वर्तमान युग में देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति ही कर्मों को काटने के लिये अमोघ शस्त्र है। जैनाचार्यों ने मोक्ष प्राप्ति के लिये दो मार्ग बताएँ हैं भक्ति मार्ग और दूसरा निवृत्ति मार्ग। आचार्य श्री कुन्दकुन्दस्वामी जैसे महान् आध्यात्मिक संत ने भी भक्ति मार्ग को अपने जीवन में स्थान देकर पुनः निवृत्ति मार्ग को प्रशस्त किया है। आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने भी भगवान की भक्ति करते हुए लिखा हैै—
एकापि समर्थेयं, जिनभक्ति: दुर्गतिं निवारयितुं।
पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिनः।
अर्थात् जिनेन्द्र भगवान की भक्ति ही एक अकेली समस्त दुर्गतियों का निवारण करने वाली है। पुण्य को देने वाली तथा मुक्ति को प्रदान करने वाली है। इस बीसवीं सदी में पू. गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपनी लेखनी के द्वारा ३०० ग्रंथों का सृजन किया, जिनमें लगभग ४० विधान पूजन की रचना की है जो उनकी भगवान के प्रति अगाध भक्ति का परिचायक है तथा इन पूजाओं को करने वाला प्रत्येक जनमानस भी प्रभु भक्ति में सराबोर हुए बिना नहीं रहता है।
उन्हीं की प्रेरणा व आशीर्वाद से उनकी शिष्या पू. प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने भी अनेक मौलिक पुस्तकों का लेखन व षट्खंडागम जैसे महान ग्रंथ की पू. गणिनी ज्ञानमती माताजी कृत संस्कृत टीका का हिन्दी अनुवाद कर अनुपम कार्य किया है।
आपने काव्य जगत में भी अपनी लेखनी के द्वारा महती धर्म प्रभावना करके धूम मचाई है। जिनमें अनेक पूजन, भजन, आरती, चालीसा एवं प्रेरणास्पद स्तोत्र पाठों का लेखन करके सभी को देव, शास्त्र, गुरु के प्रति विशेष भक्ति का माध्यम प्रदान किया है।
आपकी लेखनी में सभी को मंत्रमुग्ध कर देने की शक्ति है। आपको आशु कवियित्री कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं है क्योंकि आप समयानुसार तुरन्त काव्य रचना कर सभी में भक्ति व शक्ति का संचार करने में कुशल हैं। यह सूक्ति लोक प्रसिद्ध है कि ‘‘जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि’’। प्रस्तुत लेख में पूज्य माताजी द्वारा रचित ११ पुस्तकों का संक्षेप में विवेचन है जो निम्न प्रकार है—
आपके द्वारा रचित लगभग १००० भजनों का संग्रह है जो निम्न पुस्तकों के माध्यम से प्रकाशित हो चुके हैं
(१) भजन संग्रह (ब्र. माधुरी शास्त्री-संप्रति आर्यिका चंदनामती) | (२) जंबूद्वीप भजन संग्रह (ब्र. माधुरी शास्त्री-संप्रति आर्यिका चंदनामती) | (३) जिनभजन कुसुमांजलि | (४) जंबूद्वीप भजन संग्रह भाग-२ | (५) जंबूद्वीप भजन संग्रह भाग-३ | (६) महावीर भक्ति प्रसून | (७) कुंडलपुर भजन संग्रह | (८) भजन संग्रह (लगभग ३५० भजन)। |
जब हम आपके द्वारा रचित लगभग ४०० भजनों की कृति ‘‘भजन संग्रह’’ का अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कोई विषय अछूते नहीं रहे हैं जो इसमें न आये हों। सम्पूर्ण कृति में वात्सल्य रस, भक्ति रस, वीर रस, तथा माधुर्य व ओज से परिपूर्ण भजनों का संग्रह है। जिनमें से कतिपय भजनों का विश्लेषण यहाँ करते हैं—
