यात्रा से वापसी में समस्याएँ- यह गुजरात यात्रा प्रायः पूर्ण ही हो चुकी थी यद्यपि कुछ साधु उस प्रांत में एक चातुर्मास करना चाहते थे किन्तु संघपति सेठ हीरालालजी का आग्रह था कि- ‘‘हम वापस संघ को राजस्थान ही ले जायेंगे, वहीं ब्यावर, अजमेर आदि कहीं भी चातुर्मास होगा।’’
मुनिश्री धर्मसागर जी, मुनिश्री सन्मतिसागर जी आदि वापस राजस्थान की तरफ विहार करने के लिए सहमत नहीं थे। अंदर ही अंदर चर्चायें चल रही थीं और खींचातानी बढ़ती जा रही थी। ऐसी कोई-कोई बातें श्रुतसागरजी महाराज और आर्यिका सुमतिमती माताजी मुझे अवश्य बतलाते रहते थे और मुझसे परामर्श भी किया करते थे।
‘‘संघ विघटित न हो, जैसे बने वैसे यथावत् बना ही रहे, प्रत्युत् वृद्धिंगत हों’’ ऐसी भावना होने से मैं उस चर्चा में साधुओं को समझाने के लिए प्रयास कर रही थी। ब्र. सूरजमल जी भी प्रयास कर रहे थे। मुनिश्री धर्मसागरजी तो तटस्थ हो गये किन्तु सन्मतिसागरजी और श्रुतसागरजी अलग होने को तैयार हो गये। अनेकों पुरुषार्थ के बाद भी इन दोनों का संघ से अलग होना निश्चित हो गया, तब कुछ साधुओं ने कहा- ‘‘जाने दो, आना जाना तो संघ में चलता ही रहेगा।’’
इधर मैं श्रुतसागरजी को अधिक रूप से समझा रही थी कि- ‘‘महाराज जी! आप आचार्यश्री के बायें हाथ हैं, आपको कतई नहीं जाना चाहिए।’’ सब कुछ सुनकर भी श्रुतसागर जी ने एक दिन एक जिनमंदिर की वेदी में कहा- ‘‘माताजी! मैंं आपको माता के समान ही समझता रहा हूँ, मेरी आपके प्रति विशेष आस्था है फिर भी अभी तो मैं जाऊँगा ही। आप मुझे मेरे ज्ञान और चारित्र की वृद्धि के लिए मंत्र दे दीजिये।’’
महाराजजी की इच्छानुसार मैंने उन्हें एक बड़ा सरस्वती मंत्र तथा एक दूसरा मंत्र भी दिया। उन्होंने उन दोनों मंत्रों को मस्तक पर चढ़ाया और- ‘‘भविष्य में भी ऐसी ही सद्भावना और वात्सल्य आपका बना रहे।’’ऐसी भावना व्यक्त की। इसी बीच मैंने महाराज जी से कहा- ‘‘महाराज जी! यदि आप संघ से चले जायेंगे, तो आपके वापस आने तक मेरा नमक का त्याग है। महाराज जी ने कहा-‘‘मैं तो वापस आने के लिए नहीं जा रहा हूँ।’’
मैंने कहा-‘‘तब तो मेरा नमक का त्याग भी जीवन भर के लिए हो जायेगा।’’बात समाप्त हो गई। उन दिनों मेरे पास में आर्यिका चंद्रमती, आर्यिका पद्मावती, क्षुल्लिका जिनमती और क्षुल्लिका राजुलमती ये चार साध्वियाँ रहती थीं। यद्यपि चंद्रमतीजी और जिनमती को भी सारी बातों की जानकारी थी फिर भी मुनियों के पास जाकर कुछ भी आंतरिक विचार-विमर्श करने में आर्यिका पद्मावती जी मेरे साथ अधिक ही रहती थीं, मैं अकेले नहीं जाती थी।
ये पद्मावतीजी मेरे पास सोलह वर्ष तक रही हैं अजमेर में सन् १९७१ में उनकी समाधि हुई है। तब तक संघ की हर एक आंतरिक चर्चा में वे मेरे साथ रही हैं किन्तु अन्त तक कभी भी कोई बात बाहर नहीं गई न उनके द्वारा कुछ अर्थ का अनर्थ ही हुआ। कई एक शिष्याओं का ऐसा अनुभव आता है कि वे गुरुजनों की या संघ की कोई आंतरिक बात पेट में नहीं रख पाती हैं बल्कि कोई-कोई मूढ़ शिष्यायें तो अर्थ का अनर्थ ही कर देती हैं।
यह गुण आर्यिका पद्मावती जी में विशेष ही था, वे सदा अंत तक छाया के समान मेरे साथ रही हैं। कभी-कभी उनका अभाव खटकता है किंतु संयोग के बाद वियोग तो स्वाभाविक ही है।
‘‘संयुक्तानां वियोगश्च, भविता हि नियोगतः।’’
