अष्टसहस्री ग्रन्थ विमोचन-२७ अक्टूबर १९७४ को अष्टसहस्री ग्रंथ के विमोचन समारोह का निर्णय लिया गया। मेरे पास रहने वाली ब्र. कु. शीला को यहाँ दिल्ली में नवम्बर में आर्यिका दीक्षा आचार्यश्री के करकमलों से दिलाना निश्चित हुआ। तब मैंने रवीन्द्र कुमार, मालती और शीला को बुन्देलखण्ड तथा दक्षिण की यात्रा करने के लिए भेज दिया अतः इन दिनों मोतीचंद अकेले पड़ गये। उधर पहाड़ीधीरज पर अष्टसहस्री छप रही थी। इधर साइकिल मार्कट के एक प्रेस में कुछ और पुस्तकेछप रही थीं।
दिन भर दोनों जगह जाना पुनः अष्टसहस्री का कवर छपाकर बाइण्डिंग कराना, आदि कार्यों में मोतीचंद लगे हुए थे। विमोचन समारोह दरियागंज बालाश्रम के प्रांगण में मनाया गया। आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज, आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज, ये उभय आचार्य अपने-अपने विशाल संघ सहित विराजमान थे।
पूज्य विद्यानंद जी मुनि भी विराजमान थे। इनके अतिरिक्त मुनि श्री सुशील कुमार जी (स्थानकवासी श्वे.) तेरापंथी श्वेताम्बर आचार्य तुसलीगणी के शिष्यगण एवं श्वेताम्बरी साध्वी श्री विचक्षणा जी आदि भी यहाँ सभा में उपस्थित थे। रविवार २७ अक्टूबर १९७४ को मध्यान्ह में विशाल सभा श्री जयसुखलाल जी हाथी की अध्यक्षता में रखी गई। मंगलाचरण पं. हीरालाल जी कौशल ने किया। डा. लालबहादुर जी शास्त्री ने एवं दिल्ली विश्वविद्यालय संस्कृत के विभागाध्यक्ष श्री सत्यव्रत जी शास्त्री ने अष्टसहस्री ग्रन्थ की महत्ता पर प्रकाश डाला।
अध्यक्ष महोदय एवं उपराज्यपाल श्री कृष्णचंद का माल्यार्पण से स्वागत किया गया। ग्रंथमाला एवं ग्रंथ के संपादक श्री मोतीचंद ने संपादन की गतिविधि पर प्रकाश डाला। इसके बाद दिल्ली के उपराज्यपाल महामहिम श्री कृष्णचंद आई.सी.एस. ने हर्षपूर्ण वातावरण में अष्टसहस्री ग्रंथ का विमोचन किया, उस समय भगवान महावीर स्वामी के जयकारे से प्रांगण का मंडप गूँज उठा। विमोचन के पश्चात् मैंने युगल आचार्यश्री के करकमलों में यह ग्रंथ समर्पित किया।
साध्वी श्री विचक्षणा जी ने परम वात्सल्य भावना से ओतप्रोत होकर कहा कि- ‘‘आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने ऐसे महान् ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद करके नारी जगत् के मस्तक को ऊँचा उठाया है।’’
मुनिश्री विद्यानंद जी ने एवं मुनिश्री सुशील कुमार जी ने उस ग्रंथ की उपयोगिता पर जोरदार प्रकाश डालते हुए बतलाया कि- ‘‘न्याय ग्रंथों के पठन-पाठन से दृष्टि में निर्दोषता आती है।’’
मैंने भी अपने वक्तव्य में अपनी लघुता व्यक्त करते हुए कहा कि- ‘‘आज मुझे जो कुछ भी तुच्छ ज्ञान है, वह सब आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज, आर्यिका दीक्षागुरु श्री वीरसागर जी महाराज के आशीर्वाद का ही फल है ।’’
अन्य ग्रंथों के विमोचन
मेरे द्वारा लिखित, उस समय छपाई गई अन्य पुस्तकों का श्री साहू शांति प्रसाद जी ने विमोचन किया-
१. भगवान महावीर कैसे बने?
