माताजी की अस्वस्थता, गुरु का आशीर्वाद। जंबूद्वीप योजना
दिल्ली की ओर विहार-यहाँ से आचार्य कल्प मुनिश्री श्रुतसागर जी का दर्शन करके हम लोगों ने दिल्ली की ओर विहार करने का प्रोग्राम बनाया। महाराज जी की गृहस्थाश्रम की पुत्री कु. सुशीला और धर्मपत्नी बसंतीबाई मेरे पास ही रहती थीं।
आचार्यकल्प ने कहा- ‘‘माताजी! हम तो निमित्तमात्र से पिता हैं। सच्ची माता तो इस कन्या की आप ही हैं, आपके निमित्त से ही इसके हृदय में वैराग्य का अंकुर उगा है।
यह आपके पास ही रहेगी आप ही इसका संरक्षण और इस पर अनुशासन करने में कुशल हैं।’’ ये मुनिराज जी पहले भी अनेक बार कह चुके थे कि- ‘‘ज्ञानमती माताजी एक अद्भुत पारस हैं। लोक में पारस तो लोेहे को सोना ही बनाता है किन्तु ज्ञानमती जी तो अपने आश्रित शिष्य, शिष्या रूपी लोहे को पारस बना देती हैं अर्थात् अपने जैसा बना लेती हैं, यहाँ तक कि आप स्वयं १०५ आर्यिका होकर भी अपने आश्रित शिष्यों को १०८ मुनि भी बना देती हैं।’’
मैं समझती हूँ कि यह कथन उनकी उदारता और गुणग्राहकता का ही द्योतक था। अजमेर से विहार कर मार्ग में अनेक संघर्षों को झेलते हुए मैं आगे बढ़ती गई। मैं संघ सहित उस भयंकर ज्येष्ठ-आषाढ़ की गर्मी में भी आगे बढ़ते हुए दिल्ली के निकट गुड़गांवा नाम के गांव में आ गई। मार्ग में कु. शीला आदि एक चौका करती थीं और कु. माधुरी आदि एक चौका करती थीं। संंघ-व्यवस्था की जिम्मेदारी मोतीचन्द ने संभाली हुई थी।
विहार की जिम्मेदारी
ब्यावर से जयपुर और जयपुर से कोटपुतली होते हुए दिल्ली तक आने के मार्ग में सारी जिम्मेदारी, सारी व्यवस्था मोतीचन्द ने संभाली थी अतः रास्ते में चौके और खर्चे आदि की व्यवस्था में मुझे कभी लक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं रही है। दीक्षा लेने के बाद सर्वप्रथम मैं आचार्य श्रीवीरसागर जी महाराज की आज्ञा से जयपुर से बगरू, मोजमाबाद और चोरु गई थी।
यह सन् १९५७ की बात है तब एक गांव से दूसरे गाँव चली गई थी, कोई व्यवस्था की आवश्यकता ही नहीं पड़ी थी फिर भी मेरे साथ ब्र. लादू लाल जी थे, ये बाद में मुनि भव्यसागर बने थे एवं ब्र. चतुरबाई थीं। दूसरी बार मैंने नावा (राजस्थान) से सम्मेदशिखर यात्रा के लिए विहार किया था, उसमें सारी जिम्मेदारी ब्र. सुगन चन्द ने ली थी।
ब्रह्मचारिणी कु. मनोवती भी साथ में थीं, अनेक लोग थे। मार्ग के गाड़ी और चौके आदि की व्यवस्था में मुझे लक्ष्य देने की, चिंता करने की जरूरत ही नहीं पड़ी थी। इसी प्रकार दीक्षित जीवन के मेरे सर्वत्र विहार में ब्र. सुगनचन्द ब्र. गुलाब चन्द चंडक और उनके बाद मोतीचन्द, रवीन्द्र कुमार प्रमुख रहे हैं जिन्होंने मुझे विहार की व्यवस्था में चिंता नहीं होने दी है अतः मैंने श्रावकों से मार्ग के खर्चे की व्यवस्था व चौके के लिए कहा ही नहीं है। चूंकि ऐसा कहना मुझे इष्ट नहीं रहा है।
गुड़गांवा में आगमन
