भारतीय संस्कृति में ग्रहों का विशेष महत्व है। आकाशमण्डल में विद्यमान ये ग्रह नौ हैं और ऐसा माना जाता है कि ये नौ ग्रह जीव की कुण्डली के अनुसार उसे शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं। वर्तमान समय में किसी भी प्राणी का अगर कोई भी अशुभ होने लगता है तो वह ज्योतिषी के पास जाकर उसका उपाय पूछता है उस समय ज्योतिषी उसे ग्रहों के शुभ-अशुभ का फल बताकर उन ग्रहों की शांति के लिए नाना उपाय बताता है।
जैन संस्कृति में भी प्राचीन काल से ग्रहों की शान्ति हेतु नवग्रह स्तोत्र पढ़ने एवं जाप्य-अनुष्ठान करने की परम्परा रही है किन्तु उन ग्रहों की शान्ति हेतु कोई नवग्रह विधान उपलब्ध नहीं था। यह हमारा पुण्य उदय है कि बीसवीं शताब्दी में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की परम्परा में सरस्वती माता के समान परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी हैं जिन्होंने स्वयं तो ५०० ग्रन्थों की रचना की ही, साथ ही अपने शिष्यवर्ग को भी सदैव साहित्य सृजन की प्रेरणा देती रही हैं उसी क्रम में उन्होंने अपनी शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी को नवग्रहशान्ति विधान की रचना की प्रेरणा प्रदान की जिससे उन्होंने अत्यन्त सुन्दर नवग्रह विधान रचकर जनमानस को प्रदान किया।
यह विधान अतिशयकारी है इसको करने से अनेक प्राणियों की विघ्न बाधा दूर होती देखी गयी है। वास्तव में जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में बहुत शक्ति होती है जब हम श्रद्धा से भक्ति करते हैं तो हमारे जो पाप कर्म हैं वह पुण्य में बदल जाते हैं। इस विधान की समुच्चय पूजा में नवतीर्थंकरों की अर्चना की है पुनः अलग-अलग ग्रहों की शान्ति हेतु अलग-अलग तीर्थंकरों की पूजा है इस प्रकार इस विधान में कुल १० पूजा, नव अर्घ्य और दस जयमाला हैं, अन्त में समुच्चय जयमाला है कुल २० अर्घ्य मण्डल पर चढ़ाने का विधान है।
भक्तगण इस विधान को मात्र २ – ३ घंटे में करके अपने ग्रहों की शांतिकर पुण्य का वर्धन करते हैं। इस विधान को करके भव्य प्राणी अपने ग्रहों की शान्ति अवश्य करें एवं जिनेन्द्र भगवान की भक्ति पर दृढ़विश्वास करें, क्योंकि उसी से सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं।
भवदुःख में डूबा संसारी प्राणी प्रायः तीन कष्टों से दुखी रहता है—शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक। इन कष्टों के आने पर वह विचलित होकर नाना प्रकार के उपाय करता है और जैसे भी बने, उसे दूर करने का प्रयास करता है फिर चाहे वह मार्ग सही हो अथवा गलत, ऐसे समय में योग्य मार्गदर्शन मिल जाने पर प्राणी न सिर्फ उचित उपाय प्राप्त करता है बल्कि भावी जीवन को सुखमय भी बना लेता है।
जैनधर्म कर्मसिद्धान्त पर आधारित है, प्रत्येक जीव को उसके अच्छे अथवा बुरे कर्म उसी के अनुरूप फल प्रदान करते हैं। जैनधर्म में प्राचीन काल से ही गुरुजन संसार दुख से दुखी प्राणियों को देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति की प्रेरणा प्रदान करते रहे हैं जिससे असाता कर्म भी साता में परिवर्तित हो जाते हैंं इसके एक नहीं, अनेकों उदाहरण शास्त्र पुराणों में मिलते हैं
जिनमें से एक घटना पद्मपुराण में वर्णित है— जब मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्र के सबसे छोटे भाई शत्रुघ्न ने मथुरानगरी पर राज्य करने की इच्छा प्रगट की, तब श्रीरामचन्द्र के मना करने पर भी शत्रुघ्न द्वारा मथुरा राज्य पर विजय प्राप्त करके शासन करने पर राजा मधुसुन्दर के दिव्यशूलरत्न के अधिष्ठाता देव ने वहाँ महामारी फैला दी जिससे मथुरा की जनता दुखी हो उठी उस समय सप्तऋषि महामुनियों के वहाँ आने से उनके शरीर से स्पर्शित हवा से वह दैवी प्रकोप दूर हो गया था।
