पुनः सम्मेद शिखर की ओर- सम्मेद शिखर की ओर पुनः विहार होने से हम लोगों के मन में बहुत उत्साह था कि पुनरपि महान् तीर्थराज की वंदना का सौभाग्य मिलने वाला है। विहार की व्यवस्था में चाँदमलजी बड़जात्या की धर्मपत्नी भंवरीबाई का एक चौका था और पूषराज जी अग्रवाल जैन की धर्मपत्नी का एक चौका था।
ये महिलायें आहार कराकर वैयावृत्ति, करते हुए धर्म चर्चा करती रहती थीं और प्रसन्न थी। साथ में अनेक महिलाएं थीं। मध्य में हिन्दू-मुस्लिम दंगा शुरू हो गया। वहाँ से रास्ते-रास्ते में कलकत्ता से टेलीफोन आने लगे, तब यहाँ से महिलाओं ने जवाब दिया- ‘‘आप लोग अपनी-अपनी चिंता करें, हमारी चिंता न करें क्योंकि हम लोग तो यहाँ सबसे अधिक सुरक्षित हैं।
यहाँ पर हम लोग देव, शास्त्र और गुरु तीनों के सानिध्य में, तीनों की शरण में हैं…..।’’ ऐसा उत्तर पाकर कलकत्ता के लोग हंसते थे और ये प्रबुद्ध महिलाएँ यहाँ हंसती रहती थीं। ऐसे सुखद वातावरण में हम सभी धनबाद, कतरास, खरखरी होते हुए ईसरी से सम्मेदशिखर-मधुवन आ गर्इं। यहाँ आकर मेरे साथ कलकत्ता से आने वाले पुरुष और महिलाओं ने भी वंदना की और सभी महिलाएँ कलकत्ता चली गई। कुछ अन्य महिलाएँ यहाँ आहार दान देने के भाव से आ गयीं।
नंदीश्वर प्रतिष्ठा समारोह
सन् १९६४ की फरवरी में सम्मेद शिखर में नंदीश्वर द्वीप की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा थी अतः लोगों के आग्रह से मैं यहाँ पर रुक गई। नागौर से ब्र. चांदमलजी-गुरुजी आये हुए थे। यहाँ भी गिरिराज की वंदना, उपदेश और चर्चाएँ हुआ करती थीं। पं. सुमेरुचंद दिवाकर भी यहीं पर ठहरे हुए थे। इधर वे ऐलक सिद्धसागर जी भी यहाँ आ गये थे। सभा में ये मुझसे बहुत उँचे पर बैठते थे, मैंने कोई लक्ष्य ही नहीं दिया।
मैं सोच लेती थी कि-इनसे नीचे के तखत पर बैठने से भला मेरा क्या नुकसान है? मैं कुछ इनसे छोटी तो नहीं हो जाऊँगी? मेरा पद तो जो है, सो ही रहेगा।’’ कुछ श्रावक अवश्य उत्तेजित हो जाते थे, तब मैं उन्हें शांत कर देती थी और इन ऐलक जी का तो मुनिभक्त लोगों में कोई विशेष आदर-भाव भी नहीं था, चूँकि ये अपनी बुद्धि से काम न लेकर प्रायः लोगों के सिखाने में आ जाते थे।
इधर ब्र. कु. मनोवती आर्यिका दीक्षा मांग रही थीं। ब्र. भगत जी कलकत्ता से आ गये थे, वे भी चाहते थे और कहते थे कि- ‘‘माताजी! आप इन्हें दीक्षा दे दीजिये।’’ किन्तु आचार्यश्री शिवसागर जी की आज्ञा मँगाए बगैर मैंने स्वीकार नहीं किया। मनोवती के पत्र से उसके माता-पिता भी यहाँ आ गये थे।
तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा महोत्सव और संघ के दर्शन का लाभ, एक साथ तीनों मिल जावेंगे अतः ये लोग सम्मेदशिखर जी पर आ गये, यहाँ पर मेरे दर्शन किये। माँ ने देखा, यहाँ तो हर समय कलकत्ते के श्रावक-श्राविकाएँ मुझे घेरे रहते हैं और कोई न कोई तत्त्वचर्चा या प्रश्नोत्तर यहाँ चला करता है।
