नम: श्री पुरुदेवाय विश्वतत्त्वार्थ दर्शिने।
सर्वा भाषाकला यस्मात् आविर्भूता महीतले।।
प्राचीन काल से ही भगवान शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ भगवंतों के चार-चार कल्याणकों से परिपूत, पावन एवं क्षेत्रमंगल स्वरूप हस्तिनापुर की धरा अत्यन्त पावन एवं पवित्र रही है। इसके पश्चात् रत्नप्रसूता इस वसुन्धरा पर पूज्य गणिनी शिरोमणि, साक्षात् सरस्वती की अवतार स्वरूप श्री ज्ञानमती माताजी के पावन चरण रज से पवित्र हो गई।
इक्र्षोिवकार-रसपृक्त-गुणेन लोके पिष्टोऽधिकं मधुरतामुपयाति यद्वत्।
तद्वच्च पुण्यपुरुषैरुषितानि नित्यम्, स्थानानि तानि जगतामिह पावनानि।।३१।।
अर्थात् जिस प्रकार इक्षु को यंत्र से पेरने पर वह अधिक मधुर हो जाता है उसी प्रकार जिस स्थान पर पुण्य पुरुष अधिष्ठित होते हैं वह स्थल भी अत्यन्त पूज्य हो जाता है। त्यागर्मूित्त, वात्सल्यमयी माताजी ने लोकहिताय, इस स्थल पर अद्वितीय, विश्व में अकल्पनीय ‘‘जम्बूद्वीप’’ का निर्माण कराया। आज यह तीर्थ विश्व की बहुमूल्य धरोहर बन गया है। पूज्य माताजी तो एक पारखी जौहरी हैं जो हीरे की तलाशरत रहती हैं। वह हीरा उन्हें अपने ही परिवार में ‘‘माधुरी’’ बहिन के रूप में सहज ही प्राप्त हो गया। कुशल जौहरी की भाँति आपने उसे तराशकर दिव्य आभा से मण्डित कर दिया, जिसकी रश्मियाँ अपनी दिव्यता की चमक चारों ओर प्रज्ञाश्रमणी चन्दनामती माता के रूप में सर्वत्र बिखेर रही हैं। आपकी असीम प्रेरणा एवं वात्सल्यमयी गोद में बैठकर आज वे एक अर्हिनश साधक की भाँति साधनारत रहकर, न केवल स्व कल्याण में प्रवृत्त हैं बल्कि अपनी प्रतिभा के द्वारा साहित्याकाश में एक प्रकाशपुंज की भांति अपनी दिव्य आभा बिखेर रही हैं। चन्दन न केवल शीतलता प्रदान करता है परन्तु वातावरण को सुरभित एवं सुगन्धित बना देता है। आपको ज्ञानमती माताजी की प्रथम र्आियका शिष्या होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से २ बहनें र्आियका बन गर्इं एवं लघुभ्राता श्री रवीन्द्रर्कीित स्वामी पीठाधीश बन गए। आपकी पूज्य माताजी मोहिनी माँ ने र्आियका पद को अलंकृत किया तथा पूज्य पिताजी ने समाधिमरण किया। ये र्कीितमान है त्याग का, कल्याण का। यह अत्यन्त सुखद संयोग है कि माताजी की प्रेरणा से सम्पूर्ण परिवार धर्ममय हो गया। दर्शन, ज्ञान, चारित्र की त्रिवेणी में अवगाहन रत हो गया। प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं होती और यही कारण है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से चंदनामती माताजी ने अपनी ‘‘अभिनव नवनवोन्मेष शालिनी प्रज्ञा प्रतिभा’’ के द्वारा १०० से अधिक ग्रंथों का प्रणयन किया उनमें अनेक काव्य ग्रंथों का अनुवाद किया, हिन्दी भाषा में। समयसार का पद्यानुवाद, समयसार कलश का पद्यानुवाद, षट्खण्डागम ग्रंथ के कई खण्डों का हिन्दी अनुवाद जैन वाङ्मय की अनुपम धरोहर है। मैं अपनी अल्पबुद्धि से विश्वविख्यात ‘‘समयसार पद्यानुवाद’’ के सम्बन्ध में उसका वैशिष्ट्य रेखांकित करूंगा। जैन वाङ्मय में मुख्यतः अनेक ग्रंथ प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषा में लिखे हुए हैं। जब इस देश की भाषा संस्कृत थी, ज्ञान का क्षयोपशम था तब लोग इसे पढ़कर अर्थ ज्ञात कर लेते थे परन्तु आज यह स्थिति नहीं है। समयसार