विद्वत्शिरोमणि, सिद्धहस्त लेखिका, ज्ञान की अथाह भण्डार परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के समान ही उनसे दीक्षित उनकी प्रथम एवं सर्वोत्तम आर्यिका शिष्या परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी का नाम भी आज लेखन के क्षेत्र में प्रमुख रूप से जाना जाता है, अपने ५५ वर्षीय जीवन में जिन्होंने अपने दीक्षित अवस्था के २४ वर्ष अपनी गुरु के सानिध्य में बिताकर गुरुभक्ति का अनुपमेय आदर्श प्रस्तुत किया है, ४४ वर्षों तक जिन्होंने त्यागमय जीवन में रहकर नित ज्ञान गंगा में अवगाहन कर अपने प्रज्ञापुंज को प्रखर एवं तेजस्वी सूर्य के समान देदीप्यामान कर लिया है
और जिनागम रूपी समुद्र से ही सरल, सरस, परिष्कृत एवं मिष्ट भाषा शैली में १७५ अनुपम, अमूल्य मोतियों के सदृश पुस्तकों को निकालकर जिनशासन की महिमा को वृद्धिंगत करने में अपना अतुलनीय योगदान दिया है, उन्हीं में से उनके द्वारा सम्पादित स्वयं में बेजोड़ कतिपय ग्रंथों का समीक्षात्मक विवेचन यहाँ प्रस्तुत है—
प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के प्रथम पट्टाचार्य आचार्य श्री वीरसागर महाराज हुए जिन्होंने बीसवीं सदी की महान साध्वी क्षुल्लिका श्री वीरमती माताजी को आर्यिका दीक्षा देकर जिनशासन को ‘‘गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी’’ जैसी महान विभूति प्रदान की, उन्हीं गुरुदेव के गुणों का स्मरण करते हुए पूज्य माताजी के हृदय में अपने गुरु के स्मृति ग्रंथ प्रकाशन की अतीव भावना को देख उसे साकार करते हुए पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ने सन् १९९० में इसे सम्पादित किया।
यह ग्रंथ पांच खण्डों में निबद्ध है जिसमें प्रथम खण्ड में अनेक आचार्यों, मुनियों, गणिनी आर्यिकाओं, आर्यिकाओं, मनीषी विद्वानों, श्रेष्ठियों एवं कवियों की श्रद्धांजलियां हैं जिसे पढ़कर नाना दृष्टिकोण से आचार्यश्री के जीवन की महिमा का परिज्ञान होता है। द्वितीय खण्ड में चतुा\वशति स्तवपूर्वक चौबीसों तीर्थंकरों को नमन करते हुए आचार्य श्री वीरसागर जी की १०० श्लोकों में संस्कृत स्तुति, वीरसागर परिचय, उनके द्वार दीक्षित त्यागियों का परिचय, आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का अन्तिम दिव्य संदेश, उनके पट्ट पर विराजित आचार्यों की संस्कृत स्तुति आदि के माध्यम से गुरु गुणानुवाद किया गया है।
तृतीय खण्ड अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं जिसमें श्री गौतम स्वामी कृत गणधर वलय मंत्र के साथ दिगम्बर जैन मुनिचर्या का वर्णन करते हुए श्री गौतम गणधर स्वामी से लेकर श्री भगवज्जिनसेनाचार्य तक पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित पूर्वाचार्यों के शास्त्रोक्त परिचय हैं तथा लगभग ५ आचार्यों के परिचय अन्य लोगों के द्वारा लिखित हैं। चतुर्थ खण्ड में जैनागम में र्विणत अनेक उच्चकोटि के विषयों का आलेखों के माध्यम से अतीव सुन्दर वर्णन है।
पंचमखण्ड में आचार्यश्री के जीवन से सम्बन्धित चित्रावली है। कुल मिलाकर अपने आप में परिपूर्ण इस ग्रंथ के माध्यम से हम चारित्र चक्री गुरुवर की निष्कलंक परम्परा का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। वस्तुत: विषय विवेचन की दृष्टि से यह ग्रंथ अद्भुत है जो युगानुयुग तक मानव मात्र को दिशाबोध प्रदान करता रहेगा।
परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की गृहस्थावस्था की माता श्रीमती मोहिनी देवी जिन्होंने गृहस्थ अवस्था में रहते हुए समाज को अनेक रत्न दिए पुन: स्वयं आर्यिका दीक्षा धारण कर त्याग और तपस्या का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। स्फटिक मणि के समान निर्मल, उज्ज्वल एवं शुद्ध जीवन व्यतीत करने वाली पूज्य रत्नमती माताजी के गुणानुवाद में विद्वानों द्वारा यह ग्रंथ निकाला गया जिसमें अनेक विद्वानों सहित कु. माधुरी (वर्तमान में आर्यिका श्री चंदनामती माताजी) ने अथक परिश्रम किया है। इसमें पांच खण्ड हैं।
प्रथम खण्ड में आचार्यों के शुभाशीर्वाद, नेताओं की शुभकामनाएँ, विद्वानों की विनयांजलि, संस्मरण, कविताएं तथा प्रशस्तियाँ आदि हैं। द्वितीय खण्ड में आर्यिका श्री रत्नमती माताजी का जीवनदर्शन, जन्मभूमि महमूदाबाद का परिचय एवं गृहस्थ जीवन सम्बन्धी परिवार का परिचय है। तृतीय खण्ड में दीक्षागुरु आचार्य श्री धर्मसागर महाराज का परिचय, पश्चात् गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी, संघस्थ साधुओं एवं ब्रह्मचारी—ब्रह्मचारिणियों का परिचय है।
चतुर्थ खण्ड में पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी द्वारा महापुराण, उत्तरपुराण तथा पद्मपुराण के आधार से लिखित अनेक प्रमुख आर्यिकाओं एवं प्रसिद्ध प्राप्त क्षुल्लिका अभयमती जी का परिचय है, तीर्थंकरों के समवसरण में चतुर्विध संघ में आर्यिकाओं का चार्ट के आधार से आगमोक्त वर्णन है। अनन्तर अर्वाचीन आर्यिकाओं के नाम, परिचय अकारादि क्रम से हैं।
पञ्चम खण्ड में कतिपय सैद्धान्तिक लेख दिए गए हैं तथा बीच—बीच में पूज्य रत्नमती माताजी के जीवन से सम्बन्धित फोटो भी दिए गए हैं। वस्तुत: यह एक प्रेरक ग्रन्थ है जिसमें न केवल विविध अनुपम रत्नों की खान माताजी का परिचय आदि है अपितु जैनधर्म, दर्शन, साहित्य, भूगोल, खगोल, गणित, पुरातत्त्व आदि विषयक गवेषणात्मक लेख तथा अन्य सामग्री का अद्भुत संकलन है।
इस अभिनन्दन ग्रन्थ को एक संग्रहणीय ऐतिहासिक ग्रन्थ का स्वरूप प्रदान करने की आकांक्षा से एक अछूते विषय का सामयिक रूप से चयन एक स्तुत्य प्रयास है।
लगभग ७५० पृष्ठ के इस ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के अद्भुत व्यक्तित्व और कृतित्त्व के प्रति अभिवन्दन करने हेतु किया गया उनका गुणानुवाद है। इसकी सम्प्रेरिका परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी हैं। उच्चकोटि के ८ विद्वानों के सम्पादकत्व में निकाले गए इस ग्रन्थ की विषय सामग्री अनूठी है। इसमें प्रथमत: आचार्यों के शुभाशीर्वाद, नेताओं की शुभकामनाएँ विद्वानों की विनयांजलि, संस्मरण, कविताएं आदि हैं।
पुन: पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की स्तुति एवं परिचय संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, प्राकृत आदि भाषाओं में है। आगे पूज्य माताजी द्वारा लिखे गए अनेक उच्चकोटि के ग्रन्थों में से ५६ ग्रंथों पर विद्वानों एवं साधुओं द्वारा की गई विवेचनात्मक समीक्षा है पुन: परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी द्वारा लिखी गई ‘‘ज्ञानज्योति की भारत यात्रा’’ का सम्पूर्ण वर्णन है।
आगे हिन्दी, अंग्रेजी भाषाओं में हस्तिनापुर एवं जम्बूद्वीप का परिचय तथा पूज्य माताजी के संघस्थ शिष्यों, सम्पादक मण्डल आदि से हुई अनेक शास्त्रोक्त वार्ताएं हैं। इस ग्रंथ के माध्यम से हम न सिर्फ पूज्य माताजी के अप्रतिम गुणों का ज्ञान प्राप्त करेंगे अपितु जैनधर्म सम्बन्धी अनेक गूढ़विषयों का भी परिज्ञान होगा।
परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की पावन प्रेरणा से परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी के संयोजन में निकले इस ग्रन्थ से भगवान महावीरविषयक भ्रामक तथ्यों का निराकरण स्वयमेव हो जाता है। पूर्वाचार्य प्रणीत उत्तर पुराण, वीरजिणिन्दचरिउ आदि महान ग्रंथों के आधार से ११ सम्पादकों के सम्पादकत्व में निकाले गए इस ग्रन्थ की विषय सामग्री शास्त्रोक्त है।
भगवान महावीर के २६०० वें जन्मकल्याणक महोत्सव वर्ष में उनकी जन्मभूमि के विकास-जीर्णोद्धार के साथ ही निकाले गए इस छ:खण्डीय अभिनन्दन ग्रंन्थ में प्रथम खण्ड में परम पूज्य आचार्य, मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका एवं भट्टारक आदि के मंगल आशीर्वाद, अनेक राजनेताओं एवं शासन—प्रशासन अधिकारियों की शुभकामनाएँ, अनेक धीमान एवं श्रीमान् जनों की पुष्पांजलि और काव्यगंगा प्रवाहित हुई है।
२२४ पृष्ठीय यह खण्ड भक्ति भी गागर में सागर का रूप लेकर सम्पूर्ण देश का प्रतिनिधित्व करने वाला समझना चाहिए। १८४ पृष्ठीय द्वितीय खण्ड में ‘‘भगवान महावीर एवं जैनधर्म’’ विषयक लेख हैं जिसमें अनादिनिधन जैनधर्म आदि के साथ भगवान महावीर के विभिन्न पहलुओं पर दिगम्बर—श्वेताम्बर मतानुसार अन्तर, भगवान महावीर नाटिका, करणानुयोग के अनुसार जैन भूगोल की रचना जम्बूद्वीप का वर्णन तथा भगवान की दिव्यध्वनि के प्रतीक षट्खण्डागम एवं कषायपाहुड से सम्बन्धित साररूप आलेख हैं।
तृतीय खण्ड में कुण्डलपुर नगरी की ऐतिहासिकता, पुरातात्त्विक उपयोगिता आदि से समन्वित १०८ पृष्ठीय शोधपूर्ण आलेख हैं। पुन: १२८ पृष्ठीय चतुर्थ खण्ड में ‘‘तीर्थंकर भगवन्तों के पंचकल्याणक तीर्थ एवं जैन ऐतिहासिक उल्लेख’’ है। ८८ पृष्ठ वाले पंचम खण्ड में विकास के क्रम में हुए मंदिर, महल आदि के निर्माण, नंद्यावर्त महल परिसर में लगाए गए शिलालेख आदि का वर्णन है।
पुनश्च अंतिम ४० पृष्ठीय छठे खण्ड में ‘‘भगवान महावीर ज्योति रथ प्रवर्तन’’ का दिग्दर्शन है। इस प्रकार छह खण्डों में विभक्त ‘‘षट्खण्डागम’’ के समान इस अभिनन्दन ग्रंथ की रूपरेखा पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने बनाकर हम सभी को ज्ञानरूपी समुद्र में अवगाहन करने का सौभाग्य प्रदान किया है, जिसके माध्यम से हम भगवान महावीर स्वामी विषयक भ्रामक तथ्यों को मन मस्तिष्क से निकालकर शास्त्रोक्त जानकारी प्राप्त कर सवेंâगे। आगे आने वाले समय में शोर्धािथयों के लिए यह ग्रन्थ ‘मील का पत्थर’ साबित होगा।
भगवान पार्श्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव के त्रिवर्षीय कार्यक्रमों के समापन पर इस वृहत्काय कृति में पांच खण्डों में विभक्त सामग्री में ‘‘पाश्र्वनाथ भक्ति वन्दना’’ नामक प्रथम खण्ड का प्रारंभीकरण पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित पाश्र्वनाथ मंगल पाठ से हुआ है पुन: संस्कृत—हिन्दी स्तुतियाँ, कल्याण मंदिर स्तोत्र तथा अन्य काव्य कृतियाँ, भजन आदि हैं। द्वितीय खण्ड में हिन्दी—अंग्रेजी में पाश्र्वनाथ जीवन दर्शन तथा कतिपय लेखकों के महत्त्वपूर्ण आलेख हैं।
