यहाँ कुंथलगिरि में क्षुल्लिका अजितमती अम्मा, जिनमती अम्मा थीं। उन्हीं के कमरे मेें हम दोनों ठहर गयीं। वहाँ प्रतिदिन एक लाख स्त्री-पुरुष आते थे और प्रायः इतने ही दर्शन कर चले जाते थे। भीड़ का पार नहीं था। व्यवस्थापक लोग परेशान थे। वर्षा चालू थी। लोग छतरी खोलकर उसके नीचे भी खाना बनाकर खाते थे।
हमने सल्लेखनारत आचार्यश्री के दर्शन किये। मन प्रसन्न था, अतः इतनी भयंकर भीड़ और ठहरने की समुचित व्यवस्था न होते हुए भी वहाँ से जाने की इच्छा नहीं हुई। सल्लेखना होने तक वहीं ठहरने का निर्णय बना लिया। प्रतिदिन प्रातः और मध्याह्नकुंथलगिरि के पर्वत पर चढ़ जाती थी, वहाँ पर आचार्यश्री के दर्शन कर किसी भी मंदिर में बैठकर धर्माराधना किया करती थी और आगत भक्तों की भीड़ देखा करती थी। वहाँ प्रातः काल पहले पंचामृत अभिषेक के लिए बोली होती थी।
जो भक्त बोली लेते थे वे सपत्नीक सपरिवार वहीं पर्वत पर मंदिर में विराजमान भगवान् देशभूषण जी की ४-५ फुट उची मनोज्ञ प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक करते थे। आचार्यश्री वहीं वेदी में बैठकर अभिषेक देखते थे। वहाँ पर एक दिगम्बर मुनि पिहितास्रव नाम के आये हुए थे। आठ-दस क्षुल्लक थे। शायद हम सब ग्यारह-बारह क्षुल्लिकाएँ थीं।
कोल्हापुर के भट्टारक लक्ष्मीसेन जी आदि कई एक भट्टारक थे। सभी साधु-साध्वी मंदिर में ही बैठ जाते थे। अभिषेक के समय आचार्यश्री की भक्ति-भावना देखते ही बनती थी। उस समय वहाँ पर गन्ने के रस की जगह गुड़ का रस बनाया जाता था, जो कि बड़े घड़े भर रहता था। दूध भी घड़ों में भरा रहता था। एक वृद्धा चन्दन घिसने बैठ जाती थी।
वह एक बड़े से चाँदी के कटोरे को गाढ़े-गाढ़े चन्दन से घिस कर भर देती थी। काश्मीरी केशर के घसे चन्दन का रंग इतना बढ़िया दिखता था कि जब वह भगवान की प्रतिमाओं के सर्वाङ्ग में लेपन कर दिया जाता था, तब आचार्य महाराज बहुत ही प्रसन्न होकर गद्गद भावों से भगवान् को निहारने लगते थे। उनके अभिषेक देखने का प्रेम आज भी मुझे याद आ जाया करता है। एक दिन आचार्यश्री ने पर्वत पर भी मात्र गरम जल लिया था। तब हम लोगों ने उनका यह अंतिम जल का आहार देखा था।
उसके बाद आचार्यश्री ने जल का भी त्याग कर दिया था। एक दिन आचार्यश्री वहीं मंदिर में अपने प्रिय शिष्य ब्रह्मचारी भरमप्पा को क्षुल्लक दीक्षा दिला रहे थे। तब उन्होंने उनके सारे संस्कार अपने एक क्षुल्लक सुमतिसागर जी से कराये थे तथा स्वयं ग्यारह प्रतिमा के व्रत दे दिये थे और उनका नाम सिद्धसागर रख दिया था। ये ब्रह्मचारी आचार्यश्री की खूब सेवा करते थे।
तब महाराजजी कहा करते थे- ‘‘बाबा! तू भीम के समान महान् शक्तिशाली होगा। तूने अपने जीवन में खूब गुरुसेवा की है।’’ ये ब्रह्मचारी जी बिल्कुल ही अक्षरज्ञान से शून्य थे। बाद में इन्होंने अक्षर-ज्ञान सीखकर स्वाध्याय करना शुरू कर दिया था। ये हमें सन् १९६३ में कलकत्ता में मिले थे। उस समय ऐलक थे।
