‘‘जातौ जातौ यद् उत्कृष्टं तद् तद् रत्नमिह उच्यते’’ जो जो पदार्थ अपनी अपनी जाति में उत्कृष्ट हैं, उन्हें रत्न कहा जाता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्âचारित्र आत्मगुणों में सर्वोत्कृष्ट हैं, अतः उनको भी रत्नत्रय कहा जाता है। जैन परम्परा आत्मा के प्रति अनन्यरूप से आस्थावान है।
तीर्थंकरों, आचार्यों ने जन्म-मरण की शृंखला से छूटने के उपाय के रूप में जो कुछ भी बताया है उसका मुख्य आधार और केन्द्र बिन्दु रत्नत्रय है अर्थात् ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’’ आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित प्रथम सूत्र विशेष प्रासंगिक तथा महत्त्वपूर्ण है।
प्रज्ञाश्रमणी र्आियका चन्दनामती माताजी द्वारा रचित ‘‘श्री रत्नत्रय पूजा विधान’’ में रत्नत्रय की महिमा आगम के परिप्रेक्ष्य में पद्य परम्परा में विधान की अनुपम शैली में सरस सरल गेय पद्यों में बताकर बदले परिवेश में जिनशासन प्रभावना का अनुपम एवं अविस्मरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। माताजी ने लिखा है
सम्यक रत्नत्रय आराधन, शाश्वत सौख्य प्रदाता है।।’’
जैनाचार्यों ने कहा हैं
सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदु:।
यदीयप्रत्यनीकानि, भवन्ति भवपद्धति:।।
वास्तव में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यव्चारित्र ही धर्म हैं मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र धर्म नहीं हैं तथा संसार भ्रमण के कारण हैं। पं. दौलतराम जी ने भी छहढाला में सम्यग्दर्शन की महिमा बताई है—
मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान, चरित्रा।
सम्यव्âत्वा न लहें सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा।।
प्रथम सम्यग्दर्शन पूजा में पूज्य माताजी ने सम्यग्दर्शन के १२ अर्घ चढ़ाने की बात सरल पद्यों में बताई है।
उपशमसम्यक्त्व, वेदकसम्यक्त्व, क्षायिकसम्यक्त्व एवं निश्चयसम्यक्त्व के हैं तथा सम्यग्दर्शन के निशंकित आदि आठ गुणों के अर्घ बताकर पूर्णार्घ तथा जयमाला में सभी का रोचक वर्णन किया है। माताजी ने सम्यग्दर्शन की महिमा सरल शैली में बताई है
जैसे जड़ के बिना वृक्ष नहिं, टिक सकता है पृथ्वी पर।
नहीं नींव के बिना बना, सकता कोई मंजिल सुन्दर।।
वैसे ही सम्यग्दर्शन बिन, रत्नत्रय नहीं बन सकता।
यदि मिल जावे सम्यग्दर्शन, तब ही मुक्तिपथ बनता।।
सम्यग्ज्ञान पूजन में ४८ अर्घों के माध्यम से ज्ञान की महती आराधना सरस गेय पद्यों में की गई है। हम सभी ज्ञान की महिमा जानते हैं—
‘‘ज्ञान समान न आन, जगत में सुख को करण।
इह परमामृत जन्म-जरा-मृत् रोग निवारण।।’’
पूज्य माताजी ने सम्यग्ज्ञान का महत्त्व पूर्णाघ्र्य में कहा है
‘‘उस सम्यग्ज्ञान के पाँच भेद, मति श्रुत आदिक माने जाते।
स्वर-व्यंजन युत आदिक अठ, शुद्धी युत ये हैं पाले जाते।।
हम उसी ज्ञान की पूजन का, पूर्णाघ्र्य चढ़ाने आए हैं।
हो ज्ञानज्योति की प्राप्ति, ‘चन्दना-मती’ भाव ये लाए हैं।।’’
भाव यह है कि संसारी प्राणी को सतत् ज्ञानार्जन हेतु तत्पर रहना चाहिए। पूज्य माताजी ने सम्यव्âचारित्र-पूजन में ३३ अघ्र्य निर्मित किये हैं जिसके अन्तर्गत पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्तियाँ बताकर मन-वचन-काय के निमित्त आने वाले दोषों को दूर करने की महती प्रेरणा दी है। कुल ९३ पद्यात्मक अघ्र्यों से सहित यह ‘‘रत्नत्रय पूजा विधान’’ गागर में सागर भरने की उक्ति को चरितार्थ करता है। पूज्य माताजी ने कहा है—
‘‘यथा शक्ति चारित्र को धारण, हम सबको है करना।
उससे ही चन्दनामती, भवसिन्धु से पार उतरना।।’’
श्री रत्नत्रय पूजा विधान पूज्य प्रज्ञाश्रमणी र्आियका चन्दनामती माताजी ने अपनी दीक्षा गुरु परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के शुभाशीष से मात्र ११ दिन में लिखकर पूर्ण किया यह उनकी विशेष प्रतिभा का परिचायक है। भादों मास का महीना तथा रत्नत्रय व्रत का समापन दिवस विधान की पूर्णता का अविस्मरणीय सुखद संयोग है।
विधान का उद्देश्य विशेषकर नवीन पीढ़ी को धार्मिक वातावरण में रुचिपूर्वक देवशास्त्रगुरु की भक्ति में लीन होकर जैनशासन की प्रभावना करते रहना है। रत्नत्रय की महिमा रत्नत्रय पूजन में बताई हैं
‘‘सम्यग्दर्शनज्ञान व्रत, इस बिन मुक्ति न होय।
अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदे जलैं दव लोय।।’’
श्री शांति विधान में रत्नत्रयरूप धर्म की महिमा अरिहन्त प्रभु की भक्ति के प्रसंग में बताई गई हैं
‘‘अर्चना शुभभाव से, अरिहन्त की जो नित करें।
श्रावकोत्तम व्रत धरन, सद्बुद्धि को वे नर वरें।।’’
‘‘भावना षोडश विमल प्रभु, अर्चना से प्राप्त हों।
तीर्थंकर पदवी मिले, जिससे कि निश्चय आप्त हों।।’’
आगे रत्नत्रय की महिमा बताई हैं
‘‘रत्नत्रयामृत से विभूषित, ध्यान के उपयोग से।
निर्मल यथा विख्यात हो, जिन अर्चना के योग से।।
जिननाथ पूजा से सफल, निज देह को जो नर करें।
आश्चर्य क्या यदि मोक्षलक्ष्मी, को सहज ही वे करें।।’’
विधान के समापन में माताजी ने यह भावना भाई है
‘‘जो भव्य रत्नत्रय की पूजा सदा करें।
त्रयरत्न प्राप्ति का प्रयत्न ही सदा करें।।
वे रत्नत्रय धारण के फल को प्राप्त करेगें।
तब ‘‘चन्दनामती’’ वे आत्मतत्त्व लहेगें।।’’
रत्नत्रय विधान एक कालजयी रचना है। पूज्य दीक्षा गुरु ज्ञानमती माताजी के शुभाशीष का फल है। विधान के अंत में प्रशस्ति की परम्परा का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया है तथा अन्त में महामंत्र ‘‘णमोकार मंत्र’’ की महिमा बताकर जैनशासन पर अटूट श्रद्धा रखने की हम सबको विशेष प्रेरणा दी गई है। पूज्य माताजी के चरणों में पवित्र भावपूर्ण ‘‘वंदामि’’ समर्पित करता हूँ।