पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के भाव- मगसिर शु. १४, दिनाँक १५, दिसम्बर १९८६ को प्रातः रवीन्द्र कुमार मेरे पास आये। ‘वंदामि’ करके बहुत प्रसन्नता से बोले- ‘‘माताजी! मेरे मन में आज एक उत्तम विचार आया है।’’ मैंने कहा-‘‘सुनाओ।’’ तब रवीन्द्र ने कहा-‘‘माताजी! श्री विमलसागर जी महाराज यहाँ पधार रहे हैं। उनके करकमलों से एक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा का आयोजन कराना चाहिए। मैं सोच रहा हूँ कि संक्षेप में महोत्सव कराया जावे।
मैंने संक्षेप में बजट सोचा है। आपको भी सुना दूँ……।’’ मेरा हृदय भी आनन्द से गद्गद हो गया। मैंने कहा- ‘‘मेरे मन में भी भाव तो बहुत उठते थे किन्तु कार्य भार कौन संभालेंगे? ऐसे भय से मैं बोल नहीं पाती थी। तुम्हारे मन में बड़े उत्तम विचार आये हैं, बहुत ही खुशी हो रही है। देखो! दो दिन में मोतीचन्द महमूदाबाद से आ जावें, बस निर्णय पक्का करके पहले आचार्यश्री विमलसागर जी से आज्ञा ले आवो, फिर बाहर बात प्रकट करना।’’ रवीन्द्र बोले- ‘‘मैंने सोचा है कि त्रिमूर्ति मंदिर में आजू-बाजू की वेदियों में बीच-बीच में भगवान नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान की जावें और भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति तो सहस्रफणा हो, तो मजा आ जावे।’’
उधर महमूदाबाद से १८ दिसम्बर को मोतीचन्द आ गये। उनको मैंने यह शुभ समाचार सुनाया। वे भी प्रसन्न हुए। तब रवीन्द्र कुमार ने आदमी भेजकर अमीनगर सराय से श्री धनराज जैन ज्योतिषी को बुलाया। फाल्गुन में दीक्षा के समय के आस-पास ही पंचकल्याणक मुहूर्त की चर्चा की। इसके बाद मैंने कहा- ‘‘अब सबसे पहले आचार्यश्री के पास जाकर आज्ञा लेकर आवो…..।’’
पौष वदी ४, दिनाँक १९ दिसम्बर १९८६ को रवीन्द्र कुमार धनराज जैन को साथ लेकर यहां से साढ़े आठ बजे निकले और आचार्यश्री के पास पहुँचकर पंचकल्याणक प्रतिष्ठा कराने के भाव सुनाये, महाराज जी भी खुश हुए पुनः आचार्य श्री ने फाल्गुन शु. ७ से ११ तक, दिनाँक ६ मार्च से ११ मार्च तक प्रतिष्ठा का मुहूर्त निकाल दिया अर्थात् ६-७ मार्च को गर्भकल्याणक, ८ मार्च को जन्मकल्याणक, ९ मार्च को तपकल्याणक, १० मार्च को ज्ञानकल्याणक और ११ मार्च को मोक्षकल्याणक का मुहूर्त निश्चित किया। इधर १९ दिसम्बर को गणेशीलाल रानीवाला आ गये थे अतः पौष वदी पंचमी, दिनाँक २१ दिसम्बर रविवार को शीघ्र ही मीटिंग की गयी।
इसमें ‘भगवान पार्श्वनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव एवं दीक्षा समारोह समिति’ का गठन किया गया। इसमें गणेशीलाल रानीवाला, कोटा को अध्यक्ष, मोतीचन्द को कार्याध्यक्ष, रवीन्द्र कुमार को महामंत्री और अमरचंद होमब्रेड, मेरठ को संयोजक बनाया। बड़ौत के नरेशचंद जैन (पद्मावती कोल्ड स्टोर) ने आचार्य संघ को लाने की जिम्मेवारी ली अतः इन्हें माला पहनाकर संघपति नाम से सम्मानित किया गया।