२. तीर्थंकर महावीर और उनका धर्मतीर्थ
३. सामायिक
४. जैन ज्योतिर्लोक और
५. न्यायसार,
इन पुस्तकों का विमोचन करके आचार्यश्री के करकमलों में समर्पित किया। पं. बाबूलाल जी जमादार ने कुशलतापूर्वक मंच का संचालन करते हुए संस्थान की गतिविधियों पर प्रकाश डाला पुनः आचार्य श्री धर्मसागर जी एवं आचार्यश्री देशभूषण जी ने मुझे आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहा कि- ‘‘ज्ञान की शोभा चारित्र से है एवं चारित्र की शोभा ज्ञान से है।’’
आचार्य श्री देशभूषण जी ने तो गद्गद होकर कहा- ‘‘मेरा लगाया हुआ बीज आज वृक्ष तो बन ही गया है, उसमें फल भी आ गये हैं इससे मुझे बहुत खुशी है।’’
अनन्तर आभार प्रदर्शन एवं कृतज्ञताज्ञापनपूर्वक कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
अष्टसहस्री ग्रंथ का परिचय
आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र नाम से एक सूत्रग्रंथ संस्कृत में रचा। इसका मंगलाचरण यह है-
‘‘मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्म भूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वंदे तद्गुणलब्धये।।’’
अर्थ-जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्म रूपी पर्वत का भेदन करने वाले हैं और अखिल तत्त्व के ज्ञाता हैं, मैं उनको उनके गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता हूँ।
श्री समंतभद्र स्वामी ने इसी मंगलाचरण पर ‘आप्तमीमांसा’ नाम से एक स्तोत्र की रचना की, जिसमें ११४ कारिकाओं में सर्वज्ञ को कसौटी पर कसकर सच्चा सिद्ध किया है। श्री भट्टाकलंक देव ने इसी स्तोत्र पर ‘अष्टशती’ नाम से एक भाष्य ग्रंथ रचा पुनः श्री विद्यानंद महोदय ने आज से बारह सौ वर्ष पूर्व इस आप्तमीमांसा को अष्टशती सहित गूंथकर अष्टसहस्री नाम से आठ हजार श्लोक प्रमाण वृहद् न्याय ग्रंथ की रचना की।
अन्य हजारों शास्त्रों के सुनने से क्या लाभ है? बस एक अष्टसहस्री ग्रंथ ही सुनना चाहिए क्योंकि इस ग्रंथ को सुनने से ही स्वसिद्धांत और परसिद्धांत का ज्ञान हो जाता है।
यह अष्टसहस्री ग्रंथ जैन परमागम में अद्भुत और दुरूह ग्रंथ है। अद्भुत तो इसलिए है कि यह एक ही ग्रंथ समस्त वाङ्मय को समझाने के लिए आधारभूत है और दुरूह इसलिए है कि यह तार्विक शैली से लिखा गया है।
तर्क शास्त्र के आधार पर ही इसे हृदयंगम किया जा सकता है। ग्रंथ की दुरूहता के कारण ही इस अष्टसहस्री ग्र्रंथ को कष्टसहस्री कहा जाता है। स्वयं ग्रंथकार ने ही लिखा है-
कष्टसहस्री सिद्धा साष्टसहस्रीयमत्र मे पुष्यात्।
शश्वदभीष्टसहस्री कुमारसेनोक्ति वर्धमानार्था।।
हजारों कष्टों से गर्भित कष्टसहस्री स्वरूप यह अष्टसहस्री ग्रंथ मेरे हजारों अभीष्टों को पूर्ण करे, मैंने इसे कुमारसेन की उक्ति को स्पष्ट करने के लिए लिखा है।
आप्तमीमांसा का प्रथम श्लोक और हार्द- देवागम नभोयानचामरादिविभूतयः।
मायाविष्वपि दृश्यंते नातस्त्वमसि नो महान् ।।
