एक नहीं कितनी गाथाएँ इतिहासों में छिपी हुई हैं।
वीर शहीदों की स्मृतियाँ स्वर्णाक्षर में लिखी हुई हैं।।
नहीं पुरुष की पौरुषता से केवल देश का मस्तक ऊँचा।
बल्कि नारियों ने हंस-हंस कर मांगों के सिन्दूर को पोंछा।।१।।
दोनों के सर्वोच्च त्याग ने भारत को आजाद कराया।
ब्रिटिश राज्य परतंत्र बेड़ियों के बंधन से मुक्त कराया।।
आजादी की परिभाषा ने गांधी का अस्तित्त्व बताया।
रानी लक्ष्मी के रणकौशल ने जग को नारित्व दिखाया।।२।।
रंगभूमि हो धर्मभूमि या कर्मभूमि की किसी डगर पर।
नहीं भेद है कहीं देख लो ब्राह्मी और सुन्दरी का स्वर।।
वीर प्रभू निर्वाण दिवस से अब तक का इतिहास खुला है।
साहित्यिक निर्माण बालसतियों के द्वारा नहीं मिला है।।३।।
इसी देश की कन्या मैना ने र्धािमक इतिहास को बदला।
ज्ञानमती बनकर दिखलाया भारत में अब भी है सबला।
उन्हीं की पुष्टी में इंदिरा जी के बढ़ते कदमों को देखो।
आज हमें सिखलाती हैं कि देश में शासन करना सीखो।।४।।
ज्ञानमती ने जंबूद्वीप ज्ञान ज्योति का रथ चलवाया।
वरदहस्त पा माताजी का इंदिराजी ने हाथ लगाया।।
धर्मनीति और राजनीति के शुभ भावों का मधुर मेल है।
जन-जन को आलोकित करना ज्ञान ज्योति का यही खेल है।।५।।
एक ज्योति से ज्योति सहस्रों जलती जाएं अखिल विश्व में।
अन्धकार का नाम नहीं रहने पाए इस अवनीतल में।।
यूँ तो जुगनूं का किनचित टिमटिम प्रकाश होता रहता है।
किन्तु सूर्य की प्रखर कांति से उसका बल खोता रहता है।।६।।
चलो बंधुओं बढ़ते जाओ कभी शूल से मत घबराना।
शूल के पथ को तुम फूलों की कोमलता से भरते जाना।।
यही महानता है जीवन की ज्ञानमती ने सिखलाया है।
अमर विश्व में रहे ‘‘चन्दना’’ जो प्रकाश हमने पाया है।।७।।
इस पुस्तक में २ खण्ड हैं—एक जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन और दूसरा जम्बूद्वीप प्रतिष्ठापना महोत्सव का। प्रथम खण्ड में—राजस्थान में ज्ञानज्योति प्रवर्तन, ज्ञानज्योति की बंगाल यात्रा, बिहार प्रान्त में ज्ञानज्योति, ज्ञानज्योति की महाराष्ट्र प्रान्तीय यात्रा, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडू एवं आन्ध्रप्रान्त में ज्ञानज्योति भ्रमण, जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति की मध्य प्रदेशीय, गुजरात प्रान्तीय, ज्ञानज्योति का आसाम, नागालैण्ड एवं इम्फाल भ्रमण का वर्णन है। अनेक स्थानों पर नेतागणों ने पधार कर ज्योतिरथ का स्वागत किया। साधु संघों का धर्मप्रेम रहा।
अनेक भव्य जीवों ने अपनी अर्थांजलि र्अिपत कर एवं रथ का स्वागत कर महान पुण्य का संचय किया। उत्तर प्रदेशीय यात्रा पूज्य माताजी की जन्मभूमि ‘टिवैâतनगर’ से प्रारम्भ हुई जहां पर ज्ञानज्योति रथ का स्वागत करने के लिए माननीय मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी जी पधारे। माननीय मंत्री जी ने अपने उद्बोधन में कहा— ‘आज मुझ जैसे सेवक के लिए यह बड़े ही सौभाग्य का अवसर है कि जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के उत्तर प्रदेश में प्रवर्तन के शुभारंभ में मुझे टिवैâतनगर आकर ज्योति को प्रज्ज्वलित कर देश के कोटि-कोटि लोगों तक ज्ञान का प्रकाश पहुँचाने का सौभाग्य मिल रहा है।
