। २. जो नय विजातीय द्रव्यादि में विजातीय द्रव्यादि का आरोपण करता है वह विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-मतिज्ञान मूर्त है, क्योंकि वह मूर्तद्रव्य से उत्पन्न हुआ है। ३. जो नय स्वजातीय द्रव्यादि में विजातीय द्रव्यादि के संबंध का आरोपण करता है वह स्वजाति विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-ज्ञेयभूत जीव और अजीव में ज्ञान है, क्योंकि वे ज्ञान के विषय हैं।
उपचरितअसद्भूतव्यवहार उपनय
असद्भूतव्यवहार ही उपचार है, जो नय उपचार से भी उपचार करता है वह उपचरितासद्भूतव्यवहार उपनय है। इसके भी तीन भेद हैं-स्वजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार, विजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार और स्वजातिविजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार। १. जो उपचार से स्वजातीय द्रव्य का स्वजातीय द्रव्य को स्वामी बतलाता है वह स्वजात्युपचरितासद्भूत व्यवहार उपनय है। जैसे-पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं। २. जो विजातीय द्रव्य का विजातीय द्रव्य को स्वामी कह देता है वह विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-वस्त्र, आभूषण, स्वर्ण, रत्न आदि मेरे हैं। ३. जिसमें मिश्रद्रव्य का स्वामी कह दिया जाता है वह स्वजाति-विजात्युपचरित-असद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-देश, राज्य, दुर्ग आदि मेरे हैं। ये सभी नय और उपनय सैद्धांतिक भाषा में कहे गये हैं। आगे इसी आलाप पद्धति में अध्यात्म भाषा से नयों का कथन किया गया है। तावन्मूलौ द्वौ नयौ निश्चयो व्यवहारश्च।।२१५।। अध्यात्म भाषा में भी नयों के मूल में दो भेद हैं-निश्चयनय और व्यवहारनय।
निश्चयनय
तत्र निश्चयनयोऽभेदविषयो, व्यवहारो भेदविषय:।।२१६।।
उसमें निश्चयनय अभेद को विषय करता है और व्यवहारनय भेद को विषय करता है।
उनमें से निश्चयनय दो प्रकार का है-शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय। तात्पर्य यही है कि शुद्ध निश्चयनय का विषय शुद्ध द्रव्य है और अशुद्ध निश्चयनय का विषय अशुद्ध द्रव्य है। उसी को देवसेनाचार्य स्वयं कहते हैं— ‘जो नय कर्मोपाधि से रहित गुण (ज्ञान) और गुणी (जीव) को अभेदरूप से ग्रहण करता है वह शुद्ध निश्चयनय है। जैसे-केवलज्ञान आदि स्वरूप जीव है।’ इस शुद्ध नय से जीव के बंध-मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं है। ‘कर्मोपाधि सहित द्रव्य को विषय करने वाला अशुद्ध निश्चयनय है। जैसे-मतिज्ञान आदि स्वरूप जीव है। इसी नय से जीव को रागादि भाव कर्मों का कत्र्ता-भोक्ता भी कहा जाता है।
व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-सद्भूतव्यवहारनय और असद्भूतव्यवहारनय। ‘एक वस्तु को विषय करने वाला सद्भूतव्यवहारनय है।’ ‘भिन्न वस्तु को विषय करने वाला असद्भूतव्यवहारनय है।’ ‘उपचरित और अनुपचरित के भेद से सद्भूत व्यवहार दो प्रकार का है।’ ‘उनमें से कर्मोपाधि से सहित गुण और गुणी के भेद को विषय करने वाला उपचरित सद्भूतव्यवहार नय है। जैसे-जीव के मतिज्ञान आदि गुण।’ ‘कर्मोपाधि रहित गुण और गुणी के भेद को विषय करने वाला अनुपचरित-असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे-जीव के केवलज्ञान आदि गुण।’ ‘असद्भूत व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-उपचरित और अनुपचरित।’ ‘उनमें से संश्लेष संबंध रहित, ऐसी भिन्न वस्तुओं का परस्पर में संबंध ग्रहण करना उपचरित असद्भूत व्यवहारनय है। जैसे-देवदत्त का धन।’ ‘संश्लेष सहित वस्तु के सम्बन्ध को विषय करने वाला अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय है। जैसे-जीव का शरीर।’ इस प्रकार से अति संक्षेप में यहाँ पर्यायार्थिक, द्रव्यार्थिक, नैगम आदि नय, उपनय तथा निश्चयनय और व्यवहारनय का स्वरूप कहा है। विशेष जिज्ञासुओं को तथा वक्ताओं को नयचक्र, आलाप पद्धति आदि ग्रंथों का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। ये सभी नय परस्पर सापेक्ष होने से सुनय कहलाते हैं अन्यथा दुर्नय हो जाते हैं। सो ही देखिये-
सुनय और दुर्नय- अष्टसहस्री नामक दर्शनशास्त्र में भी श्री विद्यानंदि महोदय ने ‘तथा चोत्तंक कहकर सुनय और दुर्नय का लक्षण बताया है- तथा चोत्तंक-
अनेकरूप पदार्थ का ज्ञान प्रमाण है, उस पदार्थ के एक अंश का ज्ञान नय है। वह नय अपने से विरोधी अन्य धर्म की अपेक्षा रखता है तथा दुर्नय अन्य धर्म का निराकरण करने वाला है। वहीं पर श्री अकलंकदेव ‘अष्टशती भाष्य’ में कहते हैं-
अनेकांत का ज्ञान प्रमाण है, उसके एक धर्म को जानना नय है और उस नय के विरोधी धर्म का निराकरण करना दुर्नय है। श्री समंतभद्रस्वामी की कारिका में देखिये-
मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न न मिथ्यैकांततास्ति न:।
निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्देवागमस्तोत्र।।।१०८।।
मिथ्यानयों का समूह मिथ्या ही है, चूूँकि हम स्याद्वादियों के यहाँ मिथ्याएकांत नहीं है। निरपेक्षनय मिथ्या हैं और सापेक्षनय वास्तविक हैं, अर्थक्रियाकारी हैं।
परस्पर में निरपेक्ष ही नय मिथ्यारूप हैं, चूँकि उनका विषयसमूह मिथ्यात्व रूप से स्वीकार किया गया है किन्तु सापेक्षनय सुनय है चूँकि उनका विषय अर्थ क्रियाकारी है, उन विषयों का समूह वास्तविक है। सुनय को सम्यक् एकांत और दुर्नय को मिथ्या एकांत कहते हैं। यथा-‘‘एकांतो द्विविध:-सम्यगेकांतो मिथ्यैकांत: इति।
एकांत के दो भेद हैं-सम्यक् एकांत और मिथ्या एकांत। प्रमाण के द्वारा प्ररूपित वस्तु के एक देश को सयुक्तिक ग्रहण करने वाला सम्यक् एकांत है। एक धर्म (वस्तु के एक अंश) का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकांत है। इसी बात को श्री समंतभद्र स्वामी भी कहते हैं-
अनेकांतोऽप्यनेकांत: प्रमाणनयसाधन:।
अनेकांत: प्रमाणात्ते तदेकांतोऽर्पितान्नयात्।।
स्वयंभूस्तोत्र, अरजिनस्तुति।
अनेकांत भी अनेकांतरूप है, वह प्रमाण और नय से सिद्ध होता है। अनेकांत की सिद्धि प्रमाण से होती है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकांत की सिद्धि होती है। यही सम्यक् एकांत है। श्री जिनेन्द्रदेव के मत में परस्पर विरोधी विषय को लिये हुए भी सभी नय परस्पर में अविरोधी हैं। यथा-