प्रतिष्ठा के अवसर पर पंडाल में मेरा उपदेश भी होता था। पिता ने इतनी बड़ी सभा में मेरा उपदेश सुना तो उनका हृदय फूल गया, बहुत ही प्रसन्न हुये। वहाँ मैंने इन लोगों को समझाया-‘‘देखो! संसार में एक धर्म ही शरण है, अतः मोह को छोड़कर धर्म की ही शरण लेवो…..।’’
स्वयं दीक्षा का निषेध
वहाँ तप कल्याणक के अवसर पर एक व्यक्ति ने अकस्मात् वस्त्र उतारकर फेंक दिया और नग्न हो गये। उसी समय किसी व्यक्ति ने कहीं से एक पिच्छी, एक कमण्डलु लाकर उन्हें दे दिया। कुछ श्रावक उनकी जय-जय बोेलने लगे। उस समय वहाँ पर एक मुनि धर्मकीर्ति जी बैठे हुए थे और मैं अपने संघसहित बैठी थी।
महाराज जी ने भी इस दीक्षा को अमान्य व आगम विरुद्ध बतलाया तथा मैंने भी यही कहा कि- ‘‘यदि इन्हें मुनि बनना है तो विधिवत् मुनि धर्मकीर्ति जी से दीक्षा लेवें अन्यथा इन्हें समाज मुनि न माने और इन्हें कपड़े पहना दिये जायें।’’ कलकत्ते आदि के प्रबुद्ध श्रावक भी मेरी बात से सहमत थे, किन्तु ऐसा करे कौन? इसमें ढिलाई देखकर मैंने ब्र. चांदमलजी आदि कई एक लोगों को बुलाकर कहा-‘‘स्वयं दीक्षित को मान्यता देना ठीक नहीं है….।’’
वहाँ पर पंडित सुमेरुचंद जी दिवाकर मौजूद थे। उन्होंने तप कल्याणक के बाद सारी स्थिति समझकर पुनः महाराज जी से और मुझसे परामर्श कर, उन नग्न हुए व्यक्ति को एकान्त में ले जाकर समझाया, तब वे बेचारे अपने को अपात्र देख, उसी दिन रात्रि में ही कपड़े पहनकर अपने घर चले गये। तब कहीं वहाँ समाज में शांति हुई।
माता-पिता को मोह से दुखी देख, ब्र. चांदमल जी-गुरुजी ने तथा ब्र.प्यारेलाल-भगत जी ने आकर उन्हें समझाया और बोले-‘‘भला कौन से माता-पिता ऐसे होंगे, जो अपनी पुत्री को इतने ऊँचे चारित्रपद पर, इतने ऊँचे ज्ञानपद पर, प्रतिष्ठित देखकर अतिशय आनन्दित नहीं होंगे? अतः आप लोग अब शोक को छोड़ो और इनके त्याग की सराहना करो।’’
तब इन बातों से प्रभावित होकर माता-पिता ने प्रतिष्ठा के बाद भी वहाँ कुछ दिन रहने का निर्णय ले लिया। कु. मनोवती उस प्रतिष्ठा के अवसर पर दीक्षा चाहती थीं लेकिन शायद अभी उनकी काललब्धि नहीं आई थी, यही कारण था कि अभी उन्हें दीक्षा नहीं मिल सकी।
मेरे साथ वंदना में खुशी
माँ मोहिनी ने एक दिन मेरे साथ पूरे तीर्थराज के पर्वत की पैदल वंदना की, उस समय उन्हें बहुत ही आनन्द आया और उन्होंने अपने जीवन में उस वंदना को बहुत ही महत्त्वपूर्ण समझा। यह उनकी अपनी पुत्री के आर्यिका जीवन के प्रति एक अप्रतिम श्रद्धा का प्रतीक था।
वे प्रतिदिन चौका करती थीं। कोई न कोई माताजी उनके चौके में पहुँच जाती थीं किन्तु मेरा जाना तो प्रतिदिन वहाँ संभव नहीं था, तब पिताजी मुझे आहार देने के लिए आस-पास के चौके में पहुँच जाते थे और आहार देकर खुश हो जाते थे। एक दिन वे चौके में बैठे किसी वस्तु को देने के लिए आग्रह कर रहे थे और मैंने हाथ बंद कर दिया था तब वे बोले-
