‘‘आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी की लेखनी से’’
सिद्ध प्रभू को नमन कर, सिद्ध करूँ सब काम।
सिद्धिप्रिया की प्राप्ति कर, पाऊँ सिद्धी धाम।।
ज्ञानमती को नित नमूं, ज्ञानकली खिल जाय।
ज्ञानज्योति की चमक में, जीवन मम मिल जाय।।
अनादिनिधन जैनशासन की अनन्तानन्त तीर्थंकर शृँखला में वर्तमानकालीन शासननायक भगवान महावीर स्वामी हैं। उनके पद चिन्हों पर चलकर मोक्षमार्ग प्रर्दिशत करने वाले श्री गौतम गणधरदेव, श्री कुन्दकुन्दाचार्य आदि अनेकानेक महान आचार्य परमेष्ठी हुए तथा उन्नीसवीं—बीसवीं शताब्दी में चारित्र चक्रवर्ती प्रथमाचार्य के रूप में श्री शान्तिसागर जी महाराज प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं।
उन आचार्य श्री का सन् १९५४ में दर्शन कर अपने नेत्र सफल करने वाली एवं उस गुरू परम्परा की सात पीढ़ियों को देखने एवं संवर्धन करने वाली बीसवीं सदी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका के रूप में पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी वर्तमान साधुजगत की शिखामणि तथा सरस्वती की प्रतिर्मूित के रूप में स्वीकार की जाती हैं मुझे इस पवित्र परम्परा की शिष्यता प्राप्त करने का सौभाग्य सन् १९६९ से (११ वर्ष की उम्र से) मिला है,
यह मैं जन्म—जन्मान्तरों में संचित अपने पुण्यप्रताप का ही फल समझती हूँ। मेरे जीवन को गुरुचरणों से जोड़ने वाली दो बातों ने मुझे प्रतिक्षण सम्बोधन प्रदान किया है जिनका उल्लेख यहाँ करना मैं आवश्यक समझती हूँ। बचपन में स्कूल के अन्दर प्रार्थना में पढ़ाया जाता था कि—
वह शक्ति हमें दो दयानिधे! कत्र्तव्यमार्ग पर डट जावें।
परसेवा परउपकार में हम, जगजीवन सफल बना पावें।।
इस १०—१२ लाइन की प्रार्थना में एक लाइन विशेष हुआ करती थी—
‘‘जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें।’’
इस पंक्ति पर कई बार मैं सोचा करती थी कि कविता के रचयिता कवि ने देशभक्ति एवं कर्तव्य- परायणता की भावना से ओतप्रोत होकर ही शायद ये पंक्तियाँ लिखी हैं जो प्रत्येक सच्चे इंसान के रूप में जन्में भारतीय नागरिक को देश—समाज और परिवार के प्रति अपने कर्तव्य का भान कराती हैं। इसी भाव की पुष्टि कराती हुई मैथिलीशरणगुप्त की पंक्तियाँ भी बड़ी सटीक दिखती हैं—
‘‘भरा नहीं जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।।’’
ऐसी अनेक वीररस से भरी लाइनों वाली कविताएँ बोलने और पढ़ने का शौक मुझे बचपन से ही था, इसीलिए हर १५ अगस्त (स्वतन्त्रता दिवस) २६ जनवरी (गणतन्त्र दिवस) को स्कूल के र्वािषक उत्सव आदि कार्यक्रमों में मैं ऐसी कविताएँ, गीत अवश्य बोला करती थी और पुरस्कार भी प्राप्त करती थी। इन गीतों को पढ़ने पर मुझे सदैव ऐसा लगता था कि ‘‘क्या मैं भी कभी अपने देश या कुल—परिवार के प्रति किसी बड़े भारी कत्र्तव्य का निर्वाह कर सकती हूँ ? अथवा ‘‘क्या किसी प्रकार की वीरता का परिचय मैं भी कभी दे सकती हूँ’’ इत्यादि।
कौन जानता था कि उपर्युक्त लाइनें शीघ्र ही धार्मिक एवं सामाजिक जीवन जीने के लिए मेरी प्रेरणास्रोत बन जाएंगी। ११ वर्ष की उम्र में ही जब पूज्य आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने मेरे भविष्य को उज्ज्वल बनाने का स्वप्न देखा और उनका लघु सम्बोधन मिलते ही मुझ अल्पज्ञ बालिका ने २५ अक्टूबर १९६९— शरदर्पूिणमा के दिन दो वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। उस समय मैं सातवीं कक्षा में पढ़ती थी। बड़े भैय्या प्रकाशचन्द जी के साथ हुई ८-१० दिन की गुरुसंघ यात्रा मेरे जीवन को पूर्णरूप से परिर्वितत ही कर देगी, यह मुझे भी अनुमान नहीं था।
किन्तु एक मधुर वात्सल्यमयी सम्बोधन मिला— ‘‘माधुरी! तुम्हारी बुद्धि बहुत अच्छी है। तुम ब्रह्मचर्य व्रत लेकर मेरे पास रहो और धर्म ग्रंथों का खूब अध्ययन करके आत्मा का कल्याण एवं जिनधर्म की प्रभावना करके अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करो।’’ उसी समय मुझे गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रंथ की ३४ गाथाएँ उन्होंने पढ़ाई और मैंने याद करके जब उन्हें सुनार्इं तो वे बहुत ही प्रसन्न हो गई, फिर तो मुझसे ये उसी समय संघ में रहने के लिए प्रेरणा करने लगीं, किन्तु शायद उस समय मेरी काललब्धि नहीं आई थी अत: माता—पिता के मोह में अनुरक्त माधुरी (मैं) प्रकाश भैय्या और भाभी के साथ वापस घर गई।
वहाँ पिताजी ने छाती से चिपकाते हुए स्नेहिल हाथ मस्तक पर पेâरा और बोले—बेटा! ज्ञानमती माताजी के पास तुम नहीं रुकीं सो बड़ा अच्छा रहा, वे तो सबके बाल नोंच देती हैं (अर्थात् केशलोंच करने को वे बाल नोंचना कहते थे)। वे आगे और सन्तान मोह में कहते रहे—मुझे मेरे बच्चे—बच्चियाँ बहुत प्यारे हैं, मैं इन्हें छोड़कर नहीं रह सकता, जब भी कोई बच्चे माताजी के पास जाते हैं मुझे बड़ी चिन्ता लगी रहती हे कि मेरे बच्चे कहीं ज्ञानमती माताजी रूपी चुम्बक से चिपक न जावे। देखो न ! पहले वह खुद मुझे छोड़कर चली गई, फिर बिटिया मनोवती (आर्यिका अभयमती) को अपने पास बुला लिया, उसके बाद भी सबको समझाती रहती हैं। ओह ! मैं कैसे सहन करूँ इस वियोगजन्य दु:ख को आदि।
पिताजी को हम सब बच्चे लालाजी कहा करते थे। उनके स्नेहिल शब्दों, प्यार—दुलार और दो संतानों के वियोग से दुखी हृदय की पीड़ा देखकर यह लगा कि हमें तो लाला को छोड़कर कहीं भी नहीं जाना चाहिए। यद्यपि उस छोटी सी उम्र में मुझे ज्यादा समझ तो नहीं थी फिर भी अधिक समय उनकी सेवा (हाथ—पैर दबाना और पास में बैठकर बातें करना, सुनना, उनसे बालसुलभ चेष्टारूप पैसे मिलना आदि) में बिताना मुझे अच्छा लगता था।
एक दिन शाम को माँ के साथ मैं मंदिर जाने लगी तो पिताजी ने बड़े ध्यान से देखा और माँ से बोले—मुझे लगता है कि यह माधुरी बिटिया तुम्हारी जिन्दगी भर सेवा करेगी। उनके वे शब्द मुझे आज तक याद आते हैं और उन दूरदर्शी पिता के वाक्यों को भलीभाँति सार्थक करके मैं अपनी जन्मदात्री माँ मोहिनी की तथा आर्यिका पद में अपनी परम आराध्य के रूप में उन्हें प्राप्त करके पूज्य आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की वैय्यावृत्ति—सेवा का पुण्य लाभ प्राप्त कर सकी यही मेरा परम सौभाग्य है।
कभी—कभी मुझे लगता है कि सन् १९६९ में मैं जब जयपुर से प्रकाश भैय्या के साथ घर वापस चली गई थी, किसी अपेक्षा से वह मेरा जाना भी ठीक ही रहा, क्योंकि हमारे पिता श्री छोटेलाल जी कुछ अस्वस्थ रहते थे। उनकी यत् किञ्चित् सेवा करके मैंने भी अपना बाल्यकाल धन्य किया और २५ दिसम्बर सन् १९६९ को पिताजी णमोकार महामंत्र का श्रवण करते—करते समाधिमरणपूर्वक स्वर्गवासी हो गये। हमारी माँ मोहिनी जी प्रारम्भ से ही एक विलक्षण नारी के रूप में अपने सर्वतोमुखी कत्र्तव्य का निर्वाह करती थीं।
