यहाँ ज्येष्ठ कृष्णा सप्तमी को प्रातः आहार करके हम लोगों ने पहाड़ पर चढ़ने का निर्णय लिया। तदनुसार आहार के बाद भगवान् का दर्शन करके हम पाँचों साध्वियाँ और ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी सभी एक साथ चढ़े। मार्ग में सीता नाले के पास पहुँचकर लगभग १२ बजने के समय वहाँ एक तरफ बैठकर सामायिक किया और पुनः चढ़ना प्रारंभ कर दिया। पर्वत पर चढ़ते समय बराबर णमोकार मंत्र और सिद्धचक्र मंत्र को जप रहे थे। जब भगवान् कुंथुनाथ के टोंक की दर्शन किये, हर्ष का पार नहीं रहा। हम सभी के आँखों से आनन्दाश्रु झरने लगे, ऐसा लगा कि मानो अब हमारा संसार बहुल अल्प ही रह गया है,
हम लोग निश्चित भव्य हैं। इसके पूर्व मैंने तो एक बार बचपन में माता-पिता के साथ इस तीर्थ की वंदना की थी पुनः दूसरी बार क्षुल्लिका अवस्था में क्षुल्लिका विशालमती के साथ आई थी अतः यह तृतीय बार वंदना की। मेरे साथ रहने वाली आर्यिका पद्मावती, आर्यिका आदिमती और क्षुल्लिका श्रेयांसमती ने भी पहले इस क्षेत्र के दर्शन किये थे। मात्र आर्यिका जिनमती ने ही नहीं किये थे अतः उन्हें ही धुन लग रही थी और वे बार-बार कहा करती थीं कि- ‘‘अम्मा! मुझे शिखरजी की वंदना करा दो, जिससे यह निश्चित हो जाये कि मैं भव्य हूँ।’’
अतः आज उन्हें अपने भव्यत्व का निर्णय हो गया और वे अपने में फूली नहीं समायीं। हम सभी साध्वियाँ रात्रि में वहीं कुंथुनाथजी की टोंक से लेकर चन्द्रप्रभ टोंक तक दर्शन कर, शाम को कुंथुनाथ टोंक के पास एक टूटी-फूटी धर्मशाला में सोयी थीं और प्रातः उठकर पुनः आधी वंदना करके भगवान् पार्श्वनाथ की टोंक पर पहुँचकर सामायिक किया। यहाँ पर कु. मनोवती की इच्छा और प्रार्थना के अनुसार मैंने उसे सात प्रतिमा के व्रत दे दिये।
अभी तक मैंने कई वर्षों से चावल का त्याग कर रखा था, मात्र एक गेहूं धान्य ही आहार में लेती थी अतः ब्र. बाबाजी यहाँ टोकों पर जो जल लाये थे उससे सर्वत्र चरणों का अभिषेक किया, अर्घ चढ़ाया पुनः एक डिब्बे में खीर लेकर आये थे, एक-एक पत्तों के दोने में खीर लेकर यहाँ चरणों के निकट नैवेद्यरूप में खीर भी चढ़ाई। इस प्रकार एक-एक दिन में आधी-आधी, ऐसे दो दिन में पूरी वंदना कर हम सभी मध्यान्ह में तीन बजे के लगभग पर्वत से उतरे, बाद में आहार ग्रहण किया।
इस प्रकार कुछ वंदनाएँ हम लोगों ने दो-दो दिन में की थीं तथा कुछ वंदनाएँ प्रातः ६ बजे से चढ़कर वापसी तीन बजे तक आकर की थी। मेरे साथ आर्यिका पद्मावती जी थीं, वे प्रातः उजेला होने पर वंदना के लिए निकलतीं और १० बजे तक आहार के समय वापस आ जाती थींं। मैंने पूछा- ‘‘तुम सारे टोंकों के दर्शन इतनी जल्दी कैसे कर लेती हो?’’ वह बोलीं- ‘‘अम्मा! मैं जल्दी-जल्दी चढ़कर, वहाँ पहुँचकर, प्रत्येक टोंक के पास एक कायोत्सर्ग कर पंचांग नमस्कार करती हूँ, ऐसे ही चौबीसों टोंकों की वंदना करके ही आती हूँ।’’ उनकी ऐसी शक्ति देखकर मुझे बहुत ही आश्चर्य होता था।
