(स्वयंवर प्रथा का प्रारम्भ जिनसे हुआ)(सर्वप्रथम सामूहिक प्रार्थना का एक दृश्य दिखावें। सम्भव हो तो हस्तिनापुर के इतिहास से सम्बन्धित भजन लेवें।)
पहला दृश्य
कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में भगवान ऋषभदेव के द्वारा राजाधिराज पद पर स्थापित राजा सोमप्रभ राज्य करते थे। उनकी लक्ष्मीमती नामक रानी से १५ पुत्र उत्पन्न हुये जिसमें प्रथम जयकुमार थे। यही आगे जाकर चक्रवर्ती सम्राट भरत के सेनापति के पद पर सुशोभित हुए हैं। किसी समय राजा सोमप्रभ संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर बड़े पुत्र जयकुमार को राज्य सौंपकर छोटे भाई श्रेयांस के साथ भगवान के समवसरण में दीक्षित हो गये। इधर जयकुमार पिता के पद पर आसीन होकर पृथ्वी का पालन करने लगे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी।
राजदरबार का दृश्य
(राजा जयकुमार अपने मंत्रियों और सभासदों के साथ बैठे वार्ता कर रहे हैं।)
राजा जयकुमार—मंत्रिवर! कहिये, राज्य में सर्वत्र कुशल तो है ना।
मंत्री—जी राजन्! जहाँ आप जैसा न्यायनीति में कुशल, प्रजावत्सल राजा हो वहाँ भला क्या दु:ख हो सकता है ?
राजा जयकुमार—फिर भी मंत्रिवर! आप पूरे राज्य में इस बात का ध्यान रखियेगा कि कोई भी व्यक्ति दु:खी, असहाय, भूखा या गरीब न रहने पाये।
मंत्री—अवश्य महाराज! मुझे अपने कत्र्तव्य का पूरा ध्यान है।
दूसरा मंत्री—महाराज! चलिये, आज हम वनक्रीड़ा के लिये चलें। देखिये ना, मौसम कितना सुहावना है।
राजा जयकुमार—ठीक है, मंत्रीजी! क्रीड़ा के लिये जाने की तैयारी कीजिये और जो भी हमारे साथ जाना चाहें वे सभी आ सकते हैं।
दूसरा मंत्री—स्वामिन्! मैं अभी तैयारी करता हूँ (चला जाता है)। (राजकुमार जयकुमार क्रीड़ा के लिये उद्यान में गये और वहाँ विराजमान शीलगुप्त नामक मुनिराज के दर्शन कर धर्मश्रवण किया। उसी वन में एक साँप का जोड़ा रहता था उसने भी राजा के साथ धर्मश्रवण कर दयाधर्म का पालन किया।)
दूसरा दृश्य
(महामुनि एक शिला पर विराजमान हैं। राजा एवं मंत्री आदि बैठकर धर्म का पान कर रहे हैं।)
महामुनि—हे राजन्! हिंसा , झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह यह पाँच पाप हैं। इनसे सदा बचना चाहिये, यह दुर्गति के द्वार हैं। देखो, प्रत्येक जीव में प्राण हैं और वह जीना चाहता है। किसी भी जीव की हिंसा करने से महान पाप का बंध होता है इसलिये हमें सदैव जीवदया में तत्पर रहना चाहिये और अपनी-अपनी सामथ्र्य के अनुसार इस धर्म के पालन के लिये अणुव्रत ग्रहण करना चाहिये।
राजा—हे मुनिराज! हमें भी अणुव्रत प्रदान कीजिये। (मुनिराज उन्हें अणुव्रत देते हैं।
मंत्री-सभासद आदि भी कुछ न कुछ नियम लेते हैं तभी वह देखते हैं।)
राजा—अरे देखो तो, वह सर्प-सर्पिणी का जोड़ा, कैसा भक्ति से मुनिराज का उपदेश रूपी अमृत ग्रहण कर रहा है।
सभासद—जी राजन्! सचमुच कितने शान्त भाव से बैठा है।
मुनिराज—हे भव्यात्माओं! उस सर्प युगल ने इस दयाधर्म का पान किया है और उसे अपने हृदय में धारण भी किया है।
सभी—नमोऽस्तु भगवन्! अब हमें प्रस्थान की आज्ञा देवें (मुनिराज उन्हें आशीर्वाद देते हैं)। (राजा वहाँ से अपने सभासदों के साथ लौट आते हैं। किसी समय प्रचण्ड वङ्का के पड़ने से उस जोड़े का सर्प शान्ति से मरा और नागकुमार जाति का देव हो गया। पुन: एक बार राजा जयकुमार हाथी पर सवार होकर उसी वन में गया और वहाँ अपने साथ-साथ धर्मश्रवण करने वाली सर्पिणी को दूसरे सर्प के साथ देखकर बहुत क्रोधित हुआ।)