मार्ग में गुड़गांवा नाम का एक गांव आया। यहाँ मंदिर था, नीचे हॉल था। लोगों की धर्मभावना बहुत अच्छी थी। हम लोग आहार करके मंदिर में सामायिक कर रहे थे। दिल्ली के मुनिभक्त सेठ जयनारायण जी सपरिवार दर्शनार्थ आये, अपना परिचय दिया, प्रार्थना की- ‘‘माताजी! यह चातुर्मास दिल्ली में आपको मेरे पहाड़ीधीरज पर ही करना है ।
हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिये।’’ इससे पूर्व डा. कैलाशचंद जैन, राजाटॉयज भी एक-दो बार आ चुके थे और निवेदन भी कर चुके थे। पहाड़ीधीरज की सारी व्यवस्था को समझकर मैंने स्वीकृति दे दी। चूँकि मैंने पहले भी सुना था कि आचार्य श्री विमलसागर जी महाराज पहाड़ी धीरज पर चातुर्मास कर चुके हैं अतः वहाँ शुद्धजल के नियम वाले अनेक भक्त हैं। स्वयं जयनारायण भी शूद्र जल के त्यागी-शुद्ध जल के नियम वाले थे। वहाँ से विहार कर केट होते हुए नई दिल्ली राजा बाजार के मंदिर में आई। इससे एक दिन पूर्व ही लाला श्यामलाल जी ठेकेदार दर्शन करने आये थे। इन्हें मैं जानती थी।
ये और लाला उल्फतराय जी (दरियागंज वाले) टोंक में आचार्य धर्मसागर जी के संघ के दर्शन करने आये थे। वहाँ कई दिन ठहरे थे, अतः इनका परिचय हो गया था। यहाँ से जयनारायण ने संघ का भव्यस्वागत करते हुए गाजे-बाजे के साथ पहाड़ीधीरज में प्रवेश कराया। वहाँ दोनों मंदिरों के दर्शन कर हम आर्यिकाएँ बड़ी धर्मशाला में ठहरीं और दोनों मुनियों को मंदिर के ऊपर कमरे में ठहराया गया।
यहाँ आहार करके अगले दिन हम सभी ने जाकर कूचा सेठ के अतिथि भवन में विराजमान आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज के दर्शन किये। सन् १९५७ के बाद आर्यिका दीक्षा लेकर पद विहार करते हुए आज सन् १९७२ में आषाढ़ शुक्ला बारस के दिन मैंने आचार्यश्री के दर्शन किये थे। गुरुदेव के दर्शन कर बहुत ही आनंद हुआ। आचार्यदेव ने भी इतने दिन बाद इतनी उन्नति में मुझे देखकर खूब-खूब आशीर्वाद दिया और प्रसन्नता व्यक्त की। आचार्यश्री से आज्ञा लेकर मैंने पहाड़ीधीरज पर वर्षायोग स्थापना की।
वर्षायोग स्थापना
यहाँ पहाड़ीधीरज पर आषाढ़ शुक्ला चौदश के सायंकाल में जयनारायण आदि प्रमुख-प्रमुख श्रावक-श्राविकाओं ने धर्मशाला में आकर श्रीफल चढ़ाकर चातुर्मास के लिए प्रार्थना की। मैंने भी स्वीकृति दे दी पुनः सभा में चातुर्मास की उपयोगिता पर मेरा प्रवचन हुआ और मुनिश्री संभवसागर जी ने भी प्रवचन किया।
अनन्तर पूर्वरात्रि में हम सभी साधु-साध्वियों ने वर्षायोग स्थापना की क्रिया संपन्न की। इसके बाद प्रातः ८ बजे से ९ बजे तक प्रतिदिन मेरा प्रवचन होता था और मुनि संभवसागर जी भी प्रवचन करते थे। यहाँ महिलाओं का अच्छा संगठन था। श्रीमती बोखतबाई अध्यक्ष थीं और परसन्दी बाई मंत्राणी थीं। इन महिलाओं में अच्छी लगन थी। मंदिर में प्रातः पचास से भी अधिक महिलाएँ धुले वस्त्र पहनकर, धुली सामग्री से भगवान् का पूजन करती थीं।
दिल्ली शहर में यह पूजन भक्ति देखकर बहुत अच्छा लगता था। आहार के समय करमचन्द जी आदि श्रावक संघ की व्यवस्था में तत्पर रहते थे। भीड़ में आगे-पीछे होकर साधुओं को बिना छुए, बचाकर चौके तक ले जाने में बहुत से श्रावक लगे रहते थे। संघ में दो मुनि, चार आर्यिकायें थीं।