यहाँ शिखरजी की वंदना के बाद सरदारमल जैन जयपुर वाले, ब्र. मूलीबाई और प्रकाशचंद जैन टिकैतनगर वाले, ये तो आशीर्वाद लेकर अपने-अपने घर चले गये। प्रकाशचंद के पिता के द्वारा दिया गया पत्र एवं तार हमें यहाँ पहुँचते ही मिल गया था, अतः अब इन्हें घर जाना ही था। हम पांचों साध्वियाँ यहाँ लगभग १ माह आनंद से ठहरीं। ब्र. सुगनचंद, उनकी बहन, ब्र. भंवरीबाई और कु. मनोवती, ये चारों यहीं संघ में ठहरे हुए थे। यहाँ दो चौके करते थे। हम लोग निराकुलता से यहाँ धर्माराधना कर रहे थे।
भगवान् शांतिनाथ का निर्वाणदिवस
यहाँ एक मुनि धर्मकीर्तिजी ठहरे हुए थे। बीच में कुछ सनावद के यात्री दो बसें लेकर यात्रा के लिए आये हुए थे, वे ठहरे हुए थे। ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी को भगवान् शांतिनाथ का मोक्ष कल्याणक था। मुनिश्री के आदेशानुसार वे लोग गाजे बाजे के साथ पर्वत पर भगवान् शांतिनाथ की टोंक पर लाडू चढ़ाने गये थे। उस समय मैं तो इन लोगों को पहचानती नहीं थी और न कोई परिचय ही हो पाया था। अब यहाँ कई बार मोतीचंद कहा करते हैं कि-
‘‘माताजी! उन यात्रियों में मैं भी था किन्तु आपके दर्शन किये या नहीं? मुझे याद ही नहीं है।’’ बात यह थी कि मैं यात्रियों से या अन्य किसी से बहुत कम बोलती थी। अपना उपयोग अपने कार्यों में ही लगा रहता था। कभी ऊपर वंदना के लिए जाती थी, तो कभी नीचे के बीसपंथी मंदिर, कभी तेरापंथी मंदिर के दर्शनों के लिए, तो कभी भगवान् बाहुबली के दर्शनों के लिए चली जाती, वहाँ जाकर कभी-कभी ध्यान भी किया करती थी। सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए नावा से निकलते ही हम लोगों ने एक जाप्य करना शुरू कर दिया था, जो बराबर रास्ते मेंं भी जपते रहते थे एवं जब कभी दिन-रात्रि में अवकाश मिले, वह जाप्य बराबर चलती रहती थी। मैं समझती हूँ कि उसी के प्रभाव से ऐसे रुग्ण, कमजोर शरीर से मैंने छह माह में र्नििवघ्न रूप से बारह सौ मील की चलाई कर ली और यहाँ आकर वंदना कर रही थी।
वह जाप्य यह है- ‘‘ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतानंतप्रमसिद्धेभ्यो नमो नमः।’’ रास्ते में भयंकर सर्दी झेली। पावापुरी से लू-लपट भरी गर्मी की बाधाएँ झेलीं। कभी अधिक चलाई और कभी अधिक अंतराय आदि के कष्ट झेले लेकिन यहाँ तीर्थराज की वंदना कर सब दुःख ऐसे लग रहे थे कि मानों वे फूल के सदृश ही कोमल थे अथवा वे इतना बड़ा पुण्य संचय कराने में कारण हुए थे अतः सुखकर ही प्रतीत हो रहे थे।