एक दिन संघपति गेंदनमल जी, चन्दूलाल जी सर्राफ, भट्टारक लक्ष्मीसेन जी, ब्रह्मचारी सूरजमल जी आदि सभी से परामर्श के बाद आचार्यश्री ने अपना आचार्यपट्ट अपने प्रथम शिष्य वीरसागर जी महाराज के लिए देना घोषित कर दिया, तभी गेंदनमल जी से पत्र लिखवाकर ब्र. सूरजमल को दे दिया औरकुंथलगिरि में भी यह घोषणा कर दी गई कि- ‘‘आज से आचार्यश्री की आज्ञानुसार सभी मुनि, आर्यिका और श्रावक-श्राविका मुनि श्री वीरसागर जी महाराज को ही अपना आचार्य स्वीकार करें।’’ पत्र की प्रतिलिपि इस प्रकार है-
आचार्य श्री द्वारा लिखाया गया समाज को पत्र
स्वस्ति श्री सकल दिगम्बर जैन पंचायत जयपुर धर्मस्नेहपूर्वक जुहारू। अपरंच आज प्रभात में चारित्र चक्रवर्ती १०८ परम पूज्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने सहस्रों नर-नारियों के बीच श्री १०८ मुनिराज वीरसागर जी महाराज को आचार्यपद प्रदान करने की घोषणा कर दी है। अतः उस आचार्य पद प्रदान करने की नकल साथ भेज रहे हैं। उसे चतुर्विध संघ को एकत्रित कर सुना देना। विशेष-आचार्य महाराज ने यह भी आज्ञा दी है कि आज से धार्मिक समाज को इन्हें (श्री वीरसागर जी महाराज को) आचार्य मानकर इनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
लि. गेंदनमल बम्बई
लि. चन्दूलाल ज्योतिचन्द बारामती
आचार्य पद प्रदान का समारोह दिवस भाद्रपद कृष्णा सप्तमी गुरुवार निश्चय किया गया था। विशाल प्रांगण में सहस्रों नर-नारियों के बीच श्री वीरसागर जी मुनिराज को गुरुदेव द्वारा दिया गया आचार्य पद प्रदान किया गया था। उस समय पंडित इन्द्रलाल जी शास्त्री ने गुरुदेव द्वारा भिजवाये गये आचार्य पद प्रदान पत्र को सभा में पढ़कर सुनाया, जो निम्न प्रकार है-
कुंथलगिरि ता. २४-८-१९५५
स्वस्ति श्री चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की आज्ञानुसार यह आचार्यपद प्रदान पत्र लिखा जाता है। ‘‘हमने प्रथम भाद्रपद कृष्ण ११ रविवार ता. २४-८-५५ से सल्लेखना व्रत लिया है। अतः दिगम्बर जैनधर्म और श्री कुन्दकुन्दाचार्य परंपरागत दिगम्बर जैन आम्नाय के निर्दोष एवं अखण्डरीत्या संरक्षण तथा संवर्धन के लिए हम आचार्य पद प्रथम निग्र्रन्थ शिष्य श्री वीरसागर जी मुनिराज को आशीर्वादपूर्वक आज प्रथम भाद्रपद शुक्ला सप्तमी विक्रम संवत् दो हजार बारह बुधवार के दिन त्रियोग शुद्धिपूर्वक संतोष से प्रदान करते हैं।
आचार्य महाराज ने पूज्य श्री वीरसागर जी महाराज के लिए इस प्रकार आदेश दिया है। इस पद को ग्रहण करके तुमको दिगम्बर जैनधर्म तथा चतुर्विध संघ का आगमानुसार संरक्षण तथा संवर्धन करना चाहिए। ऐसी आचार्य महाराज की आज्ञा है। आचार्य महाराज ने आपको शुभाशीर्वाद कहा है।
इति वर्धताम् जिनशासनम् लिखी-गेंदनमल बम्बई-त्रिबार नमोस्तु लिखी-चंदूलाल ज्योतिचन्द बारामती-त्रिबार नमोस्तुउपर्युक्त आचार्य पद प्रदान पत्र पढ़ने के बाद श्री शिवसागर मुनिराज ने उठकर पूज्य श्री आचार्य शांतिसागर महाराज जी द्वारा भेजे गये पिच्छी एवं कमंडलु को पूज्य वीरसागर जी मुनिराज के कर कमलों में प्रदान किया।
