एक दिन बढ़िया-बढ़िया गहनों के नमूने लेकर मुनीम घर पर आया और बोला-‘‘लाला ने कहा है, कि जाओ, मैना से गहने की डिजाइन पसंद करा लाओ।’’ मैंने कहा-‘‘जाओ, शान्ति से पसंद करा लो।’’ माँ सब देख रही थीं। बस, उनके हृदय का बाँध टूट गया और वे फूट-फूटकर रोने लगीं। इस वातावरण से सर्वत्र गाँव में यह चर्चा फैल गई कि मैना विवाह नहीं करना चाहती है प्रत्युत् ब्रह्मचर्य व्रत लेना चाहती है।
पिता घर में आये, समझाने-बुझाने का प्रयत्न किया लेकिन मैं उन्हें सदा की तरह अच्छी-अच्छी धर्म की बातें समझाने लगी। तब वे चुप हो गये और अगले दिन ही महमूदाबाद चले गये, मामा महीपालदास को बुला लाये। पहले तो उन्होंने मुझे समझाया, जब कुछ असर नहीं हुआ तब वे प्रश्न-उत्तर करने लगे। बोले- ‘‘तुम्हें वैराग्य कैसे हुआ है? बताओ! तुमने अभी संसार में क्या देखा है? कल तो तुम्हारी आँखें खुली हैं।’’ मैंने कहा-‘‘मुझे ‘‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’’ ग्रन्थ पढ़कर वैराग्य हुआ है। मामा! देखो, वह ग्रन्थ कितना अच्छा है। उसमें लिखा है-
दुःखं किंचित् सुखं किंचित् चित्ते भाति जडात्मनः।
संसारे तु पुनर्नित्यं, सर्वं दुःखं विवेकिनः।।
संसार में कुछ दुःख है और कुछ सुख है ऐसा मूढ़ात्माओं को ही प्रतिभासित है किन्तु विवेकशालियों को तो संसार में सदा सर्वत्र दुःख ही दुःख दिखता है। इत्यादि प्रकार से अनेक श्लोक सुना दिये।’’ तब मामा के क्रोध का पारा बहुत कुछ चढ़ गया और वे यद्वा-तद्वा कहने लगे, मैं चुप हो गई। जब वातावरण कुछ शान्त हुआ तब उन्होंने पुनः समझाते हुए कहा- ‘‘बेटी मैना! देखो, जैन शास्त्र के अनुसार कुंवारी कन्यायें दीक्षा नहीं लेती हैं?’’ तब मैंने पूछा-‘‘पुनः ब्राह्मी, सुन्दरी, अनंतमती और चंदना आदि ने कैसे दीक्षा ली है?’’ तब वे बोले-‘‘बेटी वे सब नपुंसक थीं ।
’’ आज तक भी उनके ये शब्द मेरे स्मृतिपटल पर अंकित हैं। मैं एक क्षण तो आश्चर्य में पड़ गई क्योंकि मैं स्वयं बहुत ही सरल थी अतः किसी के माया-प्रपंच और कुटिल व्यवहार को नहीं समझ पाती थी। पुनः कुछ सोच कर बोली- ‘‘मामा! शास्त्रों में तो उन्हें कन्या ही कहा है। यदि वे नपुंसक होतीं तो उन्हें कन्या क्यों कहते!….’’ अनेक प्रश्नोत्तर के बाद मामा बोले- ‘‘देखो, बेटी! तुम्हारा शरीर बहुत ही कमजोर है अतः तुम दीक्षा कैसे निभा सकती हो? यह दीक्षा तो ४० वर्ष की उम्र के बाद लेनी चाहिए।’’ मैंने कहा-‘‘मामा! मृत्यु का कुछ भरोसा नहीं है अतः ‘‘यह तन पाय महातप कीजे यामें सार यही है।’’
बहुत कुछ समझाने, तर्जना-भत्र्सना व फटकार करने पर भी जब वे मुझे टस से मस नहीं कर सके तब सारी गुस्सा अपनी जीजी पर उतार दी। बोले-‘‘तुमने ही इसे दर्शन कथा, शील कथा आदि पढ़ा-पढ़ाकर बरबाद कर दिया है। खूब पढ़ाओ रात-दिन, बस पढ़, बेटी पढ़, इन धर्म कथाओं को ही पढ़ .। आखिर उसका परिणाम क्या निकलेगा? यही तो जो दिख रहा है।’’ दूसरे दिन मामा महमूदाबाद चले गये। पिता का मन बहुत ही विक्षिप्त हो गया वे जब मेरे से चर्चा करते तब मैं वैराग्य की अच्छी-अच्छी बातें सुनाती- ‘‘देखो, पिताजी! इस अनन्त संसार में मैंने भला कितने जन्म नहीं धारण किये हैं!