तभी से जिनमंदिरों में उन सप्तऋषि महामुनियों की प्रतिमा विराजमान कर रोग, शोक आदि को दूर करने के लिए इनकी भक्ति आराधना की जाती है। उन सप्तऋषि भगवान की आराधना तो लोग अवश्य करते थे किन्तु हिंदी में उनका कोई विधान उपलब्ध नहीं था परन्तु हमारे पुण्योदय से उस विधान की रचना परम पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी ने की है।
इस पूजा विधान में एक समुच्चय पूजा एवं सात अलग-अलग पूजाएँ है जिनमें क्रम-क्रम से एक-एक ऋद्धिधारी ऋषिराज की वन्दना की गई है अतः इसमें कुल आठ पूजा, सात अर्घ्य एवं दो पूर्णार्घ्य है तथा अन्त में भावपूर्ण जयमाला है इस विधान को करने से रोग, शोक आदि सम्पूर्ण शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक कष्टों का निवारण होता है |
अतः इस चमत्कारी विधान को करके हमें अवश्य ही अपने दुखों का निवारण करना चाहिए और सदैव यही भावना रखनी चाहिए कि कैसी भी परिस्थिति क्यों न आ जाए, हम जिनधर्म और गुरुओं को कभी नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि धर्म और संत वह अचूक औषधि हैं जो हमें सांसारिक दुखों से निकालकर आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति कराते हैं।
जैनधर्म के वर्तमान चौबीसी के अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर हुए, वर्तमान में हम उन्हीं के शासनकाल में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पंचबालयतियों में से एक अर्थात् बालब्रह्मचारी भगवान् महावीर ने आज से लगभग २६१२ वर्ष पूर्व विहार प्रान्त की कुण्डलपुर नगरी में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी तिथि में महाराज सिद्धार्थ की महारानी त्रिशलादेवी से जन्म लिया और उसी बिहारप्रान्त के ही पावापुरी नगरी से कार्तिक कृष्ण अमावस्या को निर्वाण धाम को प्राप्त किया।
आज कालदोषवश वह प्राचीन अवशेष लुप्त हो गए और लोगों ने भगवान महावीर की जन्मभूमि को यत्र-तत्र मानना शुरु कर दिया, लौकिक पाठ्य पुस्तकों में भगवान महावीर को जैनधर्म का संस्थापक बताया जाने लगा, उन सबको देखते हुए अनेकों ग्रन्थों की रचयित्री परम पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपनी लेखनी से प्राचीन ग्रन्थों का आधार लेकर स्वयं अनेक ग्रन्थ लिखे और अपनी शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी को अनेक पुस्तकों के लेखन की प्रेरणा दी।
उसी क्रम में पू. गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने भगवान् महावीर के २६०० वें जन्मकल्याणक महोत्सव में ‘‘विश्व शान्ति महावीर विधान’’ नामक अलौकिक विधान की (छब्बीस सौ मन्त्रों से समन्वित) रचना की, साथ ही एक महावीर व्रत की भी रचना की। उस समय सर्वप्रथम उस व्रत को पू. चन्दनामती माताजी ने लिया और चार व्रतों को करते ही उस अतिशय चमत्कारी व्रत का ऐसा चमत्कार हुआ कि पू. चन्दनामती माताजी की मनोकामना सफल हुई और कमजोर अवस्था के बाद भी माताजी ने भगवान महावीर की जन्मभूमि के विकास हेतु कुण्डलपुर जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी।
आज उसी के फलस्वरूप भगवान महावीर की जन्मभूमि विश्व के मानस-पटल पर छा गई और उस जन्मभूमि का भी ऐसा चमत्कार है कि जो भी वहाँ जाता है मंत्रमुग्ध हो जाता है। उसी कुण्डलपुर नगरी के विकास हेतु पूज्य माताजी के २ वर्षीय प्रवास के मध्य भगवान महावीर के लघु विधान की मांग आने पर पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी ने पू. माताजी की प्रेरणा से माताजी द्वारा लिखित मंत्रों को आधार बनाकर इस ‘मनोकामना सिद्धि’ महावीर विधान की रचना प्रारम्भ की और पूज्य माताजी के आर्यिका दीक्षा दिवस वैशाख कृ. द्वितीया, वीर नि. सं २५३० की पावन तिथि में इसे पूज्य माताजी के चरणों में समर्पित किया।
