गिरनार यात्रा हेतु प्रस्थान- भगवान नेमिनाथ की निर्वाणभूमि की वंदना करने का विचार चल रहा था। नूतन आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज ने कतिपय मुनियों और आर्यिकाओं के मध्य बैठकर यह विचार बनाया कि- ‘‘गुरुदेव के वियोग को भुलाने के लिए अब हम लोग एक सिद्धक्षेत्र की यात्रा करें।’’
सभी के हृदय में गिरनार पर्वत के दर्शन की लालसा जागृत हो रही थी। विचार-विमर्श के अनुसार सारे संघ का एक निर्णय हुआ और यात्रा कराने का भार निवाई के सेठ हीरालाल जी पाटनी ने सहर्ष धारण किया। आचार्यश्री के समक्ष श्रीफल चढ़ाकर हीरालाल जी ने निवेदन किया-
‘‘महाराज जी! हम आपको चतुर्विध संघ सहित गिरनार क्षेत्र की यात्रा कराना चाहते हैं, आप स्वीकृति प्रदान कीजिये।’’ आचार्यश्री की स्वीकृति प्राप्त होते ही संघ के प्रमुख ब्रह्मचारी श्री सूरजमलजी ने सेठ हीरालाल जी को संघपति नाम से संबोधित किया और यात्रा के लिए व्यवस्था बनाई गई। यह सन् १९५७ की बात है। शुभमुहूर्त में आचार्यश्री ने अपने विशाल चतुर्विध संघ सहित गिरनार यात्रा के लिए गुजरात की ओर विहार कर दिया। उस समय संघ में आचार्यश्री के साथ पाँच मुनि थे-
१. मुनिश्री धर्मसागर जी २. मुनिश्री पद्मसागर जी
३. मुनिश्री जयसागरजी ४. मुनिश्री सन्मतिसागरजी और
५. मुनिश्री श्रुतसागरजी।
आर्यिकाओं में
१. आर्यिका श्रीवीरमती माताजी २. श्री धर्ममतीमाताजी ३. श्री सुमतिमती माताजी
४. श्रीपार्श्वमती माताजी ५.श्री पार्श्वमती माताजी ६.श्रीसिद्धमती माताजी
७. श्रीशांतिमती माताजी ८. श्रीवासुमती माताजी ९. श्री ज्ञानमती माताजी।
क्षुल्लक श्री सुमतिसागर जी थे जिन्हें लोग मदनभट्ट कहा करते थे। इनके अतिरिक्त
१. क्षुल्लिका ज्ञानमतीजी २. क्षुल्लिका चन्द्रमती जी ३. क्षुल्लिका जिनमती जी और
४. क्षुल्लिका पद्मावती जी,
ऐसे एक क्षुल्लक और चार क्षुल्लिकायें थीं। इनमें आर्यिका धर्ममती माताजी, आचार्यश्री जयकीर्ति महाराज से दीक्षित थीं। इनके साथ इन्हीं की दीक्षित क्षुल्लिका ज्ञानमती थीं जिन्होंने बाद में आचार्यश्री शिवसागरजी से आर्यिका दीक्षा ली थी तब उनका नाम बुद्धिमतीजी रखा गया था। ऐसे ही नं. ४ की पार्श्वमती माताजी आचार्यकल्प चन्द्रसागर जी की शिष्या हैं।इसी प्रकार ब्रह्मचारियों में
ब्र. सूरजमलजी, ब्र. राजमलजी, ब्र. लाडमलजी, ब्र. कचोड़मलजी ये चार प्रमुख थे।
इन्हीं के साथ
ब्र. सुगनचंद, ब्र. घासीराम, ब्र. गणेशीलाल, ब्र. कपूरचंदजी, ब्र. चिरंजीलालजी भी थे।
सौ. रतनीबाई ध.प. श्रीमान सेठ हीरालालजी अपने नाम के अनुरूप ही रत्न थीं। इनमें उदारता, सहिष्णुता आदि विशेष गुण थे। वह बहुत ही दयालु और मिलनसार स्वभाव वाली धर्मनिष्ठ महिला थीं। इनके साथ सज्जनबाई आदि दो तीन बाईयाँ थीं।
के चौके स्थायी रूप से थे तथा बीच-बीच में अन्य श्रावकों के भी चौके होते रहते थे।
अजमेर
संघ का विहार अजमेर की तरफ हुआ। सरसेठ भागचंदजी सोनी का संघ में आवागमन चालू हो गया। वे चाहते थे कि- ‘‘संघ अजमेर में हमारे यहाँ बड़ी नशिया-सोनीजी की नशिया में ही ठहरे।’’ किन्तु कुछ साधु और श्रावकों का कहना था कि- ‘‘संघ के मुनि छोटे धड़े की नशिया में और आर्यिकायें बाबाजी की नशिया में ही ठहरें।’’