के ऊपर पूज्य अमृतचन्द्र सूरि ने अपनी टीका संस्कृत में लिखी तथा आचार्य जयसेन जी ने भी संस्कृत में ही टीका लिखी। कुछ अन्य व्यक्तियों ने भी हिन्दी में टीकाएँ लिखीं। परन्तु पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने सुगम हिन्दी में अनेक टिप्पण सहित अनुवाद से इसे अलंकृत किया। उन्हीं की शिष्या पूज्या प्रज्ञाश्रमणी र्आियका चंदनामती माताजी ने एक नया र्कीितमान रचा वह है ‘‘समयसार की गाथाओं एवं कलश काव्यों का पद्यानुवाद’’। किसी ग्रंथ की टीका अनुवाद अत्यन्त कठिन कार्य होता है क्योंकि अनुवाद में कभी-कभी मूल का भाव विपरीत हो जाता है। या कि टीकाकार लेखक के हाद्र्र को न समझकर अपनी समझ का उपयोग कर विषय प्रतिपादन में न्याय नहीं कर पाता। साहित्य में ऐसे अनेक कोमल प्रसंग आते हैं जिनकी मूल से भावाव्यक्ति की संगति नहीं बैठ पाती। परन्तु यहाँ पर समयसार जैसे प्राकृत भाषा वाली गाथाओं का प्रज्ञाश्रमणी चंदनामती माताजी ने जो पद्यानुवाद किया है वह अप्रतिम है अत्यन्त श्लाघनीय, स्तुत्य एवं वरेण्य है। कुछ प्रसंग प्रस्तुत हैं—
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।।(१८ ज.)।।
पद्यानुवाद (शेर छंद)
मेरे चरित्रज्ञान औ दर्शन में सर्वदा।
आत्मा ही मुझे दिखता प्रत्याख्यान में सदा।।
संवर तथा ध्यानस्थ योग में भी आतमा।
निश्चय से मैं विचारता हूँ शुद्ध आतमा।।
यहाँ पर शब्दानुवाद एवं भावानुवाद अत्यन्त सरल शैली में प्रस्तुत किया गया है।
दंसणणाणचरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं।
ताणि पुण जाण तिण्णि वि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।।१६अ.।।
पद्यानुवाद (शेर छंद)
साधू मुनी के लिए ज्ञान चरण औ दर्शन।
हैं नित्य सेवितव्य नय व्यवहार का कथन।।
निश्चय से ये तीनों ही आत्म के स्वरूप हैं।
दोनों नयों से आत्मतत्त्व प्राप्यरूप है।।
इसमें शब्द संयोजना एवं अर्थ का ध्यान रखा गया है।
णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि।
देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होंति।।३०
पद्यानुवाद (शेर छंद)
जैसे कोई राजा के सुन्दर नगर का वर्णन।
करने से नहीं होता कभी राजा का कथन।।
वैसे ही केवली के देह गुण का संस्तवन।
निश्चय से नहीं केवली गुणों को है नमन।।३०
एए सव्वे भावा पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण्णा।
केवलिजिणेिंह भणिया कह ते जीवो त्ति वुच्चंति।।४४
पद्यानुवाद (बसन्ततिलका छंद)
ये पूर्व में कथित अध्यवसान आदी।
सब भाव का परिणमन है पुद्गलादी।
ऐसा जिनेन्द्रकेवलि का कथन आया।
वे भाव जीव हैं यह बनती नहीं माया।।
ये सभी भाव केवली जिनदेव ने कहा है। मूल भाव से शब्दशः साम्य भाव है।
तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा होंति केवलिणो।
केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केविंल थुणदि।।२९
पद्यानुवाद (शेर छंद)
निश्चय में नहीं घटता व्यवहार संस्तवन।
क्योंकि शरीर गुण से नहीं केवली कथन।।
जो केवली के ज्ञान आदि गुण का िंचतवन।
परमार्थ से है केवली का वही संस्तवन।।
यहाँ पर प्राकृत के जुज्जहि जैसे कठिन शब्दों का हिन्दी अनुवाद अत्यन्त सरल बोधगम्य किया गया है। केवली के स्तवन को समझा गया है जीव के परिणाम और पुद्गल के परिणाम इन दोनों में परस्पर में निमित्त मात्र-पना है।
