बोधपाहुड में उल्लेख आता है कि वैराग्य की उत्तम भूमिका को पाकर मुमुक्ष व्यक्ति अपने सब सगे सम्बन्धियों से क्षमा माँगने के बाद गुरु की शरण में जाकर सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर देता है और ज्ञाता-दृष्टा रहता हुआ साम्य जीवन बिताने की प्रतिज्ञा करता है, इस प्रतिज्ञा के संकल्प को ही जैन परम्परा में प्रव्रज्या या दीक्षा कहा गया है और ऐसी ही प्रव्रज्या का संकल्प लिया था २४ वर्ष पूर्व गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के सान्निध्य में आर्यिका चंदनामती के पूर्व रूप ने।
और लगभग तभी से वे ज्ञानाराधना में रत हैं एवं इसी ज्ञानाराधना की प्रक्रिया में उन्होंने भारत के आध्यात्मिक और बौद्धिक जगत् को अनेक ग्रंथ-रत्न दिये हैं, इनमें से एक है उनकी षट्खण्डागम की हिन्दी टीका। मैंने इस टीका की १० वीं पुस्तक के कुछ अंश को पढ़ा, तो मुझे लगा कि आर्यिका चंदनामती की षट्खण्डागम की यह हिन्दी टीका कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। मैं इनमें से कुछ बिन्दुओं पर चर्चा इस संक्षिप्त आलेख में करने का प्रयास करूँगा। टीकाकार के प्रमुख रूप में निम्न तीन काम होते हैं—
१. मूल सूत्र में जो सूत्र-बद्ध रूप में कहा गया है, उसका व्याख्यान करना,
२. सूत्रों के व्याख्यान करने की जो प्रचलित परम्पराएँ हैं, उन परम्पराओं को दिग्र्दिशत करते हुए सूत्र को सूत्र-मूल की परम्परा के साथ जोड़ना और सह-बद्ध परम्पराओं के साथ सूत्र के रिश्ते को उजागर करना।
३. इस दूसरे काम को करने के लिए टीकाकार को अक्सर अपनी परीक्षा भी देनी पड़ती है, इसीलिए उस पर कई बार यह आक्षेप भी लगता है कि उसने यह सब काम कई स्थलों पर सूत्र के साथ रहते हुए और कई स्थलों पर सूत्र के विरोध में रहते हुए किया है।
उक्त तीनों कामों को करने के लिए टीकाकार को किसी-न-किसी भाषा का सहारा लेना पड़ता है, वह जिस भाषा का सहारा लेता है, वह भाषा ही टीका-भाषा कहलाती है।
कई टीका ग्रंथों के सन्दर्भ में टीका-भाषा और सूत्र-भाषा एक देखी जाती है, कई ग्रंथों के सन्दर्भ में टीका-भाषा और होती है और सूत्र-भाषा कुछ और होती है, तथा कई के सन्दर्भ में टीका-भाषा सूत्र-भाषा होते हुए भी कुछ और भी होती है, पर एक बात जरूर है कि उपर्युक्त तीनों तरह की टीका-भाषाएँ सूत्र में निहित, गूढ़या गुह्य अर्थ को उद्घाटित, व्याख्यायित करने वाली होती हैं और यदि वे वह नहीं हैं, तो वे समुचित टीका-भाषा नहीं कही जा सकतीं।
मुझे लगता है कि आर्यिका चंदनामती की षट्खण्डागम की यह हिंदी टीका उपर्युक्त तीनों प्रकारों की कुछ-कुछ विशेषताओं को अपने में समाहित करने वाली हिन्दी-भाषामयी टीका है।