आदि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव के सम्पूर्ण जीवन दर्शन का जीवंत चित्रण करने वाले एवं शाश्वत तीर्थ अयोध्या की महिमा को बताने वाले भजनों की रचना सन् १९९३-९४ में वहाँ के महामस्तकाभिषेक के समय करके आपने सभी भक्तों में नई चेतना का संचार किया था और पुनः वहाँ से विहार करते समय अवधप्रांत के भक्तों को प्रेरणा देते हुए लिखा था—
‘‘निधियाँ कई दे दी हैं अयोध्या को मात ने।
इस तीर्थ को रखना मेरे भक्तों! संभाल के’’।।
इन पंक्तियों को सुनकर कोई बच्चा ऐसा नहीं था जिसकी आँखों से अश्रु की धारा न बही हो। सन् २००४ में भगवान ऋषभदेव के दीक्षातीर्थ प्रयाग के तीर्थोद्धार के अवसर पर तीर्थ के प्रति भक्ति जागृत करने के लिए अनेक काव्य रचनाएँ की जिनमें ‘‘गहरी-गहरी नदियाँ संगम की धारा है।
ज्ञानमती माता को प्रयाग ने पुकारा है’’ भजन पूरे प्रयाग तीर्थयात्रा के विहार में प्रचलित हुआ। पुनः तीर्थोद्धार के पश्चात् प्रभु की भक्ति में तथा तीर्थ की विशेषता बताने वाले व महाकुंभ मस्तकाभिषेक के अवसर पर भजनों की रचना की, जिसमें ‘‘महाकुंभ में जल भरकर प्रभु ऋषभ का न्हवन करो’’ ये भजन अत्यधिक प्रसिद्ध हुआ तथा जन-जन के मुख से देशभर में गुंजायमान हो गया।
पू. गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से तीर्थंकर त्रय की जन्मभूमि में र्नििमत विश्व की अद्वितीय रचना जंबूद्वीप के नाम से विख्यात हस्तिनापुर से संबन्धित लगभग ७५ भजनों की शृंखला है जिसमें ‘‘दुनिया में भगवंतों के मंदिर अनेक हैं, लेकिन जंबूद्वीप की रचना केवल एक है’’ जैसे अनेक भजन संग्रहीत हैं।
जंबूद्वीप, तेरहद्वीप, तीर्थंकर शांतिनाथ–कुंथुनाथ–अरहनाथ व हस्तिनापुर की पौराणिकता का इतिहास दिग्दशर््िात करने वाले भजनों का विशेष सृजन किया है। जिनमें से हैं—‘‘तेरहद्वीप रचना का देखो चमत्कार, हस्तिनापुर में हुई जो साकार’’ ‘‘शंतिकुंथु, अरहनाथ, तीनलोक के हैं नाथ, तीनों जिनवर को तीन बार नमन है’’।
भगवान महावीर के २६०० वें जन्मकल्याणक महोत्सव एवं जन्मभूमि कुण्डलपुर के विकास के अवसर पर भगवान महावीर के चरणों में अपनी शब्दों की पुष्पांजलि र्अिपत करते हुए सुंदर-सुंदर काव्य रचना प्रभु चरणों में र्अिपत की तथा सभी को भगवान की वास्तविक जन्मभूमि से परिचित कराया। जिनमें ‘‘तेरी चंदन सी रज में इक उपवन खिलाया है, कुंडलपुर के महावीरा तेरा महल बनाया है’’ आदि अनेक प्रचलित रचनाएँ हैं।
सन् २००५ में भगवान पाश्र्वनाथ तृतीय सहस्राब्दी महोत्सव वर्ष के अंतर्गत देशभर में विभिन्न आयोजन किये गये जिसमें जन्मभूमि वाराणसी, केवलज्ञानभूमि अहिच्छत्र व निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर से संबन्धित अनेक काव्य रचनाओं के द्वारा पूज्य माताजी ने सभी को प्रभु भक्ति का पुण्यार्जन करने का सशक्त माध्यम प्रदान किया।
सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की रक्षा के प्रति सम्पूर्ण जैन समाज को जाग्रत करते हुए पू. माताजी ने वीर रस का संचार करने हेतु सुंदर रचना की है।
(तर्ज—ऐ मेरे वतन के लोगोें………………………..)