अतः अब किसको अपने माता-पिता समझना। यह सब झूठा नाता है। कभी अनन्तमती की कथा सुनाने लगती तो कभी जम्बूस्वामी का चरित्र सुनाती। तब पिता जी कुछ शांत हो जाते और बाहर निकलकर अपने बड़े भाई बब्बूमल से मिलते। अन्तरंग की वेदना कहते तब वे भी यही कहते- ‘‘अरे कुछ नहीं, जबरदस्ती शादी करो, उसे बकने दो, वह अभी क्या समझती है? अभी दूध के दाँत नहीं टूटे हैं। भला इतनी छोटी लड़की के ब्रह्मचर्य व्रत ले लेने से दुनियाँ हमें-तुम्हें क्या कहेगी?।’’ पिता सदैव बड़े भाई बब्बूमल और छोटेभाई बालचन्द की बात मानते थे।
उनसे परामर्श किये बगैर गृहस्थी का कोई काम नहीं करते थे। वे दोनों भाई भी सदा अच्छी ही सलाह देते थे किन्तु उस समय मेरे मोह से या गृहस्थाश्रम के कर्तव्य से अथवा यों कहो लोक व्यवहार से वे दोनों अपने भाई को मेरे प्रतिकूल राय दे रहे थे।
गाँव में तथा आस-पास के लोग प्रायः ऐसा कहते सुने जाते थे कि-‘‘इस इलाके में सैकड़ों वर्षों से ऐसा नहीं सुनने में आया कि किसी लड़की ने घर से निकल कर ब्रह्मचर्यव्रत लिया हो।’’ कोई कहते-‘‘सैकड़ों क्या! हजारों साल का रेकार्ड नहीं है, अतः इस लड़की को कतई व्रत नहीं लेने देना चाहिए।’’ ऐसी तरह-तरह की बातें सुनकर पिताजी घबड़ा जाते थे और मुझे घर में रोकने का उपाय करने लगते थे। तभी एक बार पिता ने गाँव के प्रमुख श्रावक धर्मात्मा सेठ पन्नालाल जी से कहा-
‘‘चलो, आप मेरी लड़की मैना को समझा दो। वह अभी ब्रह्मचर्य व्रत लेने का आग्रह छोड़ दे।’’ पन्नालाल जी आये। उन्होंने बड़े प्यार से कहा- ‘‘मैना बिटिया! तुम्हारा शरीर तो बहुत कमजोर है, एक उपवास करना भी तुम्हारे लिए कठिन है फिर भला तुम यह क्या सोच रही हो? और देखो !