यद्यपि आर्यिका चंदनामती की षट्खण्डागम की यह टीका हिन्दी में है, पर यह हिन्दी प्राकृत और संस्कृत से भी अछूती नहीं है, बल्कि कई जगह वाक्य की पूरी शब्दावली प्राकृत-संस्कृत की है और संरचना-भर या संरचना का गठाव-भर हिन्दी का है, कुल मिलाकर भिन्न भाषाओं में अभिव्यक्ति होने के बाद भी षट्खण्डागम की इस हिन्दी टीका की अभिव्यक्ति में प्रवाह-र्धिमता पर प्रमुख बल दिखता है, मानों भाषा की एक ही नदी/सरिता सरसर कर बह रही हो, उसकी सरसराहट एक-लय है, एक बन्दिस के साथ है, एक गमक के साथ है, एक धमक के साथ है और अंततः एक स्वर में है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि षट्खण्डागम के सिद्धान्त व दर्शन का गम्भीर ग्रंथ होने के बाद भी इसकी भाषा साहित्यिक भाषा है अर्थात् सृजनात्मक रचनाकार की भाषा है, इसीलिए पदावली बड़ी सरस, सरल, सहज व कोमलकान्त है, पर इसका मतलब यह नहीं कि षट्खण्डागम की हिन्दी टीका की भाषा दर्शन और सिद्धान्त के प्रतिपादन के अनुकूल नहीं है, बल्कि तथ्य तो यह है कि दर्शन और सिद्धान्त के प्रतिपादन करते समय टीकाकार ने इस बात का ध्यान रखा है कि वह प्रतिपादन कहीं दुरूह न हो जाए, अतः उन्होंने कई बार इस दुरूहता से बचने के लिए साहित्यिक अभिव्यक्तियों का सहारा लिया है।
कई बार ऐसा लगता है कि टीकाकत्र्री शब्दों की उत्पत्तिपरक व्याख्या करते समय वैय्याकरण के रूप में अपने को उपस्थापित करते हुए विग्रह-अभिव्यक्ति दिखाकर सहज अभिव्यक्ति की कत्र्री बन गई हैं।
इन टीकाओं का एक चमत्कार यह भी है कि मूल के अलावा इन टीकाओं के पाठकों को एकाक्षरी से लेकर बत्तीस अक्षरों वाले छंदों से की जाने वाली तीर्थंकरों की भक्ति को २४ अनुयोगद्वारों के प्रारम्भ में करने का अवसर भी मिलता है, जो अकारण भक्ति के आनन्द को सिद्धान्त की वाचना के साथ जोड़ता है। दसवीं पुस्तक के प्रारम्भ में मंगलाचरण की टीका करते समय ‘‘तीर्थकृन्नाथ:’’ पद के हिन्दी अर्थ के रूप में ‘‘तीर्थ के कर्ता हैं और नाथ हैं’’ रूप अर्थ को न रखकर अधिक प्रचलित पद रूप अर्थ ‘‘तीर्थंकर स्वामी भगवान् हैं’’ को रखती हैं, यह चुनाव भी उनकी सहज अभिव्यक्ति की पोषकता के कारण ही हुआ है।
आप आर्यिका चंदनामती की हिन्दी टीका को ध्यान से पढ़ें, तो कई जगह ऐसा भी लगता है कि यह टीका षट्खण्डागम की संस्कृत टीका की टीका नहीं है या अनुवाद मात्र नहीं है और कई जगह संस्कृत टीका में आने से जो बातें छूट गई हैं या जिनका बहुत सूक्ष्म संकेत है, उसे प्रस्तुत किया है या उनका खुलासा किया है या उस संकेतित को नई दृष्टि से प्रस्तुत किया है, हिन्दी टीकाकत्र्री ने।
द्वितीय अनुयोगद्वार के सूत्र ४ के पृष्ठ संख्या १८ का आप एक प्रसंग देखिए—संस्कृत टीका प्रस्तुत करती हैं : पुनश्च नयातीतमात्मानं शुद्धस्वरूपं ध्यात्वा स्वशुद्धात्मा प्रकटीकर्तव्य:।