साथ ही वीरेन्द्र कुमार, मेरठ और विशालचंद सलावा ने यहाँ पर संघ के आने पर यहाँ रहने तक की व्यवस्था की जिम्मेवारी संभाली अतः उन्हें भी सम्मानित किया गया। इधर पं. शिखरचंद प्रतिष्ठाचार्य को बुलाने के लिए आदमी भेजा गया था अतः पौष वदी ७, दिनाँक २३ दिसम्बर को पंडित जी आ गये, उन्होंने भी प्रसन्नता व्यक्त की। उन्हें मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार ने तिलक करके श्रीफल भेंट किया और मार्च में प्रतिष्ठा कराने के लिए निवेदन किया। पंडित जी ने सहर्ष स्वीकार किया और बोले- ‘‘मेरा पुण्य योग है जो यहाँ हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर मैं १०० प्रतिष्ठा के बाद यह १०१ वीं (एक सौ एक वीं) प्रतिष्ठा कराऊँगा तथा विधिनायक भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा का योग भी पहला ही है।’’
इसके बाद मैंने कहा- ‘‘अब जयपुर जाकर जिनप्रतिमाओं के लिए आदेश देवो।’’ मेरी आज्ञा लेकर रवीन्द्र कुमार जयपुर गये। वहाँ पर भगवान पार्श्वनाथ की सहस्रफणा मूर्ति तथा भगवान नेमिनाथ की मूर्ति के लिए सूरजनारायण नाठा को आर्डर दिया और विधिनायक भगवान पार्श्वनाथ की धातु की ९ इंच की मूर्ति ली। ‘‘इस प्रतिष्ठा में सुदर्शनमेरु पर्वत के ऊपर स्वर्ण का कलश चढ़ाना था। यह निर्णय हुआ था कि १-१ लाख के छह दातार अथवा ५०-५० हजार के बारह दातार कर लिए जायें, उनके हाथों से कलशारोहण कराकर सुमेरु पर्वत के निर्माण में सहयोगी इन दातारों की प्रशस्तियां जँबूद्वीप के प्रवेश के निकट लगा दी जावें।’’ इसी निमित्त से रवीन्द्र कुमार अहमदाबाद, बम्बई चले गये।
पांडाल के लिए भूमि शुद्धि
यहां पर बहुत ही दु्रतगति से काम चलाना था अतः पौष वदी ११, दिनाँक २७ दिसम्बर को मोतीचन्द ने पांडाल के लिए भूमि शुद्धि हेतु पूजन किया। मंच निर्माण के लिए वेदी के स्थान पर क्षेत्रपाल की स्थापना कर नव र्इंटें रखी गर्इं। इसी मंगल बेला में एक श्रावक विधिनायक भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा लेकर वहीं मुझे दिखाने आ गये। प्रतिमा को हाथ में लेकर मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई। इधर आसाम से ‘वासुदेव’ कारीगर को मंदिर में कमल बनाने के लिए बुलाया गया।
श्रवणबेलगोल की यात्रा
मोतीचंद ने अपनी बहन चतुरमणी और भानजी सीमा को बुलाया था। ये दोनों १ जनवरी को आ गये अतः मोतीचन्द ने दक्षिण के तीर्थों की यात्रा का प्रोग्राम बना लिया। मोतीचन्द, चतुरमणी, कु.माधुरी, सीमा और विजयकुमार आदि यात्रा जाने वालों को पुष्पमाला पहनाकर सम्मानित किया गया। पौष सुदी ३, दिनाँक २ जनवरी १९८७ के दिन प्रातः ५ बजकर ४५ मिनट पर ये लोग यहाँ से आशीर्वाद लेकर निकले। सबसे पहले ये लोग गजपंथा पहुँचे।