मैं आप सभी का बहुत ही आभारी हूँ कि आपने मुझे यह अवसर प्रदान किया।’ (‘टिवैâतनगर’ में बहुत ही जोर-शोर के साथ रथ का स्वागत हुआ। जिसका वर्णन पृ. १४६ पर पूज्य माताजी ने पद्य में बहुत ही सुन्दर किया है।) द्वितीय खण्ड में हस्तिनापुर में ज्ञानज्योति का आगमन एवं अखण्ड स्थापना का वर्णन है। २८ अप्रैल १९८५ को १०४५ दिनों की सम्पूर्ण भारतयात्रा करके जब ज्ञानज्योति रथ का मंगल आगमन हुआ।
तब भारत सरकार के केन्द्रीय रक्षा मंत्री श्री पी. वी. नरिंसहराव तथा सांसद सदस्य श्री जे. के. जैन ने आकर ज्ञानज्योति रथ का भावभीना स्वागत किया। इसके बाद हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र मेंं जम्बूद्वीप परिसर में २८ अप्रैल १९८५ से २ मई १९८५ तक होने वाले जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव (पंचकल्याणक प्रतिष्ठा) का, अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार के आयोजन का चित्र सहित विस्तृत वर्णन है। ३० अप्रैल, १९८५ को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी जी हस्तिनापुर आए एवं नवर्नििमत जम्बूद्वीप रचना का उद्घाटन किया। इसमें सुदर्शन मेरु जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के बारे में चित्र सहित सुन्दर वर्णन है।
६ मार्च १९८७ से ११ मार्च १९८७ तक की चतुर्थ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं पूज्य क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज की दीक्षा समारोह का सचित्र वर्णन भी है। सन् १९९३ में लिखी हुई इस पुस्तक में सन् १९७५ से लेकर १९८३ तक १८ वर्षों में अनेक स्र्विणम उत्सव सम्पन्न हो चुके हैं—
१. सन् १९७५ में भगवान महावीर की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा।
२. सन् १९७९ में १६ चैत्यालयों से युक्त सुदर्शन मेरु पर्वत की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा।
३. सन् १९८५ में ७८ अकृत्रिम चैत्यालय में १२३ देवभवनों से समन्वित जम्बूद्वीप रचना की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा।
४. सन् १९८७ में सहस्रफणा चिन्तामणि भगवान पाश्र्वनाथ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा।
५. १३ अगस्त १९८९ श्रावण शुक्ला एकादशी को कु. माधुरी बहनजी को पूज्य ज्ञानमती माताजी ने र्आियका दीक्षा देकर र्आियका चन्दनामती माताजी बनाया।
६. ११ अक्टूबर १९९२ शरदर्पूिणमा के दिन पूज्य माताजी के ५९ वें जन्मदिवस पर माताजी को वृहद् अभिनन्दन ग्रंथ सर्मिपत किया गया एवं पूज्य माताजी को ‘युगप्रर्वितका’ की उपाधि से अलंकृत किया।
इस प्रकार अनेकों विषयों को, स्र्विणम क्षणों को, चित्र सहित इस पुस्तक में विस्तृत वर्णन किया गया है, जिसे पढ़कर पाठकगण स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि इस पुस्तक के लेखन में पूज्य प्रज्ञाश्रमणी र्आियका श्री चन्दनामती माताजी ने कितना श्रम किया है। इस ज्ञानज्योति की भारत यात्रा पुस्तक को पूज्य चन्दनामती माताजी ने पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी की ६० वीं जन्मजयन्ती के उपलक्ष्य में शरदर्पूिणमा ३० अक्टूबर १९९३ में अयोध्या में उनके पावन करकमलों में सर्मिपत किया।
‘ज्ञानज्योति की भारतयात्रा’ यह पुस्तक सभी के जीवन में ज्ञान की ज्योति को जलावे यही मेरी मंगल भावना है और पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं पूज्य प्रज्ञाश्रमणी र्आियका श्री चन्दनामती माताजी के पावन चरणों में कोटि-कोटि नमन।