देवों का आना, आकाश में गमन करना, चंवर छत्र आदि विभूतियों का होना आदि वैभव से भगवन्! आप महान् नहीं हैं क्योंकि ये सब मायावी पुरुषों में भी देखी जाती हैं।
इस प्रकार- समस्त ग्रंथ में अर्हंत को आप्त और निर्दोष सिद्ध करने के लिए अनेक युक्तियाँ दी गई हैं तथा अन्य बौद्ध, वैदिक आदि दर्शनों की आलोचना करते हुए उनका खण्डन किया गया है। सर्व अध्याय अथवा सर्वप्रकरण के अंत में सप्तभंगी को घटाकर अनेकांत को स्पष्ट किया है।
जैसे कि देखिये-दैव और पुरुषार्थ की एकांत मान्यता को दूर कर सप्तभंगी घटायी है। अबुद्धिपूर्वक कोई कार्य हो जाये तो समझिये दैव प्रधान है और बुद्धिपूर्वक कोई कार्य सिद्ध हो तो समझिये पुरुषार्थ प्रधान है। इत्यादि अनेक विषयों में सप्तभंगी समझने के लिए इस ग्र्रंथ का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
अष्टसहस्री के विषय में आचार्यों एवं विद्वानों के उद्गार
सर्वप्रथम इस ग्रंथ का अनुवाद पूर्ण करने के बाद आचार्यश्री धर्मसागर जी के जन्मजयन्ती समारोह में सन् १९७० में टोडारायसिंह में इसका पालकी में जुलूस निकाला गया था। उस समय आचार्यश्री ने बहुत ही प्रसन्नता व्यक्त करते हुए आशीर्वाद दिया था। आचार्यरत्न देशभूषण जी का आशीर्वाद तो बार-बार यही था कि खूब सरस्वती माता की उपासना में लगे रहो। आचार्यश्री विमलसागर जी ने तब से लेकर आज तक बार-बार इसे पूरा छपवाने की प्रेरणा दी है।
आचार्यश्री ज्ञानसागर जी महाराज को जब सन् १९७१ में कु.मालती हिन्दी अनुवाद दिखाने ले गई थीं, तब महाराज जी ने कुछ पेज मुनिश्री विद्यासागर जी से पढ़वाये और प्रसन्न होकर कहा- ‘‘माताजी को कहो कि यह ग्रंथ छपवा दें, हिन्दी अनुवाद बहुत अच्छा हुआ है।’’
पंडित पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने कई बार कहा- ‘‘इसे अतिशीघ्र छपवाना चाहिए, जिससे विद्वद्वर्ग लाभ ले सके।’’ पंडित हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री (साढ़मल वालों) ने अनेक अनुवादित पृष्ठ सन् १९७१ में ब्यावर में देखे, तब उन्होंने कहा कि- ‘‘मेरा तो लगभग २०-२५ वर्ष से न्यायग्रंथों का अभ्यास छूटा हुआ है अतः मैं पूरा तो नहीं देखूँगा।
कुछ पेज देखकर बोले- ‘‘हिन्दी अनुवाद बहुत ही अच्छा हुआ है, माताजी! अब तो आप इसे छपने भिजवा दीजिये। इसमें जितने पेज मैंने देखे एक भी गलती नहीं समझ में आई अतः आप विद्वानों को दिखाने की बात खत्म कर दीजिये ।
एक विद्वान् क्या, अनेक विद्वान् मिलकर भी इतना बढ़िया अनुवाद नहीं कर सकते हैं ।’’ दिल्ली में मैं जब त्यागी भवन सेठ के कूचा में ठहरी हुई थी। पंडित कैलाशचंद जी सिद्धान्तशास्त्री आये और नमस्कार कर बोले- ‘‘माताजी! आपने जो अष्टसहस्त्री का अनुवाद किया है, सुना है वह छप रहा है, मैं उसे देखना चाहता हूँ।