सम्मेदशिखर की वंदना का माहात्म्य तो अचिन्त्य ही है, जहाँ की एक-एक टोंक के दर्शन से अरबों-खरबों उपवास का फल मिल जाता है और इस क्षेत्र की वंदना करने वाले भव्य जीव अधिकतम उनंचास भव ही ले सकते हैं, इससे अधिक नहींं। यह नियम है कि वंदना करने वालों की नरक गति और तिर्यंच गति टल जाती है।
सम्मेदशिखर तीर्थ परिचय
ऐसी अनुश्रुति है कि श्री सम्मेदशिखर और अयोध्या ये दो तीर्थ अनादिनिधन- शाश्वत हैं। अयोध्या में सभी तीर्थंकर जन्म लेते हैं और सम्मेदशिखर से निर्वाण प्राप्त करते हैं। किन्तु इस हुंडावसर्पिणी के दोष से इस बार अयोध्या में पाँच ही तीर्थंकर जन्मे हैं शेष अन्य नगरियों में जन्मे हैं। ऐसे ही भगवान ऋषभदेव ने कैलाशपर्वत से, वासुपूज्य ने चंपापुरी से, नेमिनाथ ने ऊर्जयंत से और महावीर स्वामी ने पावापुरी से निर्वाण प्राप्त किया है, शेष बीस तीर्थंकरों ने यहाँ सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त किया है। कहा भी है-
बीसं तु जिणवरिंदा अमरासुरवंदिदा धुदकिलेसा।
सम्मेदे गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं।।२।।
तिलोयपण्णत्ति में प्रत्येक तीर्थंकरों के साथ मोक्ष प्राप्त करने वालों की संख्या भी दी गई है। इन बीस तीर्थंकरों से अतिरिक्त अनेक मुनिगण यहाँ पर कर्र्माें का नाश कर मोक्ष पधारे हैं। सम्मेदशिखर विधान में और टोकों के अर्घ में एक-एक टोंक से मोक्ष प्राप्त करने वालों की संख्या दी गयी है पुनः किस-किस टोंक की वंदना से कितने-कितने उपवासों का फल मिलता है, यह भी बतलाया गया है।
यहाँ सम्मेदशिखर मधुबन में बीसपंथी, तेरहपंथी तथा श्वेताम्बर नाम से तीन कोठियाँ हैं। बीसपंथी कोठी सबसे प्राचीन है। लगभग चार सौ वर्ष पुरानी है, इस बीसपंथी कोठी के बाद लगभग २५० वर्ष बाद श्वेतांबर कोठी बनी है। इसके बाद लगभग १०० वर्ष बाद तेरहपंथी कोठी बनी है।
गिरिराज की भक्ति
सम्मेदशिखर का माहात्म्य और उसकी वंदना से होने वाले पुण्य फल को मैंने जो समझा था, श्रद्धान किया था, उसे ही सोलापुर में संस्कृत स्तोत्र और हिन्दी स्तोत्र में संजोया था। उसकी कुछ पंक्तियाँ देखिये-‘‘श्रीसम्मेदशिखर वंदना’’ में प्रथम श्लोक-
पुनः अंत में- कुरुते वंदनां भक्तया, वारमेकंजनोऽस्य यः।
तिर्यंङ्नरकगत्योश्च गमनं तस्य नो भवेत् ।।७३।।
तथा चैकोनपंचाशत् भवस्याभ्यंतरे स हि।
नियमाल्लप्स्यते मुक्तिमेतदुत्तं जिनेश्वरे।।७४।।
इसी का हिन्दी अनुवाद है-
सिद्धों को कर नमस्कार, सम्मेदगिरीन्द्र स्तवन करूँ।