यह सूक्ति स्मरण कर संतोष करना ही पड़ता है। एक दिन प्रातः दोनों मुनि आचार्यश्री को नमस्कार कर, बिना बताये मार्ग से विहार कर गये। दुःख तो सभी को हुआ, परन्तु कर क्या सकते थे? श्रुतसागरजी व सन्मतिसागरजी से ब्र. राजमल जी की भी निकटता अधिक थी।
उस समय मैंने ब्रह्मचारीजी से कहा- ‘‘ब्रह्मचारी जी! देखो, एक बार प्रयास और करो।’’ इतना सुनते ही ब्रह्मचारीजी उन्हें वापस लाने की भावना से, जिधर से वे गये थे उधर ही दौड़ पड़े। बेतहाशा पीछे दौड़कर आ रहे ब्रह्मचारी को देखकर दोनों साधु मार्ग में रुक गये। ब्रह्मचारीजी उनके पास पहुँचे और चरणों में गिरकर जोर से रो पड़े।
कुछ देर तक वे रोते ही रहे, ऐसा दृश्य देखकर उन दोनों साधुओं का हृदय दया से आर्द्र हो आया, वे सोचने लगे- ‘‘अहो! संघ का इतना वात्सल्य और प्रेम छोड़कर हम लोग क्यों जा रहे हैं? क्या अन्यत्र ऐसा वात्सल्य मिलेगा?’ इत्यादि प्रकार से सोचकर वे बोले- ‘‘अच्छा, चलो, हम वापस चलते हैं।’’
इधर दोनों मुनियों के चले जाने से सबका मन खिन्न था, सभी साधु गंतव्य स्थान तक पहुँच चुुके थे, आहारचर्या का समय हो रहा था, तब ये सन्मतिसागरजी और श्रुतसागरजी महाराज व ब्र. राजमल जी वहाँ आ गये। यह दृश्य देखकर सभी के हर्ष का पार नहीं रहा। कुछ क्षण बाद मुनिश्री श्रुतसागरजी बोले- ‘‘माताजी! आपका नमक का त्याग पूरा हो चुका है।
अब मैंने नियम ले लिया है, संघ छोड़कर नहीं जाऊँगा।’’ ऐसा आगे का वाक्य सुनकर मुझे बहुत ही खुशी हुई। सबका निरंतराय आहार हुआ पुनः उसी दिन से वह जाने-जाने की चर्चा का अध्याय समाप्त होकर नया अध्याय शुरू हुआ ही था कि दो-तीन दिन बाद सन्मतिसागरजी ने फिर कदम उठाया। हम सभी साधुओं को बहुत ही आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा- ‘‘मैंने अहमदाबाद जाने का नियम ले लिया था, इसलिए जाना ही है।’’
उस समय श्रुतसागरजी बोले- ‘‘मैं नहीं जाऊँगा।’’ अब यह चर्चा चली कि-‘‘यदि आपको अहमदाबाद ले जाकर वापस ले आया जावे, तो आपका नियम पूरा हो सकता है क्या?’’ वे बोले- ‘‘हाँ! पुनः मैं संघ में रहूँगा।’’ अब दो-तीन दिन के विचार-विमर्श में यह तय हुआ कि- ‘‘श्रुतसागरजी और सन्मतिसागरजी को अहमदाबाद ले जाकर वापस लाया जावे।’’
इस विषय पर भी ब्र.राजमलजी तैयार हो गये। आचार्य श्री की आज्ञा लेकर ये दोनों मुनि अहमदाबाद की ओर विहार कर गये और सारा संघ उनकी प्रतीक्षा में कुछ दिन शायद आबू के मंदिर में ठहरा। उस समय भयंकर गर्मी पड़ने लग गई थी। दोनों मुनि खूब चल-चलकर अहमदाबाद पहुँचे, वहाँ के जिनमंदिरों का दर्शन करके दो-तीन दिन विश्राम कर वहाँ से निकले और अत्यधिक पैदल चलते हुए सकुशल वापस आकर संघ में मिल गये। ब्र. राजमलजी भी इनके साथ प्रायःपैदल ही चले थे।
वापस आकर मिलने पर संघ में सभी साधुओं को ‘मानो कोई निधि ही मिल गई है’ ऐसा प्रतीत हुआ। उस समय इन दोनों मुनियों के पैरों में काफी थकान थी, पगतली में छाले पड़ गये थे और बहुत जलन होती थी। श्रुतसागरजी ने मुझे यह वेदना बताई। तब मैंने गीली मिट्टी के लेप का उपचार कराया।
रात्रि में सोते समय ब्र. राजमलजी भीगी हुई चिकनी मिट्टी का पगतली में लेप कर देते थे और घंटे-दो घंटे बाद उतार देते थे। इससे महाराजजी को काफी शांति मिली और उनकी थकान दूर हुई।