उन्होंने अपनी समझदारी के आधार पर ही हम सभी बच्चों को पिताजी की समाधि के क्षणों में भी रोने नहीं दिया, प्रत्युत सबको धैर्यपूर्वक महामंत्र का पाठ बोलने के लिए प्रेरित किया। पुनश्च उनकी समाधि के पश्चात् अपने पतिवियोग दु:ख को आगामी सांसारिक दु:ख प्राप्ति का कारण न बनाकर शीघ्र ही पूज्य ज्ञानमती माताजी के पास जाकर (सन् १९७० में) आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से सप्तम प्रतिमा के व्रत धारण कर लिए।
एक साध्वी की तरह गृहस्थ में कुछ समय बिताकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के पश्चात् उन्होंने सन् १९७१ में पुन: ज्ञानमती माताजी की किञ्चित् प्रेरणा प्राप्त कर अजमेर (राज.) में आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के करकमलों से आर्यिका दीक्षा धारण कर ली और ‘‘आर्यिका श्री रत्नमती माताजी’’ के नाम से एक निस्पृह योगिनी साधिका बनीं।
उनकी १३ वर्षीय तपस्या विशेष स्मरणीय बनी और उन्होंने १५ जनवरी १९८५ माघ कृ. नवमी के दिन जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में सुन्दर समाधिमरण को प्राप्त करके अपने चरम लक्ष्य को सिद्ध कर लिया। उनकी वैय्यावृत्ति करने का अवसर मुझे सदैव प्राप्त हुआ यह मेरे जीवन का विशेष सौभाग्य बना।
यूँ तो जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ मानी गई है और उसके ऋण से कोई कभी उऋण नहीं हो सकता है। किन्तु बिरली सन्तानों को अपने माता—पिता की सेवा करने का सौभाग्य मिलता है, वह सौभाग्य तो मुझे मिला ही है, साथ में पूज्य मातुश्री (आर्यिका श्री रत्नमती माताजी) के मुख से निकले वचन—‘‘माधुरी! तुम सदैव पूज्य बड़ी माताजी (ज्ञानमती माताजी) की छाया बनकर रहना, उनकी सेवा करना और विषम परिस्थितियों में भी उनका साथ नहीं छोड़ना, किसी के द्वारा विपरीत समझाने पर भी दिग्भ्रमित मत होना आदि’’
को जीवन में पालन करने का प्रयास ही मेरे जीवन की थाती बना है। मैं अपनी जननी के सम्मुख दीक्षा धारण न कर सकी, इसका कारण आत्मबल की कमजोरी थी। किन्तु उनकी वृद्धावस्था में भी कठिन तपस्या देखकर और उनकी सुन्दर समाधि के महान पलों को स्मरण कर—करके मानसिक शक्ति कुछ विकसित हुई पुन: पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की भावी आशावादी प्रेरणा एवं सम्बोधन ने मुझे आत्मजागृति का अवसर प्रदान किया।
तब मैंने चिन्तन किया कि स्वाधीनता संग्राम में सहभागी बने सरदार बल्लभभाई पटेल को आंतों का रोग था, डॉक्टर के द्वारा अधिकतम विश्राम की सलाह दिये जाने पर भी जब वे विश्राम न करके अधिक परिश्रम किया करते थे तब एक दिन पण्डित जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गाँधी ने उनके पास जाकर समझाया कि पटेलसाहब! आप डॉक्टर की बात क्यों नहीं मानते हैं, हमें अभी आपकी बहुत आवश्यकता है अत: कृपया आप हमारा अनुरोध स्वीकार करके विश्राम कीजिए और स्वस्थ होकर कार्य में सहयोग दीजिएगा। उनकी बात का उत्तर बल्लभभाई पटेल ने इस प्रकार दिया कि—
अर्थात् उन्होंने अपने शरीर की परवाह किये बिना देश की सेवा में अपने को सर्मिपत करना ही अधिक उचित समझा। ऐसी बलिदानी शक्तियाँ ही देश की आजादी में मूल जड़ रही हैं तभी भारत की जनता में जोश आया और महिला—पुरुष सभी ने वीरता के साथ अंग्रेजों से संघर्ष करके अपनी मातृभूमि भारत को आजाद कराया। जीवन्त इतिहास के इस उदाहरण ने मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ी और मैंने यह विचार किया कि—
‘‘माधुरी ! तुमने बचपन में ही जिस महान ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करके अपनी नारी पर्याय को धन्य किया है उसका चरम लक्ष्य तो आर्यिका दीक्षा धारण करना ही है, अत: आत्मबल को वृद्धिंगत करो, शरीर में शक्ति स्वयं मिलेगी। आखिर, सुकुमाल जैसे राजकुमार ने भी तो दीक्षा लेकर तपस्या की थी।’’ इस प्रकार मेरे अन्दर वीरता का संचार हुआ और मैंने आगम परम्परा तथा गुरुपरम्परा के पालन, संरक्षण एवं संवर्धन का दृढ़संकल्प लेकर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से आर्यिका दीक्षा के लिए निवेदन किया।
मेरे भव—भव में संचित पुण्यकर्म ने साथ दिया और १३ अगस्त सन् १९८९, श्रावण शुक्ला ग्यारस तिथि को पावन तीर्थ हस्तिनापुर में तीर्थंकर श्री शांतिनाथ—कुंथुनाथ—अरहनाथ की चार—चार कल्याणकों से पवित्र भूमि पर जम्बूद्वीप अतिशय क्षेत्र के परिसर में परम पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने मुझे दीक्षा प्रदान करके माधुरी से ‘‘आर्यिका चन्दनामती’’ बना दिया अर्थात् मुझ अिंकचन को त्रैलोक्य सम्पत्तिदायक रत्नत्रय देकर मालामाल कर दिया। यूँ तो मैं दीक्षा प्राप्त करके कृतकृत्यता का अनुभव करने लगी थी किन्तु असली परीक्षा तो अब दीक्षित जीवन में ही देनी थी।
अत: जो भी परीक्षा की घड़ियाँ आर्इं उन्हें गुरु आशीर्वाद से उत्तीर्ण किया और मैंने अपने २४ वर्षीय दीक्षित जीवन में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से अनेकानेक महत्त्वपूर्ण अनुभव और प्रेरणाएँ प्राप्त किये हैं। उनमें से कतिपय विशिष्ट अनुभवों का उल्लेख यहाँ कर रही हूँ। मुझे विश्वास है कि इन सूक्ति वचनों के द्वारा हमारे श्रद्धालु पाठकगण भी अवश्य लाभान्वित होंगे।
पूज्य माताजी को मैंने प्रारम्भ से ही यह कहते पाया है कि शुभ—पुण्य कार्य को करने में देर न करके उसे शीघ्र ही सम्पन्न कर लेना चाहिए, क्योंकि नीतिकारों ने कहा है—
क्षणिकत्वं वदन्त्यार्या, घटी घातेन भूभृताम्।
क्रियतामात्मनो श्रेयो, गतेयं नागमिष्यति।।
अर्थात् राजाओं के यहाँ लगी हुई घड़ी टिक—टिक करती हुई उन्हें बता रही है कि हे आर्य पुरुष! आप संसार के क्षणिकपने—्नाश्वरता को जानो और अपनी आत्मा का कल्याण करो, क्योंकि बीता हुआ समय कभी वापस नहीं आयेगा। इसी बात को कवियों ने अपनी भाषा में कहा है—
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होयगी, बहुरि करेगो कब।।
अत: हम सभी को ‘‘शुभस्य शीघ्रं’’ की अमूल्य वाणी अपने जीवन में सदैव पालन करना चाहिए।
किसी भी कार्य को करने में मन की अनुकूलता सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त जानना चाहिए। कुछ लोग ज्योतिषी मुहूर्तज्ञ विद्वानों पर अत्यधिक निर्भर होकर कोई भी कार्य करने का निर्णय ही नहीं ले पाते हैं और सदैव असफलता ही उनके हाथ आती हैं, तब वे एकदम निराश होकर बैठ जाते हैं।
ऐसे लोगों के लिए पूज्य माताजी कहा करती हैं, कि यदि तुम्हारे मन में कार्य करने का उत्साह है, सब अनुकूलताएँ हैं, घर के बड़े लोग भी प्रसन्न हैं तो पण्डितों के मुहूर्त का इन्तजार मत करो और अपने तीर्थंकर भगवान की कोई कल्याणक तिथि देखो, कार्य शुरू कर दो, फिर सफलता ही सफलता नजर आएगी।