सर्वत्र सभा में आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की जय-जयकार गूँज उठी। इसके पूर्व श्री वीरसागर जी ने कभी भी अपने को आचार्य शब्द से संबोधित नहीं करने दिया था। सन् १९५५, १८ सितम्बर द्वितीय भादों सुदी रविवार प्रातः ६ बजकर ४० मिनट पर आचार्य श्री ने ‘‘ॐ सिद्धाय नमः’’ मंत्र का उच्चारण करते हुए इस नश्वर शरीर को छोड़ दिया। उसके पूर्व उन्होंने उस कुटी के अंदर ही भगवान् की प्रतिमा का अभिषेक देखा था और प्रतिमाजी के चरण स्पर्श कर अपने मस्तक पर लगाये थे।
ऐसा अन्दर रहने वालों ने बताया था। उस समय मैं और विशालमती जी दोनों ही वहाँ उस कुटी के दरवाजे में कान लगाकर खड़ी हो गई थीं और आचार्यश्री के मुख से मंत्रोच्चारण सुन रही थीं। इसके बाद कुछ देर तक कुटी के अन्दर और बाहर भी णमोकार मंत्र की ध्वनि चलती रही थी। एक घण्टे बाद आचार्यश्री के पार्थिव शरीर को लाकर बाहर एक ऊँचे मंच पर विराजमान कर दिया गया। पद्मासन मुद्रा में विराजमान वह शरीर ऐसा लगता था मानो अभी सजीव ही आचार्यश्री ध्यान में मग्न हैं। हम सभी साधु-साध्वी ने मिलकर सिद्ध, श्रुत, योग और आचार्य भक्ति पढ़कर उस शरीर की वंदना की।
पुनः उस शरीर को पालकी में विराजमान किया गया और पर्वत के नीचे लाकर जुलूस यात्रा निकाली गई। तत्पश्चात् मध्याह्न में पर्वत पर ही एक स्थान पर भट्टारक लक्ष्मीसेन जी ने निषद्यास्थान बना रखा था। वहाँ लाकर आचार्यश्री के पंचामृत अभिषेक के लिए बोली हुई जिसे सोलापुर की महिला ने लिया। उन्होंने सपरिवार आचार्यश्री के पीठ का विधिवत् अभिषेक किया। अनंतर हजारों नारियल, गोले, चंदन और घी डालकर इस पौद्गलिक शरीर को भस्मसात् कर दिया गया।
इस शरीर को स्थापित करने पर भी वहाँ सर्पराज आया था और चिता के जलते समय भी आकर भीड़ के छट जाने पर चिता की प्रदक्षिणा देकर चला गया था। मुनि के प्राण निकल जाने के बाद भी उस पार्थिव शरीर को पूज्य माना है और उसे भक्तियाँ पढ़कर वंदना करने के विधान आचारसार, मूलाचार, अनगारधर्मामृत१ आदि ग्रन्थों में हैं। धवला ग्रन्थ में भी इस अचेतन शरीर को द्रव्य मंगल२ कहा गया है। अनन्तर यहाँ पर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन हुआ।
प्रमुख साधु-साध्वी और विद्वानों, श्रावकों ने शोकपूर्ण हृदय से आचार्यश्री के प्रति अपनी-अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। बाद में हम दोनों क्षुल्लिकाएं आचार्यश्री के अनवधि गुणों का अपने हृदय में चिंतवन करती हुर्इंकुंथलगिरि से वापस म्हसवड़ आ गयीं। वैराग्य भावना से ओत-प्रोत होकर मैंने चातुर्मास में चावल के सिवाय बाकी अन्न का त्याग कर दिया और यह बात विशालमती अम्मा से कह दी। मैं आहार में अन्न में केवल चावल का मांडिया ले लेती थी और राजगिरा (रामदाना) की रोटी आदि लेती थी।