सिद्धभूमि के वंदन से, कटु कर्मकाष्ठ को दहन करूँ।।१।।
कूट सिद्धवर से श्री अजितप्रभु सहस्र मुनियों के साथ।
भव समुद्र से पार हुए हैं, वंदन करूँ नमाकर माथ।।३।।
मुनिगण एक अरब चौरासी, कोटि तथा पैंतालिस लक्ष।
इसी कूट पर कर्मनाश कर, मोक्ष गये वंदूँ मैं नित।।४।।
मैंने पुनः सन् १९८७ में सम्मेदशिखर विधान पूजन बनायी है। उसमें टोंक के अर्घ के साथ उनकी वंदना से होने वाले उपवासों की संख्या भी दी है। यथा-
श्री अजितनाथ जिन कूट सिद्धवर से निर्वाण पधारे हैं।
उन संघ हजार महामुनिगण, हन मृत्यू मोक्ष सिधारे हैं।।
इससे ही एक अरब अस्सी, कोटी अरु चौवन लाख मुनी।
निर्वाण गये सबको पूजूँ, मैं पाऊँ निज चैतन्य मणी।।
दोहा
भावसहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
बत्तिस कोटि उपवास फल, अनुक्रम से निज राज्य।।
ॐ हि सिद्धवरकूटात् सिद्धपदप्राप्त सर्वमुनिसहित अजितजिनेन्द्राय अर्घं।
इसी प्रकार मथुरा में श्रीजंबूस्वामी की चरण वंदना कर मैं आगे बढ़ी थी तो निर्विघ्न यात्रा हो गई थी। इस निमित्त से मेरी जंबूस्वामी के प्रति भी भक्ति भावना बढ़ गई थी अतः श्रवणबेलगोल में सर्वप्रथम बाहुबलि स्तोत्र संस्कृत और बाहुबलि चरित हिंदी पद्य में रचने के बाद श्रीजंबूस्वामी की स्तुति भी बनायी थी। उसका प्रथम श्लोक यह है-
विहितविमलसम्यव्खड्गधाराव्रतः प्राक्।
भव इह न हि कांतासक्तचेता निकामः ।।
इह भरतधरायामंतिमः केवली तम् ।
त्रिभुवननुतजंबूस्वामिनं स्तौमि भक्त्या।।१।।
बीसपंंथी कोठी में तीन अहाते हैं एवं धर्मशालाओं में १६६ कमरे हैं। इसके मुख्य मंदिर में आठ शिखरबंद जिनालय हैं। तेरहपंथी कोठी में पाँच अहाते और पाँच धर्मशालाएँ हैं तथा बारह जिनालय और एक सहस्रकूट जिनालय है। यह सन् १९७५ में लिखी गई ‘भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ’ पुस्तक से लिया है चूँकि बहुत सी रचनाएँ बाद में बनी हैं।
उस समय नंदीश्वर द्वीप तो बन रहा था। समवसरण मंदिर बाद में बना है। अब तो वहाँ आर्यिका सुपार्श्वमती जी द्वारा चार सौ अट्ठावन जिनमंदिरों का निर्माण कराया जा रहा है जो कि मध्यलोक संस्थान नाम से प्रसिद्ध है। कल्याणसागर नाम के एक मुनिराज ने वहाँ ‘कल्याणनिकेतन’ नाम से एक संस्था खोली है, जिसमें भी विभिन्न निर्माण हो रहे है।
वस्त्रों का शोध
यहाँ की जलवायु मेरे स्वास्थ्य के अनुकूल रही अतः रास्ते की सारी थकान समाप्त हो गई थी। ईसरी के उदासीन आश्रम के ब्रह्मचारी लोग भी आहार देने आ जाते थे। एक बार एक ब्रह्मचारी आये और पैर धोकर चौके में आने लगे, मैंने संकेत से रोका, तब वे बाहर ठहर गये। ब्र. सुगनचंदजी ने पूछा- ‘‘आपने शुद्ध कपड़े कहाँ बदले हैं?’’ उन्होंने कहा- ‘‘मैंने ईसरी में प्रातः स्नान कर शुद्ध कपड़े पहने थे, पूजा किया था, उसके बाद सीधे वहाँ से आ रहा हूँ।’’