राजा जयकुमार—अरे! मंत्रिवर! देखो तो, यह वही सर्पिणी है जिसने मुनिराज का उपदेश सुना था किन्तु यह आज दूसरे सर्प के साथ। उसका सर्प शायद मर गया है और यह इसके साथ क्रीड़ा कर रही है। छि:! धिक्कार है ऐसी क्रीड़ा को। (ऐसा कहते ही सभी सैनिक उसे पत्थर से मारने लगे। वे दोनों भागे किन्तु सैनिकों ने लकड़ी तथा ढेलों से उन्हें मार डाला। दु:ख से मरकर सर्प तो उसी समय गंगा नदी में ‘काली’ नाम का जलदेवता हुआ। उधर पश्चाताप से भरी सर्पिणी हृदय में धर्म को धारण कर मरी और पहले पति नागकुमार देव की स्त्री हो गयी। वहाँ उसने अपने पति को जयकुमार द्वारा मारे जाने की सूचना दी, जिससे कुपित हो नागकुमार सर्प बनकर उसे काटने के लिये आया किन्तु उसकी बातें सुनकर स्तब्ध रह गया।)
राजा जयकुमार का शयनकक्ष
(एक नाग खिड़की के सहारे शयनकक्ष में प्रवेश कर रहा है, उससे अनभिज्ञ जयकुमार रात्रि के समय शयनागार में अपनी श्रीमती रानी से उस सर्पिणी के व्यभिचार की घटना सुना रहे थे।)
राजा जयकुमार—रानी! आज मैं वन में गया तो मैंने देखा कि वही सर्पयुगल जिन्होंने कभी मुनिराज का उपदेश सुना था, सर्प के मर जाने पर उसकी सर्पिणी आज दूसरे सर्प के साथ क्रीड़ा कर रही थी।
रानी—महाराज! क्या आप बिल्कुल सत्य कह रहे हैं, क्या सचमुच वह वही सर्पिणी थी।
राजा—हाँ महारानी! मैं भला उसे कैसे भूल सकता हूँ, वही थी वह सर्पिणी। सचमुच इस तिरियाचरित्र को धिक्कार है।
नागकुमार देव—(मन में) ओह! देखो तो उस स्त्री ने मुझसे अपने पाप को छिपा लिया और मैं भी कैसा नासमझ हूँ जो पत्नी के मोह में आकर इसे मारने आया था। अब इसके द्वारा धर्मशिक्षा प्राप्त कर मैं उसी सच्चे धर्म को ग्रहण करूँगा। (यह सोचकर वह देव अपने असली रूप में आकर जयकुमार की अमूल्य रत्नों से पूजा कर स्तुति करता है।)
देव—हे राजन! आप सचमुच में महान हैं। मैं आपकी स्तुति कर धन्य हो गया और आपसे धर्म शिक्षा प्राप्त कर अब मैं सच्चे धर्म को ग्रहण करूँगा और जब भी आपको कोई कार्य हो तो मुझे अवश्य ही स्मरण करें। (राजा जयकुमार उसे धर्मशिक्षा देते हैं। वह देव उन्हें पुन:-पुन: प्रणाम कर वापस लौट जाता है।) (बंधुओं! काशी देश की वाराणसी नगरी में राजा अकंपन राज्य करते थे। उनकी सुप्रभा रानी से एक हजार पुत्र एवं दो गुणवती पुत्रियाँ जन्मीं, जिनमें बड़ी पुत्री का नाम सुलोचना और छोटी पुत्री का नाम लक्ष्मीमती था। उनमें रूपवान, गुणवान होने के साथ-साथ सभी गुण विद्यमान थे। सुलोचना ने छोटी सी उम्र में ही ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से अनेकों विद्यायें प्राप्त कर लीं एवं चौंसठ कलाओं में भी निष्णात हो गयी। उस सुलोचना ने युवावस्था में श्रीजिनेन्द्रदेव की अनेक प्रकार की रत्नत्रयी जिनप्रतिमायें बनवाई और उनके उपकरण भी सोने के बनवाये। वह सम्यग्दृष्टि कन्या समय-समय पर उनकी महापूजा करती थी। एक दिन विधिपूर्वक आष्टान्हिका में प्रतिमाओं की पूजा करके उपवास किया और वह कृश शरीर वाली नवयौवना शेषाक्षत देने के लिये सिंहासन पर बैठे राजा अकंपन के पास आयी। राजा ने भी उठकर कन्या से विनयपूर्वक शेषाक्षत लेकर मस्तक पर चढ़ाया और कन्या को पारणा के लिये विदा किया। पुन: कन्या को यौवन अवस्था में देखकर मंत्रियों को बुलाकर विचार-विमर्श कर अनादि प्रसिद्ध स्वयंवर प्रथा का निर्णय किया और सर्वत्र राजाओं को बुलाने के लिये दूत भेजे।)
राजदरबार का दृश्य