चारित्र के पालन में, सामाजिक या धार्मिक प्रभावनात्मक कार्य करने में पूज्य माताजी की नीति बहुत ही सटीक देखी गई है कि मध्यम प्रवृत्ति अपनाकर किया गया कार्य अंतिम छोर तक सफलता ही प्रदान करता है। कुछ लोग अपने आचरण को अत्यन्त उच्चरूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं किन्तु देखा जाता है कि वे पुन: कुछ दिनों में ही बिल्कुल हार थककर परेशान हो जाते हैं।
तथा कुछ लोग अपने आत्मबल को न पहचानकर अथवा सम्यव्âचारित्ररूप चर्या को महत्त्व न देकर अपने पद के योग्य भी आचरण नहीं करते हैं। ये दोनों ही स्थितियाँ उचित नहीं हैं अत: पूज्य माताजी को मैंने हमेशा यही कहते और करते देखा है कि न अधिक ऊँचा बनने की कोशिश करो और न बिल्कुल निम्न बनो, बल्कि मध्यमवृत्तिपूर्वक शास्त्रोक्त चर्या का पालन करो, इसमें कभी पतन की संभावनाएँ नहीं रहती हैं।
पूज्य माताजी के जीवन में सफलता का यही सबसे बड़ा सूत्र रहा है। उन्होंने कभी भी अपनी उत्कृष्टचर्या का दम्भ नहीं भरा। अपने दीक्षित जीवन में उन्होंने पचास वर्ष की उम्र तक उत्कृष्ट समय मर्यादा में केशलुंचन (२ से ३ माह के अन्दर) किया, दीक्षा के बाद ३० वर्षों तक भोजन में नमक का त्याग रहा, आज ६० वर्ष के त्यागमयी जीवन में कभी चीनी—शक्कर—गुड़ नहीं लिया अर्थात् मीठा रस का आजीवन त्याग है, आहार में कभी दो रस से ज्यादा रसों का सेवन नहीं किया, सदैव एक या दो अन्न के अतिरिक्त तीसरा अन्न आहार में नहीं लिया आदि।
किन्तु उन्होंने अपने त्याग का कभी ढढोरा नहीं पीटा, प्रत्युत गंभीर (टायफाइड बुखार, पीलिया, खूनीदस्त, उल्टी आदि) बीमारी की परिस्थितियों में भी त्याग के साथ कोई समझौता नहीं किया। इसी प्रकार तीर्थों के उद्धार, विकास एवं उनके निर्माण की प्रेरणा मात्र प्रदान कर कभी उसमें लिप्त नहीं हुर्इं।
अर्थात् किसी से पैसा देने की प्रेरणा भी नहीं की, पैसे को छूने की बात तो दूर है उन्होंने किसी को अपने सामने पैसे—रुपये गिनने भी नहीं दिया, किसी धार्मिक संस्था का पैसा अपने संघ के आहार—ाबिहार में नहीं लगने दिया, मंदिर के निर्माण कार्यों की भी कभी स्वयं निगरानी करने का लक्ष्य नहीं बनाया, हमेशा निर्माण का भी मध्यम प्रारूप बनाया ताकि पूर्ण हो सके तथा मंदिर या शास्त्रीय रचनाओं (जम्बूद्वीप—तेरहद्वीप—तीनलोक आदि) के अतिरिक्त कोठी—फ्लैट—कमरा आदि अन्य चीजों के निर्माण की रंचमात्र प्रेरणा नहीं की, पानी—बिजली—वनस्पति के कार्यों की अनुमोदना भी नहीं की।
उन्होंने अपनी आर्यिका चर्या और आचार्य के समान अपने गणिनी पद की गरिमानुरूप शास्त्रोक्त मध्यमचर्या का सदैव पालन किया है और हम सबको उसी के अनुरूप शिक्षाएँ प्रदान की हैं, अत: उनके जीवन से प्राप्त प्रेरणा के आधार पर मेरा आप सभी से यही कहना है कि अपने मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मध्यम वृत्ति का सहारा लेकर सफलता के उच्चतम शिखर को प्राप्त किया जा सकता है।
यह नीति कुछ कटु अनुभवों के आधार पर प्रस्तुत की गई है। हम सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में उपगूहन एवं स्थितिकरण नामके अंग में पढ़ते हैं कि धर्ममार्ग से डिगते हुए धर्मात्मा को समझा-बुझाकर धर्म में स्थिर करना चाहिए, जैसा कि जिनेन्द्रभक्त सेठ ने एक छद्म वेषधारी क्षुल्लक को अपने चैत्यालय में छत्र में लगी वैडूर्य मणि की चोरी करने पर भी कोतवालों से उसकी रक्षा करके पुन: साधु को समझा—बुझाकर डाँटा—फटकारा तथा उपगूहन एवं स्थितिकरण अंग का पालन किया था इसीलिए उनका नाम ग्रंथकारों ने भी उदाहरण रूप में लिया है।
किन्तु विचार कीजिए कि यदि जिनेन्द्रभक्त सेठ उस चोर को बार—बार चोरी करने पर भी उसका पक्ष ही लेते रहते और उसे क्षुल्लक ही बनाए रहते तो क्या वे कर्तव्यपरायण कहे जा सकते थे ? नहीं, क्योंकि इससे जहाँ धर्ममार्ग में विकृति आती है, वहीं अन्य लोगों को पाप करने का बढ़ावा भी मिलता है। इस उदाहरण के विपरीत कुछ महापण्डित विद्वान् लोग एकल बिहारी साधुओं को प्रारम्भ में तो गुरुद्रोह का पाठ पढ़ाते हैं पुन: अगले चरण में उनके आचरण पक्ष को बिगाड़ने में साथ देते हैं और उसे स्थितिकरण अंग कह कर मोक्षमार्ग को दूषित कर देते हैं।
ऐसे अनेक प्रसंगों के आधार पर पूज्य माताजी अक्सर यह कहा करती हैं कि देखो ! उपगूहन और स्थितिकरण अंग का पहले तो असली लक्षण जानना चाहिए कि धर्ममार्ग से डिगते हुए धर्मात्मा को मात्र पदानुकूल शिक्षाएँ देकर ही धर्म में स्थिर करना स्थितिकरण अंग कहलाता है और बाहर में उसके दोषों को ढकना उपगूहन अंग कहलाता है।
एक विद्वान् ने तो एक मुनिराज को एक बार किये जाने वाले आहार के अतिरिक्त समयों में भी औषधि, रस, दूध—फल आदि देकर बाहर में उन्हें मुनि बनाये रखा, पुन: जब मुनिराज अपनी वास्तविक चर्या पालन में खुद को पूर्णत: असमर्थ मानने लगे तब तथाकथित विद्वान् ने कहा कि—मुझसे जितना स्थितिकरण बन सकता था उतना प्रयास किया, किन्तु अब मेरे बस की बात नहीं है।
अत: अब आगे आप साधुजन जानें कि कैसे क्या करना है ? मैं तो अपने घर जा रहा हँ। अन्ततोगत्वा साधु संघ ने ही किसी प्रकार उनका पदानुरूप उपगूहन एवं स्थितिकरण किया किन्तु भविष्य में उसके परिणाम भी निर्दोष गुरु परम्परा के लिए घातक सिद्ध हुए। मेरा यहाँ पाठक बन्धुओं एवं विद्वानों से यही कहना है कि कुछ नीतियाँ तो शास्त्रीय हैं जिनका पालन करने से उनकी सार्थकता सिद्ध होती है किन्तु कुछ नीति और सूक्तियाँ महापुरुषों द्वारा जीवन में प्राप्त अच्छे—बुरे सटीक अनुभवों के आधार पर स्वयं बन जाती हैं जो साक्षात् फल प्रदान करती देखी जाती हैं।
अत: पूज्य माताजी के दीर्घकालीन दीक्षित जीवन का बहुभाग मैंने अपनी आँखों से साक्षात् देखकर यह अनुभव प्राप्त किया है कि किसी का आवश्यकता से अधिक भी उपगूहन एवं स्थितिकरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसके पथभ्रष्टता के संस्कार कभी भी उभरकर मोक्षमार्ग को विकृत कर सकते हैं।
संसार से प्राय: देखा जाता है कि लोग खुशहाल वातावरण में तो भगवान की भक्ति, गुरुओं की भक्ति करते हुए बड़े धैर्य की बातें करते हैं किन्तु शारीरिक, र्आिथक, मानसिक स्थितियाँ बिगड़ जाने पर सारा धैर्य खोकर धर्म और गुरु को भी विस्मृत कर देते हैं। किन्तु पूज्य माताजी को मैंने हमेशा मेरुसम धैर्यशाली पाया है, इसीलिए वे हर भक्त को प्रेरणा प्रदान करती रहती हैं कि
देखो ! विषम परिस्थितियों में ही धर्म—धैर्य और गुरु की आवश्यकता होती है, वे ही हमारे असाताकर्म को साता में परिर्वितत करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। अत: भौतिक और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति के लिए हम सभी को हर परिस्थिति में धर्म—धैर्य और गुरु का अवलम्बन लेना चाहिए।