हे प्रभो! द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक अथवा नैगम आदि नय, नेवला, सर्प आदि प्राणी और बसंत, ग्रीष्म आदि ऋतुयें ये सब तथा इनके सिवाय और भी जो पृथ्वी पर परस्पर विरोधी पदार्थ हैं जो कि परस्पर में कभी नहीं मिलते हैं, वे सब आपके प्रभाव से एक साथ संगत हो गये हैं-आपस के विरोध को भूलकर मिल गये हैं तथा कितने ही अन्य कार्य देवों की ऋद्धि से निष्पन्न किये गये हैं। क्या कोई नय असत्य है ? जो किसी नय को सत्य एवं किसी नय को असत्य कहते हैं सो यह कथन गलत है। देखिये जयधवला नामक सिद्धांत ग्रंथ में-
‘‘णिययवयणिज्जसच्चा सव्वणया परवियालणे मोहा।
ते उण ण दिट्ठसमओ विभयइ सच्चे व अलिए वाजय
धवला पु. १, पृ.२५७।।।११७।।’’
ये सभी नय अपने-अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकांत रूप समय के ज्ञाता पुरुष ‘यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है’ इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं। क्या व्यवहारनय असत्य कहा जा सकता है ? जयधवला, धवला आदि महाग्रंथों के प्रमाण देखिये। जयधवला में कहा है-
ण च ववहारणओ चप्पलओ; तत्तो (ववहाराणुसारि) सिस्साण पउत्तिदंसणादो।
जो बहुजीवाणुग्गहकारी ववहारणओ सो चेव समस्सिदव्वो त्ति
मणेणावहारिय गोेदमथेरेण मंगलं तत्थकयं।’’
जयधवला पु. १, पृ.८।
श्री गौतमस्वामी ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर कृति आदि चौबीस अनुयोग द्वारों के आदि में ‘णमो जिणाणं’ इत्यादि रूप से मंगल किया है। व्यवहारनय असत्य भी नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार का अनुसरण करने वाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है अत: जो व्यवहारनय बहुत जीवों का अनुग्रह करने वाला है उसी का आश्रय करना चाहिये ऐसा मन में निश्चय करके गौतमस्थविर ने चौबीस अनुयोग द्वारों की आदि में मंगल किया है। धवलाकार का अभिमत देखिये-
एवं दव्वट्ठियजणाणुग्गहट्ठं णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्मपयडि-
इस प्रकार द्रव्यार्थिक जनों के अनुग्रहार्थ गौतम भट्टारक महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के आदि में नमस्कार करके पर्यायार्थिकनय शिष्यों के अनुग्रहार्थ उत्तर सूत्रों को कहते हैं- अवधि जिनों को नमस्कार होधवला पु. ९, पृ.१२।।।२।। भावार्थ-श्री गौतम स्वामी ने महाकर्मप्रकृति प्राभृत की आदि में ‘‘णमो जिणाणं’’।।१।। जिनों को नमस्कार हो। यह पहला मंगलसूत्र द्रव्यार्थिकनय वाले शिष्यों के अनुग्रहार्थ रचा है आगे पुन: ‘णमो ओहिजिणाणं’ से लेकर ‘णमोवड्ढमाणरिसिस्स’।।४४।। यहाँ तक जो नमस्कार सूत्र बनाये हैं वे पर्यायार्थिकनय वाले शिष्यों के अनुग्रहार्थ बनाये हैं, ऐसा अभिप्राय है। नय मोक्ष का कारण है कषायपाहुड़ में प्रश्न किया है कि- ‘‘नय का कथन किसलिये किया जाता है ?
स एष नयो द्विविध:-‘द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्चेति।’
जयधवला पु.१, पृ.२२१।‘‘
यह नय पदार्थों का जैसा स्वरूप है उस रूप से उनके ग्रहण करने में निमित्त होने से मोक्ष का कारण है।।८५।। इसलिये नय का कथन किया जाता है। इस मूलवाक्य का शब्दार्थ यह है कि यह नय श्रेयस् अर्थात् मोक्ष का अपदेश अर्थात् कारण है क्योंकि वह पदार्थों के यथार्थरूप से ग्रहण करने में निमित्त है।’’ इस नय के दो भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। जब नय को मोक्ष का निमित्त माना है और उसी के द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक दो भेद किये हैं तब पर्यायार्थिक या व्यवहारनय असत्य अथवा संसार का निमित्त वैâसे हो सकता है ? अर्थात् कथमपि नहीं हो सकता है। अध्यात्म भाषा में जो निश्चय और व्यवहारनय हैं आज ये ही विवाद के विषय बने हुये हैं। व्यवहारनय झूठा नहीं है सच्चा है यह तो आपने समझ लिया है। अब इसका आशय कहाँ तक है ? तथा निश्चयनय का आश्रय लेने वाले कौन महापुरुष हैं ? इस पर विचार किया जाता है। वास्तव में आगम के आधार से व्यवहारनय का अवलंबन छठे और कथंचित् सातवें गुणस्थान तक होता है उसके ऊपर निश्चयनय का अवलंबन महामुनियों को ध्यानावस्था में होता है। श्रावक जो कि पंचम गुणस्थानवर्ती हैं अथवा जो असंयत सम्यग्दृष्टि हैं उनके लिए तो निश्चयनय का विषय ध्येय है, श्रद्धान करने योग्य है किन्तु व्यवहारनय के आश्रित एकदेश चारित्र ही अवलंबन करने योग्य है। श्री कुन्दकुन्ददेव आदि महर्षिगणों के शब्दों में ही इस विषय में स्पष्टीकरण पाया जाता है। सो ही देखिये। कौन सा नय कब और किसके द्वारा आश्रयणीय है ? समयसार की व्याख्या में श्री अमृतचंद्र सूरि कहते हैं-
‘‘प्रत्यगात्मदर्शिभिव्र्यवहारनयो नानुसर्तव्य:।
अथ च केषांचित्कदा- चित्सोऽपि प्रयोजनवान्।
यत:- सुद्धो सुद्धादेसौ णायव्वो परमभावदरिसीहिं।
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे ट्ठिदा भावे।।१२।।
समयसार।
परमभावदर्शियों को शुद्ध नय का कथन करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है किन्तु जो अपरमभाव में स्थित हैं उनको व्यवहारनय के द्वारा उपदेश करना योग्य है। इसी की टीका में श्री अमृतचंद्र सूरि कहते हैं-ये खलु पर्यंतपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवंति, तेषां प्रथमद्वितीयाद्यनेकपरंपरापच्यमान……शुद्धनय……प्रयोजनवान्। ये तु प्रथम……अपरमं भावमनुभवन्ति तेषां……व्यवहारनयो विचित्रमालिका-स्थानीयत्वात्परिज्ञानमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात्।। उत्तंक च- जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहारणिच्छए मुयह। एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।।जो पुरुष अंतिम पाक से उतरे हुए शुद्ध सुवर्ण के समान शुद्ध परमभाव का अनुभव करते हैं, वे प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध सुवर्ण के समान अपरमभाव के अनुभव से शून्य हैं। अत: उनके लिए शुद्ध द्रव्य को ही कहने वाला होने से जिसने अस्खलित एक स्वभावरूप एक भाव प्रकट किया है ऐसा शुद्धनय ही उपरितन एक शुद्ध सुवर्ण के समान जाना हुआ प्रयोजनवान् है और जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पकते हुये उस अशुद्ध सुवर्ण के समान ‘अपरमभाव’ का अनुभव करते हैं वे अंतिम पाक से उत्तीर्ण शुद्ध सुवर्ण के सदृश ‘परमभाव’ के अनुभवन से शून्य हैं। अत: उनके लिए अशुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला होने से भिन्न-भिन्न एक भाव स्वरूप अनेक भाव दिखलाता हुआ यह व्यवहारनय विचित्र-अनेक वर्णमाला के समान जाना हुआ उस काल में प्रयोजनवान है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इस प्रकार से ही व्यवस्थित है। कहा भी है-‘‘यदि तुम जिनमत में प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार के बिना तो तीर्थ का (मोक्षमार्ग का) नाश हो जायेगा और दूसरे निश्चय के बिना तत्त्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा समयसार गाथा १२ की टीका अमृतचंद्र सूरि कृत।।’’ अब यहाँ समझना यह है कि ‘परमभाव’ तथा ‘अपरमभाव’ क्या है ? अंतिम पाक को प्राप्त कर चुके शुद्ध सुवर्ण के सदृश ‘परमभाव’ को लिया है और एक पाक, दो पाक आदि से शुद्ध होते हुए पंद्रह पाक तक उतरे हुए सुवर्ण के सदृश ‘अपरमभाव’ को कहा है। यह श्री अमृतचंद्रसूरि का मत है। इस दृष्टि से तो शुद्ध ‘परमभाव’ बारहवें गुणस्थान में ही घटित होगा उसके नीचे अशुद्ध सुवर्ण के समान आत्मा ‘अपरमभाव’ में ही स्थित है अथवा निर्विकल्पध्यान में आठवें, नवमें, दशवें गुणस्थानों में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होने से वीतरागता मानी गई है, उस दृष्टि से वहाँ पर भी ‘परमभाव’ कहा जा सकता है उसके पहले सविकल्प अवस्था वाले छठे गुणस्थानवर्ती मुनि तो ‘अपरमभाव’ में ही हैंं। चूँकि- ‘व्यवहारनयो…..तदात्वे प्रयोजनवान, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात्।’ यह वाक्य ध्यान देने योग्य है। व्यवहार नय……उस काल में प्रयोजनवान है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इसी प्रकार से व्यवस्थित हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय से ही तीर्थ और तीर्थ का फल होता है। तब यह भी स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय का अवलंबन बुद्धिपूर्वक क्रिया होने तक चलता ही है। ‘‘निग्र्रंथ प्रवचन को अथवा निग्र्रंथचर्या को निर्वाणमार्ग श्री गौतमस्वामी ने भी कहा है‘‘इमं णिग्गंथं पवयणं णिव्वाणमग्गं……।’’ मुनिप्रतिक्रमण।।’’ छठे गुणस्थान की सरागचर्या भी निग्र्रंथचर्या है चूँकि उसके बिना भी आगे के गुणस्थान नहीं होते हैं अत: चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छठे, सातवें तक व्यवहारनय प्रयोजनवान है वहाँ तक ‘अपरमभाव’ है ही है। व्यवहार अथवा निश्चय इन दोनों में किसी एक नय का एकांत तो मिथ्यात्व ही है अत: मिथ्यात्व में व्यवहारनय का अवलंबन नहीं है प्रत्युत् व्यवहाराभास का अवलंबन है। इस ‘परमभाव’ और ‘अपरमभाव’ को श्री जयसेनस्वामी ने भी इसी तरह से कहा है। यथा- ‘‘यहाँ पर केवल भूतार्थ-निश्चयनय निर्विकल्पसमाधि में रत हुये मुनियों को प्रयोजनवान हो, मात्र इतनी ही बात नहीं है किन्तु सोलह ताव के शुद्ध सुवर्ण लाभ के अभाव में नीचे के ताव सहित सुवर्ण लाभ के समान निर्विकल्प समाधि से रहित किन्हीं प्राथमिक शिष्यों को कदाचित् सविकल्प अवस्था में मिथ्यात्व, विषय, कषाय को दूर करने के लिए व्यवहारनय भी प्रयोजनवान् है, ऐसा कहते हैं- ‘‘शुद्धात्मभावदर्शियों को शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय भावित करना चाहिए। क्यों ? क्योंकि यह सोलह ताव के सुवर्णलाभ के समान अभेद रत्नत्रय स्वरूप समाधि के काल में प्रयोजन सहित है, नि:प्रयोजन नहीं है। व्यवहार से, विकल्प से, भेद से अथवा पर्याय से कहने वाला नय व्यवहारनय है। वह पुन: नीचे के ताव वाले सुवर्णलाभ के समान प्रयोजनवान् होता है। किनके लिये ? जो पुन: ‘अपरम’ अर्थात् अशुद्ध में अर्थात् असंयत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से अथवा श्रावक की अपेक्षा से सराग सम्यग्दृष्टि लक्षण वाले शुभोपयोग में अथवा प्रमत्त और अप्रमत्त मुनि की अपेक्षा से भेदरत्नत्रय लक्षण जीव पदार्थ में स्थित हैं। उनके लिए यह व्यवहारनय प्रयोजनवान् हैसमयसार पृ.२७।।’’ इससे यह समझना कि गाथा ११ में जो ‘भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवोसमयसार गा. ११।।’ कहा है सो वीतराग सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से ही कहा है। इस व्यवहारनय की सार्थकता कहाँ तक है सो और देखिये-
‘‘ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं।
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा’’।।४६।।‘‘
जो राग-द्वेष आदिरूप अध्यवसान आदि भाव हैं वह जीव है’’ ऐसा जिनेन्द्रदेव ने जो कहा है वह व्यवहारनय का कथन है समयसार गा. ४६।।’’ इसी की टीका में श्री अमृतचंंद्रसूरि कहते हैं-‘‘व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वाद-परमार्थोऽपि तीर्थ प्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव। तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् त्रसस्थावराणां भस्मन इव नि:शंकमुपमर्दनेन हिंसाऽभा-वाद्भवत्येव बंधस्याभाव:। तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभाव:।’’ये सब अध्यवसानादि भाव ‘जीव’ हैं ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञ देव ने कहा है, वह अभूतार्थ रूप जो व्यवहारनय है उसका मत है क्योंकि व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है। जैसे कि म्लेच्छभाषा म्लेच्छों को वस्तु का स्वरूप बतलाने वाली है। उसी तरह यह व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक होने से अपरमार्थभूत होने पर भी तीर्थ प्रवृत्ति का निमित्त है अत: इसका दिखलाना न्याय संगत ही है। चूँकि उस व्यवहार के बिना परमार्थ से तो जीव शरीर से भिन्न है पुन: जैसे भस्म को नि:शंक होकर उपमर्दित कर देते हैं वैसे ही त्रस-स्थावर जीवों का भी नि:शंक होकर घात कर देने से हिंसा नहीं होगी तो फिर बंध का भी अभाव हो जायेगा। ऐसी स्थिति में ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्म से बंधता है वही छुड़ाने योग्य है’ इस प्रकार राग-द्वेष-मोह से जीव परमार्थ से भिन्न ही रहेगा, तब मोक्ष के उपाय को ग्रहण करने का भी अभाव हो जाने से मोक्ष का ही अभाव हो जायेगा। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष का उपाय भी व्यवहारनय से ही ग्रहण किया जाता है। व्यवहारनय के बिना बंध व मोक्ष की व्यवस्था ही नहीं ब्ना सकती है।
शंका-इस विषय में हमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु निश्चयनय के अवलंबन से होने वाला रत्नत्रय चौथे से ही शुरू हो जाता है इस मान्यता में ही विवाद है, अत: उसी का समाधान चाहिए ?