राजा अकंपन—(मंत्रियों से) हे मंत्रिवर! मेरी कन्या पूर्ण यौवनवती है फिर भी इसके भावों में कोई विकार नहीं है, किन्तु अब हमें इसके विवाह का उद्यम करना चाहिये।
श्रुतार्थ मंत्री—हे नाथ! इस समय पृथ्वी पर चक्रवर्ती सम्राट भरत के पुत्र अर्ककीर्ति जैसा महान कोई नहीं है। वह सूर्य के समान तेजस्वी हैं अत: अपनी कन्या आप उसे ही देवें।
सिद्धार्थ मंत्री—राजन्! इससे अच्छे भी वर मेरी नजर में हैं। मैं आपको और भी बहुत से नाम बताता हूँ।
सर्वार्थ मंत्री—हे प्रजावत्सल! मैं आपको जो योग्य वर बताऊँगा, वह योग्यता में अर्ककीर्ति से कम नहीं है। (राजा असमंजस में पड़ जाता है, उसे देखकर चौथा मंत्री कहता है।)
सुमति मंत्री—हे महाराज! आपकी कन्या सर्वगुण सम्पन्न है। अत: आप स्वयंवर का विधान कीजिये। सभी राजपुत्रों को बुलाइये। कन्या स्वयं परीक्षा करके जिसको योग्य समझेगी उसके गले में वरमाला डालेगी तथा वही वर इस कन्या के लिये सुखदायी होगा।
राजा एवं सभी मंत्री—सचमुच, यह विचार अति उत्तम है।
राजा अकंपन—(मंत्रियों से) मंत्रिगणों, शीघ्र ही स्वयंवर की तैयारियाँ कीजिये।
सभी—(हाथ जोड़कर) जी महाराज। (सभी चले जाते हैं। स्वयंवर की तैयारियाँ जोर-शोर से शुरु हो जाती हैं। भरतक्षेत्र के नगरियों के सभी राजाओं के पास दूत हस्ताक्षरी पत्र लेकर जाते हैं। उधर स्वर्ग में विचित्रांगद नामक देव अवधिज्ञान से स्वयं को राजा अकंपन का पूर्व भव का भाई जानकर उसके पास जाता है और कहता है।) (राजा अकंपन बैठे हैं, तभी देव आता है।)
विचित्रांगद देव—हे राजन्! मेरा प्रणाम स्वीकार करें, मैं विचित्रांगद देव हूँ।
राजा अकंपन—हे देवराज! आप कहाँ से आये हैं और यहाँ आने का क्या कारण है ?
विचित्रांगद देव—राजन्! मैं पूर्वजन्म में आपका छोटा भाई था। मैं पुण्यवती सुलोचना का स्वयंवर देखने आया हूँ आप मुझे आज्ञा दें, मैं कुछ ही क्षणों में अत्यन्त सुन्दर स्वयंवर भवन का निर्माण कर दूँगा।
राजा अकंपन—ठीक है देवराज! जाइये और अपना कार्य कीजिये। (उस देव ने राजा की आज्ञा लेकर सर्वतोभद्र नाम का बहुत सुन्दर स्वयंवर भवन बनाया और रत्न तोरणों से उसे सुसज्जित किया। उस स्वयंवर के समय से ही इस संसार में कन्यारत्न के सिवाय और कोई उत्तम रत्न नहीं है यह बात प्रसिद्ध हो गयी। नियत समय के कुछ पहले राजकुमार अपनी थोड़ी बहुत सेना के साथ आने लगे। इसमें भरत चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीर्ति और चन्द्रवंशी राजा सोमप्रभ के पुत्र जयकुमार भी आये। वह भरत चक्रवर्ती के सेनापति थे। देखते ही देखते स्वयंवर का दिन भी आ गया और सर्वत्र गाजे-बाजे बजने लगे। सभी राजकुमारों ने स्वयं को अच्छी तरह शृंगारित किया और स्वयंवर मण्डप में पहुँच गये। उधर राजा अकंपन ने पूजा-विधान किया और रानी सुप्रभा ने कन्या को मंगल स्नान कराकर अरहंत देव की पूजा करायी। अनन्तर विवाहोचित वस्त्रालंकार से सजाकर सुलोचना को उसकी सखियों के साथ विवाह मण्डप में भेज दिया। सुलोचना सेना के बीच विद्यमान रथ पर सवार होकर स्वयंवर मण्डप तक आयी। पुन: राजकुमारों का निरीक्षण करते-करते आखिर में जयकुमार के पास पहुँच गयी।)
स्वयंवर का दृश्य
रथ धीरे-धीरे चल रहा है। सखी महेन्द्रदत्ता हर एक राजकुमार का नाम, देश और वंश बता रही है। महेन्द्रदत्ता—हे राजकुमारी! ये देखिये, ये नमिकुमार हैं—ये विनमि, ये सुनमि और सुविनमि। ये सभी विद्याधर राजकुमार हैं। (सुलोचना का रथ बढ़ता जाता है।)