मोतीचंद ने उसी समय छपे हुए लगभग १०० पेज उनके हाथ में दिये और मेरी एक हस्तलिखित कापी भी दे दी। पंडित जी ने घंटों बैठकर उन्हें पढ़ा पुनः प्रसन्न होकर बोले- ‘‘माताजी! जब मैंने सुना कि किन्हीं ज्ञानमती नाम की आर्यिका ने अष्टसहस्री का अनुवाद किया है, तब मैंने सोचा-होंगी कोई आर्यिका, लिख दिया होगा कुछ ऊटपटाँग।
लेकिन आज मैं इन छपे हुए पृष्ठों को देखकर अवाव् रह गया हूँ। आपने कितनी सुन्दर हिन्दी की है। आपका व्याकरण ज्ञान और न्याय ज्ञान बहुत ही ऊँचा है। बहुत दिनों से पंडित दरबारीलाल जी कोठिया से इस ग्रंथ के अनुवाद के लिए कहा जा रहा था लेकिन इतना उत्तम अनुवाद शायद ही वे कर पाते ।’’
इस प्रकार अनेक शब्दों में प्रशंसा करते हुए वे लगातार कई दिनों तक वहाँ मेरे निकट आते रहे। मेरे द्वारा लिखित पेंसिल से अनुवादित मेरी कापियाँ भी देखीं और कई बार बोले-‘‘इसे ज्ञानपीठ से छपा दीजिये।’’ किन्तु वीर ज्ञानोदय ग्रंथ का प्रथम पुष्प इसे बनाया था अतः मोतीचंद ने कहा- ‘‘आगे कोई ग्रंथ ज्ञानपीठ में दे सकते हैं, यह नहीं देंगे।’’
पं. कैलाशचंद जी कई बार इसे मांगते रहे, कई बार उन्होंने सूचना भी भेजी कि इस ग्रंथ को जल्दी छपवा दो किन्तु कर्मयोग से एक भाग छपने के बाद आज तक दूसरा भाग छपने का योग नहीं आ रहा है।१’ इसी तरह वहीं पर एक दिन पंडित दरबारीलाल जी कोठिया भी आये और उन्होंने भी इसे देखकर कहा- ‘‘माताजी! मेरे ऊपर इसके अनुवाद का भार डाला गया था। अभी तक तो मैंने शुरू भी नहीं किया है।
मैंने तो अक्षरशः अनुवाद न करके भाव मात्र से कुछ लिखने को सोचा था किन्तु आज आपके द्वारा किये गये अनुवाद को देखकर मुझे बहुत ही संतोष हो रहा है। शायद ही इतना बढ़िया अनुवाद मेरे से होता। यह अनुवाद तो बहुत ही शुद्ध है। इसके बाद उन्होंने अपना एक लेख भेजा, जिसमें ‘मोक्षमार्गस्य’ मंगलाचरण श्री उमास्वामीकृत है। इस पर कुछ प्रमाण संकलित थे। मैंने भी श्लोकवार्तिक के कुछ प्रमाण दिखाये, तब पंडित जी ने कहा- ‘‘माताजी! इस लेख में कुछ और बढ़ाकर प्रस्तावना में इसे दिला देना ।’’
श्री कोठियाजी एक बार श्री प्रेमचंद जैन (होटल शाकाहार वालों) के साथ हस्तिनापुर आये थे। उनके समक्ष सभा में मैंने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि- ‘‘पंडित जी सरस्वती के पुत्र हैं ।’’
तब पंडित जी ने अपने वक्तव्य में कहा- ‘‘मैं तो सरस्वती पुत्र हूँ किन्तु माताजी आप तो साक्षात् सरस्वती ही है। आपका न्याय, व्याकरण, जैन भूगोल, अध्यात्म आदि संबंधी सर्वांगीण ज्ञान बहुत ही अच्छा है ।’’
इसी प्रकार यहीं त्यागी भवन (दिल्ली) में एक बार अष्टसहस्री छपते समय ही पं. परमेष्ठी दासजी पधारे थे। वे भी इस ग्रंथ के छपे हुए पेजों को पढ़कर प्रशंसा करते रहे। मौका देखकर मैंने कहा-‘‘पंडित जी! मैं एक बात कहूँ, आप स्वीकार करेंगे क्या?’’ पंडित जी ने कहा-‘‘कहिये, आप तो गुरु हैं।’’
मैंने कहा-‘‘पंडित जी! अब आपके सिर के केश सफेद हो गये हैं अतः अब आप मुनियों की, आर्यिका आदि किसी भी पिच्छीधारी जैन साधु की निंदा न करिये, न लिखिये ।’’