‘‘भारत के जैनी वीरों तुम सुन लो कथा पुरानी,
सम्मेदशिखर पर्वत है सिद्धों की अमिट निशानी’’
ये धर्म तीर्थ न कभी भी बेचे व खरीदे जाते,
हर मानव की श्रद्धा का ये केन्द्र बिन्दु कहलाते।
निजमत जिनमत में बदलो, बनकर सच्चे श्रद्धानी,
सम्मेदशिखर……………….।
इस धर्म एवं तीर्थरक्षा के शब्दों से ओत प्रोत भजन को सुनकर प्रत्येक जनमानस का हृदय द्रवित हो जाता है। इसमें नवोदित तीर्थ ‘‘ज्ञानतीर्थ’’ शिर्डी (महा.) में विराजित पाश्र्वनाथ भगवान् के भजन भी उल्लिखित हैं।
राम, हनुमान, सुग्रीव आदि ९९ करोड़ महामुनियों की निर्वाण स्थली सिद्धक्षेत्र मांगीतुंगी है। जहाँ पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से विश्व की सबसे विशाल १०८ फीट उँâची भगवान ऋषभदेव की र्मूित निर्माण का कार्य हो रहा है। जो अपने आपमें अद्वितीय है। जिसका प्रसिद्ध भजन ‘‘सबसे बड़ी र्मूित का, मांगीतुंगी तीर्थ का, दुनिया में नाम हो रहा है, र्मूित का निर्माण हो रहा है’’ इसकी पंक्तियाँ पढ़ते ही बच्चे-बच्चे के हाथ पैर थिरकने लगते हैं तथा सभी भक्ति में भाव विभोर होकर नृत्य किये बिना नहीं रह पाते। ऐसे कई भजनों की पंक्तियाँ तन मन को आनंदित करने वाली हैं।
सन् १९९८ में प्रर्वितत समवसरण श्रीविहार रथ प्रवर्तन के समय समवसरण की महिमा को बतलाने वाले भजन सारे देश में गुंजायमान हुए। भगवंतों के पंचकल्याणकों में, पाँचों कल्याणकों की विशेषता को लिये हुए उस समय गाये जाने वाले अर्थपूर्ण भजन हैं।
मन को एकाग्र करने हेतु पूज्य माताजी भक्तों को कुछ समय के लिये ध्यान की साधना करवाने में ऊँ, हीं, अर्हं आदि बीजाक्षरों के माध्यम को लेकर अंतर्यात्रा में पद्यमय सुंदर पंक्तियों का उच्चारण सभी से करवाती हैं जिससे मन में शांति व आनन्द का अनुभव होता है।
कहते हैं ना ‘‘गुरुभक्ति सती मुक्त्यै क्षुद्रं िंक वा न साधयेत्’’ अर्थात् गुरु भक्ति से बड़े-बड़े कार्यों की सिद्धि सरलता से हो जाती है तो छोटे-छोटे कार्य सिद्ध हो जावें इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। आपने गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के चरण सानिध्य में लगभग ४४ वर्षों के दीर्घकाल को व्यतीत करके ज्ञान और चारित्ररूपी अमूल्य उपहार प्राप्त किया है तथा गुरुभक्ति की मिसाल कायम की है।
अपनी कवित्व प्रतिभा के द्वारा आपने पूज्य गणिनी माताजी के जन्मदिन, दीक्षा दिवस एवं अन्य विशेष अवसरों पर समयोचित, शब्द सौष्ठव से परिपूर्ण अनेक भजनों की रचना कर उनके प्रत्येक कार्य-कलाप का दिग्दर्शन कराया है।
उनके द्वारा ज्ञान के क्षेत्र में, तीर्थोद्धार के विकास में किये गये कार्य हों या बीसवीं सदी में प्रथम बाल ब्रह्मचारिणी आर्यिका के रूप में मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने से सम्बन्धित कथानक हों। सभी विषयों को यथास्थान उल्लिखित कर आपने शब्द रूपी मोतियों को पिरोकर शताधिक भजनों की रचना कर पूरी मोती माला ही तैयार कर दी है जिसे फैरने से अवश्य ही हम सबका भी उद्धार हो जाएगा। इनकी कुछ रचनाएँ
ऐसी अनेक रचनाएँ हृदय को अत्यन्त आल्हादित करने वाली व वैराग्य को वृद्धिंगत करने वाली हैं।