समाधान-इसका समाधान तो गाथा १२वीं में किया जा चुका है कि जो ‘अपरमभाव’ में स्थित हैं उनके लिये व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है और आज सातवें गुणस्थान से ऊपर जा नहीं सकते अत: आज निश्चयनय का विषय श्रद्धान के लिये ही योग्य है अवलंबन के लिये नहीं। हाँ, सप्तमगुणस्थान में भी शुद्धोपयोग माना गया है अत: उसकी दृष्टि से कथंचित् मुनि ही उस निश्चयनय के अवलंबनस्वरूप निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त कर सकते हैं, साधारण जन नहीं प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा समझना। क्योंकि व्यवहार या भेद रत्नत्रय साधन हैं और निश्चय या अभेद रत्नत्रय साध्य है। इस बात को आचार्यों ने स्वयं कहा है। साधन के बिना साध्य असंभव है पुन: छठे तक साधन रहे और चौथे गुणस्थान में साध्य हो जावे यह वैâसे बनेगा ?
साध्य-साधन भाव
व्यवहारनय अथवा व्यवहार रत्नत्रय साधन है तथा निश्चयनय या निश्चय रत्नत्रय साध्य है। इसका प्रमाण-पंचास्तिकाय की गाथा १६०, १६१ में है। सो देखिये- व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है
धर्मादि द्रव्यों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, अंग-पूर्व संबंधी ज्ञान सो ज्ञान है और तप में प्रवृत्ति करना सो चारित्र है। इस प्रकार यह व्यवहार मोक्षमार्ग है। श्री अमृतचंद्रसूरि इस गाथा की टीका में कहते हैं-‘‘……आचारादिसूत्रप्रपंचितविचित्रयतिवृत्तिसमस्तसमुदयरूपे तपसि चेष्टा चर्या व्यवहारनयमाश्रित्यानुगम्यमानो मोक्षमार्ग: निश्चयमोक्षमार्गस्य साधनभावमापद्यते।’’..….इसमें तप के जो विशेषण दिये हैं वे पंच महाव्रत आदि से समन्वित मुनिचर्या रूप ही हैं। यथा-‘‘आचारादि सूत्रों द्वारा भेदरूप से कहे गये अनेक विध मुनि आचारों के समस्त समुदायरूप तप में प्रवर्तन करना सो चारित्र है। ……यह व्यवहारनय के आश्रय से किया जाने वाला मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग के साधन भाव को प्राप्त होता है अर्थात् इस व्यवहार मोक्षमार्ग से ही निश्चयनयाश्रित मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है अन्यथा नहीं। ‘‘इसलिये निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग में साध्य-साधन-भाव अतिशयरूप से घटित हो जाता है।’’ इन प्रमाणों को देखकर भी जो विद्वान् व्यवहार चारित्र को हेय कहते हैं अथवा व्यवहार चारित्र के बिना निश्चय चारित्र की कोरी बातें करते हैं। वे आकाश पुष्प की सुगंधि ही चाहते हैं ऐसा समझना चाहिए। आगे चलकर श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं कि यह रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग कथंचित् (दसवें गुणस्थान तक) बंध का हेतु है पुन: (बारहवें गुणस्थान में) साक्षात् मोक्ष का हेतु है। यथा-
दंसणणाणचरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि।
साधूहिं इदं भणिदं, तेहि दु बंधो व मोक्खो वा पंचास्तिकाय पृ. ३७८।।।१६४।।
दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है। इसलिये वे सेवन करने योग्य हैं, ऐसा साधुओं ने कहा है। इनसे बंध भी होता है और मोक्ष भी होता है। इसी गाथा की टीका करते हुए श्री अमृतचंद्र सूरि कहते हैं-‘‘अमूनि हि दर्शनज्ञानचारित्राणि कियन्मात्रयापि परसमयप्रवृत्त्या संबलितानि बंधकारणान्यपि यदा तु समस्तपरसमयप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपया स्वसमयप्रवृत्त्या संगच्छंते तदा साक्षान्मोक्षकारणान्येव भवंति।’’ये दर्शन-ज्ञान-चारित्र यदि अल्प भी परसमयप्रवृत्ति के साथ मिलित हों तो….बंध के कारण भी हैं और जब समस्त परसमय प्रवृत्ति से निवृत्तिरूप स्वसमयप्रवृत्ति के साथ संयुक्त होते हैं तब……साक्षात् मोक्ष के कारण ही हैं। श्री जयसेनाचार्य भी कहते हैं-‘‘शुद्धात्माश्रितानि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षकारणानि भवंति पराश्रितानि बंधकारणानि भवन्ति च।’’ये सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र जब शुद्धात्मा के आश्रित होते हैं तब मोक्ष के लिए कारण होते हैं और जब ये पर-पंचपरमेष्ठी आदि के आश्रित होते हैं तब पुण्यबंध (सातिशय तीर्थंकर प्रकृति आदि) के लिए कारण हो जाते हैं। इसी गाथा नं. १६० की टीका में श्री जयसेनाचार्य के शब्दों में देखिये-‘‘अथ यद्यपि पूर्वं……व्यवहारमोक्षमार्गो व्याख्यात: तथापि निश्चय-मोक्षमार्गस्य साधकोऽयमिति पुनरप्यभिधीयते। ……….इति विस्तर:। वीतरागसर्वज्ञप्रणीतजीवादिपदार्थविषये सम्यक् श्रद्धानं ज्ञानं चेत्युभयो: गृहस्थतपोधनयो: समानं। चारित्रं तपोधनानामाचारादिचरणगं्रथविहितमार्गेण प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानयोग्यं पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिषडावश्यकादिरूपं, गृहस्थानां पुनरुपासकाध्ययनग्रंथविहितमार्गेण पंचमगुणस्थानयोग्यं दानशील-पूजोपवासादिरूपं दार्शनिकव्रतिकाद्येकादशनिलयरूपं वा इति व्यवहार-मोक्षमार्गलक्षणं। अयं व्यवहारमोक्षमार्ग……सुवर्णपाषाणस्याग्निरिव निश्चय-मोक्षमार्गस्य बहिरंगसाधको भवतीतिपंचास्तिकाय पृ. ३७२।।’’विशेषार्थ-वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए जीव आदि पदार्थों के संबंध में सम्यक् श्रद्धान करना और जानना ये दोनों सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान गृहस्थ और मुनियों में समान होते हैं। परन्तु साधु, तपस्वियों का चारित्र आचारसार आदि ग्रंथों में कहे गये मार्ग के अनुसार प्रमत्त और अप्रमत्त-छठे-सातवें गुणस्थान के योग्य पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति व छह आवश्यक आदिरूप होता है। गृहस्थों का चारित्र उपासकाध्ययन शास्त्र में कही गई रीति के अनुसार पंचमगुणस्थान के योग्य दान, शील, पूजा और उपवास आदि रूप अथवा दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रतिमास्थानरूप होता है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण है। जैसे-अग्नि सुवर्ण पाषाण को सुवर्ण बनाने में निमित्त है वैसे ही यह व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग का साधक है। निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है अब अगली गाथा के लिए श्री अमृतचंद्र सूरि की उत्थानिका देखिये-