‘‘माताजी! एक ग्रास ले लो, एक ग्रास……बस मैं चला जाऊँगा। नहीं माताजी, एक ग्रास लेना ही पड़ेगा……।’’ उनका इतना आग्रह देखकर चौके के लोग, जिन्हें मालूम था कि ये माताजी के पिता हैं, खिलखिलाकर हँस पड़े।
पिता की पापभीरुता
एक बार उनके चौके में कोई महिला कुछ संतरे दे गई और बोली-‘‘इन्हें आहार में लगा देना।’’ माँ मोहिनी ने दो-तीन सन्तरे छीलकर रख लिये क्योंकि पहले और भी संतरे, सेव आदि बिनार कर रख चुकी थीं। आहार के बाद वह सन्तरा बच गया। तब माँ वह पिता को खाने के लिए देने लगीं। वे बोले-
‘‘यह आहार दान में एक महिला दे गई थीं, अतः यह निर्माल्य सदृश है, मैं इसे कतई नहीं खाने का…..।’’ तब माँ बच्चों को देने लगीं, पिता ने रोक दिया, बोले- ‘‘बच्चों को भी नहीं खिलाना और तुम भी नहीं खाना…..।’’
तब माँ मोहिनी इस समस्या को लेकर मेरे पास आई और सारी बातें सुना दींं तथा पूछने लगीं- ‘‘माताजी! यदि कोई महिला चौके में जबरदस्ती फल दे जावे और वह आहार में नहीं उठे, तो उसे क्या करना चाहिए?’’ मैंने हँसकर कहा- ‘‘उसे प्रसाद समझकर खाना चाहिए।’’
यह उत्तर पिता के गले नहीं उतरा, तब मैंने कहा- ‘‘अच्छा, इसे अन्य लोगों को प्रसाद रूप में बाँट दो।’’ तब वे बहुत खुश हुए और बोले- ‘‘ठीक है, अब कल से तुम किसी के फल नहीं लेना……।’’ देखो! किसी ने आहार के लिए फल दिया और यदि वह अपने खाने में आ गया, तो महापाप लगेगा……।’’
मैंने कहा- ‘‘यदि कोई साधु को न देकर स्वयं खा लेता है, तब तो उसे पाप लगता है और यदि शेष बच जाने पर प्रसाद रूप से उसे खाया है, तो पाप नहीं लगेगा……। फिर भी यदि तुम्हें नहीं पंसद है तो छोड़ दो, मत खावो, हाथ की हाथ अन्य किसी को प्रसाद कहकर बाँट दो।’’ यह थी पिता छोटेलाल जी की निःस्पृहता और पापभीरुता! यही कारण है कि आज उनकी संतानों पर भी वैसे ही संस्कार पड़े हुए हैं।
मोह से विक्षिप्तता
एक दिन कु. मनोवती के विशेष आग्रह से मैंने उसके केशों का लोंच करना शुरू कर दिया। वह चाहती थी कि मुझे दीक्षा लेना है तो केशलोंच का एक-दो बार अभ्यास कर लूं। इसी भाव से वह केशलोंच करा रही थी। मैंने सोचा- इसके माता-पिता यहाँ ठहरे हुए हैं तो उन्हें बुला लूँ। केशलोंच देख लें….।’’
ऐसा सोचकर मैंने उन्हें सूचना भिजवा दी। पिताजी वहाँ कमरे में आये, देखा कु.मनोवती के केशों का लोंच, वे एकदम घबरा गये और हल्ला मचाते हुए जल्दी से अपने कमरे में भागे। वहाँ पहुँचकर मोहिनी जी से बोले- ‘‘अरे! देखो, देखो, माताजी हमारी बिटिया मनोवती के सिर से केश नोंचे डालती हैं।
चलो, चलो जल्दी से रोको’’ और ऐसा कहते हुए वे रो पड़े। माँ दौड़ी हुई वहाँ आई और बोलीं- ‘‘माताजी! आपने यह क्या किया? देखो! इसके पिताजी तो पागल जैसे हो रहे हैं और रो रहे हैं। उनके सामने आप इसका लोंच न करके बाद में भी कर सकती थीं।’’ उनकी ऐसी बातें सुनकर सभी माताजी हँसने लगीं और बोलीं- ‘‘भला केशलोंच देखने में घबराने की क्या बात है? मैं भी तो सदा अपने केशलोंच करती हॅूं।.