भोजन गरम—गरम खाने से मुँह जल जाता है यह आप सभी को मालुम है। और गरम—गरम खीर खाने से सुभौम चक्रवर्ती जैसे सम्राट राजा का क्या हाल हुआ था, यह भी पुराणों से कथा खूब सुनी जाती है कि उन्होंने गरम खीर खाने से मुँह जल जाने के कारण अपने रसोइए के सिर पर खीर का बर्तन पटक दिया, जिससे वह तुरन्त मरकर व्यन्तर देव की पर्याय में चला गया और वहाँ से मनुष्य का रूप धारण कर चक्रवर्ती से बदला लेने आया।
पुन: उसने छलपूर्वक चक्रवर्ती से णमोकार मंत्र का अपमान करवाकर उसे समुद्र में डुबोकर मार डाला जिससे वह मरकर सातवें नरक में चला गया। महानुभावों ! इन नरक के दु:खों का मूल कारण तो गरम—गरम खाना और क्रोध कषाय में लिया गया रसोइए को मारने का निर्णय ही है न। इसीलिए पूज्य माताजी अपने गुरूदेव की इस शिक्षा को जीवन में हमेशा पालन करने के साथ—साथ हर एक प्रवचन में भक्तों को प्रेरणा प्रदान करती हैं कि कभी भी तेज गुस्से में कोई निर्णय नहीं लेना, अन्यथा काम बिगड़ जाएगा।
शांत मन से लिए गये निर्णय ही सफलता प्राप्त कराते हैं। समाज में कार्य करने वाले कार्यकत्र्ताओं के लिए तथा परिवार की सुख—शांति के लिए हर छोटे—बड़े सदस्य को अपने जीवन में गांठ बांधकर रखना चाहिए कि ‘‘गरम—गरम मत खाओ, ठण्डा करके खाओ’’ के अर्थ को समझकर हमेशा शांत भाव से निर्णय लो, क्रोध में कभी कोई कार्य मत करो।
समाज का विद्वद् वर्ग प्राय: गुरुओं की आलोचना में प्रवृत्त देखा जाता है। उसका मुख्य कारण होता है गुरुओं के प्रति उनकी मिथ्या धारणा। वह धारणा गुरु की निकटता प्राप्त किये बिना दूर नहीं होती है। चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज सम्मेद शिखर यात्रा के मध्य जब कटनी (म. प्र.) पहुँचे थे तब वहाँ के प्रसिद्ध विद्वान् जगन्मोहनलाल शास्त्री उनके कट्टर विरोधी थे।
उन्होंने अपने संस्मरण में स्वयं लिखा है कि मैं जितना नजदीकी से उनकी चर्या देखकर कमियाँ निकालना चाहता था, उतनी ही मेरी श्रद्धा आचार्यश्री के प्रति बढ़गई। पूज्य माताजी आज के विद्वानों से भी यही कहती हैं कि वर्ष में कम से कम १०—१५ दिन गुरु सानिध्य में रहकर सूक्ष्मता से उनकी चर्या का अवलोकन करो। इससे तुम्हारे अन्दर संयम के प्रति रुचि बढ़ेगी एवं संयमी की आलोचना करने का साहस नहीं होगा।
गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के मुख से मैंने हमेशा सुना है कि गृहस्थ श्रावकों को रत्नकरण्ड श्रावकाचार, वसुनंदि श्रावकाचार, उमास्वामी श्रावकाचार आदि श्रावकाचर्या सम्बन्धी श्रावकाचार ग्रन्थ अवश्य पढ़ना चाहिए पुन: समयसार का स्वाध्याय करें तो वे दिग्भ्रमित नहीं होंगे। इसी प्रकार मुनि—आर्यिका आदि साधुजन भी मूलाचार ग्रंथ पढ़ने के बाद ही समयसार पढ़ें तो वे समयसार के वास्तविक सार को हृदयंगम कर सकेगे।
पूज्य माताजी हमेशा आगम ग्रन्थों के आधार से कहा करती हैं कि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवान की कन्या ब्राह्मी और सुन्दरी ने अपने उत्कट वैराग्य भावना से दीक्षा ली है। तीर्थंकरों के कन्या होना काल दोष या अभिशाप नहीं है। चक्रवर्ती के भी कन्याएँ होती हैं।
विदेह क्षेत्र के त्रिभुवनानंद चक्रवर्ती की कन्या अनंगशरा थी, जो तीन हजार वर्ष तक निर्जन वन में घोर तपश्चरण करके उसके प्रभाव से स्वर्ग में देवी होकर पुन: विशल्या हुई थी, जिसके आने मात्र से लक्ष्मण की शक्ति-अमोघशक्ति निकल गई थी। ‘श्रीमती’ राजा वङ्काजंघ की पत्नी भी चक्रवर्ती की कन्या थी…। ये चक्रवर्ती केवल माता-पिता के सिवाय अपने सास-श्वसुर को भी नमस्कार नहीं करते हैं तभी छहखंड के स्वामी होते हैं।
अर्धचक्री नारायण भी अपने सास-श्वसुर को नमस्कार नहीं करते हैं। चक्रवर्ती के ९६ हजार एवं अर्धचक्र्री के १६ हजार, बलभद्र के ८ हजार रानियाँ होती हैं। ये शलाका पुरुष भी अपने माता-पिता के सिवाय या बड़े भ्राता के सिवाय किसी को नमस्कार नहीं करते हैं। दामाद को नमस्कार की परम्परा अधिकतम किसी प्रांत में भी नहीं है। आज भी दामाद अपने सास-श्वसुर के पैर छूते हैं, नमस्कार करते हैं, न कि सास-श्वसुर उन दामाद के पैर छूते हैं। यह किनवदन्ती ‘‘ब्राह्मी-सुन्दरी’’ के बारे में कि भगवान को उनके पति को नमस्कार करना पड़ता, इसलिए दोनों कन्याओं ने विवाह नहीं किया, यह बिल्कुल गलत है।
यह किसी भी दिगम्बर जैन ग्रंथों में नहीं लिखी है। इसलिए प्रतिष्ठाचार्यों एवं विद्वानों को अपने प्रवचनों में आगम सम्मत बात ही बोलना चाहिए और कभी भी अपने माध्यम से आगम विरुद्ध दृश्य को प्रस्तुत भी नहीं करना चाहिए। भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ व अरनाथ चक्रवर्ती थे, इनके ९६ हजार रानियों में किसी के कन्याएँ न हुई हों, ऐसा असंभव है।
इस प्रसंग में भी मैंने सदैव पूज्य माताजी से दिगम्बर जैन आर्ष ग्रन्थ के अनुसार ही उपदेश प्राप्त किया है। उनका कहना है कि भगवान बाहुबली को शल्य नहीं थी, क्योंकि शल्य सहित मुनि के मन:पर्ययज्ञान व ऋद्धियाँ नहीं हो सकती हैं। बाहुबली स्वामी ध्यान में लीन थे, वे भावलिंगी मुनि थे, आदिपुराण भाग-२, पृ. २१३ से लेकर पृ.२१७ तक उनके ऋद्धियों का वर्णन है।
हाँ, उनके किंचित् विकल्प कभी-कभी हो जाता था कि मेरे भाई को मुझसे क्लेश हो गया अत: यह सौहार्द भाव मन में आ जाता था, यही कारण है उनके निर्विकल्परूप शुक्लध्यान नहीं हो पाया था। श्री भरत चक्रवती के आते ही तथा निर्विकल्प ध्यान होते ही उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया था।
श्लोक- संक्लिष्टो भरताधीश: सोऽस्मत्त इति यत्किल।
हृदस्य हार्दं तेनासीत् तत्पूजाऽपेक्षि केवलम्।।१८६।।
अर्थ-वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हुए हैं अर्थात् मेरे निमित्त से उन्हें दुख पहुँचा है यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था, इसलिए केवलज्ञान ने भरत की पूजा की अपेक्षा की थी। अर्थात् उनके हृदय में भाई भरत के प्रति सौहार्द-स्नेहभाव आ जाता था।
मैं देखती हूँ कि महापुरुषों के प्रति किसी भी प्रकार की आगम विरुद्ध बात को माताजी किम्वदन्ती के रूप में भी सहन नहीं कर पाती हैं, यह उनकी दर्शन विशुद्धि भावना का ही परिचायक है। मेरी तो सभी स्वाध्यायी भाई—बहनों के लिए यही प्रेरणा है कि पूज्य माताजी के इस भाव का समादर करते हुए सदैव आगम के वचनों की ही रक्षा करें और सम्यव्â ज्ञान का प्रचार—प्रसार करें।