यह एक बहुत बड़ा संघर्ष का विषय रहा। मार्ग में ५-६ दिनों तक इसी पर ऊहापोह चलता रहा। अंत में सेठ साहब की अनुनय-विनय और गुरुभक्ति की विजय हुई और आचार्यश्री आदि साधुगण सेठसाहब की नशिया में ही ठहरे तथा आर्यिकाओं को उसी के सामने हवेली में ठहराया गया। शहर के प्रवेश में अजमेर की जैन समाज ने संघ का स्वागत भी जोरदार किया। सेठसाहब भी भक्ति में विभोर हो संघ के मंगलप्रवेश में पैदल चलते रहे थे।
वहाँ संघ कई एक दिन ठहरा उस बीच एक दिन नशिया में मेरा प्रवचन आचार्यश्री ने करा दिया। प्रवचन के बाद तथा मध्याह्न में कई लोग आचार्यश्री के पास आये और प्रार्थना करने लगे- ‘‘महाराजजी! आर्यिका ज्ञानमती जी का यहाँ शहर में एक दिन सार्वजनिक सभा में प्रवचन करा दीजिये, बहुत लोग चाहते हैं।’’ इस प्रार्थना मेें सरसेठ भागचंद जी भी प्रयास कर रहे थे। आचार्यश्री ने भी गौरव का अनुभव करते हुए मुस्कराकर मौनस्वीकृति दे दी।
सेठ हीरालालजी तो बहुत ही प्रसन्न हुए किन्तु सायंकाल में ही कुछ चर्चा बढ़ी और किन्हीं ईष्र्यालुओं ने यह कहा- ‘‘क्या संघ में ज्ञानमती ही हैं और कोई साधु नहीं है?’’ आचार्यश्री ने अशांति का वातावरण देखकर मना कर दिया और बोले- ‘‘हमारे संघ के साधु सार्वजनिक सभा में प्रवचन नहीं करते हैं।’’ बात समाप्त हो गई, कुछ भक्त श्रद्धालु जन, जो धर्मप्रभावना के इच्छुक थे वे दुःखी बहुत हुए किन्तु मनमसोस कर रह गये।
मुझे उस समय जनता की मेरे प्रति सद्भावना से विशेष हर्ष भी नहीं हुआ और आचार्यश्री के मना कर देने पर कोई विषाद भी नहीं हुआ किंतु मन में यही आया कि- ‘‘अगर उपदेश न करने से संघ में शांति रहती है और मेरे उपदेश से कुछ लोगोें में ईष्र्या से अशांति भड़कती है तो ऐसे उपदेश देने से क्या लाभ?
मैंने तो अपने ध्यान-अध्ययन के लिए, संसार बंधन से छूटने के लिए दीक्षा ली है अतः इस लोक प्रभावना से मुझे क्या प्रयोजन?’’ मैं मार्ग में विहार करते-करते जब कहीं वृक्ष की छाया में किंचित् विश्राम के लिए बैठती तभी जिनमती शिष्या को गोम्मटसार जीवकांड की छह गाथायें पढ़ा देती। ऐसे दो तीन बार के विश्राम में मैं छह गाथायें गोम्मटसार की, छह श्लोक आप्तमीमांसा के और छह श्लोक समाधिशतक के पढ़ा देती। प्रायः प्रतिदिन अठारह श्लोक पढ़ाती थी और उन्हें क्षुल्लिका जिनमती रात्रि में याद करके सुना देती थीं। यदि उन्हें याद न हो सके तो मैं प्रायः बैठकर याद कराकर, सुन कर ही सोती थी।
उन दिनों संघ का विहार दोनों समय होता था सब मिलकर प्रायः पंद्रह-सोलह मील हो जाता था। कभी-कभी चलते समय मेरे पेट में दर्द शुरू हो जाने से मैं धीरे-धीरे चलती थी तो प्रायः सभी साधुओं के पीछे रह जाती थी किन्तु देर-अदेर गंतव्य स्थान तक पहुँच ही जाती थी। उस समय मेरे पास में क्षुल्लिका चंद्रमती, क्षुल्लिका पद्मावती, क्षुल्लिका जिनमती ये तीन साध्वियाँ थीं एवं एक ब्रह्मचारिणी थी। आर्यिका धर्ममती जी, आर्यिका वीरमती जी आदि का मेरे प्रति वात्सल्य अच्छा था। अच्छे हर्षोल्लास से विहार हो रहा था। ब्यावर-अजमेर शहर से विहार कर संघ ब्यावर शहर में पहुँच गया।
वहाँ सेठ चंपालालजी की नशिया में संघ ठहर गया, वहीं ‘ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन’ में आर्यिकायँ ठहर गयीं। मैं सरस्वती भवन के प्रवेश द्वार के ही बगल में सड़क की तरफ के कमरे में ठहरी थी। रात्रि में १०-११ बजे तक उसी कमरे से लगी दीवाल में बाहर की ओर प्रवेशद्वार के बगल के ही कमरे में खटपट चलती रही। वहाँ ब्र. गणेशीलाल जी व ब्रह्मचारिणी गुलाबबाई आदि ठहरे थे, उन्हें चौका करना था अतः चंदोवा के लिए कीलें ठोंक रहे थे।