८. आहारदान, रक्षाबंधन पर्व, दीपावली पर्व, वर्षायोग आदि विशेष प्रसंगों से सम्बन्धित तथा अन्य अनेक काव्य रचनाएँ हैं जो उन प्रसंगों के सम्पूर्ण वृत्तांत से परिपूर्ण होने से जन-जन के लिये ज्ञान वर्धनीय भी हैं। समयसार, षट्खंडागम आदि शास्त्रों की भी आराधना करते हुए पूज्य माताजी ने सुंदर पद्यावली तैयार कर दी है। इस पुस्तक की प्रत्येक रचना का विवेचन तो इन थोड़े शब्दों में करना संभव नहीं है अतः इस कृति का सम्पूर्ण अवलोकन करके ही वास्तविक आनंद की अनुभूति हो सकती है।
यह पुस्तक दशलक्षण पर्व में संगीत में रुचि रखने वाले महानुभावों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। इसमें दशलक्षण पर्व के दश धर्मों के गीत में प्रत्येक धर्म के महत्व को बताने वाली रचनाएँ अतीव रुचिकर हैं। दशलक्षण पर्व को एक बगीचे की उपमा देते हुए पूज्य माताजी ने लिखा है—
दशलक्षण का ये बगीचा, कितना सुंदर लगता है।
भादों शुक्ला पंचमि से, चौदस तक यह सजता है।।
पर्व दशलक्षण आया है।
तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथराज के १० अध्यायों में प्रत्येक अध्याय का सारपूर्ण विवेचन सुंदर शब्दों में पद्यमय रचना में र्विणत किया है। जिसके द्वारा संक्षेप में हम प्रत्येक अध्याय के अर्थ को हृदयंगम कर सकते हैं।
बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज का प्रतिभाशाली व्यक्तित्व आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। जिन्होंने इस बीसवीं सदी में मुनि परम्परा को पुनः जीवंत करके हम सभी पर महान उपकार किया है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।
उन्हीं गुरूणांगुरु के प्रति अपने श्रद्धा पुष्प र्अिपत करते हुए पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने वर्ष २०१०-११ को ‘‘प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर वर्ष’’ के रूप में मनाने की प्रेरणा दी। जिसके अंतर्गत पूरे वर्ष भर सम्पूर्ण देश में विभिन्न कार्यक्रम किये गये।
इसी शृंखला में पूज्य आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने आचार्य श्री के जीवन के महत्त्वपूर्ण अंशों को सुन्दर काव्य के रूप में रचना की जिसे इस पुस्तक में प्रकाशित किया गया है। जिसमें अलग-अलग कर्णप्रिय तर्जों में ८ खण्डों में उनके जन्म से लेकर समाधिमरण, अंतिम उपदेश तक का इतिहास समाहित है। जिनमें प्रारम्भ में हैं—
सुनो हम कथा सुनाते हैं-२,
प्रथमाचार्य शांतिसागर की गाथा गाते हैं।। सुनो.।।टेक।।
तथा एक कथानक है—
तर्ज (माई रे माई…………)
प्रथमाचार्य शांतिसागर का, अंतिम प्रवचन सुन लो।
हो जाएगा जन्म सफल, गुरुवाणी मन में धर लो।।
बोलो गुरुवाणी की जय, बोलो जिनवाणी की जय।
इस काव्य कथानक की वीडियो सी. डी. भी बनी हुई है, जिसे सार्वजनिक सभा में भी दिखाकर जनसाधारण को पूज्य आचार्य श्री के व्यक्तित्व से परिचित करा सकते हैं तथा इन कथानकों का दशलक्षण पर्व, आष्टान्हिक पर्व आदि प्रसंगों पर मंचन भी कर सकते हैं। जिससे सभी आचार्यश्री के निःस्पृही, तपस्वी जीवन को पढ़कर, सुनकर, देखकर प्रेरणा प्राप्त करें इसी उद्देश्य से पूज्य माताजी ने इस काव्य कथानक की रचना की है।
भगवान की भक्ति करने के अनेक माध्यम हैं जैसे पूजन करना, भजन गाना, आरती करना, चालीसा का पाठ करना आदि। उन्हीं में से मानव अपने मोहरूपी अंधकार को नाश करने की कामना से दीपकों को प्रज्ज्वलित करके प्रभु की आरती करके कर्म निर्जरा करते हैं। इस पुस्तक में पूज्य प्रज्ञाश्रमणी चंदनामती माताजी द्वारा रचित चौबीसों तीर्थंकरों की, उनकी १६ जन्मभूमियों व ५ निर्वाण क्षेत्रों की तथा अन्य पंचकल्याणक भूमियों की आरती का संग्रह किया है।