सभी राजकुमार—(मन में) ओह! यह तो हमें छोड़कर आगे बढ़ गयी, जरूर यह किसी और राजा का वरण करेगी। (रथ विद्याधरों को छोड़कर भूमिगोचरी राजकुमारों की ओर मुड़ा। तब सभी विद्याधर राजा क्रोधित हो उठे, किन्तु सभ्यता ने उनके क्रोध को भीतर ही रोक दिया। उधर भूमिगोचरी राजाओं को देखती हुई सुलोचना बढ़ी चली जा रही है। पुन: रथ राजकुमार अर्ककीर्ति के पास पहुँच गया, तब सब सोचने लगे।)
सभी राजा—(मन में) यह भरत चक्रवर्ती का पुत्र है, सबसे अधिक माननीय है, बस सुलोचना इसी का वरण करेगी।
अर्ककीर्ति—(मन में) यह मुझे छोड़कर भला और किसका वरण कर सकती है ? (परन्तु सुलोचना का रथ एक क्षण में आगे बढ़ गया और जयकुमार के निकट ज्यों ही पहुँचा, सुलोचना ने इशारा किया, रथ रुक गया और सुलोचना ने महेन्द्रदत्ता के हाथ से रत्नमाला लेकर रथ से उतरकर दोनों हाथों से भक्तिपूर्वक जयकुमार के गले में पहना दिया। माला पड़ते ही सभी ओर वाद्यध्वनि होने लगी। राजा अकंपन और रानी सुप्रभा हर्षायमान हो जयकुमार को गले लगाकर उसे अर्धासन देते हैं, पुष्पवृष्टि होने लगी।) (यहाँ वरमाला का दृश्य दिखावें।)
चारों ओर से आवाज—सोमवंशी जयकुमार, नाथवंशी सुलोचना की जय हो। कई राजा (एक साथ) ओह! स्त्री का मोह आकुलता सहित है। हम इतने चाव से आये पर कन्या ने हमको नहीं वरा। धिक्कार हो, इस आशा को धिक्कार हो। इस तृष्णामयी संसार को धिक्कार हो, हम तो अब घर जाकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण करेंगे।
कई राजा—(क्रोधित होकर) ओह! इस कन्या ने हमारा और चक्रवर्ती के पुत्र का बड़ा भारी अपमान किया है। जो राजकुमारों को छोड़कर एक सेवक का वरण कर लिया। यह तो भरत चक्रवर्ती का सेनापति है। इस कुलीन कन्या को लाज तक नहीं आयी। ऐसा लगता है कि इसने कुछ विचार नहीं किया।
उनमें से एक राजा—हाँ, लगता है कि यह पहले से ही इसके प्रेम में अन्धी थी।
दूसरा राजा—हाँ, राजा अकंपन ने व्यर्थ ही हमें बुलाकर हम सबका अपमान किया है। (इधर राजा अकंपन सेना सहित आकर जयकुमार-सुलोचना को एक रथ में बिठाकर गाजे-बाजे के साथ स्वयंवर मण्डप से नगर में प्रवेश कर गये। जो न्यायवान राजा थे वह तो उनके साथ ही हो गये किन्तु जो अभिमानी थे, वे अपने स्थान से भी नहीं उठे। इधर सभी ओर वाद्ययंत्र बज रहे थे, पुष्पवृष्टि हो रही थी। राजा अकंपन जयकुमार को लेकर महल में आये और महल की स्त्रियाँ उनकी सेवा में लग गयीं।) महानुभावों! संसार में सज्जन और दुर्जन दोनों प्रकार के मनुष्य होते हैं और जो स्वामी को अनुचित क्रोध लोभादि में उचित शिक्षा दे वही सच्चा सेवक है, अब देखो न, दुर्भर्षण नामक उस अर्ककीर्ति के सेवक ने तो अपने वाक्यों से युद्ध ही करा दिया।
अगला दृश्य
-अपने विश्राम भवन में-
दुर्भर्षण—(अर्ककीर्ति से) महाराज! आप चक्रवतीa के पुत्र हैं। आपके सामने आपका सेवक एक कन्यारत्न को ले जावे और आप उसे देखते ही रह जायें यह अपमान बड़ा भारी है, इसे कभी नहीं सहना चाहिये।
अर्ककीर्ति—(मन में) यह बिल्कुल सत्य कह रहा है।
दुर्भर्षण—(पुन:) महाराज! यह जयकुमार बड़ा अविनयी और दुष्ट है। राजा अकंपन और वह कन्या भी महान अविनयी हैं वरना वह अपनी कन्या को आपके गले में रत्नमाला डालने को अवश्य ही कहता। ऐसा लगता है कि वह कन्या पहले से ही जयकुमार से प्रेम करती थी तभी तो आप जैसे प्रभावशाली तीर्थंकर के पौत्र को छोड़कर आपके सेवक को वर लिया।