इस खटपट के कारण मुझे भी देर से ही नींद आई पुनः पिछली रात्रि में चार बजे आँख खुलते ही बाहर के कमरे से जोरों से रोने की आवाज आई। मैंने उधर कान लगाये तो रोना करुण-व्रंदनरूप था, बाहर निकलकर पता लगाया तो मालूम पड़ा कि ब्र. गणेशीलाल जी स्वर्गस्थ हो गये हैं। सुनकर हम सभी लोग स्तब्ध रह गये। ब्रह्मचारिणी गुलाबबाई ने बताया कि-
‘‘बाबाजी नित्य की तरह लगभग साढ़े तीन बजे उठे, मेरे से माला मांगी और अपनी चटाई पर बिछे हुए बिस्तर पर ही चादर से मुंह ढककर माला फैरने लगे। पंद्रह-बीस मिनट में वे लुढ़क गये मैंने समझा नींद आ गयी होगी अतः ऐसे ही सो गये होंगे, कुछ क्षण बाद मैंने आवाज दी तो बाबाजी बोले ही नहीं तो मैंने चादर खींचा तब ऐसा लगा कि बाबाजी शायद इस शरीर को छोड़कर चले गये हैं मैंने हल्ला मचाकर बाहर से लोगों को बुलाया तब यह निर्णय हो गया कि बाबाजी की आत्मा अब इस शरीर में नहीं है।’’
यह ब्र. गणेशीलालजी संघस्थ आर्यिका सुमतिमती माताजी के गृहस्थाश्रम के भ्राता थे। इनके दत्तक पुत्र का नाम पं. सनत्कुमार विलाला था। इनकी धर्मपत्नी उस समय साथ में नहीं थीं वे जयपुर में ही अपने घर पर थीं। उनके परिवार को सूचना गई वे लोग वहाँ आये और वहाँ ब्यावर में एक विशेष ही वैराग्य का वातावरण बन गया। बात यह थी कि खानिया चातुर्मास में ब्र. गणेशीलालजी आचार्यश्री वीरसागर जी के करकमलों से क्षुल्लक दीक्षा लेना चाहते थे, श्रीफल चढ़ाकर प्रार्थना की थी।
इस धर्मकार्य में आर्यिका सुमतिमती माताजी की भी प्रेरणा थी। दीक्षा के लिए ब्र. सूरजमलजी ने मुहूर्त निकाल दिया था और आचार्य श्री की आज्ञानुसार उनके लिए लंगोट और चादर भी रंग लिये गये थे। दीक्षा के एक दिन पूर्व ब्रह्मचारी जी के पुत्र पंडित सनत्कुमार जी बहुत ही विरोध में आ गये, लोगों के समझाने पर भी वे नहीं समझ सके और अपने पिता को जबरदस्ती ले गये। घर ले जाकर उन्हें एक कमरे में बंद कर बाहर से ताला लगा दिया, ऐसी चर्चा सुनने में आई।
निष्कर्ष यह निकला कि उनकी दीक्षा रुक गई और जयपुर समाज में यह एक चर्चा का विषय बन गया। ब्र. गणेशीलाल जी साठ वर्ष से अधिक के हो चुके थे फिर भी स्वास्थ्य और मनोबल अच्छा था किन्तु उनके भाग्य ने साथ नहीं दिया अतः उनका ही पुत्र उनके त्यागमय जीवन का विरोधी बन गया।
जयपुर के प्रबुद्ध वर्गों में कोई ब्र. जी के प्रति सद्भावना व्यक्त करते हुये उनके पुत्र के मोह की निंदा करने लगे और कोई पुत्र के इस व्यवहार की प्रशंसा करने लगे तथा कोई मध्यस्थ भाव से इस चर्चा को सुनते रहे। मैंं सोचने लगी- ‘‘अहो! मोह का कैसा अचिन्त्य माहात्म्य है? वृद्धावस्था में भी ये परिजन लोग कैसा बांध लेते हैं!’’ पुनः उसी क्षण अपने वैराग्य के समय अपने माता-पिता के द्वारा किये गये मोह तथा जनता के विरोध का स्मरण कर मन सिहर उठा।
इसके बाद मैंने जो अपने पुरुषार्थ से विजय पाई और मुझे दीक्षानिधि प्राप्त हुई इस विषय पर भी मैं सोचने लगी- ‘‘अहो! मेरा कई जन्मों का पुण्य संचित किया हुआ ही मुझे काम आया जो मैं अपने कार्य में सफल हो गई, अब मुझे अपने मोक्षमार्ग की साधना में रंचमात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिए।’’