ब्रह्मचारिणी छुहाराबाई, कु. सुशीला, शीला थीं और मोतीचन्द थे। प्रतिदिन प्रातः मेरा और महाराज जी का प्रवचन होता था। यहाँ पर ७-८ चौके लगते थे। सभी व्यवस्था बहुत सुन्दर थी। यहीं पर आचार्य विमलसागर जी से दीक्षित एक क्षुल्लिका ज्ञानमती (शुक्लामाता) रहती थीं। वे भी संघ की वैयावृत्ति में बहुत ही रुचि लेती थीं।
अस्वस्थता, गुरु का आशीर्वाद
सावन में गर्मी अधिक पड़ जाने और रास्ते में पद विहार का अधिक श्रम होने से मेरा स्वास्थ्य बिगड़ गया। संग्रहणी का प्रकोप बढ़ गया, आहार बिल्कुल कम हो गया। इससे समाज को कुछ दिनों उपदेश का लाभ कम मिल पाया। इसी प्रसंग पर एक दिन आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज स्वयं मुझको आशीर्वाद देने के लिए वहाँ आ गये और उपदेश में बोले-
ये ज्ञानमती आर्यिका मेरी ही शिष्या हैं, इन्होंने घर छोड़ते समय जो पुरुषार्थ किया है, वह आज पुरुषों के लिए भी असंभव है। इनका स्वास्थ्य अस्वस्थ सुनकर मैं इन्हें शुभाशीर्वाद देने आया हूँ। अभी इन्होंने जो अष्टसहस्री ग्रंथ का अनुवाद किया है वह एक अभूतपूर्व कार्य किया है। ये जल्दी ही स्वास्थ्य लाभ करें, इनसे समाज को बहुत कुछ मिलने वाला है।
इतनी सुयोग्य अपनी शिष्या को देखकर मेरा हृदय गद्गद हो जाता है।’’ इत्यादि प्रकार से आचार्यश्री के वचनामृत को सुनकर जनता भावविभोर हो गयी। मेरे प्रति श्रद्धा का स्रोत उमड़ पड़ा। महाराज जी ने रत्नमती माताजी को बहुत-बहुत आशीर्वाद देते हुए कहा कि- ‘‘ आपने अपने जीवन में इस सर्वोत्कृष्ट आर्यिका पद को ग्रहण कर एक महान आदर्श उपस्थित किया है। इस वय में भरे-पूरे परिवार, बहू-बेटों के सुख को, घर को छोड़कर कौन दीक्षा लेता है?
विरले ही पुण्यशाली होते हैंं। आपका धर्म-प्रेम तो मुुझे उसी समय दिख गया था कि जब मैना के घर से निकलते समय समाज और अपने प्रति के इतने भयंकर विरोध के बावजूद भी आपने सबकी नजर बचाकर, आकर मेरे से इनको दीक्षा देने के लिए स्वीकृति दे दी थी। आपको मेरा यही आशीर्वाद है कि आपकी संयम साधना निर्विघ्न होती रहे और अन्त में समाधि का लाभ हो।’’ इस प्रकार गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर रत्नमती माताजी का हृदय गद्गद हो गया। उन्होंने बार-बार गुरुदेव को नमस्कार कर, उनके चरण स्पर्श किये और अपने को धन्य माना।
जम्बूद्वीप योजना
यहाँ पर जम्बूद्वीप योजना की चर्चा फैल चुकी थी। डॉ. कैलाशचन्द (राजाटॉयज), लाला श्यामलाल जी ठेकेदार, महावीर प्रसाद जी (पनामा वाले), कर्मचंद जी आदि पुरुष और महिलाओं में परसन्दी बाई आदि सभी सक्रिय रुचि ले रहे थे। मोतीचन्द प्रायः प्रतिदिन इसके लिए जगह की खोज में इधर-उधर लोगों से मिलते रहते थे
और यत्र-तत्र जगह भी देखते रहते थे। डॉ. कैलाशचन्द एक कुशल इंजीनियर के.सी. जैन, सुप. इंजीनियर पी.डब्लू.डी. के परामर्श से मॉडल तैयार करवा रहे थे। धीरे-धीरे मुझे भी स्वास्थ्य लाभ हो रहा था। तब तक महापर्व पर्यूषण आ गया।
दशलक्षण पर्व
