मूल-ग्रन्थस्य नाम, तस्य महत्त्वं रचयिता च—
‘मानतुंग’—महाचार्य:, विख्यात: जगतीतले।
रचयामास स्तोत्रं, ‘भक्तामर’— मति श्रुतम्।।१।।
नाना—संसिद्धि—संयुक्तं, महाकाव्योपमं हि तत्।
ये पठन्ति मुदा लोके, कल्याणं वृणुते सदा।।२।।
विधानस्य रचयित्री, तस्या: वैदुष्यं, वैशिष्ट्यञ्च—
अतो संचिन्त्य माहात्म्यं, रचना—कर्म—विश्रुता।
‘र्आियकारत्न’—प्रख्याता, ‘गणिनी—मुख्यं—शिष्यका।।३।।
दूरदृष्टित्व—सम्पन्ना, कुशला संघ—चालिका।
आशु—कवियित्री माता, नैक—भाषा—विशारदा।।४।।
वात्सल्यरत्ना विज्ञा, प्रज्ञा सुज्ञा नियामिका।
तीर्थकृज्जन्मभूमीनां, विकासाय सदोद्यता।।५।।
लेखिका चतुरा वक्त्री, कुशला च सम्पादिका।
अनन्य—गुरु—भक्ता हि, आर्ष—मार्गानुगामिनी।।६।।
गणिनीमुख्ययाऽऽदिष्टा, ‘प्रज्ञाश्रमणी’ ‘चन्दना’।
ससंकल्पं वचो धृत्वा, सिद्धहस्ता सुलेखिका।।७।।
‘भक्तामर—विधानं’ हि, ‘मण्डलं’ समलंकृतम्।
‘प्रज्ञाश्रमणी’ तपोपूता, रचयामास ‘चन्दना’।।८।।
भक्ति—‘र्आदि’—जिनेशस्य,
विधानेऽस्मिंश्तु संसृतम्।
भावानुसारिणी ‘भाषा’,
वण्र्यं शास्त्र—सुसम्मतम्।।९।।
सु—वर्णै: ‘मन्त्र’’—संयुक्तै:, विध्यनुष्ठान—मण्डितम्।
संसिद्धिदं ‘विधानं’ हि, सर्व—कल्याण—कारकम्।।१०।।
‘ज्ञानमत्या:’ प्रसादेन, रचितं सम्यव्तया—इदम्।
‘भक्तामर—विधानं’ हि, सर्वेभ्यो खलु पुण्यदम्।।११।।
परमा रुचिरा शैली, सर्वदा हि प्रमोददा।
काव्य—सौन्दर्य—सम्पुष्टा, ‘रचना’ चेतोहारिणी।।१२।।
महन्महिमा ‘विधान’—स्य, सर्व—कल्याण—कारिणी।
नन्दयतु जनान्नैषा,
पठने पाठने रतान्।।१३।।
स्वाध्यायकर्तृन्नैषा, ‘विधान’—कर्तृंश्च सर्वदा।
महत्पुण्यप्रदा भूयात्, सर्व—संकट—वारिणी।।१४।।
रचयित्री विधानस्य, प्रकाशकस्तथैव च।
अक्षरयोजकश्चापि, सम्मानार्हा: सदैव हि।।१५।।