अर्ककीर्ति—(अत्यन्त क्रोध से) अब देखना दुर्भर्षण, मैं उस अपमान करने वाले, सभ्यतारहित और कठोर नाथवंश और चंद्रवंशियों के वंश का ही विनाश कर दूँगा। जब मेरे पिता ने मुझे सेनापति का पट्ट न बांधकर जयकुमार को बांँधा तब मैंने पिताश्री के भय से सहन कर लिया परन्तु आज मैं इसे कैसे सहन करूँ जो मेरे सर्व सौभाग्य का लोप करने वाली है। मैं आज जयकुमार और अकंपन को अवश्य मजा चखाऊँगा। (राजकुमार के साथ एक धर्मात्मा न्यायवान मंत्री भी थे जो उसके क्रोध का शमन करने के लिये न्यायपूर्ण और शांतिमय वचनरूपी जल की वर्षा करने लगा।)
मंत्री—हे राजकुमार! जो प्रजा की हानि से रक्षा करे उसे क्षत्रिय कहते हैं। आपके पिता वास्तव में क्षत्रिय हैं भरतक्षेत्र के स्वामी हैं। आप उन्हीं के बड़े वारिस पुत्र हैं, आपसे ही न्याय की प्रवृत्ति है। फिर शास्त्रों में स्वयंवर की अनादि विधि लिखी है और यह तो सर्वोत्कृष्ट है। यदि आप इसकी मान्यता करेंगे तो आप भी इस प्राचीन न्याय के पुष्टिकर्ता होंगे अन्यथा आप ही न्यायपथ का उल्लंघन करने वाले होंगे तो जगत में न्याय का प्रवर्तक कौन होगा ? इसलिये हे महाराज! क्रोध को शांत कीजिये, अब आप महाराज अकंपन से मिलकर वापस चलिये।
अर्ककीर्ति—(क्रोध से) हे मंत्री! क्षत्रियों का कत्र्तव्य अपमान को सहना नहीं है। हम इस अपमान का बदला अवश्य ही लेंगे। मुझे सुलोचना नहीं चाहिये किन्तु मैं जयकुमार को अभी ही प्राणरहित करूँगा। (बस अर्ककीर्ति मंत्री की बात सुने बिना सेनापति को युद्ध की तैयारी का आदेश दे देते हैं। उधर अकंपन महाराज यह सुनकर मूर्छित हो गये। पुन: शीतल उपचार द्वारा सचेत होने पर अत्यन्त दु:खी हुए तब जयकुमार के समझाने पर दूत को भेजने को तैयार हुए किन्तु दूत के द्वारा कहे गये वचनों ने अर्ककीर्ति को और अधिक क्रोधित कर दिया। आखिरकार दोनों पक्षों की सेनायें युद्ध के लिये तैयार हो गयीं। अर्ककीर्ति की ज्यादा सेना देखकर जब सुप्रभा आदि भी युद्ध के लिये तैयार होने लगीं तब अकंपन ने उन्हें समझाकर सुलोचना की रक्षा का दायित्व सौंपा और युद्ध प्रारम्भ हो गया। उस युद्ध में राजा अकम्पन के राज्य भी स्त्रियों ने शस्त्र उठाकर अपनी मातृभूमि के प्रति सच्चा कर्तव्य निभाया। युद्ध चलता रहा, चूँकि अर्ककीर्ति की सेना विशाल थी, शक्ति सामथ्र्य में अकंपन राजा की सेना से बढ़कर थे अत: जयकुमार चिंतित हो उठे। बंधुओं! चूँकि जयकुमार ने एक देव का पूर्व में उपकार किया था अत: उसने तुरन्त आकर अर्धचन्द्र बाण और नागपाश भेंट किया जिसके बल पर अर्ककीर्ति को जयकुमार ने बाँध लिया और जयकुमार की विजय हुई। उस समय देवों ने भी आकाश से पुष्पवर्षा की, अर्ककीर्ति की सेना भाग गयी। उधर सुलोचना अन्न-पान का त्यागकर भक्ति में लीन थी, तभी पिता ने आकर कहा।)
अगला दृश्य
(जिनमंदिर का दृश्य)
अकंपन महाराज—(स्नेह से हाथ फैरकर) हे पुत्री! तेरी ही भक्ति की महिमा से सर्व अमंगल शांत हो गये और राजकुमार जयकुमार यहाँ उपस्थित हैं। अर्ककीर्ति अन्यायी है, वह बंधन में है। हमारी सेना कुशलतापूर्वक है। बेटी! तू वास्तव में स्त्रीरत्न में श्रेष्ठ है। तूने अपने कर्तव्य का यथार्थ पालन किया है। (पुन: महारानी से) हे महारानी! अब आप भी उठें और राज्यभवन में चलें। (सभी राजभवन में पहुँचते हैं, तब सुलोचना कहती है।)
सुलोचना—(हाथ जोड़कर) हे पिताश्री! अर्ककीर्ति भरत सम्राट के ज्येष्ठ पुत्र हैं। अच्छा हो अगर उन्हें बन्धनमुक्त कर दिया जाये और प्रेम के बन्धन में उन्हें बाँध लिया जाये। (राजा अकंपन तुरन्त मंत्रियों को बुलाकर मंत्रणा करते हैं और सेनापति को आज्ञा देते हैं।)