आज-कल जमाना बहुत ही खराब है, आजकल घर में रहकर गृहस्थाश्रम में ही धर्म का साधन करना चाहिए।’’ यद्यपि बड़े जनों से मेरी बोलने की आदत नहीं थी फिर भी साहस बटोर कर बोली-‘‘बाबाजी! इस संसार में मनुष्य पर्याय बड़ी कठिनाई से ही मिलती है, इसको पाकर संयम ग्रहण कर लेना चाहिए। देखो! वैराग्य भावना में भी लिखा है-
‘‘पोषत तो दुख दोष करे अति, सोषत सुख उपजावे।
दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे।।
राचन जोग सरूप न याको, विरचन जोग सही है।
यह तन पाय महातप कीजे, यामें सार यही है।।’’
देखो! इस शरीर को पोसने से, खिलाने-पिलाने से, यह दुख और पाप को पैदा करेगा किन्तु जैसा-जैसा इसे सुखाया जायेगा वैसा-वैसा ही यह परलोक में अनेक सुख देवेगा। इसमें राग करने योग्य इसका स्वरूप नहीं है, इससे विरक्त ही होना अच्छा है। इस मनुष्य शरीर को पाकर महान् तप करना चाहिए, बस यही इस मनुष्य जीवन में सार है।’’ वे बोले-‘‘बिटिया! जब शरीर खूब स्वस्थ होता है तभी तप किया जाता है। तुम तो बहुत ही नाजुक हो.।’’
इसी बीच माँ बोल उठीं-‘‘मन्दिर से आकर इसे हाथ की हाथ दूध न मिले तो चक्कर आने लगते हैं। उपवास करना इसके वश की बात नहीं है।’’ मैंने कहा-‘‘धीरे-धीरे सब अभ्यास हो जावेगा तब अपने आप सहन शक्ति आ जायेगी और फिर जितने उपवास कर सकूगी उतने ही करूँगी।
प्रतिदिन एक बार खाकर भी तो शरीर चल सकता है। देखो, अनन्तमती ने भी तो कितने कष्ट सहन किये थे, फिर दीक्षा लेकर आत्मकल्याण किया था और स्त्रीपर्याय से छूट कर स्वर्ग में देव हो गई हैं।’’ इत्यादि प्रकार से बहुत देर तक चर्चा होती रही, अन्त में मेरी दृढ़ता को देखकर वे चले गये और पिता से बोले- ‘‘उसे जो समझाने जाता है,
वह उसको ही समझा देती है।’’ पुनः कुछ दिन बाद, मन्दिर के निकट में एक धर्मात्मा सेठ बाबूलाल रहते थे, उन्हें बुला लाये। वे भी आकर समझाने लगे- ‘‘देखो बिटिया! आजकल ब्रह्मचारी, त्यागियों की कोई कीमत नहीं है। ये सब खाने के लिए घर छोड़ देते हैं, पुनः समाज में इन्हें कैसे रोटी मिलती है, सो तो हम लोग ही जानते हैं।’’ मैंने कहा-
‘‘जिसे आत्मकल्याण करना है उसे समाज के मान-अपमान से क्या सुख-दुःख? अपना भाग्य अच्छा होगा, यशस्कीर्ति कर्म का उदय होगा तो लोग सम्मान करेेंगे अन्यथा अपमान और निन्दा करेंगे। त्यागी व्रतियों का कर्तव्य है कि वे अपने चारित्र को उज्ज्वल रखें, फिर भी कोई अपमान करता है तो क्या हुआ? देखो, शास्त्र में बहुत से उदाहरण हैं कि महामुनियों को दुष्टों ने घानी तक में पेल दिया था-
‘‘अभिनन्दन मुनि आदि पाँच सौ, घानी पेल जु मारे।
तो भी श्रीमुनि समता धारी, पूरब कर्म विचारे।।’’
ऐसे ही मैं पंक्तियों पर पंक्तियाँ सुनाने लगी तो वे सेठ जी कुछ देर तक आश्चर्य से देखते ही रहे तत्पश्चात् उठकर चले गये और जाकर पिता से कहा- ‘‘लाला छोटेलाल! यह मैना अपने नाम के अनुसार ही विदुषी है। इसकी बातों को सुनकर तो हम लोगों को भी एक क्षण के लिए संसार असार दिखने लगता है।’’ इसके बाद पिता ने जितने लोगों को लाना चाहा कोई नहीं आये। प्रत्युत् बोले उसे समझाना-बुझाना व्यर्थ है, वह अपनी लगन की बहुत ही पक्की है।