उधर बम्बई से रवीन्द्र कुमार भी गजपंथा पहुँच गये और यात्रा में साथ हो गये। ये सभी आचार्यश्री देशभूषण जी के पास कोथली पहुँचे, उनके दर्शन कर आशीर्वाद लिया। यात्रा करते हुए कुंभोज में मुनि समंतभद्र जी का आशीर्वाद लेकर चर्चायें कीं पुनः श्रवणबेलगोल पहुँचे। वहाँ भट्टारक श्री चारूकीर्ति जी ने दीक्षार्थी मोतीचंद का अच्छा सम्मान किया।
श्री धरणेंद्रैय्या और ललितम्मा ने भी इनका खूब सम्मान किया। जगह-जगह इनका सम्मान होता रहा। ये लोग यात्रा करते हुए उधर दक्षिण में ‘कन्याकुमारी’ तक गये। माधुरी १९ जनवरी, माघ वदी ४ को ही वापस आ गई पुनः ये सभी लोग भी माघ वदी ९, २४ जनवरी को यात्रा करके आ गये। शनिवार माघ वदी ९ को आर्यिका रत्नमती जी की द्वितीय पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि सभा हुई पुनः रविवार को प्रतिष्ठा समिति की मीटिंग हुई। मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार ने यात्रा के संस्मरण लोगों को सुनाये।
अनंतर लोगों ने यात्रा की सफलता पर दोनों का माला पहनाकर सम्मान किया। मेरी यह नीति रही है कि दीक्षा लेने वाले को सारी तीर्थ यात्राएँ पहले ही करा दी जायें, मैंने कई साधु देखे हैं जो कि दीक्षा लेकर कुछ वर्ष भी गुरु के पास संघ में न रहकर यात्रा के निमित्त संघ से अलग हो जाते है और कोई-कोई अपने पद के प्रतिकूल भी याचना वृत्ति करके यात्राएँ करते हैं अतः पहले यात्रा करके दीक्षा लेने पर आकुलता नहीं रहती है। फिर भी कभी पैदल यात्रा करना हो तो मर्यादा के अनुकूल संघ बनाकर, संघपति आदि व्यवस्थापक मिल जाने पर यात्रा करना चाहिए।
तीन लोक व सर्वतोभद्र विधान पूर्ति
इधर मैं अपने तीनलोक विधान बनाने में मग्न थी। रात्रि में भी नींद न आने से कभी-कभी उठकर बैठ जाती और लिखने लगती। यद्यपि मस्तिष्क में थकान बहुत हो जाती थी। लम्बी बीमारी के बाद काफी कमजोरी थी, फिर भी मैं शरीर को कुछ न गिनकर उससे जबरदस्ती काम ले रही थी। माघ वदी २, दिनाँक १७ जनवरी को मैं सायंकाल में सामायिक कर रही थी। जाप्य करते-करते बेहोश सी हो गई।
मुझे कुछ पता ही नहीं चला, पास में बैठी हुई सौ. हीरामणि, ब्र. राजमती, गीता और कु. बीना आदि महिलाएँ-बालिकाएँ घबरा गर्इं, मुझे पकड़ लिया और जोर-जोर से णमोकार मंत्र बोलने लगीं। कुछ देर बाद मुझे सावधानी हुई, तब कमजोरी बेहद थी, कुछ समझ में नहीं आया क्या हुआ? अगले दिन मध्यान्ह में मेरठ से शेफुद्दीन हकीम जी आये, उन्होंने कहा- ‘‘माताजी के शरीर में पानी की बहुत कमी है, इनके आहार में पानी और रस की मात्रा बढ़ा दो। सारी जानकारी के अनुसार जब उन्हें मालूम हुआ कि परसों १६ जनवरी को माताजी ने उपवास किया था, तब तो उन्होंने यहीं हेतु प्रमुख कर दिया।’