राजा अकंपन—सेनापति जी! आप शीघ्र जाइये और राजकुमार अर्ककीर्ति को बंधनमुक्त कर सादर यहाँ लेकर आइये।
सेनापति—जो आज्ञा स्वामी! (चला जाता है और राजकुमार को साथ में लेकर आता है।)
राजा अकंपन—(विनयपूर्वक) हे राजकुमार! आइये, आसन ग्रहण कीजिये और मेरे अपराध क्षमा कीजिये। मैं तो आपका सेवक हूँ, किन्तु युद्ध में आपका सामना करने का मुझे खेद है। कर्मोदय बड़ा बलवान है जिसने आपकी बुद्धि को न्यायमार्ग से विचलित कर दिया। हे राजकुमार! स्वयंवर में कन्या को अपना वर चुनने का अधिकार है। हे प्रियवर! आप शान्त हो जायें और मेरी दूसरी पुत्री लक्ष्मीवती को स्वीकार कर मुझ पर पूर्ववत् अपनी कृपादृष्टि बनाये रखें।
अर्ककीर्ति—(अकंपन राजा के कोमल वचनों को सुनकर लज्जित होकर) हे महाराज! भावी बलवान है। मुझे स्वयं अपने इस कृत्य पर बहुत पश्चात्ताप है। मैंने मंत्री की नहीं मानी और इसी से मुझे लज्जित होना पड़ा। मेरा प्रेम आप पर पूर्ववत् है। मैं आपकी पुत्री से विवाह के लिये स्वीकृति प्रदान करता हूँ। (महाराज अकंपन अर्ककीर्ति को लेकर चैत्यालय में गये और दोनों ने स्नानादि कर जिनेन्द्र भगवान की पूजा की। सुलोचना और उसकी माता का तो उपवास है ही, उन दोनों का भी उपवास है। अगले दिन सभी ने पारणा की, सब ओर खुशियाँ छा गयीं। महाराज अकंपन ने सर्वप्रथम आठ दिन की महापूजा की पुन: जयकुमार का सुलोचना के साथ और राजकुमार अर्ककीर्ति का लक्ष्मीमती के साथ विवाहोत्सव तय कर दिया। दोनों राजकुमारों का मिलन हो गया। पुन: राजा अकंपन ने सर्वप्रथम चक्रवर्ती के पुत्र का विवाह कर लक्ष्मीवती को विदा किया। पुन: सुलोचना का विवाह जयकुमार के साथ सम्पन्न हुआ और उनसे कुछ दिन वहीं रुकने का आग्रह किया। इधर महाराज अकंपन के मन में यह शल्य थी कि चक्रवर्ती इस घटना से शायद मुझसे असंतुष्ट हों किन्तु भरत चक्रवर्ती के पास दूत भेजने पर जब उसने ने जाकर सारी बात बताई तो वे अकंपन राजा की सज्जनता से बहुत प्रभावित हुए और सुन्दर वचनों से उनकी प्रशंसा कर स्वयं पुत्र की निन्दा करते हुए उसे वापस भेज दिया। चूँकि जयकुमार को काफी समय हो गया था। अत: मंत्री का पत्र आते ही उन्होंने महाराज से विदा ली और पत्नी तथा अनेक प्रकार की भेंट के साथ हस्तिनापुर रवाना हुए। मार्ग में अयोध्या के नजदीक पहुँचने पर उन्होंने सुलोचना को वहीं रोक दिया और स्वयं चक्रवर्ती भरत से मिलकर सारी घटना बताकर क्षमायाचना की। पुन: भरत का प्रेम और भेंट लेकर वापस गंगातट पर लौटे तो अपशकुन देखकर मूर्छित हो गये। पुन: मूर्छा हटने पर शकुनशास्त्री से उन्होंने पूछा।)
अगला दृश्य
राजा जयकुमार—(शकुनशास्त्री से) हे महोदय! कृपया बताइये कि मेरी प्रिया सुलोचना कुशलतापूर्वक तो है।
शकुनशास्त्री—महाराज! आप बिल्कुल चिन्ता न करें। हम लोगों को जल में कोई भय नहीं होगा और आपकी पत्नी भी सकुशल है। (जयकुमार ने सभी के साथ सुलोचना से मिलने की आकुलता में हाथी को पानी में चला दिया। वह हाथी पानी में चलते-चलते एक गड्ढे में आ गया। वहाँ एक मगरमच्छ ने उसे पकड़ लिया और वह हाथी डगमगा कर डूबने लगा। महानुभावों! यह मगरमच्छ वास्तव में तिर्यंच जीव न होकर वही सर्प का जीव काली देवी है जिसे जयकुमार के सैनिकों ने मार डाला था। उधर हाथी को डूबते हुए देखकर हेमांगद आदि उसे बचाने को दौड़े। इधर पति पर आयी विपत्ति को दूर से सुलोचना ने देख लिया और जोर-जोर से णमोकार मंत्र पढ़ना प्रारम्भ कर दिया।)