जैन ग्रंथों के अनुसार-पांडवपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रंथों के अनुसार द्रौपदी के स्वयंवर में अर्जुन ने चन्द्रवेध किया था, तब द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली थी, उस समय हवा के झोंके से माला टूट गई व कुछ पुष्प इधर-उधर बैठे हुए पांडवों पर गिर पड़े, तभी किसी एक व्यक्ति ने बाहर जाकर कहा कि- ‘‘द्रौपदी ने पाँच पति वरे हैं।’’ यह किंवदन्ती फैल गई। वास्तव में द्रौपदी के लिए युधिष्ठिर और भीम ज्येष्ठ-पिता तुल्य थे तथा नकुल व सहदेव देवर-पुत्र तुल्य थे।
ये भी द्रौपदी को पुत्री व माता के समान समझते थे। ऐसा जैन महाभारत में लिखा है। इस सम्बन्ध में पूज्य माताजी सभी को प्रेरणा देती हैं कि जैन महाभारत के रूप में हरिवंशपुराण और पाण्डवपुराण ग्रन्थ का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
टी. वी. में रामायण सीरियल को देखकर अपने जैन समाज के बच्चों में भी प्राय: यही धारणा रहती है कि सीताजी अन्त में पृथ्वी में समा गई थीं किन्तु इस संदर्भ में जानना है कि जैन रामायण-पद्मपुराण, पउमचरिउ आदि ग्रंथों में लिखा है कि महाराजा दशरथ की माता का नाम ‘पृथ्वीमती’ था। वे दीक्षा लेकर आर्यिका-जैन साध्वी बनी थीं।
सीता महासती अग्निपरीक्षा के बाद केशलोंच करके आर्यिका माता श्री पृथिवीमती साध्वी के पास जाकर आर्यिका दीक्षा लेकर साध्वी बन गई थीं तथा घोरातिघोर तपश्चरण करके स्त्रीलिंग से छूटकर सोलहवें स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुई हैं। मैंने तो सीता की अग्नि परीक्षा नामक काव्यकथा में लिखा भी है—
धरती में समाने वाली तो, पापी आत्माएँ होती हैं।
सीता जैसी सतियाँ ऊरधगामी आत्माएँ होती हैं।।
उसने तो तपकर मरणसमाधी, से जीवन का अन्त किया।
फिर अच्युत स्वर्ग में जा प्रतीन्द्र, पद पाकर जीवन धन्य किया।।२८।।
स्वर्गों के सुख को भोग पुन: वह इन्द्र धरा पर आएगा।
मानुषयोनी में फिर तपकर, अविनश्वर सुख को जाएगा।
है मोक्षमहल इक अति सुन्दर, उसका राजा बन जाएगा।
फिर सिद्धिप्रिया से कर विवाह, यहाँ कभी न वापस आएगा।।२९।।
अपने जीवन में आगम की पंक्तियों को साकार करने वाली पूज्य माताजी आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी के वचनों को बताते हुए कई बार प्रेरणा देती रहती हैं कि—
आदहिदं कादव्वं, आदहिदं परहिदं च कादव्वं।
आदहिद परहिदादो, आदहिदं सुट्ठु कादव्वं।।
अर्थात् भव्यप्राणी को सर्वप्रथम आत्महित (आत्मकल्याण) करना चाहिए, पुन: पर हित (परोपकार) करना चाहिए, क्योंकि परहित की अपेक्षा आत्महित श्रेष्ठ होता है। अत: हम लोगों को भी इस पंचमकाल में अपने हीन संहनन के द्वारा सर्वप्रथम आत्महित की ओर ही ध्यान देना चाहिए।
समाज में कहीं भी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, तब विभिन्न कल्याणकों के समय तीर्थंकर भगवान के नामोच्चार में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए अर्थात् यदि भगवान महावीर का पंचकल्याणक हो रहा है तब जन्मकल्याणक के अवसर पर उनका नाम ‘महावीर कुमार’ उच्चारित नहीं करना चाहिए अपितु तीर्थंकर महावीर स्वामी या भगवान महावीर के नाम का उद्बोधन दिया जाना चाहिए।
इसी प्रकार दीक्षाकल्याणक के अवसर पर अनेकश: लोग भगवान के नाम के आगे ‘सागर’ का उच्चारण करने लगते हैं अत: चूँकि तीर्थंकर भगवान तो जन्म से ही तीनलोक के नाथ की उपमा से सुसज्जित होते हैं, जिनके गर्भ में आने के पहले ही सौधर्म आदि इन्द्रों तथा धनकुबेर द्वारा विशेष उत्सव सम्पन्न किया जाता है अत: किसी भी तीर्थंकर के दीक्षाकल्याणक में किसी सामान्य मुनि की तरह नाम में ‘‘सागर’’ लगाकर उनका उद्बोधन करना उचित नहीं है अत: तीर्थंकर महामुनि भगवान का नाम ज्योें का त्यों ही दीक्षाकल्याणक के अवसर पर उच्चारित करना चाहिए।
पूज्य माताजी इस सम्बन्ध में सदैव कहा करती हैं कि तीर्थंकर भगवान की किसी भी स्थिति की तुलना सामान्य मनुष्यों से करना उनकी अविनय को प्रर्दिशत करता है, न कि भगवान की महानता को। देखो! आचार्य श्री समन्तभद्र स्वामी ने स्वयंभूस्तोत्र के अन्दर भगवान धर्मनाथ की स्तुति में कहा है
मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यत:।
तेन नाथ! परमासि देवता, श्रेयसे जिनवृष! प्रसीद न:।।
अर्थात् हे धर्मनाथजिनेन्द्र प्रभो ! आप मनुष्यरूप में होते हुए भी आपने मनुष्यों की सहज प्रकृति का उलंघन कर दिया है, आप देवताओं के भी देवता परमदेवता—उत्कृष्टदेव हैं अत: आप हम सबका कल्याण करें। इन पंक्तियों से वास्तव में जहाँ लेखक आचार्यप्रवर की तीर्थंकर भगवान के प्रति उत्कृष्ट मान्यता झलकती है, वहीं भगवान की प्रतिमा को भी साक्षात् भगवान मानकर उनके प्रति विनयसूचक शब्दों की प्रयोगकला का भी परिज्ञान होता है।
यही भावनाएँ न जाने कहाँ से पूज्य माताजी के हृदय में कूट—कूट कर भरी रहती हैं और वे चाहती हैं कि हर साधु—विद्वान्—पण्डित—प्रतिष्ठाचार्य एवं श्रद्धालु श्रावक—श्राविकाएँ भी इन महत्त्वपूर्ण विषयों को समझकर आगमसम्मत वाणी का ही प्रयोग करें। मुझे भी पूज्य माताजी की ये सब बातें बड़ी सूक्ष्म और प्रेरणादायी लगती हैं, अत: इनके पालन में कभी कोई कठिनाई का अनुभव नहीं होता है, प्रत्युत अपने अन्दर आगम परम्परा में दृढ़रहने की भावना प्रबल होती है।
वास्तव में अपने सच्चे धर्म, शास्त्र सम्मत मान्यता, परम्परा व सिद्धान्तों में जीवन के किसी भी मोड़ पर समझौता नहीं करना चाहिए। सिद्धान्तवादी व्यक्तित्व की सदैव समाज में प्रतिष्ठा होती है और वह समाज के लिए विशेष प्रेरणा स्रोत बनता है।
‘‘समाज में आर्ष परम्परानुयायी सरस्वती पुत्रों का सदैव सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि विद्वानों ने सदा ही समाज की रीढ़बनकर धर्म की प्रभावना, संस्कृति का संरक्षण और सिद्धान्तों के प्रति कटिबद्धता का धर्म निभाया है। कुछ समय पहले ही जब प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के समय में समस्त दिगम्बर जैन पिच्छीधारियों की कुल संख्या १०० भी नहीं थी,
तब ऐसे समय में एवं उससे पूर्व के समय में निश्चित ही विद्वानों ने महान प्राचीन गं्रथों का लेखन, टीका, अनुवाद आदि कार्य सम्पन्न करके अपनी आर्ष परम्परा को जीवन्त रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है और आज भी इस दिशा में तथा विधि—विधान, प्रतिष्ठा आदि के क्षेत्र में विद्वानों की भूमिका परम आवश्यक होती है अत: समाज के लिए सरस्वती पुत्रों का योगदान एवं उनकी भूमिका सदैव सम्मान की पात्र होनी चाहिए।’’
ये विचार हैं जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी के, जो हम सबकी वर्तमान प्रेरणास्रोत हैं। इनसे हमें ज्ञान और ज्ञानी की पहचान का सन्देश मिल रहा है। वर्तमानकालीन विद्वानों से भी मेरी साग्रह प्रेरणा है कि वे संयमी साधु—साध्वियों के द्वारा सम्मान प्राप्त होने पर उसका मूल्यांकन करें तथा अपने जीवन में भी ज्ञानाराधना के साथ—साथ यथाशक्ति चारित्र को अपनाकर समाज में संयम और संयमी की प्रतिष्ठा कायम रखें। मैं कई बार इस बात को सभाओं में भी कहा करती हूँ—