व्यवहार मोक्षमार्ग के द्वारा साध्यरूप होने से अब निश्चय मोक्षमार्ग का यह कथन किया जाता है-
‘‘णिच्छयणयेण भणिदो तिहि तेहिं समाहिदो हु जो अप्पा।
ण कुणदि किंचि वि अण्णं ण मुयदि सो मोक्खमग्गो त्ति।।१६१।।
जो आत्मा इन तीनों द्वारा समाहित होता हुआ अन्य कुछ भी न करता है औन न छोड़ता ही है, वह निश्चयनय से मोक्षमार्ग कहा गया है। इसी की टीका में श्री अमृतचंद्र सूरि पुन: कहते हैं-
इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि रत्नत्रय को धारण करने वाले मुनि भी परसमयरत होते हैं तथा जहाँ तक बंध है वहाँ तक कथंचित् परसमयप्रवृत्ति मानना चाहिए। उसके ऊपर उत्कृष्ट अंतरात्मा मुनि बारहवें गुणस्थान में ही पूर्णतया स्वसमयरत हैं वहीं पर बंध का अभाव होकर साक्षात् मोक्षमार्ग प्रकट होता है। श्री अमृतचंद्र सूरि ने समयसार की व्याख्या में तो ‘यथाख्यातचारित्र के पहले बंध होता है’ यह बात स्पष्ट रूप से कह दी है। यथा-
वह (ज्ञानगुण) तो यथाख्यात चारित्र के नीचे (ग्यारहवें गुणस्थान के नीचे) अवश्यंभावी राग परिणाम का सद्भाव होने से बंध का हेतु ही है। इससे यह भी स्पष्ट है कि सातवें से दशवें गुणस्थान तक अबुद्धिपूर्वक भी राग का अंश होने से कर्मबंध होता ही है और यह बात अध्यात्मसूरि श्री अमृतचंद्र सूरि जब स्वयं स्वीकार कर रहे हैं तब चतुर्थगुणस्थान आदि के सम्यग्दृष्टि को वीतरागी अथवा अबंधक कह देना स्वयं आत्मवंचना करना ही है। व्यवहार रत्नत्रय साधन है निश्चयरत्नत्रय के लिये व्यवहार रत्नत्रय साधन (कारण) है। इसके लिये और भी प्रमाण देखिये-
साधकत्वाद् व्यवहारेणोपादेयमितिसमयसार गा.१२०, टीका श्री जयसेनाचार्यकृत पृ.१७७।।’’
शुद्ध निश्चयनय से निजशुद्धात्मा ही उपादेय है तथा भेदरत्नत्रय भी उपादेय है क्योंकि वह अभेदरत्नत्रय का साधक है अत: वह व्यवहार से उपादेय है। ‘‘व्यवहारो मोक्षमार्गो निश्चयरत्नत्रयस्योपादेयभूतस्य कारणभूत त्वादुपादेय: परम्परया जीवस्य पवित्रताकारणत्वात् पवित्र:समयसार गा.१६१, पृ.२२७।।।’’ उपादेयभूत जो निश्चयरत्नत्रय उसका कारण होने से व्यवहार मोक्षमार्ग उपादेय है और परम्परा से जीव की पवित्रता का कारण होने से पवित्र है। निश्चय-व्यवहार में साध्य-साधन भाव है ‘‘यह नि:शंकित आदि आठ गुणों का व्याख्यान निश्चयनय की मुख्यता से किया गया है। निश्चयनय के लिए साधकभूत ऐसे व्यवहार रत्नत्रय में स्थित हुये सरागसम्यग्दृष्टि को अंजन चोर आदि की कथारूप से व्यवहारनय से भी यथासम्भव लगा लेना चाहिए।’’ पुन: प्रश्न हो जाता है कि–
निश्चय का व्याख्यान करके पुन: व्यवहारनय का व्याख्यान क्यों किया ? ऐसा नहीं है, क्योंकि अग्नि और सुवर्णपाषाण के समान निश्चय और व्यवहारनय में परस्पर में साध्य-साधन भाव दिखलाने के लिए किया है।’’समयसार गा. २३६, पृ.३१७। व्यवहारनय निषिद्ध है व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है, परन्तु किनके लिए ? देखिये-
‘‘एवं ववहारणओ पडिसिद्धो जाण णिच्छयणएण।
णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं।।२७२।।’’
इस प्रकार से निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है तुम ऐसा जानो, क्योंकि निश्चयनय का आश्रय लेने वाले मुनि निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैंसमयसार गाथा २७२।।’’ तात्पर्यवृत्ति टीकाकार कहते हैं- ‘इसके पश्चात् अभेद रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप निश्चयनय के द्वारा विकल्पात्मक व्यवहारनय बाधित हो जाता है’ इस कथन की मुख्यता से छह गाथा पर्यन्त व्याख्यान करते हैं- ‘‘एवं पूर्वोक्त प्रकार से पराश्रित होने से व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है ऐसा जानो। किसके द्वारा ? शुद्धात्म द्रव्य के आश्रित निश्चयनय के द्वारा। क्यों ? क्योंकि, निश्चयनय में स्थित हुए मुनिगण निर्वाण को प्राप्त करते हैं, इस कारण से। दूसरी बात यह है कि यद्यपि प्राथमिक शिष्यों की अपेक्षा से प्रारंभ में सविकल्प अवस्था में निश्चय का साधक होने से व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है फिर भी विशुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षण शुद्धात्मा में स्थित मुनियों के लिए निष्प्रयोजन है ऐसा भावार्थ है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक कथमपि निश्चयनय में स्थित नहीं हो सकते हैं। इसलिए शुद्धोपयोगी मुनियों द्वारा ही व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है न कि श्रावकों द्वारा या छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों द्वारा। आगे भी कहते हैं- ‘‘निर्विकल्पसमाधिरूपे निश्चये स्थित्वा व्यवहारस्त्याज्य:, किन्तु तस्यां त्रिगुप्तावस्थायां व्यवहार: स्वयमेव नास्तीति तात्पर्यार्थ:। एवं निश्चयनयेन व्यवहार: प्रतिषिद्ध: इतिसमय.गा.२७७ की टीका।।’’ निर्विकल्प समाधिरूप निश्चय में स्थित होकर व्यवहार त्याज्य है अर्थात् उस त्रिगुप्त अवस्था में व्यवहार स्वयं ही नहीं है ऐसा तात्पर्य हुआ। इस प्रकार से निश्चयनय के द्वारा यह प्रतिषिद्ध है ऐसा जानना। यह अवस्था वीतरागी मुनियों की ही होती है। भेदरत्नत्रय अभेदरत्नत्रय के लिए साधन है भेद रत्नत्रय से अभेदरत्नत्रय की एवं अभेद से केवलज्ञान की सिद्धि होती है। देखिए- ‘‘भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग नामक व्यवहारकारणसमयसार के द्वारा अभेद रत्नत्रयात्मक निश्चयमोक्षमार्ग नामक निश्चयकारणसमयसार साध्य है। इस निश्चयकारणसमयसार से केवलज्ञान की अभिव्यक्तिरूप कार्यसमयसार प्रकट होता है। समयसार गा. ३७३, टीका पृ. ४५९।’’ निश्चयनय आत्माश्रित है आगे चलकर भगवान कुन्दकुन्दव स्वयं कहते हैं-