पूजा का प्रेम
मुझे भगवान की पूजा करने का बहुत ही प्रेम था। उस समय तक गाँव में महिलाएं मन्दिर में पालथी मारकर नहीं बैठती थीं बल्कि पैर समेट कर बैठकर जाप करतीं और चली आती थीं। मैंने अपने हाथ से सामग्री धोकर, चौकी पर रखकर तथा सुखासन से बैठकर पूजा करना शुरू कर दिया। कुछ दिन बाद माँ भी मेरे साथ पूजा करने लगीं। उसके पूर्व यदि कोई एक-दो महिलाएं पूजा करती थीं तो वे सूखे चावल से खड़ी-खड़ी ही पूजा पढ़कर चावल चढ़ा देती थीं।
अब वे महिलाएं पहले तो कानाफूसी करने लगीं, पश्चात् हँसना शुरू किया, फिर कहना शुरू किया कि- ‘‘ये तो बहुत धर्मात्मा बन रही है, अब तो पुजारिन बन रही है ?’’ मैंने अच्छे उत्तम कार्य में उनके हँसने व कुछ भी कहने की परवाह नहीं की, अपना क्रम चलता रहा। पूजा करके आसन से ही बैठकर चौकी पर शास्त्र विराजमान कर स्वाध्याय करना शुरू किया, तब तो कुछ वृद्धा महिलाएं कहने लगीं- ‘‘अरे! ये तो पंडिता बन रही है?’’
उस समय तक ऐसा पिछड़ा वातावरण था कि महिलाएं मन्दिर में आसन से बैठने में भी हिचकिचाती थीं। जब मेरा क्रम ऐसा ही चलता देखा तो कुछ वृद्धा महिलाएं, युवती और धर्मनिष्ठ महिलाएं भी धुली सामग्री लेकर आसन से बैठकर पूजा करने लगीं और शास्त्र स्वाध्याय भी ढंग से होने लगा।
आज उसी गाँव टिकैतनगर के बारे में सुनने में आता है कि वहाँ पर यदि ४० घर हैं तो प्रायः सभी ही स्त्री-पुरुष शुद्ध वस्त्र पहन कर विधिवत् जिनप्रतिमाओं का पंचामृत अभिषेक करते हैं, पुनः ठाठबाट से पूजा करते हैं। पूजा-पाठ में, विधिविधान में यदि महिलाएं पुरुषों से आगे हैं तो पुरुष भी पीछे नहीं हैं। सुना था
अभी१ इन्द्रध्वज विधान में ५० जोड़े बैठे और भी अनेक स्त्री-पुरुषों ने भाग लिया था। वहाँ पर नित्य पूजा की विशेषता तो है ही तथा नैमित्तिक विधान अनुष्ठान भी सदा ही होते रहते हैं। वहाँ पर उस समय कितनी ही महिलाओं ने मेरे से ऋषिमण्डल विधान आदि विशेष पूजायें लिखाई थीं और बड़े भाव से उन पूजाओं को करने लगी थीं। वहाँ महिलाओं में स्वाध्याय की इतनी जागृति आई थी कि बाद में अष्टमी चतुर्दशी को मध्याह्न में कुछ महिलाओं ने मिलकर शास्त्र गोष्ठी चलाना शुरू कर दी थी।
यद्यपि यह परम्परा बहुत दिन तक नहीं चली फिर भी महिलाओं ने ज्ञान संचय करने में अपना अच्छा कदम बढ़ा लिया था। माँ ने सन् १९७१ में दीक्षा ली थी। उसके पूर्व तो वे मंदिर में बहुत-सी महिलाओं को तत्त्वार्थसूत्र, भक्तामर और सहस्रनाम आदि पाठ सुनाती थीं
और रात्रि में महिलाओं की सभा में शास्त्र का वाचन करती थीं, यह उनकी दैनिकचर्या थी। महिलाएं भी उनके शास्त्रवाचन से बहुत ही प्रभावित रहती थीं, अतः उनकी दीक्षा के बाद बहुत सी महिलाओं को उनके पाठ और शास्त्रवाचन का अभाव खटकता रहा है।