वहाँ, म्हसवड़ में पूर्ववत् अध्यापन में मेरा समय व्यतीत हो रहा था। क्षुल्लिका विशालमती जी से परामर्श कर यह निर्णय कर लिया था कि-‘‘चातुर्मास के बाद आचार्यश्री वीरसागर जी के दर्शन करके उन्हीं से आर्यिका दीक्षा ले लेना।’’ इसी मध्य विशालमती जी कहा करती थीं कि-‘इधर दक्षिण में भगवान् बाहुबली की प्रतिमा का दर्शन करके ही दीक्षा लेओ, पता नहीं पदयात्रा से दर्शन हो सकें या नहीं।
कु. प्रभावती के बढ़ते भाव देखकर विशालमती जी ने कहा-‘‘यदि तुम्हें सच्चा वैराग्य है तो अपने घर में केशों को काटकर सफेद साड़ी पहनकर भगवान् की शरण में आकर बैठ जाओ।’’ चूंकि घर में उसकी नानी और मामी थीं। भाई शांतिलाल पूना रहता था। माता-पिता तो बचपन में ही स्वर्गस्थ हो चुके थे।
वह प्रभावती दीपावली की पूर्र्व रात्रि में अर्थात् चतुर्दशी की पिछली रात्रि में अपने केशों को काटकर, स्नान करके, सफेद साड़ी पहनकर आकर वहीं मंदिर जी में नीचे तलघर में जिन प्रतिमा के सम्मुख बैठ गई। प्रातः उसकी वृद्धा नानी ने यह दृश्य देखकर हंगामा मचाना शुरू कर दिया। बाद में प्रभावती के स्वयं वैसा करने से वे शान्त हो गर्इंं। शाम को आकर क्षुल्लिका विशालमती जी से तथा मुझसे बोलीं- ‘‘अब यह कन्या आपकी गोद में है।
इसको संभालो, उचित शिक्षा देकर उचित मार्ग में लगाओ।’’ तब विशालमती ने कहा-‘‘अम्मा! इसे आपके पास ही रहना है और आप से ही पढ़ना है, अतः इसे आप ही दशवीं प्रतिमा के व्रत देओ।’’ मैंने बहुत कुछ कहा कि-‘‘आप बड़ी हैं आप ही व्रत देवें।’’ किन्तु उनकी विशेष प्रेरणा से मैंने कु. प्रभावती को दशवीं प्रतिमा के व्रत दे दिये। इसी समय सौ. सोनूबाई जो कि चातुर्मास में रात्रि में मेरे ही पास रहती थीं, उन्होंने अपने पति की आज्ञा लेकर छठी प्रतिमा के व्रत ले लिए।
विशालमती जी की आज्ञा से इन्हें भी मैंने ही व्रत दिया था। उसी दिन चतुर्दशी की पिछली रात्रि में मैंने वर्षायोग पूर्ण कर लिया था अतः आष्टान्हिका के बाद वहाँ से निकलकर मुंबई आ गई। अकलूज के मियाचन्द फड़कुले ने बहुत ही आग्रह किया था कि-‘‘अम्मा! एक महीना ठहरो, मैं कुछ विशेष कार्यों में व्यस्त हूँ पुनः तुम्हें श्रवणबेलगोल की यात्रा करा दूँगा।’’
किन्तु मुझे चातुर्मास के बाद एक-एक दिन भारी मालूम हो रहा था अतः मैंने जल्दबाजी में उनकी प्रार्थना अस्वीकृत कर दी। क्षुल्लिका विशालमती जी को छोड़ते समय मेरे अन्तःकरण में दुःख अवश्य हुआ क्योंकि इतनी छोटी उम्र में इन्होंने मुझे बहुत ही वात्सल्य दिया था। उनकी आज्ञा से मैं बम्बई आई। पूज्य परम तपस्वी मुनि श्री नेमिसागर जी महाराज के दर्शन किये और वहाँ से जयपुर आ गई। मेरे साथ ही सोनूबाई और कु. प्रभावती भी थीं।
जयपुर में आकर आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के दर्शन किये और उनसे आचार्यश्री शांतिसागर जी की आज्ञा का समाचार सुना दिया पुनः आर्यिका दीक्षा की याचना की। आचार्यश्री ने कहा- ‘‘अभी ठहरो, संघ में रहो, सबके स्वभाव का अनुभव करो और सभी साधु-साध्वी तुम्हारे स्वभाव को, तुम्हारी चर्या को देखें, अनुभव करें, अनंतर दीक्षा भी हो जायेगी। इतना सुनकर मैं वहीं आर्यिकाओं के साथ उनके निवास पर पाटोदी मंदिर में एक कमरे में ठहर गई।