ववहारिओ पुण णओ, दोण्णिवि लिंगाणि भणइ मोक्खपहे।
णिच्छयणओ ण इच्छइ, मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।४१४।।
व्यवहारनय तो मोक्षमार्ग में श्रावक और मुनि इन दोनों ही प्रकार के लिंगों को कहता है किन्तु निश्चयनय सभी लिंगों को मोक्षमार्ग में स्वीकार नहीं करता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, निश्चयनय आत्माश्रित है और व्यवहारनय शरीर आदि का आश्रय लेने से पराश्रित है। समयसार क्या है ? श्री वुंकुन्दकुन्दव ने तो यहाँ तक कह दिया है कि दोनों नयों के पक्ष से रहित ही समयसार होता है-
कम्मं बद्धमबद्धं, जीवे एवं तु जाण णयपक्खं।
पक्खातिक्कंतो पुण, भण्णदि जो सो समयसारो।।१४२।।
जीव में कर्म बंधे हुये हैं अथवा नहीं बंधे हुये हैं इस प्रकार तो नयपक्ष अर्थात् व्यवहार और निश्चयनयों का कथन जानो, किन्तु जो इन दोनोें के नयों से अतिक्रांत हो चुका है वही समयसार है ऐसा तुम जानो। मुनि ही समयसार रूप हैं श्री अमृतचंद्रसूरि मुनियों को ही समयसाररूप मानते हैं
जो िंहसा आदि पाँचों पापों को पूर्णरूप से त्याग करने में निरत हैं सो ये यति समयसारभूत हैं; और जो इन पाँचों पापों से एकदेशविरत हैं वे उपासक होते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक समयसाररूप शुद्धात्मा को नहीं प्राप्त कर सकते। व्यवहार बिना निश्चय होगा क्या ? जो साधन के बिना साध्य की सिद्धि करना चाहते हैं अथवा व्यवहारचारित्र की उपेक्षा करके निश्चय की अपेक्षा करते हैं उनके बारे में आचार्य कहते हैं-
निश्चय का आलंबन लेते हुए परन्तु निश्चय से निश्चय को न जानते हुए कोई मुनि बाह्य आचरण में आलसी होते हुये तेरह प्रकार के चारित्र और तेरह प्रकार की क्रियाओं का नाश कर देते हैं अत: उभय रूप से नष्ट हो जाते हैं। यही बात श्री अमृतचंद्रसूरि भी कहते हैं-
निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते। नाशयति करणचरणं स बहि: करणालसो बाल:।।५०।।
अर्थ वही है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावकों के व्यवहार रत्नत्रय ही होता है। निश्चय नहीं। और भी देखिये- मुनियों का आचरण कहकर अब आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव मोक्षपाहुड़ ग्रंथ में श्रावकों के लिए कहते हैं-
पूर्वोक्त प्रकार से जिनेन्द्रदेव ने श्रमणों के लिए उपदेश दिया है अब श्रावकों के लिए कहते हैं उसे सुनो! वह उपदेश संसार का विनाश करने वाला है और सिद्धपद को प्राप्त कराने में उत्कृष्ट कारण है। आगे श्रावकों के लिए सम्यक्त्व का लक्षण बताते हैं-
सम्यग्दृष्टि श्रावक जिनदेव कथित धर्म का पालन करता है और जो इससे विपरीत करता है वह मिथ्यादृष्टि हैअष्टपाहुड़-मोक्षपाहुड़।।’’ मोक्षपाहुड़ की इन गाथाओं में यह स्पष्ट झलकता है कि श्रावक व्यवहार धर्म का पालन करता है। इसी प्रकार से श्री कुन्दकुन्ददेव ने ही चारित्रपाहुड़ में श्रावकों के संयमाचरण को बताते हुए कहा है-
दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त त्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग इस तरह ग्यारह प्रकार के देशविरत होते हैं। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह प्रकार का चारित्र सागार-श्रावकों का संयमाचरण हैचारित्रपाहुड़।।’’ इस कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक को शक्ति के अनुसार इन ग्यारह प्रतिमाओं में से चारित्र को ग्रहण करना ही चाहिये। तभी वह श्रावक कहला सकता है, अन्यथा नहीं। यहाँ पर कहने का अभिप्राय यही है कि छठे गुणस्थान तक की चर्या व्यवहार मोक्षमार्ग है। इससे आगे निश्चय मोक्षमार्ग होता है अत: अविरत सम्यग्दृष्टि या श्रावक मात्र शुद्ध आत्मतत्त्व का श्रद्धान ही कर सकता है वह निश्चय सम्यक्त्व आदि को प्राप्त करने की क्षमता नहीं रखता है।
चारित्र की सार्थकता
मुनि और श्रावकों का महाव्रत-अणुव्रत रूप आचरण कितना महत्त्वशाली है- श्री गौतम स्वामी भगवान महावीर स्वामी के प्रथम गणधर हुये हैं। ये मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चार ज्ञान से सहित थे, सम्पूर्ण ऋद्धियों से समन्वित थे। उनके अनंतर के ग्रंथकत्र्ता कोई भी आचार्य उनकी समानता नहीं कर सकते हैं। अहो! उन्होंने साक्षात् भगवान की दिव्यध्वनि को लगभग ३० वर्ष तक आदि से अंत तक सुना है। ऐसे महान् गुरु श्री गौतमस्वामी कितने मधुर शब्दों में भव्य जीवों को सम्बोधन करते हुये पाँच महाव्रत आदि मुनियों के आचरण का एवं उनमें लगे हुए दोषों के निराकरण हेतु प्रतिक्रमण दण्डक का उच्चारण करते हैं। आगे चलकर श्रावकों के अणुव्रत आदि व्रतों का भी उच्चारण करते हैं। अमृत की निर्झरणी के समान उनके ये वचन पढ़ने वालों के हृदय में अतिशय आह्लाद उत्पन्न कर देते हैं। इस प्रकारण को पढ़कर ऐसा लगता है कि वास्तव में ये अणुव्रत और महाव्रत कितने विशेष हैं। ये अिंकचित्कर नहीं हैं। निश्चित रूप से इनके बिना मोक्ष प्राप्ति त्रिकाल में असम्भव है। इससे चारित्र की सार्थकता जानी जाती है। देखिये- श्री इंद्रभूति गौतम गणधर के मुखारिंवद से निकले हुये अमृतकण-‘‘सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण महाकस्सवेण सव्वण्हुणा सव्वलोग-दरिसिणा सदेवासुरमाणुसस्स लोयस्स…… सव्वजीवे सव्वं समं जाणंता पस्संता विहरमाणेण समणाणं पंचमहव्वदाणि राइभोयणवेरमणछट्ठाणि सभावणाणि समाउगपदाणि सउत्तरपदाणि सम्मं धम्मं उवदेसिदाणि। हे आयुष्मान् भव्यों! मैंने सुना है ड किनसे सुना है ? और क्या सुना है ? भगवान महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि से सुना है और पाँच महाव्रत आदि को सुना है।