जंबूद्वीप, तेरहद्वीप, तीनलोक, सुदर्शन मेरू, समवसरण, हीं प्रतिमा, सहस्रवूâट जिनबिम्ब आदि अन्य विशेष आरतियाँ भी हैं। इन्द्रध्वज, कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र आदि बड़े तथा शांति विधान, भक्तामर, कर्मदहन आदि लघु विधानों की २५-३० आरतियाँ हैं। सरस्वती माता, लक्ष्मीमाता, चा. च. आचार्य श्री शांतिसागरजी, आचार्य श्री वीरसागर जी, गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी इन गुरुओं की आरती तथा दशधर्म की आरती भी है।
देव, शास्त्रगुरु तीनों की आरतियों से समन्वित यह पुस्तक सभी के लिये अत्यन्त उपयोगी बन गई है। इसी पुस्तक में जिनशासन देव-देवी की भी कुछ आरतियों का संकलन करके दे दिया गया है जिससे यह पुस्तक अपने आप में सभी प्रकार से परिपूर्ण हो गई है। १३२ पृष्ठों की इस पुस्तक में पृ. ६९ पर प्रकाशित पंचपरमेष्ठी एवं चौबीस भगवान की आरती सर्व जनप्रिय बन गई है। जो यह है—
घृत दीपक का थाल ले, उतारूँ आरतिया मैं तो पाँचों परमेष्ठी की……..।
पाँचों परमेष्ठी की एवं चौबीसों जिनवर की।।
घृत…………………………।।टेक।।
गणिनी माता ज्ञानमती की, आरति है सुखकारी।
इनके दर्शन से नश जाता, मोह तिमिर भी भारी।।
बोलो जय-जय-जय ………….।।
इस पुस्तक में विभिन्न चालीसा एवं स्तोत्र पाठ हैं जो प्रतिदिन की चर्या में उपयोगी हैं।
सर्वप्रथम इस चालीसा की पू. माताजी ने सन् १९९६, वी. नि. स. २५२२ में रचना की। इस पूरे चालीसा में णमोकार महामंत्र के माहात्म्य को बताया है। जिसमें इस मंत्र के स्मरण, पठन, श्रवण से मिलने वाले सुफल को विभिन्न कथानकों के उद्धरणों द्वारा उल्लिखित किया है तथा इसके अपमान से क्या फल मिलता है इसे भी बताया है।
यह मंत्र रक्षा कवच के समान हमारी रक्षा करता है, इसके लेखन से भी अनेक रोग, संकट दूर हो जाते हैं। पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा से हस्तिनापुर में ‘‘णमोकार महामंत्र बैंक’’ की स्थापना की गई है जिसमें मंत्र लिख कर जमा किये जाते हैं। उन मंत्रों के प्रभाव से सारे विश्व में सुख शान्ति का प्रसार होता है यह सब भी इसमें बताया है।
४० लाइनों में पू. माताजी ने गागर में सागर की तरह पूरे महामंत्र की महिमा को समाहित कर दिया है। यह चालीसा आज पूरे देश में घर-पर में श्रद्धा सहित पढ़ा जाता है, हम सभी पूज्य चंदनामती माताजी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। पूज्य माताजी ने इसके पठन के फल को बताते हुए लिखा है—
यह महामंत्र का चालीसा, जो चालीस दिन तक पढ़ते हैं।
ॐ अथवा असिआउसा मंत्र, या पूर्ण मंत्र जो जपते हैं।।
ॐ कारमयी दिव्यध्वनि के, वे इकदिन स्वामी बनते हैं।
परमेष्ठी पद को पाकर वे, खुद णमोकार मय बनते हैं।।
१. णमोकार चालीसा | २. भगवान ऋषभदेव चालीसा | ३. भगवान बाहुबली चालीसा | ४. सम्मेदशिखर चालीसा |
५. मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र चालीसा | ६. समवसरण चालीसा | ७. श्री शैल (हनुमान चालीसा | ८. सरस्वती चालीसा |
९. आचार्य श्री शांतिसागर चालीसा | १०.आचार्य श्री वीरसागर चालीसा |
आदि नये-नये चालीसा हैं। श्री शैल (हनुमान) चालीसा को पढ़ने से आध्यात्मिक व शारीरिक शक्ति मिलती है।