’ खैर! धीरे-धीरे स्वास्थ्य सामान्य हुआ। १९ जनवरी को माधुरी आ गई, वह बोलीं- ‘‘ १७ जनवरी को रात्रि के प्रारंभ में मुझे बहुत ही आकुलता हुई थी, मैं रोने लगी। मुझे ऐसा लगा कि जैसे-तैसे उड़कर ही माताजी के पास पहुँच जाऊँ। तभी मैं वहाँ से चल चुकी थी, मद्रास से गाड़ी मिली और बैठकर १९ को यहाँ आ गई हूँ।’’ जब यह बात महिलाओं ने सुनी, तब यही कहने लगीं कि- ‘‘बहन जी! यहाँ माताजी के स्वास्थ्य की गड़बड़ी का असर ही वहाँ तुम्हें बैचैन कर रहा था।’’ प्रायः इसे ही संस्कार कहते हैं। इसके बाद मैं तो अपने लेखन कार्य को पूर्ण करने में लगी थी। चिंता थी कि प्रतिष्ठा के पहले ही पूर्ण कर दूँ कहीं किसी व्यवधान से यह विधान अपूर्ण न रह जाये…..अतः लिखने में ही मैं सब कुछ भूली हुई थी।
तीनलोक के तीन विधान
तीनलोक का विधान बनाते हुए उसमें मैंने तीन विधान कर दिये। पहले विधान में ३२ पूजाओं में ही संक्षेप में तीनलोक के सम्पूर्ण अकृत्रिम जिनमंदिरों के अर्घ्य आ गये हैं। इसे ‘त्रैलोक्य विधान’ नाम दिया। दूसरा मध्यम विधान कर दिया, इसमें ६४ पूजायें रखी हैं। इसमें भी तीनों लोकों के सर्व अकृत्रिम जिनमंदिर-जिनप्रतिमाओं की ही पूजाएं हैं। यह पहले से विस्तृत है। इसका नाम ‘तीन लोक विधान’ रखा है। इसका दूसरा नाम ‘मनोकामना सिद्धि’ विधान है। इन दोनों विधानों को पौष शुक्ला १३, दिनाँक १२ जनवरी १९८७ को प्रातः मंगलबेला में ७ बजकर ३० मिनट पर पूर्ण किया था।
आज यहाँ लिखते समय भी पौष शु. १३ ही है। हाँ! सन् १९८८ है। साथ ही वृहत् विधान एक सौ एक-एक सौ एक पूजाओं का बनाया। इसमें तीनलोक में जितने भी पूज्य महापुरुष हैं, और उनके कल्याणकों से पवित्र तीर्थ हैं इत्यादि सभी की पूजाएँ हैं। कुल मिलाकर मध्यलोक के मनुष्य लोक में अर्थात् ढाई द्वीप तक अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ये पाँच परमेष्ठी हैं तथा जिनधर्म, जिनागम भी यहीं ढाई द्वीप में होते हैं। इसी प्रकार कृत्रिम जिनप्रतिमा और जिनमंदिर भी यहीं तक है। हाँ, इन नव देवताओं के अंतर्गत ही अकृत्रिम जिनप्रतिमा और जिनमंदिर अधोलोक, पूरे मध्यलोक एवं ऊर्ध्वलोक में सर्वत्र हैं। इन सबकी पूजाएँ इस विधान में हैं।
यह बड़ा ‘तीनलोक विधान’ है, फिर भी मैंने सार्थक नाम रूप से इसे ‘सर्वतोभद्र विधान’ ऐसा नाम दिया है। माघ शु. १०, दिनाँक ८ फरवरी १९८७ को मध्यान्ह ग्यारह बजकर पचपन मिनट पर (११.५५) इस विधान को मैंने पूर्ण किया है। यह ‘सर्वतः’-सब तरफ से और सब प्रकार से ‘भद्र’-कल्याण करने वाला होवे, ऐसी भावना है। इन सभी विधान पूजन की रचनाओं में मेरा चित्त अत्यधिक तन्मय हो जाता था उस समय का आनन्द एक अपूर्व ही रहता था। वास्तव में उस समय कितना पुण्य बंध होता होगा, यह कल्पना से बाहर है।