इसी को हिन्दी टीका में कहते हैं—पुनश्च नयों से रहित आत्मा के शुद्ध स्वरूप को ध्याकर निज शुद्धात्मा-भगवान आत्मा को प्रकट करना चाहिए। संस्कृत टीका में आत्मानं की प्रस्तुति कर्म रूप में है, वहाँ अर्थ है—नयों के बोध की गति से अतीत/पार रहने वाली और शुद्ध स्वरूप वाली आत्मा को ध्याकर अपने शुद्धात्मभाव को प्रकट करना चाहिए, जबकि हिन्दी में इसी के लिए आत्मा के पद को रखकर सम्बन्ध वाचक के रूप में की है, जिससे साफ है कि संस्कृत टीकाकार आत्मा के कर्म रूप को देखने वाले जीव को भी मोक्ष की प्रक्रिया में कत्र्तृत्व भाव से पुरुषार्थ करने की ओर ले जाना चाहती हैं, जबकि हिन्दी टीकाकार वहीं यह र्नििदष्ट करना चाहती हैं कि यह स्वामिभाव सम्बन्ध शुद्ध स्वरूप के साथ पर आत्मा का नहीं है, बल्कि वह तो निज आत्मा का ही है और इस तरह के ध्यान में जब जीव रमता है,
तभी शुद्धात्मभाव प्रकट होता है, इस बात को आप और अधिक समझ सकते हैं आचार्य अकलंकदेव के स्वरूपसंबोधन से। चमत्कार यह है कि संस्कृत टीका और हिन्दी टीका आदि दोनों के अर्थ मूलसूत्र के अर्थ को कह रहे हैं अर्थात् मूलार्थ के उद्घाटक हैं, इसलिए हिन्दी टीका संस्कृत टीका की पोषिका होने के साथ-साथ मूल पोषिका भी हैं। इस दसवीं पुस्तक का और उसकी टीका का चरम लक्ष्य इस तथ्य को प्रस्तुत करने में है कि ‘‘सभी प्रकार की वेदनाएँ सर्वज्ञ भगवान् के द्वारा ही गम्य हैं, हम लोगों के द्वारा इन्हें सूक्ष्मता से नहीं जाना जा सकता।
हमसब तो शारीरिक-मानसिक और आगन्तुक आदि नाना प्रकार की वेदनाओं का अनुभव करते हैं, उन वेदनाओं से कैसे मुक्ति मिलेगी, यही हमें चिन्तन करना चाहिए, उन वेदनाओं-कष्टों से छूटकर आत्मा के र्नििवकल्प ध्यान में स्थिर होने में जब तक समर्थ न हो सके, तब तक शक्ति के अनुसार देशव्रत अथवा महाव्रतों को ग्रहण करें, ऐसा निश्चय करना चाहिए।’’
इस पूरे कथ्य का साफ अभिप्राय यह है कि व्रत चारित्र रूप होते हुए भी ध्यान-चारित्र के साधन ही हैं, ध्यान-चारित्र रूप नहीं, पर दसवीं पुस्तक की पूरी टीका-यात्रा जीव के चारित्र के शुद्धीकरण के बोध की व शुद्धीकरण की चरम परिणति के रूप में स्वयं सम्यव्â चारित्र में उतरने की यात्रा है और इसीलिए मुझे यह पूरी टीका-यात्रा जैसे अष्टद्रव्य से की जाने वाली पूजा में चंदन का अर्थ संसार रूपी आतप को दूर करने वाला होता है, ठीक वैसे ही कर्म रूपी आतप को दूर कराने वाली उत्तम ध्यान रूपी चारित्र की कारक-सी दिखती है और इसीलिए मैंने इस समीक्षा लेख का शीर्षक दिया है—चंदन-सी आर्यिका चंदनामती की षट्खण्डागम की हिन्दी टीका।
आप यदि ध्यान से विचारेंगे, तो आपको उक्त शीर्षक का चंदन-सी पद द्विपद-विशेषणात्मक दिखेगा, एक अर्थ में वह आर्यिका चंदनामती का विशेषण बनता है और दूसरे अर्थ में हिन्दी टीका का, पर दोनों अर्थों में यह पद सार्थक संज्ञा वाला है। कुल मिलाकर टीकाकत्र्री आर्यिका चंदनामती की टीका मूल की पोषक होने के साथ-साथ कई स्थानों पर मौलिकता लिये हुए भी है, भाव यह है कि टीका मूल से बंधी हुई भी है और सृजनात्मकता लिये हुए भी है, वह अनुवाद-मात्र नहीं है। टीकाकार को मूल के साथ बँधकर चलना होता है और कई बार यह चलना तलवार की धार पर चलना जैसा भी होता है, जरा से चूके और मूल के पोषक होने से भटके, पर टीकाकत्र्री पूरी टीका में इस काम में बड़ी सजग रही हैं, इसलिए वे बधाई व अभिनंदन की पात्र हैं।