़ इस भरतक्षेत्र में देव, असुर और मनुष्यों सहित प्राणीगण की आगति, गति, च्यवनोपपाद, बंध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, द्युति, अनुभाग, तर्वâ, कला, मन, मानसिक, भूत, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, असहकर्म इनको तीन सौ तेतालीस रज्जुप्रमाण और लोक में सर्वजीवों को, सर्व भावों को और सर्व पर्यायों को एक साथ जानते हुए, देखते हुए तथा विहार करते हुए काश्यपगोत्रीय श्रमण, भगवान्, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, महतिमहावीर नामक अंतिम तीर्थंकरदेव ने पच्चीस भावनाओं सहित, मातृकापदों सहित और उत्तरपदों सहित, रात्रिभोजन विरमण है छठा अणुव्रत जिनमें ऐसे पाँच महाव्रतरूप समीचीन धर्मों का उपदेश दिया है, वह मैंने उनकी दिव्यध्वनि से सुना हैक्रियाकलाप में मुनियों का पाक्षिक प्रतिक्रमण।। ऐसे ही वे आगे श्रावक-श्राविका व क्षुल्लक-क्षुल्लिकाओं के लिए कहते हैं-‘‘पढमं ताव सुदं मे आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण महाकस्सवेण सव्वण्हणाणेण सव्वलोयदरसिणा सावयाणं सावियाणं खुड्ढयाणं खुड््िढयाणं कारणेण पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि वारसविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसियाणि। णिस्संकिय-णिक्वंâखिय-णिव्विदििंगच्छा अमूढदिट्ठी य। उवगूहण ट्ठिदिकरणं वच्छल्लपहावणा य ते अट्ठ। सव्वेदाणि पंचाणुव्वदाणि……बारसविहं गिहत्थधम्ममणुपालइत्ता- दंसण वय सामाइय पोसय सचित्त राइभत्ते य। बंभारंभपरिग्गह अणुमणमुद्दिट्ठ देसविरदो य।। महुमंसमज्जजूआ वेसादिविवज्जणासीलो। पंचाणुव्वयजुत्तो सत्तेहि सिक्खावएहि संपुण्णो।। जो एदाइं वदाइं धरेइ सावया सावियाओ वा खुड्डय खुड्डियाओ वा…।’’हे आयुष्मानों! मैंने (गौतम ने) महाकाश्यप गोत्रीय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्रमण भगवान महावीर से श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के कारण से पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म सुना है। ……नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यक्त्व के आठ अंग हैं। जो सर्व इन पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म का अनुपालन करते हैं। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त विरमण, रात्रिभुक्तिविरमण, ब्रह्मचर्य, आरम्भनिवृत्ति, परिग्रह निवृत्ति, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये देशविरत के ग्यारह स्थान हैं इनको धारण करते हैं वे श्रावक होते हैं। मधु, माँस, मद्य, जुआ, वेश्यादि सेवन इन व्यसनों के त्यागी, पाँच अणुव्रतों से और सात शीलों से परिपूर्ण होकर श्रावक होते हैं। जो श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका इन व्रतों को धारण करते हैं वे भवनवासी, वाणव्यंतर, ज्योतिषी और सौधर्म-ईशान स्वर्ग की देवियों का व्यतिक्रम कर उपरिम अन्यतर महद्र्धिक देवों में उत्पन्न होते हैं। वे क्या हैं ? सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन कल्पों में उत्पन्न होते हैं। वहाँ देदीप्यमान देह के धारक मर्हिद्धक देव होते हैं। वे उत्कृष्ट से दो तीन भवों को ग्रहण करते हैं। जघन्य से सात-आठ भव ग्रहण करते हैं। पश्चात् वे सुमनुष्यत्व से सुदेवत्व और सुदेवत्व से सुमनुष्यत्व को प्राप्त कर उसके पश्चात् निग्र्रंथ मुनि होकर सिद्ध होेते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं और सर्व दु:खों का अंत करते हैं मुनि का पाक्षिक प्रतिक्रमण।।’’ इस प्रकार से श्री गौतमस्वामी की साक्षात् वाणी में मुनि के महाव्रत आदि को तथा गृहस्थ में मधु, माँस, मद्य त्याग से लेकर अंतिम सल्लेखना तक को धर्म कहा है और मोक्ष के लिये कारण कहा है। पुन: जीवदया, दान, पूजा आदि को धर्म न मान्नाा घोर अपराध ही है। श्री गौतमस्वामी ने मुनियों के प्रतिक्रमण क्रिया के विषय में तो कितना जोर दिया है-
यह द्रव्य-भावरूप प्रतिक्रमण विधि संयम और तप में आरूढ़ निग्र्रंथ महर्षियों के लिये सर्व तीर्थंकरों ने कही है, न कि केवल वर्धमान स्वामी ने ही। ध्यान भी इस चारित्र के अंतर्गत ही है पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का वर्णन करते हुए अंत में श्री गौतमस्वामी ने मुनियों के लिए ध्यान के विषय में कहा है-
जो सारो सव्वसारेसु सो सारो एस गोयम। सारं झाणंति णामेण सव्वं बुद्धेहिं देसिदंक्रियाकलाप।।।८।।
जगदंतर्वर्ती सर्व वस्तुओं में सार व्रत हैं। हे गौतम! उन सभी में सार ध्यान है क्योंकि ‘सारंध्यानं’ इस नाम से सर्व सर्वज्ञों ने कहा है। श्रावक के लिये भक्तिमार्ग प्रधान है किन्तु स्वयं श्री गौतमस्वामी ने श्रावकों की तीसरी प्रतिमा सामायिक’ का लक्षण करते हुए भक्ति की प्रेरणा दी है-
जिनवचन, जिनधर्म, जिनचैत्य, अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु और जिनालय इन नवों की जो नित्य ही त्रिकाल वंदना करता है; उसके यह सामायिक नाम का व्रत होता है। यहाँ समझने की बात यह भी है कि श्री गौतमस्वामी ने श्रावक की तीसरी प्रतिमा में आत्मध्यान करने का आदेश न देकर पंचपरमेष्ठी, जिनधर्म, जिनवाणी, जिनचैत्य और चैत्यालय इनकी वंदना करने का विधान किया है। इससे यह बात सर्वथा स्पष्ट हो जाती है कि श्रावक को आत्मध्यान असंभव है वह पंचपरमेष्ठी आदि के अवलम्बनरूप भक्ति, वंदना को ही करता है। स्वामी समंतभद्राचार्य ने भी सामायिक व्रत में अशरण, अशुभ आदि रूप से संसार के चिंतवन का उपदेश दिया हैरत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक १०४। तथा सामायिक प्रतिमा में विधिवत कृतिकर्मपूर्वक चैत्यभक्ति आदि करने का संकेत दिया है। यथा
बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह की चिंता से रहित होकर, वह श्रावक खड़ा होकर चार बार तीन-तीन आवर्त और चार प्रणाम करता है। प्रारंभ और समाप्ति में बैठकर प्रणाम करता है, त्रियोग से शुद्ध होता हुआ तीनों संध्याओं में देववंदना करता है। इस देववंदना की विधि क्रियाकलाप में वर्णित है। आगम में व्यवहार चारित्र को हेय कहा है क्या ?