सुलोचना—(जोर-जोर से णमोकार मंत्र पढ़ते हुए) णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं। णमो…। हे प्रभो! अब मेरे स्वामी की रक्षा करना आपके हाथ में है। जब तक मेरे पति का उपसर्ग दूर नहीं होगा तब तक मेरे आहार-पानी का त्याग है। (ऐसा कहते-कहते वह सखियों के साथ नदी में घुस गयी और उपसर्ग स्थान के सामने कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हो गयी। अचानक ही गंगादेवी का आसन कम्पायमान हो गया।) (यहाँ पर यह रोमांचक दृश्य दिखायें।)
गंगादेवी—(अवधिज्ञान से विचारकर) ओह! अर्हंत भगवान की एक सच्ची भक्त सुलोचना पर संकट आया है। कभी उसने मेरा उपकार किया था और आज मेरे प्रत्युपकार का समय है। (शीघ्र वहाँ आकर) अरी ओ कालिके! तुझे जरा भी लज्जा नहीं आई, पूर्व जन्म में ही तूने ऐसा पाप किया और अब कषायवश पुन: एक सम्यग्दृष्टि जिनशासन के भक्त को परेशान करने चली आयी। भाग जा, वर्ना तेरी खैर नहीं।
कालिका—(प्रत्यक्ष में आकर डरकर) ओह! मैं भाग जाऊँ वर्ना यह मेरा बहुत बड़ा अहित कर देगी (भाग जाती है)। (देवी शीघ्र ही विक्रिया से सुन्दर राजभवन बनाकर सिंहासन पर राजा जयकुमार को विराजमान कर देती है। सभी उस उपसर्ग को दूर होते देख जैनधर्म की जय-जयकार करते हैं। पुन: देवी सुलोचना की प्रशंसा करती है।)
गंगादेवी—हे सौभाग्यशालिनी! तू धन्य है जो तूने मोक्षगामी महापुरुष को पति के रूप में पाया है। स्वयं मेरी आत्मा का तूने बहुत बड़ा उपकार किया है।
राजा जयकुमार—(आश्चर्य से) देवी! आप यह क्या कह रही हैं ? सुलोचना ने आप पर क्या उपकार किया है ? गंगादेवी—हे राजन्! इस पतिव्रता ने धर्मरूपी वन में मरते समय णमोकार मंत्र शान्त भाव से सुनाया जिससे मेरे भाव मंदकषायरूप हुए और मैं हिमवान पर्वत के गंगाकूट पर गंगादेवी हुई। मैं इनका उपकार कभी भी नहीं चुका सकती। हे महारानी! तेरी सदा ही जय हो, तू परम सुख को प्राप्त करे। (देवी के ऐसे वचन सुनकर प्रसन्नमना हुए राजा जयकुमार सुलोचना से पूछते हैं।)
राजा जयकुमार—हे सुलोचना! मैं देवी द्वारा कही गयी बात को समझ नहीं पाया।
सुलोचना—हे स्वामी! यह देवी पूर्वजन्म में एक राजपुत्री थी। यह विन्ध्यपुरी के राजा की विन्ध्यश्री नाम की कन्या थी। इसके पिता ने इसे मेरे पिता को मुझसे विद्याएँ एवं गुण सिखाने के लिये भेज दिया। एक दिन यह वन में मेरे साथ क्रीड़ा के लिये गये और फलों की सुगन्ध लेते समय सर्प पर पैर पड़ जाने से सर्प ने इसे डस लिया। तब यह बहुत चिल्लाई और विष फैलते देख मैंने इसे णमोकार मंत्र सुनाया। उसी मंत्र के प्रभाव से मरकर यह गंगादेवी हुई। हे स्वामी! णमोकार मंत्र की महिमा अपार है। यह वही गंगादेवी है जिसने मेने द्वारा किये गये तुच्छ उपकार को यादकर हमारे साथ प्रशंसनीय उपकार किया है।
राजा जयकुमार—देवी! आपने सचमुच ही हम पर बड़ा उपकार किया है। (गंगादेवी मस्तक नीचाकर प्रणाम कर वहाँ से चली जाती है। जयकुमार हस्तिनापुर पहुँचकर सुखपूर्वक रहने लगे। उन्होंने सुलोचना को सभी नारियों में पट्टरानी पद पर अभिषिक्त किया। उधर राजा अकंपन कुछ दिनों पश्चात् संसार, शरीर, भोगों से विरक्त हो बड़े पुत्र हेमांगद को राज्य देकर स्वयं भगवान ऋषभदेव के समवसरण में दीक्षित हो गये। सुप्रभा रानी ने भी ब्राह्मी माताजी के पास आर्यिका दीक्षा ले ली।) राजा जयकुमार अपनी रानियों सहित सुख वैभव में देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति करते हुए निमग्न थे। एक दिन राजा जयकुमार और सुलोचना ने दो विद्याधरों और दो कबूतरों को देखा तो उन्हें