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स।
णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स।।१२६
पद्यानुवाद
आत्मा जो भाव करे जिस क्षण उसका ही कत्र्ता होता है।
जो भाव जिस समय नहीं करे उसका निंह कत्र्ता होता है।।
ज्ञानी के ज्ञानभाव माना जो निश्चय रत्नत्रयमय है।
अज्ञानी के अज्ञानभाव होता रागादि भावमय है।।
यहाँ भावों की तादात्म्य परिणति जिस रूप में है उसे ही अत्यन्त रोचक शैली में अनूदित किया है।
कम्ममसुहं कुसीलं सुहकम्मं चावि जाणह सुसीलं।
कह तं होदि सुसीलं, जं संसारं पवेसेदि।।१४५
पद्यानुवाद
शुभ अशुभ रूप कर्म के दोय भेद हैं।
शुभ सुशील अशुभ को कुशील सर्वजन कहें।
र्नििवकल्प मुनि के लिए शुभ भी नहीं श्रेष्ठ है।
जो कराता है सदा संसार में प्रवेश है।।
यहाँ पर ‘‘सुशील’’ एवं ‘‘कुशील’’ का अंतर सरल शब्दों में समझाया गया है। संस्कृत के ‘सु’ उपसर्ग एवं ‘कु’ उपसर्ग का अंतर दृष्टव्य है।
गाथा—
दंसणणाणचरित्तं, जं परिणमदे जहण्णभावेण।
णाणी तेण दु बज्झदि, पुग्गलकम्मेण विविहेण।।१६२
पद्यानुवाद
संज्ञानी के दर्शन सुज्ञान चारित्र जघन्य जहाँ तक है।
रत्नत्रय की संपूर्ण अवस्था प्राप्त न होती तब तक है।।
इस कारण ज्ञानी आत्मा के पौद्गलिक कर्म बंधते रहते।
बिन यथाख्यात चारित्र हुए मुनि आत्मसौख्य वंचित रहते।।
यहाँ रत्नत्रय की पूर्णता आवश्यक है निरूपित किया गया है।
(समयसार उत्तराद्र्ध से)
दव्वे उवभुंजंते, णियमा जायदि सुहं वा दुहं वा।
तं सुहदुक्खमुदिण्णं, वेददि अह णिज्जरं जादि।।१९४
पद्यानुवाद
उपभोग द्रव्य का करने से सुख-दुख उत्पन्न नियम से हों।
उन उदय प्राप्त सुख-दुःखों को अनुभव करता स्वयमेव अहो।
इसके पश्चात् वही सुख-दुःख निर्जरा रूप हो जाते हैं।
सम्यग्ज्ञानी के सभी भाव बिन बन्धन के झड़ जाते हैं।।
भावों की तुलना का सुन्दर निरूपण बोलचाल की भाषा में किया गया है। पद्यानुवाद में अत्यन्त मधुरता है।
जह विसमुवभुज्जंतो, वेज्जो पुरिसो ण मरणमुवयादि।
पुग्गलकम्मस्सुदयं, तह भुंजदि णेव बज्झए णाणी।।१९५ अ.।।
पद्यानुवाद
जैसे इक वैद्य पुरुष विष को खाने पर भी निंह मरता है।
क्योंकि विष एक रसायन बन मारण शक्ति को हरता है।।
बस इसी तरह ज्ञानी आत्मा पुद्गलकर्मों को भोक्ता है।
विरती भावों से कर्म भोगकर भी उनसे निंह बंधता है।।
कम्मस्सुदयं, बज्झए आदि शब्दों का पद्यानुवाद अत्यन्त हृदयग्राही एवं सरस बन गया है।
गाथा— जो हवइ असम्मूढो, चेदा सद्दिट्ठि सव्वभावेसु।
सो खलु अमूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो।२३२
पद्यानुवाद
जो चेतन आत्मा सब भावों में मूढ़ कभी निंह होता है।
सब कर्मोदय भावों के प्रति भी सम्मोहित निंह होता है।।
वह अंग अमूढ़दृष्टि का पालक सम्यग्दृष्टि कहा जाता।
निश्चय से यह सम्यग्दृष्टी ही समयसारमय बन जाता।।
यहाँ पद्यानुवाद में समयसारमय शब्द आत्मोपलब्धि प्राप्ति का द्योतक है। यहाँ व्यंजना शब्दशक्ति का उपयोग अत्यन्त सटीक हुआ है।
गाथा— धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोयलोयं च।
सव्वे करेइ जीवो अज्झवसाणेण अप्पाणं।।२६९ अ.।।
ऐसे ही धर्म अधर्म जीव पुद्गल को भी निज मान रहा।
त्रैलोक अलोकाकाश सभी परद्रव्यों में अज्ञान कहा।।
निज अध्यवसान भाव से सबको आत्मरूप ही कहता है।