गुरु का कहना हम ज्ञान रखें, लेकिन चारित्र न खो डालें।
आचरण छूट जाए जिससे, हम ऐसा बीज न बो डालें।।
चारित्रहीन यदि ज्ञान मिला, तो बेड़ा पार नहीं होगा।
केवल कोरी इन बातों से, जग का उद्धार नहीं होगा।।
अर्थात् चारित्रधारी ज्ञानी—विद्वानों का समाज सदा सम्मान करें ये प्रेरणादायी वचन हमारे लिये सर्वथा मान्य हैं और पूज्य माताजी जैसी महान साध्वी की यह दूरर्दिशता का परिचायक है।
पूज्य माताजी आज की पीढ़ी के लिए हमेशा कहा करती हैं कि धर्म की प्रभावना यथासंभव करने का प्रयास रखना चाहिए। इसके लिए वर्तमान में उपलब्ध आधुनिक उपकरणों में टी. वी. चैनल, वी. सी. डी., इंटरनेट, कम्प्यूटर आदि के माध्यम से धर्मप्रभावना का यथोचित प्रयास करना चाहिए। भाषाओं की महत्ता के आधार पर सदा धर्म, गुरु एवं शास्त्र के वचन आवश्यकतानुसार विभिन्न भाषाओं में अनुवादित कर उनका प्रचार—प्रसार करना चाहिए।
विशेषरूप से वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में विख्यात अंग्रेजी भाषा का ज्ञानार्जन एवं जैनधर्म की शिक्षाओं, सिद्धान्तों एवं विभिन्न ग्रंथों का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में करके विश्वव्यापी प्रचार—प्रसार करना चाहिए। आज उनकी भावनाओं के आधार पर हम लोग इन्टरनेट पर जैन इनसाइक्लोपीडिया का निर्माण िंहदी—अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कर रहे हैं। दिगम्बर जैन समाज में यह वृहत् कार्य प्रथमबार हो रहा है।
इसके द्वारा युवापीढ़ी को विशेष ज्ञान की प्राप्ति होगी तथा जैनधर्म विश्व के कोने—कोने में सर्वोदय धर्म के रूप में प्रतिष्ठित होगा। पूज्य माताजी की इन नवोदित—दूरदर्शी प्रेरणाओं के द्वारा हमारे अन्दर नई ऊर्जा का संचार होता है और कुछ सृजनात्मक कार्य करने की भावना को साकार रूप प्राप्त होता है। इसके लिए उनका जितना उपकार माना जाए उतना कम है।
पूज्य माताजी प्राय: सभी के लिए यह प्रेरणा देती हैं कि अपने प्रवचनों में किसी तर्व को समझाने हेतु समाज के समक्ष आगम ग्रंथों के आधार पर प्रथमानुयोग के वास्तविक उदाहरणों का उपयोग करना चाहिए। काल्पनिक एवं मिथ्या उदाहरणों से धर्म को समझाने का प्रयास करना उचित नहीं है, क्योंकि अपने पुराणों में न जाने कितने सच्चे कथानक भरे हुए हैं उन्हें बतलाने से जनता के हृदय पर साक्षात् प्रभाव पड़ता है, उनके अंदर धर्मग्रंथों के स्वाध्याय की भावना जागृत होती है तथा सम्यक्त्व में भी दृढ़ता आती है।
वे हम लोगों से भी हमेशा कहा करती हैं कि कोई ऐतिहासिक तथ्य, देश में घटित हो रही तात्कालिक घटनाएँ अथवा अिंहसा से सम्बन्धित बातें प्रवचन में बताई जा सकती हैं किन्तु तथ्यहीन काल्पनिक कहानियाँ तो दुनिया सुन ही रही है, हम लोग भी यदि वही सब सुनाने लगे तो सच्ची प्रेरणास्पद कथाएँ भला कौन सुनायेगा ? अत: पूज्य श्री की यह सम्यक्त्वर्विधनी प्रेरणा हम सबके लिए निश्चित ही अनुकरणीय है।
उनका एक यह भी सन्देश रहता है कि स्वाध्याय अथवा अध्ययन किया हुआ विषय पढ़कर यदि भूल भी गये, तो भी व्यर्थ नहीं है, क्योंकि वर्तमान में पढ़ा हुआ जैन वाङ्गमय का एक भी अक्षर भले ही इस भव में हमारी स्मृति से बाहर हो जाये, लेकिन कभी न कभी किसी अन्य भव में विकट परिस्थितियों का सामना होने पर कदाचित् पुण्योदय स्वरूप वह पढ़ा हुआ ज्ञान जातिस्मरण बनकर हमें संसार भ्रमण से मुक्ति दिलाने में सहायक बन सकता है।
‘‘णमोकार महामंत्र अत्यन्त शक्तिशाली मंत्र है। इस मंत्र से चौरासी लाख अन्य मंत्रों की उत्पत्ति बतलाई गई है अत: जितने भी जैन महानुभाव हैं, उन सबको अपने घर के मुख्य द्वार पर, शयन कक्ष के मुख्य द्वार पर या अन्य किसी भी आवश्यक स्थान पर अर्थात् दूकान, ऑफिस, फैक्ट्री आदि के मुख्य द्वार पर णमोकार महामंत्र अवश्य लिखना चाहिए। यह रक्षाकवच के समान मंत्र सदैव किसी भी आपत्ति—विपत्ति में सहायता करता है।’’
ये शब्द पूज्य माताजी प्रवचन सभाओं में कहा करती हैं। इससे लोगों में अपने अनादिनिधन महामंत्र के प्रति श्रद्धान तो बढ़ता ही है, गुरुवचनों के पालन से अनेकानेक लोग इस मंत्र का साक्षात् प्रभाव देख चुके हैं कि उनके घर के बाहर तक चोर—लुटेरे आकर अपने कार्य में सफल न होकर भाग गये। माताजी को स्वयं भी णमोकार मंत्र के प्रति कट्टर श्रद्धान है, वे हमेशा इस मंत्र के जाप्य से अपने मनोरथ सिद्ध होने की बात बताती हैं।
अत्यधिक अस्वस्थ अवस्था में भी जब वे पूरा मंत्र पढ़ने में कठिनाई महसूस करती हैं तो ‘णमो अरिहंताणं’ या ‘णमो सिद्धाणं’ इन एक—एक पद मात्र का जाप्य और चिन्तन करती हैं तथा हमें भी यही प्रेरणा देती हैं कि यह मंत्र सर्वसिद्धिप्रदायक है अत: इसका जाप्य अवश्य किया करो। जो लोग विपत्ति के समय दिग्भ्रमित होकर अन्य तन्त्र—मंत्र की ओर भागने लगते हैं उन्हें प्रेरणा लेना है कि दृढ़तापूर्वक हमेशा णमोकारमंत्र की जाप्य—आराधना आदि करके अपने मन को स्थिर करना चाहिए।
इसके लिए णमोकार मंत्र का लेखन भी बड़ा प्रभावशाली सिद्ध होता है। पूज्य माताजी ने इन्हीं भावनाओं को लेकर जम्बूद्वीप—हस्तिनापुर में ‘‘णमोकार मंत्र बैंक’’ की स्थापना (सन् १९९५ में) कराई है, जहाँ भक्तों द्वारा लिखे गये करोड़ों मंत्र जमा हैं।
लौकिक व्यवहार में बच्चों के जन्मदिन अथवा शादी की सालगिरह आदि मानने की परम्परा में खूब वृद्धि हुई है। उस सम्बन्ध में पूज्य माताजी के धर्म एवं भारतीय संस्कृति पोषक विचार बच्चों—बड़ों सभी को यह प्रेरणा प्रदान करते हैं कि पहली बात जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगांठ आदि को अंग्रेजी तारीख की बजाय भारतीय परम्परा के अनुसार तिथि से मनाना चाहिए।
पुन: इन अवसरों पर केक काटना, मोमबत्ती बुझाना, गुब्बारे फोड़ना जैसी पाश्चात्य परम्परा (काटना, बुझाना, फोड़ना) में कभी विश्वास न रखकर भारतीय संस्कृति के अनुसार लड्डू (मिठाई) बनाना, खाना एवं बाँटना, भगवान के समक्ष दीप समूह को प्रज्ज्वलित करके आरती करना तथा रंग—बिरंगे गुब्बारे पुâलाकर उन्हें नील गगन में छोड़ना—उड़ाना जैसे शुभ एवं हर्षवर्धक कार्य करना चाहिए, ऐसा करना भारतीय व्यक्तित्व की ऊर्जा व िंचतन को प्रर्दिशत करता है।
प्रसन्नता के जितने दिवस अथवा वर्ष बीत गये, उसकी गिनती में एक बढ़ाकर उतने दीपों से भगवान की मंगल आरती करना चाहिए तथा उतने ही फल चढ़ाना चाहिए। मैं देखती हूँ कि उनकी ऐसी प्रेरणाएँ निश्चितरूप से फलदायी होती हैं, क्योंकि प्राय: अब अनेक स्थानों के लोग आकर पूज्य माताजी के सानिध्य में अपने जन्मदिवस, वैवाहिक रजत या स्वर्ण समारोह (२५ या ५० वर्षीय समारोह) मनाने आते हैं और होटलों के रंगारंग कार्यक्रम में धन व्यय करने की बजाय अपने सगे—सम्बन्धियों को तीर्थयात्रा एवं गुरु आशीर्वाद दिलाकर महान पुण्य का अर्जन कर लेते हैं।