तृतीय खण्ड में भगवान पाश्र्वनाथ के पंचकल्याणक तीर्थों, प्रमुख अतिशय क्षेत्रों एवं कतिपय सातिशय प्रतिमाओं का व्यवस्थित उल्लेख किया गया है। ‘‘व्रत विधि संग्रह’’ नामक चतुर्थ खण्ड में स्वयं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अथक परिश्रम करके लगभग ६८ व्रतों का संग्रह, उनकी पूजा विधि आदि को दिया है। पुन: जैनधर्म विवेचन’’ नामक पंचम खण्ड में गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के कतिपय विशेष लेख हैं जिनके द्वारा पाठकों को जैनधर्म की शाश्वत सत्ता एवं उनके प्रमुख सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त होगा।
इन खण्डों की सारर्गिभत सामग्री के साथ-साथ ग्रंथ में भगवान पाश्र्वनाथ के तीर्थों एवं प्रतिमाओं के अनेकानेक चित्र संकलित किए गए हैं जिन्हें देखकर र्मूितयों की प्राचीनता, सौम्यता, सुन्दरता, शिल्पकला आदि का दिश्दर्शन होता है। इस ग्रन्थ के माध्यम से भगवान पाश्र्वनाथ एवं सम्पूर्ण भारत में अवस्थित उनके जिनमन्दिर, उनकी पंचकल्याणक भूमि एवं अतिशय क्षेत्रों का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है। यह ग्रन्थ एक ग्रन्थ न होकर शास्त्र रूप में है जिसका स्वाध्याय करके हम भगवान पाश्र्वनाथ के गुणानुवाद के साथ जिनागम के रहस्य को समझ सकते हैं।
परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के दीक्षित जीवन के ५० वर्षों की सम्पूर्ति पर प्रधान सम्पादिका प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी एवं १५ अन्य सम्पादकों के नेतृत्व में इस गौरव ग्रंथ का निर्माण किसी हरे भरे उद्यान की शोभा को और अधिक द्विगुणित करने के समान है। पूज्य माताजी के जीवन पक्ष को विभिन्न पहलुओं के द्वारा संक्षिप्त रूप में प्रर्दिशत करने वाले सात खण्डों में विभक्त यह ग्रन्थ विषय विवेचन की दृष्टि से अद्भुत है।
पूज्य माताजी की पचास वर्षों की साधना, र्धािमक एवं सामाजिक गतिविधियों का यह ऐतिहासिक दस्तावेज है। इस ग्रंथ के माध्यम से पूज्य माताजी के बेमिशाल व्यक्तित्व, उनके आगमोक्त चिन्तन एवं चर्या के साथ—साथ उनके द्वारा किए गए आश्चर्यकारी ऐतिहासिक कार्यों की सत्य घटनाएं सप्रमाण इतिहास के पन्नों पर हजारों वर्षों तक सुरक्षित रहेंगी। ग्रन्थ की समग्र विषयवस्तु में समाहित पूज्य माताजी के जीवन दर्शन को पढ़कर एक नहीं वरन् अनेक पीढ़ियां सदियों तक जैन संस्कृति के संरक्षण, तीर्थोद्धार, तप त्याग, देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अगाध भक्ति की प्रेरणा प्राप्त करें यही ग्रंथ प्रकाशन का उद्देश्य है।
इस प्रकार मैंने यहां अति संक्षेप में उक्त विषयों का वर्णन किया पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी जैसे विराट व्यक्तित्व के द्वारा लिखी गई अनुपमेय कृतियों पर विस्तृत आलेख भी हो सकते हैं किन्तु स्थानाभाव के कारण मैंने उनका लघु परिचय देने का प्रयास मात्र किया है। विस्तृत जानकारी आप सब उन ग्रन्थों से प्राप्त कर सकते हैं।
जिन्होंने ज्ञान और त्याग को आत्मसात किया है और गुरुभक्ति को अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया है ऐसी परम वन्दनीय पूज्य आर्यिकाश्री के श्रीचरणों में अपनी विनम्र शब्द प्रसूनाञ्जलि सर्मिपत कर चरण वन्दन करते हुए मैं उनके स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की मंगलकामना करता हूँ साथ ही यह भावना करता हूँ कि पूज्य माताजी द्वारा रचित सभी रचनाएँ प्राणी के जीवन में मिथ्या अंधकार का विनाश कर सम्यग्ज्ञान की ज्योति को प्रस्फुरित करते हुए उसके जीवन को ज्ञानालोक से प्रकाशित करती रहें।