’’ पुनः पिताजी वहीं आ गये और बोले- ‘‘अरे, अरे, छोड़ दो माताजी! मेरी बिटिया मनोवती को छोड़ दो, इसके बाल न नोचो, देखो तो, इसका सिर लाल-लाल हो गया है।……।’’ परन्तु उनकी बातों पर लक्ष्य न देकर मैं हँसती रही, कु. मनोवती के केशों का लोंच करती रही। मनोवती भी हँस रही थी और मौन से ही संकेत से पिताजी को सान्त्वना दे रही थी कि-
‘‘पिताजी! मुझे कष्ट नहीं हो रहा है, मैं तो हँस रही हॅूं, फिर आप क्यों दुःखी हो रहे हो? और क्यों अश्रु गिरा रहे हो?’’ मैंने भी उन्हें सान्त्वना दी। लोंच पूरा होने के बाद मनोवती ने कहा- ‘‘मैंने तो स्वयं ही आग्रह किया था। मैं एक वर्ष से माताजी से प्रार्थना कर रही थी। बड़े भाग्य से ही आज तीर्थराज पर ऐसा अवसर मिला है। अब मुझे विश्वास हो गया है कि मैं एक दिन आर्यिका बन जाऊँगी।’’
पिताजी उसे अपने कमरे में ले गये, खूब समझाया और बोले- ‘‘बिटिया! तुम अब इनके साथ मत रहो, थोड़े दिन घर चलो। बाद में फिर जब कहोगी तब कैलाश के साथ भेज देंगे…..।’’ लेकिन इधर मेरे संघ का श्रवणबेलगोल यात्रा के लिए निर्णय हो चुका था अतः वह पिता के साथ घर जाने को राजी नहीं हुई और पिता को समझाते हुए बोली-
‘‘माताजी ने अभी कलकत्ता चातुर्मास में मुनि श्रुतसागर की लगभग १८ वर्षीया पुत्री सुशीला को घर से निकालने के लिए लाखों प्रयत्न किये हैं। महीनों प्रतिदिन सुशीला को और उनकी मां को समझाती रहती थीं। जब सुशीला दृढ़ हो गई तब उसकी माँ को समझा-बुझाकर माताजी ने उसे ब्रह्मचर्यव्रत दे दिया है।
अभी उनके भाइयों ने उन्हें आने नहीं दिया है, फिर भी वह एक दिन संघ में तो आयेगी ही। सुशीला के भाई माताजी के परम भक्त थे, अब कुछ माताजी से नाराज भी रहते हैं किन्तु माताजी के हृदय में इतनी परोपकार भावना है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।’’ इत्यादि समझाने के बाद आखिर पिता को लाचार होना पड़ा।
कुमुदनी के लिए प्रयास
एक दिन मुझे पता चला कि कुमुदनी मेरे दर्शन के लिए घर में बहुत ही आग्रह कर रही है किन्तु वह यहाँ आकर यदि संघ में रह जाये तो……इसलिए पिता उसे नहीं लाये हैं। तब मैंने पिता छोटेलाल जी को बहुत समझाया। वे हँसते रहे और बोले- ‘‘माताजी! अब मैं तुम्हारे पास अपनी किसी भी पुत्री को दर्शन करने नहीं भेजूँगा।
देखो! अभी तुमने कैसे मनोवती की खोपड़ी लाल कर दी है। तुम बड़ी निष्ठुर हो…..।’’ मैं क्या कर सकती थी? सोचा-उसके भाग्य में जो लिखा होगा, सो ही होगा, कोई क्या कर सकता है? आगे कुछ दिनों बाद उसका विवाह कानपुर के प्रकाशचंद जैन से हो गया।
एक दिन कलकत्ते के सुगनचन्द लुहाड़िया ने वहीं पर मेरे पास एक १८ वर्षीय युवक ब्र. सुरेशचन्द को लाकर सौंप दिया। ब्र. महावीर प्रसाद जी भी साथ में ही थे। एक ब्र. वृन्दावनजी बुन्देलखण्डीय थे। ब्र. भंवरीबाई, ब्र. कु. मनोवती थीं, संघ में एक दो महिलाएं और भी थीं।