इन प्रसंगों पर मैं हमेशा चिन्तन करती हूँ कि ऐसी दीर्घकालीन तपस्विनी गुरुमाता की छत्रछाया इसीलिए तो हमारे लिए सर्वाधिक उपयोगी है जिसके माध्यम से अमूल्य अनुभव प्राप्त होते हैं और संस्कृति की रक्षा हेतु आत्मशक्ति प्राप्त होती है। आज इस अनुभव के आधार पर मैं दृढ़ता से कह सकती हूँ कि आप सभी अपने बच्चों के जन्म दिन भारतीय संस्कृति के अनुसार ही मनावें और हो सके तो उन्हें उस दिन गुरुओं का आशीर्वाद अवश्य दिलवाएँ।
किसी भी धार्मिक मंच पर नाटक के मंचन के दौरान पति—पत्नी का पाठ प्राय: किसी भी लड़के—लड़की से करा दिया जाता है। यह बहुत ही दोषास्पद कार्य है। इस सन्दर्भ में माताजी कहती हैं कि एक ही िंलगधारी (लड़का—लडका या लड़की—लड़की) पात्रों को पति—पत्नी, स्त्री—पुरुष आदि का रोल करना चाहिए। अर्थात् अपनी—अपनी वेशभूषा में दोनों ही तरह के पात्र या तो स्त्री ही होवें या पुरुष ही होवें। क्योंकि किसी स्त्री—पुरुष को पति—पत्नी बना देने से दोष लगता है।
यदि सच्चे पति—पत्नी बनाते हैं, तो अति उत्तम है। इस विषय को मैंने यहाँ इसलिए लिया है कि आज धड़ल्ले से फिल्मी तरीका समाज में व्याप्त हो रहा है और प्राय: नाटक करने और देखने वालों का ध्यान इस ओर जाता ही नहीं है, जबकि २०—२५ वर्ष पूर्व तक नाटक करने वाले लोग स्वयं इस बात का ध्यान रखते हुए लड़की—लड़की या लड़के—लड़कों को ही पति—पत्नी के पात्र बनाया करते थे किन्तु आज की स्थिति में इस नीति का उलंघन हो रहा है।
इसलिए कई बार ऐसा प्रसंग भी आया है कि पूज्य माताजी ने मंच पर चलते हुए नाटकों को बीच में रोक दिया और उनको अपनी आगमनीतियों से अवगत कराया। हमारे पाठकों को भी इस विषय में अवश्य ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि दशलक्षण पर्व, महावीर जयंती आदि कार्यक्रमों में प्राय: समाज के लोग या प्रोफेसनल र्पािटयों के द्वारा अनेक प्रकार के नाटक आदि किये जाते हैं, उनमें इस बात को बताकर संस्कृति की रक्षा करें।
इसके अतिरिक्त पूज्य माताजी की एक अन्य प्रेरणा पर भी ध्यान देना है कि नाटक या झांकी में किसी लड़के—लड़की को मुनि—आर्यिका भी नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि मुनि या आर्यिका का पद एक बार ग्रहण करने के बाद उसे कभी छोड़ा नहीं जाता है। अत: उसमें जीवन्त पात्रों की बजाय स्टेचू या चित्र रखना चाहिए।
जैन समाज में प्राचीनकाल से ८४ जातियाँ प्रचलित हैं। उनमें जन्म लेने वाले सभी जाति के लोगों को अपनी—अपनी जैन जाति में विवाह करना चाहिए। इससे सज्जातित्व की रक्षा होती है। इसके अतिरिक्त कोई भी जैन द्वारा किसी भी जैन जाति के लड़के—लड़कियों के साथ विवाह करना अन्तर्जातीय विवाह कहलाता है। जैन से अतिरिक्त जातियों में विवाह विजातीय विवाह है।
पति से तलाक लेकर स्त्री द्वारा दूसरे पुरुष के साथ विवाह करना पुर्निववाह है तथा विधवा नारी द्वारा दूसरा विवाह करना विधवा विवाह कहलाता है। ये प्राचीन आगम परम्परा के विरुद्ध हैं अत: सज्जातित्व की रक्षा करते हुए ऐसे विवाह सम्बन्ध नहीं करना चाहिए, ताकि भविष्य में अपनी कुल—परम्परा में तीर्थंकर आदि महापुरुषों का जन्म होता रहे और सतत मोक्ष परम्परा चलती रहे।
आज के अत्याधुनिक युग में सहशिक्षा और मल्टीनेशनल कम्पनियों में लड़के—लड़कियों की ऊँची नौकरियों के चलते बच्चों की बदलती मानसिकता को देखकर पूज्य माताजी अत्यधिक िंचतित हो जाती हैं और वे नई पीढ़ी को अधिकाधिक सम्बोधन प्रदान करते हुए सदैव यही प्रेरणा देती हैं कि अपने कुल की रक्षा जरूर करना, अपनी जैन जाति में ही विवाह करना और अपने खानपान को शुद्ध रखना अर्थात् अन्तर्जातीय—विजातीय आदि विवाह नहीं करना, अण्डा—माँस—शराब आदि का सेवन नहीं करना यही आप लोग अपने जीवन में संकल्प रखें तो भारतीय संस्कृति की सुरक्षा कर सकेगे।
हमें गौरव है ऐसी प्रेरणा प्रदात्री की शिष्यता को प्राप्त करके, उनकी भावना और जिनधर्म की प्रभावना, भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए यदि हमारे शरीर का रोम—रोम भी सर्मिपत हो जाए तो मैं अपने जीवन की सार्थकता समझूँगी। समाज के प्रबुद्धवर्ग से भी मेरी यही अपेक्षा है कि अपनी सन्तानों को आप प्रारम्भ से ही सुसंस्कारित करने का मन बनावें और अपने कुल की पवित्रता को भंग होने से बचावें।
किसी भी धार्मिक स्थल/तीर्थ/मंदिर की परम्पराओं व मान्यताओं को अपनी मान्यतानुरूप बदलना अथवा बदलने का प्रयास करना अनुचित है। प्रत्येक तीर्थ पर प्राचीनकाल से चली आ रही मान्यता अर्थात् बीसपंथ या तेरहपंथ परम्परा आदि में हस्तक्षेप करके वहाँ अपनी नई परम्परा को थोपना नहीं चाहिए। पूज्य माताजी इस विषय में हमेशा उदारवादी दृष्टिकोण अपनाती हैं अत: कहीं भी उनके निमित्त से कोई विवाद नहीं उत्पन्न होता है।
हमें भी सदैव उन्होंने यही शिक्षा दी है कि गुरु आज्ञानुसार अपने संघ में चैत्यालय इसीलिए रखा जाता हे कि शिष्यगण अपनी आगम परम्परा (बीसपंथ) का परिपालन दृढ़तापूर्वक करें और तेरहपंथी समाज में विवाद भी न होने पाए। उनकी सर्वोदयी मान्यतानुसार किसी भी तीर्थ पर लगे प्राचीन शिलालेखों को हटाने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यदि तीर्थ का जीर्णोद्धार भी किया जाये, तब भी उन शिलालेखों को सुरक्षित निकालकर पुन: जीर्णोद्धार के उपरांत यथास्थान लगा देना चाहिए, यही प्राचीन संस्कृति के संरक्षण हेतु हमारा परम कर्तव्य है। वर्तमान में दिगम्बर जैन समाज में कार्यरत भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, तीर्थ संरक्षिणी महासभा आदि संस्थाओं के पदाधिकारी कार्यकर्ताओं को इस दूरदर्शी प्रेरणा पर सूक्ष्मता से चिन्तन एवं अमल करना चाहिए। इससे समाज में विघटन का वातावरण नहीं उत्पन्न होगा।
अपने जीवन में कतिपय सिद्धान्तों के प्रति सदैव कड़ा अनुशासन रखना चाहिए। पुन: उस अनुशासन की सीमा से स्वयं बंधकर रहना चाहिए और अन्यों से भी उसी का पालन कराना चाहिए।
पूज्य माताजी ऐसे सूत्रवाक्यों का पहले अपने जीवन में स्वयं पालन करती हैं पुन: दूसरों को उनका पालन करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं। उनके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि आर्ष परम्परा, गुरुपरम्परा की रक्षा करते हुए तथा अपनी चर्या में किसी प्रकार का दोष न लगाते हुए उन्होंने जो भारी धर्मप्रभावना के कार्य सम्पन्न किये हैं वह हम सबके लिए विशेष अनुकरणीय है।