उपरोक्त स्तोत्र पाठों के श्रवण, पठन, मनन से जीवन में सुख, शांति, समृद्धि का वास हो, धर्म की वृद्धि हो यही भावना है।
यह पुस्तक दिखने में लघुकाय है पर अपने में अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं जीवनोपयोगी रचनाओं को समाहित किये है। उषा वंदना—दिन को मंगलीक बनाने के लिये प्रातःकाल सर्वप्रथम उषा वंदना के स्तवन को करने से सम्पूर्ण तीर्थों की वंदना हो जाती है। यह वंदना पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी द्वारा सन् १९६६ में रची गई थी, उसी के कुछ पद्य इसमें प्रकाशित किये गये हैं।
अतः यह लघु उषावंदना है। इसे पढ़ते हुए प्रतिदिन प्रातः घर के बच्चों को व सदस्यों को जगाने से पूरा दिन मंगलमय व शांतिपूर्ण व्यतीत होता है जिसके बोल हैं—
उठो भव्य खिल रही है उषा तीर्थ वंदना स्तवन करो।
आर्तरौद्र दुध्र्यान छोड़कर, श्री जिनवर का ध्यान करो।।
भगवान महावीर चालीसा, तीर्थंकरत्रय चालीसा (भ. शांतिकुंथुअरहनाथ का चालीसा)।
इसमें २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियों का वर्णन है, प्रयाग तीर्थ वंदना, जंबूद्वीप तीर्थ वंदना, अहिच्छत्र तीर्थ वंदना, कुण्डलपुर तीर्थ वंदना, पावापुरी सिद्धक्षेत्र वंदना के पाठ करने से घर बैठे इन तीर्थों के सम्पूर्ण जिनालयों की वंदना का पुण्य प्राप्त कर सकते हैं।
शाश्वत तीर्थ सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र टोंक वंदना की रचना पू. माताजी ने सन् २००३ में पर्वतराज की ७ वंदना करने के पश्चात् की थी। इस स्तुति ने पूरे देश के मंदिरों में धूम मचा रखी है। जो भी श्रावक या साधु एक बार भी इस वंदना पाठ को पढ़ता है उसका मन आल्हादित हुए बिना नहीं रहता।
घर बैठे जब इस वंदना को हम पढ़ना शुरु करते हैं, तो जिसने भी इस तीर्थराज की साक्षात् एक भी वंदना की है तो उसकी आंखों के सामने पूरा वही दृश्य दृष्टिगोचर हो जाता है और उसे तीर्थ वंदना के साक्षात् टोंक दर्शन का पुण्य प्राप्त हो जाता है। ऐसी भावपूर्ण शब्दों से परिपूर्ण टोंक वन्दना की हमारे लिए पू. माताजी ने रचना करके सरलता पूर्वक बिना परिश्रम के घर बैठे पुण्यार्जन का अवसर प्रदान कर अतीव उपकार किया है। जिसमें अंत में यही भावना भाई है कि—
भगवन् इस सम्मेदशिखर का, पुनः पुनः दर्शन पाऊँ।
यही भावना है मन में, सिद्धों के गुण में रम जाऊ।।
इसी क्षेत्र से कभी मुझे, निर्वाणधाम भी मिल जावे।
सिद्धभक्ति मेरे जीवन में, सिद्ध अवस्था दिलवाये।।
संसार में प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुख से डरता है। जिसने भी इस संसार में जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। फिर भी कभी-कभी जन्म वुंâडली में या ज्योतिषी आदि को हाथ दिखाने से अल्प आयु का योग बता देने पर अथवा किन्हीं दुर्घटना आदि में असमय में मरण की संभावना होने से बचने के लिये व्यक्ति घबराकर इधर-उधर भटक कर मिथ्यात्व की शरण में भी चला जाता है।
अतः इन अकाल मरण आदि की विपत्तियों से बचने के लिये सम्यग्दृष्टि प्राणियों के लिये यह ‘‘महामृत्युंजय स्तोत्र’’ रामबाण औषधि के समान है।
जिसका प्रतिदिन अथवा १८ दिन तक अनुष्ठानपूर्वक पठन, श्रवण करके, मंत्र जाप्य करने से अवश्य ही दुःख संकट का निवारण होगा और वे अकालमरण से बच जाएंगे। इस स्तोत्र में अकालमृत्यु से बचने का पोदनपुर के राजा श्रीविजय का शास्त्रीय उदाहरण भी दिया है।