शंका-इस व्यवहार चारित्र का आश्रय अभव्य भी लेते हैं इसलिये हेय है ? कहा भी है-
पराश्रित व्यवहारनय का आश्रय तो एकांतत: कभी मुक्त न होने वाला अभव्य भी करता है। समाधान-पहली बात तो यह है कि यह व्यवहारनयाश्रित चारित्र निश्चयचारित्र के लिए कारण है जैसे कि बहुत बार बताया जा चुका है। फिर भी इसके होने पर नियम से निश्चयचारित्र हो ही जावे ऐसी व्याप्ति नहीं है किन्तु यदि निश्चयचारित्र होगा तो इस व्यवहार के बिना कभी नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि अभव्य भी इस व्यवहारचारित्र के बल से ही अंतिम ग्रैवेयक तक जा सकते हैं इसके बिना नहीं। तीसरी बात यह भी है कि अभव्य का वह व्यवहारचारित्र वास्तविक न होकर व्यवहाराभास या सांव्यवहारिक भी माना जा सकता है जैसा कि कहा है-
।जिस प्रकार सूची द्वारा छिद्र को प्राप्त कांतिहीन मणि डोरे की सहायता से कांतियुक्त मणियों में प्रवेश करके उनकी संगति से सच्ची मणि के समान मालूम पड़ती है उसी प्रकार श्रद्धान से हीन मनुष्य भी सम्यग्दृष्टियों के मध्य सांव्यवहारिक जीवों को सम्यग्दृष्टि सदृश मालूम पड़ता है। ऐसे ही चारित्र के विषय में भी समझ लेना चाहिए। चौथी बात यह है कि अभव्य को मुनि अवस्था में ग्यारह अंंग तक ज्ञान हो जाता है। यथा-
ज्ञान का श्रद्धान न करने वाला अभव्य आचारांग आदि को लेकर ग्यारह अंगरूप श्रुत को पढ़ता हुआ भी शास्त्र पढ़ने के फल के अभाव से ज्ञानी नहीं होता। इस कथन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ग्यारह अंग के ज्ञानी मुनि यदि अभव्य या मिथ्यादृष्टि हैं तो क्या वे समयसार आदि अध्यात्म ज्ञान से शून्य हैं ? नहीं, अत: ज्ञान होना अलग बात है और श्रद्धान होना अलग ही बात है। उन मुनि के किस रूप में मिथ्यात्व रहता है वह केवलीगम्य ही है। निष्कर्ष यह निकला कि व्यवहारचारित्र हेय नहीं है। हाँ! ध्यान में लीन होने पर स्वयमेव छूट जाता है, इस दृष्टि से कथंचित् हेय है, छठे गुणस्थान तक तो उपादेय ही है क्योंकि इसके बिना निश्चयचारित्र हो नहीं सकता।
शंका-वीतराग चारित्र ही उपादेय है क्योंकि वह साक्षात् मोक्ष का कारण है ?
समाधान-ऐसा भी एकांत नहीं पकड़ना। यदि कोई मुनि उपशम श्रेणी में आरोहण करता है तो उसके अध्यात्म दृष्टि से ८, ९, १० वें गुणस्थान में भी वीतराग चारित्र है और सिद्धांत की दृष्टि से ग्यारहवें में तो पूर्ण रूप से यथाख्यात नामक वीतराग चारित्र हो ही गया है फिर भी वह मुनि नियम से नीचे गिरता ही है। पुन: वह मुनि ऊपर चढ़कर उसी भव से मोक्ष जावे यह भी नियम नहीं है। यथा- ‘‘५३. अट्ठण्हं…… ५४. ……तसेसु आगदो संजमासंजम संजमं च बहुसो गदो। चत्तारिवारे कसाए उवसामित्ता तदो एइंदिएसु गदो। असंखेज्जाणि वस्साणि अच्छिदो……।’’
शंका-आठ मध्यम कषायों का जघन्य प्रदेश संक्रमण किसके होता है ?
समाधान-जो जीव एकेन्द्रियों के योग्य जघन्य सत्कर्म के साथ त्रसों में आया। वहाँ पर संयमासंयम और संयम को बहुत बार प्राप्त किया। चार बार कषायों का उपशमन करके तदनन्तर एकेन्द्रियों में गया। वहाँ पर जितने समय में उपशामक काल में बंधे हुये समयप्रबद्ध गलते हैं, उतने असंख्यात वर्षों तक एकेन्द्रियों में रहा। तदनन्तर त्रसों में आया और सर्व लघुकाल से संयम को प्राप्त हुआ। पुन: कषायों की क्षपणा के लिए उद्यत हुआ। ऐसे जीव के अध:प्रवृत्तकरण के चरम समय में आठों मध्यम कषायों का जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है। कषायपाहुड़सुत्त, पृ.४०८। इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सम्यक्त्व सहित संयमासंयम और संयम को बहुत बार प्राप्त कर सकते हैं तथा उपशम श्रेणी पर चार बार चढ़ कर वहाँ पर वीतरागी शुद्धोपयोगी हो सकते हैं। फिर कदाचित् एकेन्द्रियों में जाकर असंख्यात वर्षों तक पुन: भ्रमण कर सकते हैं। इसलिये यह वीतराग चारित्र या शुद्धोपयोग कथंचित् मोक्ष का कारण है कथंचित् नहीं भी रहा। हाँ, जो मुनि क्षपक श्रेणी में आरोहण करते हैं वे नियम से घातिया कर्मों का क्षय करते ही हैं। इसलिये उपशमश्रेणी वालों के लिए यह शुद्धोपयोग यद्यपि मोहनीय के उपशम करने रूप कार्य के लिये कारण है फिर भी घातिया कर्म के नाश के लिये कारण नहीं है किन्तु क्षपक श्रेणी का शुद्धोपयोग घातिया कर्म के नाश के लिये भी कारण है। इसी प्रकार से तीर्थंकर प्रकृति का बंध अधिक से अधिक नियम से तृतीय भव में मोक्ष प्राप्ति करायेगा ही करायेगा। अत: तीर्थंकररूप पुण्य प्रकृति भी मोक्ष का कारण ही है तथा क्षायिक सम्यक्त्व भी चतुर्थ भव का उल्लंघन नहीं कर सकता, इसलिये यह भी महत्त्वशाली है। तत्त्वार्थराजवार्तिक में श्री भट्टाकलंकदेव ने तो गुप्ति आदि को संवर के लिए ‘करण’ कहा है। यथा-
संवर करने वाले मुनि के संवरक्रिया की साधकतम विवक्षा में गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा और परीषहजय ये करण भावरूप हैं ऐसा जानना चाहिए। अर्थात् इन गुप्ति आदि के होने पर नियम से संवर होता ही होता है। यहाँ पर अभिप्राय यही समझना चाहिये कि व्यवहार नयाश्रित रत्नत्रय साधन है और निश्चय नयाश्रित रत्नत्रय साध्य है तथा व्यवहार के बिना वह होता नहीं अत: वर्तमान में व्यवहार रत्नत्रय उपादेय ही है और उसका आश्रय लेने वाले मुनिगण सर्वदा वंद्य हैं अत: चारित्र की सार्थकता स्पष्ट है।
(इस प्रकार व्यवहारनय-निश्चयनयों को कहने वाला यह चतुर्थ परिच्छेद पूर्ण हुआ।)