यह शरीर नाशवान है फिर भी इसे समय—समय पर भोजन पानी दिया जाता है। अत: जितना अधिक से अधिक परिश्रम करने की आपमें सामथ्र्य है, उतना कार्य इस शरीर को नौकर मानकर इससे लेना चाहिए। आवश्यक भोजन—पानी देकर सदा ही इस शरीर का उपयोग धर्म आदि अच्छे पुरुषार्थ के लिए करते रहना चाहिए। इसी विचारधारा को उन्होंने प्रारम्भ से ही साकार करके दिखाया है।
अतिसूक्ष्म, नीरस जैसा भोजन लेकर उन्होंने अपने कोमल, कमजोर शरीर से अत्यधिक परिश्रम किया है। मैंने सन् १९६९ से तो उन्हें अपनी आँखों से देखा है कि वे रात्रि में केवल २—३ घंटे विश्राम करती थीं। अर्थात् प्रात: ३ बजे से उठकर ६ बजे तक अपनी दैनिक क्रियाओं (स्वाध्याय—प्रतिक्रमण —सामायिक) से निवृत्त होकर ३—४ घण्टे तक मुनि—आर्यिकाओं एवं शिष्य—शिष्याओं को व्याकरण—न्याय—सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्यापन कराती, पुन: आहारचर्या के तत्काल पश्चात् ११ से १२ बजे तक अध्यापन और १२ से १ बजे तक मध्यान्हकालीन सामायिक करके १ बजे से ५ बजे तक पुन: छन्द—अंलकार—साहित्य आदि विषय पढातीं।
शाम को आचार्य संघ के साथ सामूहिक प्रतिक्रमण करके सामायिक करतीं, पुन: पूर्वरात्रिक स्वाध्याय करके अष्टसहस्री ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद करने में तो कभी—कभी पूरी रात निकल जाती। संघस्थ शिष्याओं द्वारा जलाकर रखी गई लालटेन की धीमी रोशनी में दीर्घकाल तक लेखनकार्य करते देखकर संघस्थ आर्यिका जिनमती जी, पद्मावती, आदिमती जी आदि माताजी जब माताजी से आराम करने का निवेदन करतीं तो घड़ी में ३—४ बजे का समय देखकर ये बिना विश्राम किये ही पश्चिमरात्रिक, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, सामायिक करके पुन: पढ़ाने में लग जातीं।
आज भी लगभग ७९ वर्ष की उम्र में ये एक मिनट भी खाली नहीं बैठना चाहती हैं। या तो लेखन, पठन, स्वाध्याय करती हैं अथवा थकान महसूस होने पर माला फेरती हैं। हम शिष्यों के लिए तो यह अनुकरणीय है ही, प्रत्येक मानव इनके जीवन की क्रियाशीलता के प्रति नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकता है।
पूज्य माताजी अपने अनुभव बताते हुए कभी—कभी कहती हैं कि यदि कन्याओं अथवा महिलाओं को गणिनी आर्यिका माताएँ दीक्षा देवें तो आर्यिका संघ में गुरु—शिष्य परम्परा अधिक सुचारु रूप में पालन हो सकती है। उन्होंने हमें बताया कि एक बार सन् १९५७ में खानिया (जयपुर) में आचार्य संघ के सामने यह चर्चा आई कि ‘‘आर्यिकाओं द्वारा आर्यिका दीक्षा की परम्परा चलनी चाहिए।’’
चर्चा में प्रमुख थे ब्र. चांदमल जी नागौर वाले। उस समय हम लोगों ने प्रथमानुयोग के ग्रंथों का इसी दृष्टि से अवलोकन किया। तब पढ़ने में यही आया कि ‘ब्राह्मी—सुन्दरी’, चन्दना आदि प्रमुख आर्यिकाओं ने तो समवसरण में दीक्षा ली है। बाद में अन्य महिलाओं ने उन गणिनी आर्यिका से ही दीक्षा ली है। जैसाकि महापुराण (आदिपुराण) में वर्णन आता है—
भरतस्यानुजा ब्राह्मी दीक्षित्वा गुर्वनुग्रहात्।
गणिनीपदमार्याणां सा भेजे पूजितामरै:।।१७५।।
भरत की छोटी बहन ब्राह्मी भी गुरुदेव की कृपा से दीक्षित होकर आर्यिकाओं के बीच में गणिनी—स्वामिनी के पद को प्राप्त हुई थी। वह आर्यिका ब्राह्मी सर्व देवों के द्वारा पूजित हुई थी। ‘‘भगवान ऋषभदेव के समवसरण में श्री जयकुमार के दीक्षित हो जाने पर सुलोचना ने भी गणिनी ब्राह्मी आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा ले ली।।’
’ ‘‘महासती सीता ने भी सर्वभूषण केवली के समवसरण में जाकर पृथ्वीमती आर्यिका के पास में आर्यिका दीक्षा ले ली।।’’ पद्मपुराण में लिखा है—‘‘भरत के मुनि बन जाने पर माता वैकेयी ने भी विरक्त होकर तीन सौ स्त्रियों के साथ ‘पृथ्वीमती’ आर्यिका के पास जाकर आर्यिका दीक्षा ले ली।’ इन शास्त्रीय उदाहरणों के अनुसार पूज्य ज्ञानमती माताजी ने सन् १९६४ में आचार्यश्री शिवसागर जी के आदेशानुसार, कु. मनोवती को क्षुल्लिका दीक्षा देकर अभयमती नाम प्रदान किया था।
आज प्रसन्नता की बात है कि गणिनी आर्यिका सुपाश्र्वमती (स्वर्गस्थ), गणिनी आर्यिका विजयमती (स्वर्गस्थ), गणिनी आर्यिका विशुद्धमती आदि कई आर्यिकाएं, भी क्षुल्लिका, आर्यिकादि दीक्षाएँ दे चुकी हैं। अब तो वह आर्यिका द्वारा आर्यिका दीक्षा का मार्ग प्रशस्त हो गया है। सो अच्छी बात है। आर्यिका से दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में माँ, बेटी जैसा अप्रतिम—सहज वात्सल्य बना रहता है। ऐसी अनुभव की बात है।
यद्यपि पूज्य माताजी ने स्वयं ही प्रारम्भ से अपने द्वारा घर से निकाली गई शिष्याओं (जिनमती जी, पद्मावती जी, आदिमती जी, रत्नमतीजी आदि) को आचार्यों के कर—कमलों से ही दीक्षा दिलाई है किन्तु उनका मानना है कि आर्यिकाओं द्वारा आर्यिका दीक्षा देने की स्वस्थ परम्परा चलनी चाहिए। इससे शिष्याओं में अपनी गुरुमाता के प्रति विशेष श्रद्धा एवं अनुशासन पालन की भावना बनती है। इनके उपकारों का बदला मैं कभी नहीं चुका सकती जैसे गूंगा व्यक्ति अति स्वादिष्ट भोजन की प्रशंसा अपनी जिह्वा से बता नहीं पाता है उसी प्रकार अपने ऊपर किये गये इनके उपकारों को मैं भी अपने मूक शब्दों में लेखनीबद्ध करने में सक्षम नहीं हो सकती हूँ।
यदि एक—दो—चार—दस प्रसंग हों तो कदाचित् उन्हें शब्दों या लेखनी में प्रर्दिशत भी किया जा सकता है किन्तु जिसके शरीर का रोम—रोम, वाणी का हर शब्द, आचरण का हर चरण तथा जीवन का हर पल इन्हीं के द्वारा सहेजा, संवारा गया है उसके प्रति कुछ कहना सूर्य की आरती दीपक से करने और गंगा नदी के जल से गंगा को ही तर्पण करने के समान ही है। मेरा तो उनके चरणों में यही निवेदन है कि—
माता तेरे उपकारों का बदला न चुकाया जा सकता।
गुरु एवं माता दोनों का वात्सल्य सरस तुझमें बहता।।
है जनम—जनम का पुण्य मेरा जो मुझे मिली तेरी ममता।
मैंने निंह देखी अन्य किसी में तुझ जैसी अनुपम क्षमता।।
प्रिय पाठक बन्धओं ! मैंने पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के तपोमयी पवित्र जीवन को सन् १९६९ से स्वयं नजदीकी से देखा तथा हर पल उनकी तपस्या को अपने अन्दर समाहित करने का प्रयास मात्र किया है। यदि कोई भक्तगण भक्ति के वश होकर मेरी व्यक्तिगत प्रशंसा करें तो उनकी अज्ञानता है, उनके लिए मेरा यही कहना है—
चन्दनामती कुछ और नहीं, माँ ज्ञानमती की पदरज है।
केवल इनके आशीषों की, मेरे जीवन में सजधज है।।
मैं तो थी मात्र अधूरी ही, जब तक गुरुसंग नहीं पाया।
अब गणिनी ज्ञानमती माता की, मुझको मिली छत्रछाया।।
मेरी दीक्षा के २४ वर्ष की पूर्णता एवं २५ वीं वर्षगाँठ के अवसर पर गुरु चरणों में मेरी यही प्रार्थना है—
‘‘आशीर्वाद दो मात मुझे रत्नत्रय की वृद्धि होवे।
चारित्र मुझे जो दिया आपने उसकी नित शुद्धी होवे।।
गुरुचरणों की छाया मुझको भव—भव में ही मिलती जावे।
जब तक निंह मुक्ति मिले मुझको आशीष आपका ही पावे।।’’