मैंने प्रतिदिन डेढ़-दो घण्टे तत्त्वार्थसूत्र पर प्रवचन किया। जयनारायण जी तथा और भी अनेक भक्तों ने बार-बार कहा- ‘‘इतनी उम्र में हम लोगों ने ४०-४५ विद्वानों द्वारा तत्त्वार्थसूत्र का प्रवचन सुना है किन्तु जितना रहस्य सरल शब्दों में माताजी ने सुनाया है और जितना इस नीरस को सरस तथा रोचक बना दिया है,
वैसा आज तक हम लोगों ने किसी से भी नहीं सुना है।’’ उस समय वहाँ प्रवचन में इतनी भीड़ हुई कि लोग अन्दर धर्मशाला में नहीं आ सके अतः कितने ही लोग धर्मशाला के बाहर यत्र-तत्र दुकानों पर बैठकर सुनते रहते थे तथा कितने ही लोग जगह के अभाव में दुःखी हो वापस चले जाते थे। दिल्ली के डॉ. कैलाशचन्द ने उन सभी उपदेशों के कैसेट तैयार कर लिये थे।
आर्यिका दीक्षा
मैंने यहाँ पहाड़ी धीरज की एक महिला मीनाबाई और शाहदरा की एक महिला मनभरी बाई को यहीं पहाड़ीधीरज पर आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के करकमलों से आर्यिका और क्षुल्लिका दीक्षा दिलाई थी।
रत्नमती माताजी का उत्साह
आर्यिका रत्नमती माताजी वृद्धा होकर भी डिप्टीगंज तक चौकों में आहार के लिए जाती थीं और चार-छह दिनों बाद शहर में यहाँ से दो मील दूर आचार्यश्री के दर्शन करने भी जाया करती थीं। इधर निर्वाणोत्सव के प्रसंग में जो भी कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे, उनमें भी भाग लेती रहती थीं और मेरा तथा आचार्यश्री का उपदेश सुनकर तो बहुत ही हर्षित होती थीं।
मध्यान्ह में मुनि संभवसागर जी, आर्यिका आदिमती जी, श्रेष्ठमती जी आदि के साथ बैठकर चौबीस ठाणा, सिद्धान्त प्रवेशिका आदि की चर्चायें किया करती थीं। इन्हें चर्चा में बड़ा आनन्द आता था तथा करोलबाग, मॉडल बस्ती आदि के मंदिरों में दर्शन करने भी बहुत बार जाती रहती थीं।
विशेष भक्त का लाभ
एक दिन हम लोग करोलबाग मंदिर के दर्शन करने गये थे। वहाँ मंदिर से ही एक श्रावक ने मेरा कमंडलु हाथ में ले लिया और पहुँचाने के लिए साथ-साथ चलने लगे। मार्ग में जरा सी बातचीत में उन्होंने अपना परिचय दिया, कैलाशचन्द नाम बताया और मेरे दिल्ली चातुर्मास के उद्देश्य को भी समझ लिया पुनः उसी दिन ये शाम को आये, बोले- ‘‘मैं अब अपने दफ्तर से घर जा रहा हूँ जो भी कार्य मेरे लायक हो, आज्ञा दीजिये।’’
मोतीचन्द से भी इन्होंने बातचीत की और परिचय देते हुए कहा, ‘‘मेरा नाम कैलाशचंद है, मैं करोलबाग में रहता हूँ और मैं आपके हर कार्य में सहयोग देने को तैयार हूँ।’’ बस उसी दिन से ये कैलाशचंद जैन हमारे परमभक्त बन गये और मोतीचन्द के साथ जुड़ गये। मैंने कहा-‘‘कैलाशचंद जी! ये मोतीचंद यहाँ पर जंबूद्वीप के लिए जगह ढूँढ़ रहे हैं, इन्हें डी.डी.ए. का सहयोग चाहिए।’’ कैलाशचंद दो दिन बाद ही डी.डी.ए. के कुछ प्रमुख आफिसरों को अपने साथ लेकर मेरे पास आये।
उनसे इतनी विशाल रचना के लिए जगह के बारे में परामर्श हुआ। उन्होंने यही कहा- ‘‘माताजी! इतनी बड़ी जगह दिल्ली में महरौली के पास ही मिल सकती है। शहर के अंदर संभव नहीं है।’’ इसके बाद भी मोतीचन्द के साथ-साथ कैलाशचंद ने दिल्ली में अनेक स्थान देखे और कई माह तक इधर-उधर घूमते रहे हैं।