जिन्होंने जैनधर्म विधि से मंदिर में जाकर अनुष्ठान करके अपनी अकालमृत्यु पर विजय प्राप्त की थी। अतः पूज्य माताजी ने हमारे लिये सम्यक्त्व की रक्षा करते हुए अपने दुःख, संकट, कष्टों के निवारण हेतु महामृत्युंजय स्तोत्र, जाप्य आदि उपाय बताकर, मार्गदर्शन करके महती कृपा की है।
३३ पद्यों के इस काव्य में जैन रामायण के उस मार्मिक कथानक को बताया है जब सीता को प्रजा के कहने पर राम ने गर्भवती अवस्था में वन में भेजा। पुनः उन्हें लोक में अपने सतीत्व की सत्यता को सिद्ध करने के लिये अग्नि परीक्षा देना पड़ा और उनके शील के प्रभाव से अग्नि कुण्ड भी जल का सरोवर बन गया।
फिर उन्होंने घर न जाकर आर्यिका पद को धारण कर अपने नारी जीवन को धन्य किया। इस प्रकार इस लघु काव्य रचना में नारी की सहनशीलता को दर्शाते हुए सतयुग में भी पुरुष वर्ग के द्वारा नारी पर अत्याचार होते थे इस को बताया है। पर आज के कलियुग में वही नारी अत्याचार का प्रतिकार कर न्यायालय का सहारा लेती और अपराधी को सजा दिलवाती है। बड़ा ही रोमांचक कथानक है जिसे पढ़कर मन द्रवित हुए बिना नहीं रहता।
अंत में यही निष्कर्ष निकलता है कि नारी और पुरुष दोनों ही सृष्टि व्यवस्था में सहभागी हैं तथा दोनों को ही बराबर का सम्मान मिलना चाहिए। जिन्हें निम्न पंक्तियों में संजोया है—
दोनों का ही सम्मान उचित, अपमान किसी का निंह होवे।
भावों में है अरमान यही, इस देश का गौरव निंह खोवे।।
भारत की संस्कृति टिकी आज भी, नारी के पतिव्रत पर है।
सारे देशों में इसीलिये, भारत का गौरव ऊपर है।।
उपरोक्त पुस्तक में दिये गये पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा हिन्दी पद्यानुवाद किये हुए ऋषिमण्डल स्तोत्र और शांतिभक्ति के पाठ भी प्रतिदिन के पाठ करने के लिये अत्यन्त उपयोगी हैं।
मंदिरों में प्राचीन जिनवाणियों में हम मुनिराज का बारहमासा, सीता सती का बारहमासा, राजुल का बारहमासा या अन्य बारहमासा के पाठों को देखते हैं जिन्हें पुरानी महिलाएं बड़े ही मधुर कण्ठ से पढ़ा करती थीं। किन्तु आज इनका प्रचलन नहीं रहा है।
पू. चंदनामती माताजी ने सन् १९९३ में गणिनी श्री ज्ञानमती बारहमासा की रचना की जिसमें हिन्दी के १२ महीनों (चैत्र से लेकर फाल्गुन) को पू. माताजी के जीवन में समाहित करके उनकी पूरी जीवन चर्या को दर्शाया है जो पढ़ने में अतीव रोचक है एवं मन को रोमांचित करने वाला है।
जिसका विशेष रूप में आश्विन मास में पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी के जन्म दिवस (शरदर्पूिणमा) के उपलक्ष्य में पूरे महीने पाठ किया जाता है। इसमें श्रावण मास की पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन में विशेषता बताते हुए लिखा है—
मास श्रावण में ललनाएँ गाने लगीं, झूलकर रक्षाबन्धन मनाने लगीं।
ध्यान स्वाध्याय में लीन यह संघ है, आर्यिका संघ में ज्ञान का रंग है।।
श्रावणी मास सचमुच सफल हो गया, पाके गणिनी शिरोमणि श्रुताभ्यास को।।५।।
बारहमासा सुनो ज्ञानमती मात का, जिनने निज में समाया सभी मास को।
इन गुरुओं की कठिन तपश्चर्या को बताने वाला यह पाठ हम सभी को अपने जीवन में संयम, ज्ञान, चारित्र की अभिवृद्धि करने की प्रेरणा प्रदान करने वाला है।
सन् २००८ में देश की प्रथम महिला राष्ट्रपति प्रतिभादेवी िंसह पाटील का ‘‘विश्वशांति अिंहसा सम्मेलन’’ के उद्घाटन अवसर पर जंबूद्वीप हस्तिनापुर में आगमन हुआ। पूरे वर्ष भर विश्व में शांति की कामना हेतु अनुष्ठान, पूजा विधान आदि कार्य देश भर में हुए।