उन्होंने हंसते हुए सहज भाव से मेरे पास यह नियम ले लिया। उसके बाद फिर उन्होंने न निंदा की है, न लिखी ही है। वे उसी वर्ष ७-८ महीने बाद स्वर्गस्थ हो गये। एक बार उदयपुर के प्रोफैसर श्री कमलचंद सोगानी ने कहा- ‘‘माताजी! आपने जैन समाज में क्यों जन्म ले लिया? अरे! इस जैन समाज के अतिरिक्त यदि अन्य किसी समाज में आपका जन्म होता, तो लोग आपको चांदी-सोने के सिक्कों में तोलते। आपने जिस समाज में जन्म लिया, उसमें तो आपका मूल्याकंन करने वाला शायद ही कोई होगा ।’’
मैंने कहा-‘‘प्रोफैसर जी! मैंने अनुवाद करते समय यह कुछ सोचा ही नहीं था कि कोई मूल्यांकन करेगा या नहीं । मेरा लक्ष्य मात्र अपने ज्ञान को समीचीन बनाने का और अपनी श्रद्धा को सम्यक करने का तथा दृढ़ करने का ही था। इसके अनुवाद में मुझे जो आनन्द आता था वह अनिर्वचनीय है और वह आनन्द ही-प्रीति ही ज्ञान का फल है। मेरा कोई गौरव करे तो क्या लाभ होगा और न करे तो भला क्या हानि होगी?
दूसरी बात, मैंने अपने शिष्यों को इस अष्टसहस्री को पढ़ाते समय यही सोचा था कि इन्हें यह अच्छी तरह समझ में आ जाये-जैसे कि मोतीचन्द ने शास्त्री और न्यायतीर्थ का फार्म भरा था। उन्हें समझाने के लिए ही उस समय अनुवाद किया था।’’ अजमेर में सन् १९७१ के चातुर्मास में एक बार सर सेठ भागचंद जी सोनी और उनके साथ पंडित हुकुमचंद जी भारिल्ल आये। पंडित जी ने कहा- ‘‘माताजी! मैं आपसे अष्टसहस्री में आए हुए प्रागभाव आदि के विषय में चर्चा करना चाहता हूँ।
’’ अष्टसहस्री में प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव इन चार अभावों का बहुत ही विशद वर्णन है। जैनाचार्यों ने अभाव को शून्यरूप न मानकर कथंचित्-सद्भाव रूप ही माना है, जैसे कि न जैन-अजैन कहने से वह जैन नहीं हो, तो अजैन से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कोई न कोई तो है ही है।
इत्यादि प्रकार से उन पंडित जी से घण्टों चर्चा चलती रही। उन्हें इस ग्रंथ के आधार से इन अभावों को समझकर बहुत ही आनन्द आया था। यहाँ हस्तिनापुर में एक बार डा. रमेशचंद जैन बिजनौर वाले आये। वे बौद्धदर्शन और जैनदर्शन पर डी. लिट् कर रहे थे। वे बोले- ‘‘माताजी! मुझे अपनी हस्तलिखित कापियाँ दे दीजिये, एक सप्ताह बाद वापस कर दूँगा।’’ मैंने कहा-‘‘पंडित जी! वे कापियाँ जब तक छप न जायें, मुझे प्राणों से ज्यादा प्रिय हैं।
उन्हें आप यहीं बैठकर भले ही देख लीजिये, मैं बाहर ले जाने के लिए नहीं दे सकती।’’ उस समय रमेशचंद जी ने करीब एक सप्ताह रहकर उन कापियों से विषय लिया था और मुझसे भी बहुत कुछ चर्चायें की थीं।
इस अष्टसहस्री की ६ कारिकाओं सहित वह ग्रंथ प्रथम भाग के रूप में १९७४ में छपकर सामने आ गया था किन्तु कुछ ऐसा ही योग रहा कि इन बाद के तेरह वर्ष में अथवा अनुवाद पूर्ण होने के बाद से १८ वर्ष में भी आगे के भागों को छपने का योग नहीं आ रहा है, जबकि इस ग्रंथमाला में लगभग ८७ पुष्प छोटे-बड़े मिलकर छप चुके हैं।