जातिस्मरण हो गया और अवधिज्ञान प्रगट हो गया। अपने पिछले भवों की सारी बातें जानकर दोनों ने एक दूसरे को बताई और सुलोचना के साथ प्रगाढ़ स्नेह करते हुए आदर्श गृहस्थ बन धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों का सेवन करते रहे। एक बार उन्हें देश-भ्रमण की इच्छा हुई तब राज्य अपने छोटे भाई विजय के सुपुर्द करके वे दोनों देशाटन पर निकल गये। एक समय वे दोनों वैलाश पर्वत के वन में विहार कर रहे थे तब सौधर्म इन्द्र द्वारा स्वर्ग में उनके शील की प्रशंसा सुनकर रतिप्रभ नाम के देव ने कांचना देवी को उनकी परीक्षा लेने के लिये भेजा। पुन: परीक्षा में विजयी देखकर उसने स्वर्ग से आकर दोनों के सम्यक्त्व और शील की खूब प्रशंसा की और अपने दोषों की क्षमा माँगकर स्वर्ग को लौट गया। बहुत काल तक राज्य करके वे दोनों एक दिन भगवान ऋषभदेव के समवसरण में दर्शन व उपदेश सुनने की इच्छा से गये और अपने योग्य कोठे में बैठ गये। तब भगवान की दिव्यध्वनि खिरने लगी।
दिव्यध्वनि—(यहाँ पीछे से आवाज दिखावें) ॐ…।। यह लोक अनादि, अनंत एवं अकृत्रिम है, जो कि पुरुषाकार है। इस लोक में छ: द्रव्य—जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल हर स्थान पर पाये जाते हैं। किन्तु जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों के कारण ही इस संसार का नाटक चल रहा है। यह शरीर क्षणभंगुर है, नाशवान है, बड़े ही पुण्य योग से मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल, उत्तम शरीर आदि की प्राप्ति होती है। अत: प्रत्येक जीव को इस मनुष्य जन्म को पाकर जिनधर्म को ग्रहण कर अन्त में समाधिपूर्वक इसका त्याग करना श्रेयस्कर है, तभी इस मनुष्य जन्म की सार्थकता है…।
राजा जयकुमार—(विरक्तमना होकर) ओह! मैंने इतना समय संसार और शरीर की आसक्तता में लगा दिया। राज्यसुख और भोगों में ही मग्न रहा, अब मुझे शीघ्र ही मोक्षप्राप्ति के लिये संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर मुनिव्रत धारण करना है। मैं शीघ्र ही राज्यभार रानी शिवंकरा के पुत्र अनन्तवीर्य को सौंपकर दीक्षा लेने की तैयारी करता हूँ। नमोऽस्तु भगवान, नमोऽस्तु। (राजा जयकुमार सुलोचना के साथ भगवान को बार-बार नमस्कार करके चले जाते हैं और राज्यनीति के अनुसार रानी शिवंकरा के पुत्र को राज्य सौंपकर स्वयं भगवान आदिनाथ की साक्षी से वृषभसेन गणधर के निकट वस्त्राभूषण त्यागकर दिगम्बर मुनि बन गये और भगवान के ७१वें गणधर हो गये तथा अन्त में चार घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञानी हो आयु के अन्त में सर्व कर्मों से छूटकर सदा के लिये शाश्वत सुख प्राप्त कर लिया। सती सुलोचना को जयकुमार के दीक्षा लेने से अपार कष्ट हुआ और उसने रुदन भी किया किन्तु भरत चक्रवर्ती की पट्टरानी सुभद्रा के समझाने पर संसार, शरीर, भोगों से उदास हो उसने भी ब्राह्मी आर्यिका माताजी के पास आर्यिका दीक्षा ले ली और आयु के अन्त में १६वें स्वर्ग में देव हुई। अब मात्र एक भव लेकर वह भी मोक्ष चली जायेंगी।) तो देखा महानुभावों आपने! जिनधर्म और शील की महिमा। किस प्रकार सती सुलोचना ने श्राविका व आर्यिका का आदर्श जीवन बिताकर स्वयं को मोक्ष का पात्र बना लिया। दीक्षा के पश्चात् इन्होंने ही ग्यारह अंग का ज्ञान प्राप्त किया है। आज हर एक स्त्री एवं बालिका को इस नाटिका को देखकर अपनी उन्नति की डोर अपने हाथ में लेकर चलना चाहिये और प्रमाद रूपी कीचड़ से बचना चाहिये।