उसी वर्ष में ‘‘विश्वशांति चालीसा’’ पाठ को लघु पुस्तिका में प्रकाशित किया गया तथा अनेक स्थानों पर तथा जंबूद्वीप स्थल पर पूरे वर्ष भर इस चालीसा के पाठ के माध्यम से विश्व में सुख, शांति, समृद्धि की कामना की गई।
इसी पुस्तक में एक प्रेरणास्पद लघु कथानक ‘‘आज के मानव में कलियुग का रूप दिखाई देता है’’—काव्य रूपक’’ के द्वारा माताजी ने कलियुग व सतयुग के मानवों के भावों को सुन्दर रूप में उदाहरण देकर प्रस्तुत किया है। जिसे नाटिका के रूप में मंचन करके बच्चों तथा बड़ों सभी को अिंहसा धर्म का पालन करने का तथा सत्कार्य करने की प्रेरणा मिलती है।
इस पुस्तक में सरस्वती एवं लक्ष्मी माता की आराधना के लिये दोनों देवियों के पंचामृत अभिषेक की पूरी विधि, पूजन, शृंगार करने की विधि, सरस्वती के १०८ मंत्र, संस्कृत हिन्दी के स्तोत्र पाठ तथा आरती हैं।
पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित सरस्वती पूजन अैर पूज्य चंदनामती माताजी द्वारा जैन आगम अनुसार र्विणत महालक्ष्मी देवी की पूजन भी इस पुस्तक में है जिसे करके आबाल-गोपाल सभी मनोवांछित फल की प्राप्ति करते हैं। इस प्रकार सरस्वती-लक्ष्मी माता की आराधना की पूरी विधि इस पुस्तक के द्वारा करके ज्ञान, धन व सुख, समृद्धि, वृद्धि की कामना पूर्ण होती है। पूज्य चंदनामती माताजी ने महालक्ष्मी माता की जयमाला के अंत में यही भाव दिये हैं कि—
है यही भाव ‘‘चंदनामती’’, रत्नत्रय की संपति पाउँ।
उस संपति से मैं शीघ्र तीन-लोकों की संपति पा जाउँ।।
जो भौतिक संपति मिले उसी में, संतोषामृत पान करूँ।
बस श्रेष्ठ निराकुल मन होकर, निज आतम में विश्राम करूँ।।
पू. चंदनामती माताजी ने सर्वप्रथम ब्र. कु. माधुरी के रूप में सन् १९८० में ‘‘मातृभक्ति’’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें पू. आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की पूजन, उनकी जीवन झांकी, भजन आदि तथा उनकी जन्मदात्री माँ आर्यिका रत्नमती माताजी (जो इनकी स्वयं की भी माँ थीं) का परिचय अपनी लेखनी से निबद्ध किया।
‘‘मातृभक्ति’’ नाम से ५१ काव्यों में पू. आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के बचपन से लेकर, सन् १९८० तक के सम्पूर्ण जीवन वृत्त को एवं पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के भी प्रेरणादायी प्रसंगों को सुंदर शब्दों में माला की तरह पिरोकर के मातृभक्ति से ओत प्रोत होकर माताद्वय (पू. आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी तथा पू. आर्यिका श्री रत्नमती माताजी) के चरणों में अपनी सुमनांजलि अर्पित की है।
तीनों लोकों में सबसे पूज्य सबसे ऊँचे सुमेरु पर्वत (सुदर्शन मेरू) की वंदना पू. ज्ञानमती माताजी तथा अन्य अनेक भक्तों ने लिखी है। जिसका संकलन कु. माधुरी शास्त्री (संप्रति—आर्यिका चंदनामती माताजी) ने किया।
जिसका प्रथम संस्करण सन् १९८४ में प्रकाशित हुआ है। पूज्य माताजी द्वारा रचित उपरोक्त कृतियों में रचित रचनाओं को पढ़कर जो भी इस भक्ति रूपी नौका में बैठेगा वह अवश्य ही इस भवसागर से पार होने में समर्थ हो जाएगा। ऐसी रचनाएं हमें भक्ति-ज्ञान-वैराग्य की त्रिवेणी में अवगाहन कर अपनी आत्मा को पवित्र बनाने में सक्षम होती हैं।