ब्रह्मचारीजी ने पूछा-‘‘क्या पैदल आये हैं?’’ वे बोले-‘‘नहीं, नहीं, मैं बस से आया हूूँ।’’ तब ब्र. सुगनचंद ने कहा कि- ‘‘अब आपके वस्त्र शुद्ध कैसे रहे? बस में तो सभी लोगों से छू गये हो!’’ वे बोले-‘‘प्रातः शुद्ध कपड़े पहने थे, तो बार-बार बदलने की भला क्या जरूरत है?’’ खैर! उन्हें रोक दिया गया अतः वे दुःखी भी हुए और झुँझलाए भी। बाद में आहार के पश्चात् भोजन आदि करके मेरे पास ‘शोध’ की चर्चा करने बैठ गये।
तब मैंने उन्हें समझाया- ‘‘मेरी आचार्य परम्परा में वस्त्रों के शोध की जो व्यवस्था है सो सुनिये-धोती दुपट्टे आदि कपड़े धोकर, रस्सी या लोहे के तार की रस्सी पर सुखा देते हैं। उस समय उस रस्सी पर पहले के जो कपड़े सूख रहे हों, उन्हें हटा देना चाहिए अन्यथा वे अब आपसे छू गये और तब ये गीले भी वस्त्र सूखकर छुए ही माने जायेंगे पुनः उस रस्सी के सूखे वस्त्रों को एकांत में वस्त्र बदलकर, आकर उतारकर पहनना चाहिए या गीले कपड़े पहनकर इन्हें उतारना चाहिए या एकांत में नग्न होकर इन्हें उतारना चाहिए पुनः इन शुद्ध वस्त्रों को पहनकर ही चौका बनाना चाहिए और आहार देना चाहिए। यदि बाहर के छुए वस्त्र वालों से छू गये हैं तो चौके में नहीं आना चाहिए।
चारित्र चक्रवर्ती श्री आचार्य शांतिसागरजी से लेकर आज तक उनकी परम्परा के साधुओं में वस्त्रों की शुद्धि की यही व्यवस्था चलती है। कोई-कोई धुलकर सूखे हुए वस्त्र लकड़ी से उठाकर रख देते हैं, उन्हें शुद्ध मानते हैं। कोई-कोई हाथ से ही वस्त्र उठाकर, टीन के डिब्बे में या प्लास्टिक की थैली में रखकर अन्यत्र ले जाते हैं, उन्हें पहनकर आहार दे देते हैं। कोई-कोई साधु तो ऐसे वस्त्र पहनने वालों से आहार ले लेते हैं किन्तु हम लोग वैसे नहीं लेते हैं।’’ यह सुनकर उन ब्रह्मचारी ने भी वहाँ मधुबन आकर अपने वस्त्र प्रातः सुखा दिये पुनः बदलकर आहार दिया, तब मैंने ले लिया। उन्हें खूब खुशी हुई।
संघस्थ व्रतिकों की वैयावृत्ति
इस यात्रा में ये ब्रह्मचारी लोग बैलगाड़ी से प्रवास कर रहे थे अतः इन लोगों ने बहुत कष्ट झेले हैं। जहाँ प्रातः ७-८ बजे पहुँचते थे। वहाँ कपड़े धोकर सुखाते, फिर चौका बनाते थे। कपड़े कुहरा, ठंडी, ओस अथवा बारिश में सूख ही नहीं पाते थे। प्रायः गीले-सीले पहन कर चौका बनाकर आहार देते थे। ग्यारह बजे लगभग आहार होने से ये लोग १२-१ बजे भोजन करते तब वैसे ही ठंडा और रूखा-सूखा भोजन कर लेते। प्रकाशचंद और मनोवती तो पेट भी नहीं भर पाते थे।