सबकी स्वतन्त्र सत्ता न समझ ममकारभाव ही करता है।।
यहाँ सभी द्रव्यों की स्वतन्त्र सत्ता का निरूपण किया गया है। भाषा सरस, सरल एवं हृदयावर्जक है।
गाथा— पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ति य।
िंणदा गरहा सोही अट्ठविहो होइ विसकुंभो।।३०६
पद्यानुवाद
प्रतिक्रमण प्रतिसरण अरु परिहार आदी,
निवृत्ति िंनदा व गर्हा शुद्धि आदी।
ज्ञानी समाधि युत मुनि के धारणा युत,
आठों प्रकार ये हैं विषकुंभ जैसे।।
यहाँ पर प्रति का अनुप्रास अलंकार दृष्टव्य है।
गाथा— ण उ होदि मोक्खमग्गो िंलगं जं देहणिम्ममा आरिहा।
िंलगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेयंति।।४०९ अ.।।
पद्यानुवाद
लेकिन श्री गुरु का सम्बोधन उनको यह बतलाता।
केवल बाह्य िंलग से मुक्तीमार्ग नहीं मिल पाता।।
देखो श्री अरिहंत देव भी देह ममत को तजते।
बाह्य िंलग में ममत छोड़ रत्नत्रय को ही भजते।।
साहित्यिक वैशिष्ट्य—
अपारे खलु संसारे कविरेव प्रजापति:।
यथास्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवत्र्तते।।
कवि प्रजापति के सदृश होता है। वह विश्व का निरूपण अपनी कल्पना शक्ति के अनुसार करता है तथा वह विश्व को एक नई दृष्टि प्रदान करता है। काव्य के उद्देश्य में मम्मटने लिखा‘‘काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवतक्षतये सद्य: परनिवृतये कान्ता सम्मिततयोपदेश युजे’’। जिससे यश की प्राप्ति हो, अर्थ की प्राप्ति हो, व्यवहार में निपुणता हो, शिवत्व की प्राप्ति हो। जैसे पत्नी मधुर शब्दों में पति को समझाती है एवं उसे सन्मार्ग पर लगा देती है उसी प्रकार अपनी उदात्त भावना एवं मधुर शब्द योजना से मानव समाज के नवनिर्माण हेतु कवि निरन्तर प्रयासरत रहता है। माताजी द्वारा र्नििमत इस पद्यानुवादकृति में रस, छंद, अलंकारों का सुन्दर प्रयोग यथास्थान किया गया है। मात्रिक एवं र्वािणक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग दृष्टव्य है। अनुवाद की कुशलता वर्ण साम्य को प्रस्तुत करती है इसमें भावार्थ, मतार्थ आदि का प्रसंगानुकूल प्रयोग किया गया है। यद्यपि पद्यानुवाद अत्यन्त कठिन कार्य है परन्तु आशु कवियित्री पूज्य चंदनामती माताजी द्वारा अनेक काव्य ग्रंथों की रचना की गई है इसमें अनेक भजन भी हैं जिनमें भी संगीत की विभिन्न राग रागनियों का समावेश है जिससे भक्तगण विभिन्न स्वरों में गायन कर संगीत का भी आनन्द प्राप्त कर सकते हैं। इस महान अध्यात्म ग्रंथ का पद्यानुवाद अपने मूल भाव को तिरोहित न करते हुए कवि की भावना के अनुरूप सृजित है जो साहित्य जगत की एक अनुपम कृति बन गया है। प्रज्ञाश्रमणी पूज्य चंदनामती माताजी सचमुच में एक शब्द- शिल्पी हैं तथा सरस्वती के वाङ्मय की अनुपम वृद्धि कर रही हैं। अपनी मधुर शब्द योजना द्वारा आपने सम्पूर्ण जैन जगत को जो कृति प्रदान की है वह अनुपम है। उनकी कृतज्ञता ही है कि वे निरन्तर विश्व के कल्याण हेतु साहित्य सृजन कर मानव मूल्यों की अभिवृद्धि कर, उन्हें संस्कारशील बनाकर आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त करा रही हैं। उनके इस २५वें दीक्षा दिवस पर मैं उन्हें बारम्बार वंदामि कर प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि मानवता के कल्याणार्थ उनका सदैव शुभाशीष प्राप्त होता रहे।