मैंने बचपन से ही यह अनुभव किया है कि किसी भी अच्छे कार्य में आगे आने पर प्रायः लोगों का हँसीपात्र बनता पड़ता है, कभी-कभी अपमान भी सहने पड़ते हैं तथा कुछ लोग असहिष्णुता से निन्दा भी करने लगते हैं लेकिन बचपन से ही मेरा स्वभाव था कि मैं इन हँसी, अपमान या निन्दा से न तो घबड़ाती थी और न अपने अच्छे कार्यों से विमुख ही होती थी, प्रत्युत् अपने कत्र्तव्य में लगी रहती थी। यही बात आज भी है। वे ही संस्कार काम कर रहे हैं। मैं सोचा करती हूँ-
‘‘हो सकता है कि यह दृढ़ता, यह मनोबल, यह शुभ कार्यों को प्रारम्भ कर न छोड़ने का साहस शायद मुझे पूर्वजन्म के विशेष पुण्य से ही उपलब्ध हुआ है। जब कोई व्यक्ति अच्छे कार्यों के प्रारंभ करने पर निन्दा आदि होने से उसे छोड़ देते हैं तब मुझे उन पर बहुत ही करुणा आती है कि-
‘‘अहो! अच्छे कार्यों में विरोध उपस्थित होने पर इन्हें उसे न छोड़ने का साहस क्यों नहीं है? छोटी-छोटी विघ्न-बाधाओं से ये लोग क्यों घबड़ा जाते हैं?’’ यह अनुभव की बात है कि जिनका मनोबल मजबूत है वे हर एक कार्य में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। हाँ, देर भले ही लगे किन्तु उन्हें असफलता नहीं मिलती है। फिर जिनके हृदय में जिनेन्द्रदेव की भक्ति विद्यमान है और जो आगम के अनुकूल प्रवृत्ति करने वाले हैं, वे यदि आगम के अनुकूल ही कोई कार्य प्रारंभ करते हैं तो उन्हें लोगों के शब्द-प्रहारों से डरना नहीं चाहिए।
अद्भुत स्वप्न
एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने स्वप्न देखा कि- ‘‘मैं श्वेत वस्त्र पहनकर हाथ में पूजन की सामग्री लेकर मन्दिर जा रही हूँं। आकाश में ऊपर पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्रमा मेरे साथ-साथ ही चल रहा है। मेरे ऊपर और मेरे ही आस-पास में खूब अच्छी चाँदनी छिटक रही है किन्तु अन्यत्र कहीं भी चाँदनी नहीं जा रही है। इस दृश्य को देखकर पड़ोस के श्रावक लोग मुख में अंगुली डालकर बहुत ही आश्चर्य कर रहे हैं और साथ ही प्रशंसा भी कर रहे हैं…।’’ इस अद्भुत स्वप्न को देखने से मुझे बहुत ही प्रसन्नता रही और मैंने अपनी इच्छा सफल होती हुई समझी थी।
प्रातः जब मैं स्नान और देवपूजन से निवृत्त हुई तब मैंने यह स्वप्न अपने छोटे भाई कैलाशचन्द को कहा। उसने झट से उत्तर दिया- ‘‘जीजी! तुम जल्दी ही अपनी मनोभावना सफल करोगी, ऐसा दिखता है।’’ शाम को जब पिताजी ऊपर आकर छत पर बैठे तब मैंने उन्हें भी अपना यह स्वप्न सुनाया।
सुनकर वे जोर से हँसने लगे और फिर बोले- ‘‘बिटिया मैना! तुम तो घर से उड़ जाने के लिए ही मुझे बहकाती रहती हो ।’’ यद्यपि उस समय स्वप्न विनोद की भाषा में बदल गया था किन्तु उस स्वप्न से भी माता-पिता ने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि-‘‘अब यह लड़की ज्यादा दिन गृह-बन्धन में नहीं रहेगी, इसके साथ सबकी प्रशंसारूपी चाँदनी भी चलती रहेगी।’’