इसके बाद जल्दी-जल्दी बर्तन साफकर, सब सामान बांधकर, प्रायः ३-४ बजे बैलगाड़ी रवाना कर देते, तब कहीं मेरे विश्राम के स्थान पर रात्रि में ११-१२ बजे आ पाते थे। बाद में हम लोगों के लिए घास बिछाकर जब स्वयं सोते तो १२-१ सहज बज जाता। इसके बाद पिछली रात्रि में तीन बजे ही उठकर गाड़ी में घास और अपने बिस्तर आदि डालकर गाड़ी में बैठकर चल पड़ते, फिर भी आहार के स्थान पर गाड़ी ७-८ बजे पहुँच पाती थी। इस यात्रा में हम साध्वियों को भी प्रतिदिन प्रायः रात्रि में ११-१२ बजे घास मिलती और तीन बजे वापस घास छोड़ देनी होती थी।
उस समय उम्र और स्वास्थ्य की कुशलता से ये कष्ट झेल लिये थे। आज तो कथमपि संभव नहीं है। बंद कमरे में शाम को ५ बजे से घास में बैठकर प्रातः ९ बजे घास से निकलना होता है। ऐसे ही इनके पास नौकर न होने से ये दोनों, चौके का पानी भरना, आटा पीसना, बर्तन मांजना पुनः सामान बांधकर गाड़ी में लादना आदि सारी मेहनत स्वयं करते थे। फिर भी इन लोगों को अरुचि, अशांति नहीं थी।
इन लोगों ने इस यात्रा में इस वैयावृत्ति और गुरुसेवा से महान् पुण्य बंध किया, इसमें कोई संदेह नहीं है। ब्रह्मचारी जी ने बताया था कि कानपुर से उन्हें एक गाड़ीवान् ऐसा मिल गया था जो कि ब्राह्मण था, मेरी थाली का ही प्रसाद खाता था और दिन में एक बार ही भोजन करता था। न बीड़ी-सिगरेट, न पान, न रात्रि भोजन, वह बहुत सात्विक था, उसकी मेरे प्रति बहुत भक्ति थी, रोज नमस्कार करके भोजन करता था। वह हम आर्यिकाओं की धोती धोने के लिए बहुत ही लालायित रहता था लेकिन मेरी आज्ञा न होने से संघस्थ ब्रह्मचारिणियाँ स्वयं हम लोगों की धोतियाँ धो लेती थीं।
वह कहता-‘‘बाबाजी! यदि मैं कुछ भी माताजी की सेवा नहीं कर सकता हूँ तो धोती ही धो लाउँ, मुझे कुछ भी लाभ तो मिल जाये।’’ बाबाजी कहते-‘‘मैं क्या करूँ? बाइयाँ धो डालती हैं।’’ ब्र. जी कहते थे कि-‘‘इसके बैल भी खूब बड़े-बड़े हैं और गाड़ी भी बड़ी है अतः दो गाड़ी की अपेक्षा मेरा एक से ही काम चल जाता है। यह गाड़ीवान् बाबाजी के साथ शिखरजी तक रहा है पुनः वंदना करके आशीर्वाद लेकर घर गया।
ईसरी में धर्मोपदेश
इसके बाद मैं कुछ दिन के लिए ईसरी आ गई। चूँकि यहाँ पर ब्र. सुरेन्द्र कुमार जी बहुत आग्रह कर रहे थे यहाँ पर उन्होंने ने मुमुक्षु आश्रम में एक दिन मेरा प्रवचन
रखा। सामने प्रवचनसार रख दिया, मैंने भी प्रवचनसार की गाथा और अमृतचंद्रसूरि की टीका का अच्छा अर्थ कर दिया। मैंने न्याय की पंक्तियों को न्याय की शैली में समझाया, तब ब्र. सुरेन्द्रजी बोले- ‘‘माताजी! आपका संस्कृत व्याकरण, न्याय और सिद्धान्त, तीनों विषयों पर अच्छा अधिकार है। आप प्रतिदिन हम लोगों को प्रवचनसार सुनाइये।’’ इस तरह कई दिन स्वाध्याय चलाया गया। वैसे मैं यहाँ बीसपंथी मंदिर के स्थान में ठहरी थी। अब इन लोगों का आग्रह था कि-