मुझे ऐसा लगता है कि- ‘‘आचार्यों ने जो भी ग्रंथ लिखे हैं, उसमें स्वयं आत्मा का आनन्द और शुभोपयोग की पराकाष्ठा रहती ही होगी अतः उन्होंने भी स्वयंं की विशुद्धि के लिए ही ग्रंथ रचनाएँ की होंगी परहित गौण ही रहा होगा।’ मैंने भी जितने गंथ लिखे हैं, पूजाएँ बनायी हैं, अनुवाद किये हैं, उन सबमें केवल अपनी आत्मविशुद्धि, मानसिक अपूर्व शांति और सम्यग्ज्ञान की निर्मलता का ही मुख्य लक्ष्य रहा है। परहित होता है तो अच्छा ही है।
निर्माण कार्य
यहाँ त्रिमूर्ति मंदिर में दाहिनी वेदी की नींव में पौष शुक्ला त्रयोदशी के दिन मैंने अचल यंत्र रखाया। यहाँ सुन्दर कमल बनाया गया। जिस पर भगवान नेमिनाथ विराजमान किये गये हैं। उनके नीचे सामने शंख का आकार बहुत ही सुन्दर बन गया है पुनः माघ वदी एकम्, दिनाँक १६ जनवरी को बायीं वेदी की नींव में यंत्र रखाया।
यहाँ भी भव्य कमल पर सहस्रफणा भगवान पार्श्वनाथ विराजमान किये गये हैं। इसके नीचे भी सामने सर्प बनाया गया है जो कि भगवान पार्श्वनाथ का चिन्ह है, बहुत ही सुन्दर दिख रहा है। उधर जंबूद्वीप के बाहर लवण समुद्र के गोपुर द्वार के आजू-बाजू में अनावृत यक्ष का भवन और क्षेत्रपाल का मंदिर बनाने का निर्णय होने से माघ वदी सप्तमी, दिनाँक २२ जनवरी १९८७ को वेदी में अचलयंत्र विराजमान कराया। वेदी बन जाने पर ११ मार्च को अनावृत यक्ष वहाँ विराजमान कर दिये गये और उनके गृहचैत्यालय में सिद्ध प्रतिमा विराजमान कर दी गर्इं।
इधर बायीं तरफ चैत्र कृ. एकम्, १६ मार्च को क्षेत्रपाल स्थापित किये गये हैं। अनावृत यक्ष जम्बूद्वीप का स्वामी है और क्षेत्रपाल सदा जिनधर्म के तथा जिनभक्तों के रक्षक माने गये हैंं। ये दोनों ही ‘देव’ सदा इस क्षेत्र की और धर्म की रक्षा करते रहेंगे।
मोतीचंद के सम्मान
२८ जनवरी को सरधना के श्रावकों ने मोतीचंद का भव्य सम्मान किया। १ फरवरी, माघ शु. ३, को दिल्ली में मोतीचंद को बग्घी में बिठाकर जुलूस निकाला गया और सभा में स्वागत करके रजतप्रशस्ति भेंट की गई। बसंत पंचमी के दिन लखनऊ में स्वागत करके अभिनंदन-पत्र भेंट किया गया। टिकैतनगर में भी बहुत ही उत्साह से मोतीचंद का स्वागत करके जुलूस निकाला गया। ८ फरवरी को मोतीचंद सनावद गये, वहाँ पर भी सनावद वालों ने अपने यहाँ जन्मे ऐसे मोतीचंद का बहुत ही अच्छा स्वागत सम्मान किया और गौरवान्वित हुए। कोटा में भी इनका भावभीना स्वागत करके सम्मान किया गया।
फाल्गुन वदी ६, दिनाँक १९ फरवरी को मैंने मोतीचन्द को आचार्यश्री धर्मसागर जी के दर्शन करके आशीर्वाद लेने के लिए भेजा। वहाँ पहुँचकर मोतीचंद ने आहार दिया। आचार्य श्री का स्वास्थ्य बहुत ही गिरता जा रहा था अतः आहार नहीं ले सके, मात्र जल ही लिया। वहाँ भी मोतीचंद की बिन्दोरी (शोभायात्रा) निकाली गई, पुनः मध्यान्ह की सभा में आचार्यश्री ने अच्छा आशीर्वाद दिया बोले- ‘‘तुम्हारे जैसे वीर क्षुल्लक नहीं बनते, मुनि बनो-तुमने धर्मप्रभावना के बहुत कार्य किये हैं, अब आत्म साधना करो।’’ वहाँ से आचार्यश्री का आशीर्वाद लेकर आये और उनकी अस्वस्थता के समाचार सुनाये, तब मुझे बहुत ही दुःख हुआ।