उस समय तो ये अनेक ऊहापोह मन में उठे ही थे, आज पुनः उनके आकस्मिक निधन से वह संस्मरण सब साधु-साध्वियों के सामने उभर आया, सभी के मुख से एक स्वर से यही निकला- ‘‘उस समय पं.सनत्कुमार ने ले जाकर ताले में बंद कर दिया था, अब भी मरते समय उन्हें रोक लेते।’’ आज प्रातः ही इस घटना के होते ही मैं सोचने लगी- आत्मानुशासन में श्री गुणभद्रस्वामी ने कहा है सो आज प्रत्यक्ष ही दिख रहा है-
जिन्हें हम शरण समझते हैं वे शरण नहीं अशरण ही हैं। ये सभी बंधु-बांधव बंधन के मूलकारण हैं। चिरकाल से परिचित भी भार्या आपत्ति के घर का मूल है। जो पुत्र हैं वे विचार करने पर शत्रु ही हैं इसलिए इन सबको छोड़ो और सुख के इच्छुक हो तो निर्मल धर्म का आश्रय लेवो। बार-बार मन में चिंतन चलने लगा-
‘‘संसार में गुरु से बढ़कर न कोई सच्चा बंधु है और न सच्चे माता-पिता ही। अर्थात् गुरु ही सच्चे माता-पिता हैं।’’ उस समय जब पं. सनत्कुमार जी वहाँ आ गये तब अन्त्येष्टि क्रिया के बाद जब वे समय पाकर गुरु के पास बैठे तब वे स्वयं महसूस कर रहे थे कि- ‘‘मैंने वास्तव में उस समय गुरुओं की नहीं मानी थी सो आज मेरे पिता का रात्रि में अकस्मात् स्वर्गवास हो गया, यदि ये आज क्षुल्लक होते तो साधुवर्ग के बीच में इनकी सल्लेखना महामंत्र सुनते-सुनते ही होती।’’
खैर, यह भी अच्छी बात थी कि वे हाथ में माला लेकर ही लुढ़के थे। जो भी हो, जब उन्होंने जीवन में पूजन, दान, स्वाध्याय आदि करके पुण्य अर्जन किया था सो अवश्य ही उनके लिए काम में आ गया। इस घटना से आर्यिका सुमतिमती माताजी को भी बहुत वैराग्य हुआ। एक सप्ताह पूर्व कुछ शास्त्र के विषय को लेकर आर्यिका श्री वीरमती जी ने मुझसे कह दिया था कि तुम इस विषय में दृढ़ रहना अतः मैं उन्हें संघ की बड़ी आर्यिका मानकर उनकी बात नहीं टाल सकी थी।
इस कारण २-४ दिन से हमारे प्रति सुमतिमती माताजी के मन में कुछ तनाव सा चल रहा था। उस समय वे आकर सहजभाव से मुझसे बोलीं- ‘‘ज्ञानमतीजी! मैंने जो आपसे कुछ दो शब्द कहे और आपकी बात को काटने का प्रयास किया सो क्षमा करो ।
वास्तव में जीवन क्षण भंगुर है। कुछ विश्वास नहीं, सोने के बाद यह जीव उठकर बैठे या न बैठे। देखो क्षणमात्र में ब्र. गणेशीलाल चले गये। अपन लोग आपस में जरा-जरा सी बात को लेकर उलझ जाते हैं इसमें क्या रखा है? आपस में प्रेम से रहना ही अच्छा है।’’ उनकी इस प्रकार की सरलता और क्षमायाचना को देखकर मैंने भी विनम्रता से क्षमायाचना की- ‘‘माताजी! मेरी बालबुद्धि से जो हठाग्रता हुई सो आप क्षमा कीजिये, आप बड़ी हैं, आप मेरे से क्षमा मांगें, यह ठीक नहीं ।’
’ मैं सोचने लगी- ‘‘इनका हृदय कितना स्वच्छ और विशाल है। इनके मन में इस समय वैराग्य का प्रवाह विशेषरूप से बह रहा है। वास्तव में खून का संबंध ऐसा ही होता है। देखो! इन ब्रह्मचारी जी के लिए दीक्षा का मुहूर्त निकाला जाना, पुनः दीक्षा का रोका जाना और कुछ ही माह बाद इस तरह आज अकस्मात् निधन हो जाना, यह सब निकटसंसारी भव्यात्माओं के लिए वैराग्य वृद्धि का हेतु ही होता है। कहा भी है- ‘‘जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्१।’’ संसार और शरीर के स्वभाव का विचार करने से संवेग-धर्म में प्रेम और वैराग्य बढ़ता ही है।’’