‘‘आप संघ सहित यहाँ ईसरी में ही चातुर्मास करें।’’ इधर गया से चंपालाल सेठ जी आकर आग्रह कर रहे थे कि गया में चातुर्मास करिये। रांची, गिरिडीह और भागलपुर के लोगों ने भी आग्रह कर रखा था। आरा से ब्र. चन्दाबाई जी के भी समाचार आ रहे थे। गया की ब्र. पतासीबाई भी आग्रह कर रही थीं। इन सभी के साथ ही उधर कलकत्ते से श्रावकों और ब्र. चांदमलजी (गुरुजी) के हर तीसरे-चौथे दिन बराबर पत्र आ रहे थे। मैं सोच नहीं पा रही थी कि- ‘‘कहाँ चातुर्मास करना?’’ वैसे मेरी इच्छा सम्मेदशिखर में ही रहने की थी किन्तु लोग मच्छर आदि का भय बता-बता कर बात टिकने नहीं देते थे।
आखिर कर एक दिन संघ से मुनिश्री श्रुतसागरजी के द्वारा लिखाया हुआ एक पत्र (सेठ रामचंद्र कोठारी का) मिला कि- ‘‘महाराजश्री का कहना है कि जैसे आपने सम्मेदशिखर जी के लिए बारह सौ मील की यात्रा की है, वैसे ही धर्म प्रभावना के लिए दो सौ (२००) मील और चलकर एक बार कलकत्ते चली जावो, वहाँ पाँच माह विश्राम कर लेना ।’’
चूँकि यह चातुर्मास पाँच माह का था, एक महीना बढ़ा हुआ था। इस पत्र को पाकर मुनिश्री की बात मानकर ‘कलकत्ते चली जाऊँ’’ इस पर आपस में विचार किया। यद्यपि कोई भी आर्यिकाएँ अब दो सौ मील चलना नहीं चाहती थीं, फिर भी सबने मेरे ऊपर ही डाल दिया और बोलीं- ‘‘अम्मा! जैसा आप निर्णय करें, वैसा हमें मान्य होगा।’’ इधर कलकत्ते से अमरचंद जी पहाड़िया आदि श्रावक भी आने वाले थे। एक बार हम लोगों ने सोचा और कलकत्ते का ही निर्णय कर लिया।
इस बीच हम लोग ईसरी से निमियाघाट होकर, ऊपर पर्वत पर जाकर, वंदना करके वहीं जलमंदिर में सोकर, वापस मधुबन ही उतर गई थीं। वहाँ पहुँचते ही कलकत्ते के श्रावक आ गये और प्रार्थना करने लगे। हम लोगों ने आहार करके विहार कर दिया। वह दिन आषाढ़ शुक्ला चौथ का था। मात्र अपने पास आषाढ़ सुदी १४ में तो दस दिन ही शेष रहे थे। आचार्य संघ से जो पत्र आया था, उसमें लिखा था कि ‘‘आप लोग विहार कर श्रावण बदी चौथ तक वहाँ पहुँचो। विशेष प्रसंग में श्रावण वदी चौथ तक वर्षायोग स्थापना करने का शास्त्र में विधान है।’’ अतः हम लोगों ने साहस करके विहार कर दिया था। इन लोगों ने कलकत्ता पहुँचने तक ब्र. सुगनचंद को रोक लिया था अतः मार्ग में सारी व्यवस्था ब्र. सुगनचंद और ब्र. मनोवती ने संभाली थी। कलकत्ते के श्रावक रास्ते में आते-जाते रहते थे और ठहरने के स्थान का निर्णय कर देते थे।