इस विधान में मंगलाचरणपूर्वक भगवान महावीर की समुच्चय पूजा एवं उनके १०८ गुणों के १०८ अर्घ्य हैं, जिसमें क्रम से सोलहकारण के १६ अर्घ्य , १६ स्वप्न के १६ अर्घ्य , ३४ अतिशय के ३४ अर्घ्य , आठ प्रतिहार्य के आठ अर्घ्य , चार चतुष्टय के चार अर्घ्य , अठारह दोष नाशक प्रभु के १८अर्घ्य और १२ गुण के बारह अर्घ्य एवं ७ पूर्णार्घ्य और साररूप में जयमाला है जिसको करके इस भव में आप कर्मनिर्जरा करते हुए अपनी मनोकामनाओं की सिद्धि कर सकते हैं और इस अतिशयकारी विधान द्वारा भगवान की भक्ति करते हुए क्रमशः आध्यात्मिक सुख की भी प्राप्ति कर सकते हैं।
जैनधर्म में दशलक्षण पर्व का अत्यधिक महत्व है। वैसे तो यह अनादि पर्व चैत्र, भाद्रपद और माघ महीने में शुक्ल पक्ष की पंचमी से चतुर्दशी तक वर्ष में तीन बार आता है परन्तु वर्तमान में भाद्रपद मास में ही यह विशेष उत्साह के साथ मनाया जाता है। इसे पर्यूषण पर्व भी कहा जाता है। प्रत्येक प्राणी इन दस दिनों में त्याग-तपस्या पूजा-अनुष्ठान आदि करके अपने कर्मों की निर्जरा करते हैं।
वास्तव में यह त्याग और तपस्या का पर्व है। इस पर्व में आत्मकल्याण की जो शिक्षा प्राप्त होती है उसे यदि निष्ठापूर्वक जीवन में उतारा जाए तो मानव का हृदय परिवर्तन सचमुच में संभव है। इन दश दिनों में अनेक स्थानों पर बड़े-बड़े विधानों का भी लोग अनुष्ठान करते हैं जैसे—
इन्द्रध्वज, सिद्धचक्र, कल्पद्रुम इत्यादि,
काफी समय से पू. माताजी के पास भक्तों की मांग आती थी कि आप दशलक्षण विधान की रचना कर दीजिए, अतः उन्होंने चंदनामती माताजी को इस विधान की रचना करने हेतु प्रेरणा प्रदान की और मात्र १५ दिन में पूज्य चन्दनामती माताजी ने अत्यन्त सुन्दर विधान की रचना करके पूज्य माताजी को समर्पित कर दिया, जिसमें दश धर्मों का विस्तार सहित वर्णन है।
इस कल्याणकारी पूजा विधान में कुल ११ पूजाएँ है जिसमें प्रथम समुच्चय पूजन है, द्वितीय उत्तम क्षमा धर्म की पूजा में १५ अर्घ्य १ पूर्णार्घ्य , तीसरी पूजा में १२ अर्घ्य एक पूर्णार्घ्य , चौथी पूजा में १६ अर्घ्य एक पूर्णार्घ्य , पांचवी पूजा में १५ अर्घ्य १ पूर्णार्घ्य , छठी पूजा में १६ अर्घ्य एक पूर्णार्घ्य , सातवीं पूजा में २१ अर्घ्य एक पूर्णार्घ्य , आठवीं पूजा में २३ अर्घ्य १ पूर्णार्घ्य , नवीं पूजा में १० अर्घ्य एक पूर्णार्घ्य , दशवीं पूजा में १५ अर्घ्य १ पूर्णार्घ्य और ग्यारहवीं पूजा में २२ अर्घ्य १ पूर्णार्घ्य है। इस प्रकार कुल १६५ अर्घ्य और १० पूर्णार्घ्य हैं और अंत में सारभूत जयमाला है।
इन दश धर्मों का क्रमशः आराधन कर कोई भी प्राणी अपनी आत्मा को भगवान् आत्मा बना सकता है। जिसके एक नहीं अनेकों उदाहरण शास्त्र-पुराणों में मिलते हैं जिसमें सर्वप्रसिद्ध उदाहरण भगवान पार्श्वनाथ का आता है। चूँकि आज के समय में पुराणों को पढ़ने का समय किसी के पास नहीं है, ऐसे समय में भक्तिमार्ग का अवलम्बन लेकर भक्तगण कर्मनिर्जरा के साथ-साथ इन दस धर्मों का महत्व इस महिमाशाली विधान के द्वारा अच्छे से समझ सकते हैं और अपना कल्याण कर सकते हैं।
इन दस धर्मों के क्रम में कोई आचार्य सत्य को, तो कोई शौच को पहले लेते हैं इस सन्दर्भ में पूज्य माताजी की सदैव यही प्रेरणा रहती है कि हमें पूर्वाचार्यों के वचनों पर श्रद्धान करते हुए दोनों ही क्रम को सही मानना चाहिए, उसमें अपनी बुद्धि नहीं लगाना चाहिए। मुक्ति की प्राप्ति कराने में निमित्त यह विधान प्रत्येक भव्य जीव के मनोरथ को अवश्य ही सिद्ध करेगा।
जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं उन तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ये पांच कल्याणक होते हैं ऐसा शास्त्रों में वर्णन आया है। वास्तव में न तो कोई स्थल पूज्य होता है और न ही कोई भूमि पूज्य होती है किन्तु जिस स्थल पर जगत्पूज्य तीर्थंकर भगवान के पंचकल्याणक हुए हों वह क्षेत्र ही पूज्य नहीं होता अपितु उस स्थल का कण-कण पवित्र हो जाता है।
वैसे तो शास्त्रों में तीर्थंकर भगवंतों की शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या और शाश्वत निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर मानी गई है परन्तु वर्तमान में हुण्डावसर्पिणी कालदोषवश मात्र ५ तीर्थंकर ही अयोध्या नगरी में जन्में और शेष तीर्थंकर अलग-अलग स्थानों पर जन्में, इसी प्रकार २० तीर्थंकर सम्मेदशिखर से मोक्ष गए तथा चार तीर्थंकर अलग-अलग स्थानों से मोक्ष गए, जिसका वर्णन हमें चौबीसों भगवान् की पूजन और उत्तर पुराण, हरिवंशपुराण, महापुराण आदि ग्रन्थों में मिलता है।
जैन समाज में आज भी पूजा पद्धति का विशेष प्रचलन है प्रतिदिन की पूजन के अतिरिक्त आष्टान्हिक पर्व, दशलक्षण पर्व आदि में कोई वृहत् स्तर पर विधान आदि का आयोजन भी करते हैं। वर्तमान में पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित अनेकों विधान लोग अधिकाधिक संख्या में करते हैं उस शृंखला में अन्य विद्वानों द्वारा रचित कुछेक विधानों में निर्वाणभूमियों से सम्बन्धित पूजा विधान भी हैं लेकिन जन्मभूमियों की पूजा विधान कभी किसी रचनाकार द्वारा रचा गया हो, यह देखने में नहीं आया।
पिछले २०-२२ वर्षों से पूज्य माताजी की दृष्टि २४ तीर्थंकरों की जन्मभूमियों के विकास पर पड़ी और उनकी प्रेरणा से अनेक जन्मभूमियों का विकास हुआ और निरन्तर चल रहा है। तीर्थंकरों की जन्मभूमियों के विषय में प्रचलित भ्रान्तियों को दूर करने के लिए तीर्थविकास के साथ-साथ यह आवश्यक था कि उन्हें भक्तिमार्ग द्वारा इस विषय में सरलतापूर्वक समझाया जाए अतः पूज्य माताजी ने प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी को तीर्थंकर जन्मभूमि विधान की रचना करने की प्रेरणा दी और पूज्य माताजी ने कुछ ही समय में इस सुन्दर कृति की रचना कर दी। इस विधान में २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमियों की १६ पूजाएँ हैं और एक समुच्चय पूजा है, कुल १७ पूजाओं में ११३ अर्घ्य हैं जिसमें तीर्थंकरों की पंचकल्याणक भूमियों का सजीव चित्रण है।
इन १७ पूजाओं में पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित अयोध्या तीर्थ एवं हस्तिनापुर तीर्थ पूजा को पूज्य माताजी ने इसमें जोड़ा है इस मंगलकारी विधान को करने और कराने वाले निश्चितरूप से पुण्य के अर्जन के साथ-साथ सभी तीर्थंकरों के जीवन से परिचित होकर प्रत्येक व्यक्ति को उससे परिचित कराएंगे। धर्मप्रेमी बन्धुओं! परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी के बारे में कुछ भी कहना मेरे लिए नन्हें हाथों से समुद्र को नापने के समान है।
उनके गुणों का मैं क्या वर्णन करूँ, वात्सल्य तो सदैव उनकी आँखों से झलकता रहता है, आज मैं जो कुछ भी हूँ उनकी वजह से हूँ। उनके द्वारा लिखी गई शताधिक कृतियों में से मैंने यहां मात्र ५ विधानों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है अन्य कृतियों की विस्तृत जानकारी आप उन ग्रंथों का अध्ययन करके एवं अन्य सम्बन्धित आलेखों से प्राप्त कर सकते हैं।
पूज्य माताजी के इस दीक्षा रजत जयंती वर्ष में मेरी उनके चरणों में यही विनयांजलि है कि वे इस भूतल पर युगों-युगों तक विराजमान रहकर हम सबको मोक्षमार्ग में प्रेरित करती रहें और अपनी अनमोल कृतियों द्वारा हम सभी का मार्गदर्शन करती रहें। वे शतायु हों, स्वस्थ रहें, और मुझे भी उनके साथ आगे मोक्ष की प्राप्ति होवे, यही मंगल भावना है।