सुरेशचंद जैन
इस सुरेशचन्द को मैंने पास में बिठाकर जब इतिहास सुना तो बहुत ही दुःख हुआ। ये उदयपुर के एक सेठ का इकलौता बेटा है। वैराग्य से घर छोड़कर तो निकल आया है। लेकिन अन्यमती के साधुओं के पास भी कुछ दिन रहा है। कभी श्वेतांबर साधुओं की संगति की है, योग्य गुरु न मिलने से भटक रहा है। मैंने वात्सल्य दिया और संघ में रख लिया।
संघ में दैनिकचर्या बना दी तथा छहढ़ाला आदि पढ़ाना शुरू कर दिया। इसे अगले चातुर्मास में मैंने आचार्य संघ में भेज दिया था। वहाँ क्षुल्लक होकर अनंतर मुनि बन गये हैं। ये मुनि अवस्था में मेरे सानिध्य में बहुत दिन तक रह कर पढ़े हैं। आजकल एक दो साधुओं के साथ विचरण कर रहे हैं, इनका नाम ‘संभवसागर’ है।
खानदान शुद्धि-खानपान शुद्धि
एक दिन यहाँ शिखर जी में भगवान् बाहुबली का १०८ कलशों से महाभिषेक कराया गया, वहाँ विशाल सभा में मैंने उपदेश देते हुए कहा कि-‘‘पिण्डशुद्धि के दो अर्थ हैं-खानदान शुद्धि और खानपान शुद्धि।
जिनकी खानदान शुद्धि नहीं है, वे मोक्षमार्ग में नहीं चल सकते। भगवान् की पूजन, आहारदान और दैगम्बरी दीक्षा तथा राजा बनने का अधिकार खानदान शुद्धि वाले को ही है। खानपान शुद्धि बिगड़ने पर सुधारी जा सकती है किन्तु खानदान शुद्धि नहीं सुधारी जा सकती है।’’
इस उपदेश को सुनते ही पं. सुमेरुचंद दिवाकर और तीर्थ कमेटी के तत्कालीन महामंत्री चन्दूलाल जी सर्राफ उछल पड़े। गद्गद होकर कहने लगे-आज हमें लग रहा हैै कि आचार्य शांतिसागर जी की परम्परा को अक्षुण्ण रखने वाले साधु मौजूद हैं। आचार्यकल्प चन्द्रसागर जैसे निर्भीक वक्ता मौजूद हैं।
इत्यादि कहते हुए मेरी खूब प्रशंसा की और अनेक मुनिभक्त बहुत ही प्रसन्न हुए। उस समय तो मैं इसका विशेष महत्व नहीं समझ सकी थी किन्तु आज समझ में आ रहा है कि खानदानशुद्धि अर्थात् सज्जातियत्व के समर्थक दिगम्बर जैन समाज में कम होते चले जा रहे हैं और तो क्या, कुछ दिगम्बर जैन संस्थाएं ही विधवा विवाह और विजातीय विवाह की समर्थक हो रही हैं।
सम्मेद शिखर से विहार
मेरी श्रवणबेलगोल यात्रा की इच्छा थी अतः ब्र.चांदमलजी ने हैदराबाद होकर कुछ जल्दी पहुंंचने वाला मार्ग बताया। इन्हीं के अनुसार मैंने चैत्र में सम्मेद शिखर से पुरलिया की ओर विहार कर दिया। उस समय मेरे संघ में ये ही चारों साध्वी थीं। आर्यिका पद्मावती जी, आर्यिका जिनमती जी, आर्यिका आदिमती जी और क्षुल्लिका श्रेयांसमती जी।
ब्र. भंवरीबाई और ब्र. मनोवती थीं। एक ब्रह्मचारी महावीर प्रसाद जी यहाँ आ गये थे। ब्र. वृन्दावनदास जी थे, सुरेशचन्द थे और एक दो बाइयाँ और आ गई थीं अतः मैंने यहाँ से पुरलिया की ओर विहार कर दिया।