इतनी दूर होने से अब दर्शन तो हो नहीं सकते थे अतः रवीन्द्र कुमार ने वीडिओ कराकर मुझे आचार्यश्री के दर्शन कराये। दीक्षा से एक दिन पूर्व यहाँ ७ मार्च को मंच पर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकताओं ने भी मोतीचंद का सम्मान कर रजत प्रशस्ति भेंट की। इसके बाद ८ मार्च को उनकी माँ रूपाबाई का सम्मान करके उन्हें रजत प्रशस्ति भेंट की गई। मनुष्य जीवन में माता के उपकार विशेष रहते हैं। फिर यदि उसने बचपन से धर्मघूंटी पिलाकर बालक को योग्य बनाया हो, तब तो उनके उपकार को स्मरण किये बिना नहीं रहा जा सकता है।
इस दीक्षा के पूर्व मोतीचंद का जगह-जगह जो सम्मान किया गया, वह केवल उनके द्वारा इस जंबूद्वीप निर्माण व ज्ञानज्योति प्रवर्तन के कार्यकलापों के निमित्त से ही किया गया पुनः मोतीचंद ने यही कहा कि-‘‘यह सब माताजी का आशीर्वाद है। आज उन्होंने ही मुझे इस सम्मान के योग्य बनाया है।’’ यह मोतीचंद की भक्ति थी।
आचार्य श्री विमलसागर जी का मंगल विहार
आचार्यश्री विमलसागर जी ने मथुरा से हस्तिनापुर की ओर विहार किया। माघ शु. १२,१० फरवरी को विहार कर आचार्य संघ फाल्गुन सुदी दूज, १ मार्च १९८७ को हस्तिनापुर आ गया। आगे जाकर मैंने आचार्यश्री के दर्शन किये, मुझे इतना हर्ष हुआ कि मैं गद्गद हो गई। आचार्यश्री का जम्बूद्वीप के प्रवेशद्वार पर मंगल स्वागत किया गया और मंगल आरती उतारी गई। आचार्यश्री ने संघ सहित जंबूद्वीप में प्रवेश कर सर्वप्रथम भगवान महावीर स्वामी के दर्शन किये। जंबूद्वीप रचना के दर्शन करके तीन लोक मंडल विधान में पधारे।
तीनलोक मंडल विधान
मैंने शरद पूर्णिमा, अक्टूबर १९८६ से ‘तीनलोक मंडल विधान’ पूजन की रचना प्रारंभ की थी, जिसे पौष शु. १३ को पूर्ण की थी। मेरी यह नीति रही है कि ‘दीक्षार्थी दीक्षा लेने के पूर्व तीर्थयात्रा कर लें, मंडल विधान पूजन कर लें और खूब मुनिसंघ को आहार दान दे लें।’ ऐसा ही मैंने आचार्यश्री वीरसागर जी के श्रीमुख से भी सुना था और संघ में देखा भी था। इसी नीति के अनुसार उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कन्याकुमारी तक यात्रा सम्पन्न कर लेने के बाद मोतीचंद ने मेरी प्रेरणा से मेरे द्वारा नवनिर्मित तीनलोक मंडल विधान को फाल्गुन वदी ७, दिनाँक २० फरवरी से प्रारंभ कर आज दिन फाल्गुन सुदी २, दिनाँक १ मार्च को पूरा किया था, अभी पूर्णाभिषेक होना था। आचार्यश्री पधारे, तभी मोतीचंद ने श्री जी की प्रतिमा का अभिषेक किया। आचार्यश्री ने गंधोदक लेकर स्वयं मस्तक पर चढ़ाया और अपने करकमलों से सभी को दिया।
त्रिमूर्ति मंदिर में सभा
तत्पश्चात् आचार्यश्री त्रिमूर्ति मंदिर में पहुँचे, दर्शन किये। जुलूस यहीं मंदिर में सभारूप में परिणत हो गया। स्वागत, प्रवचन, संघपति का सम्मान आदि होने के बाद मैंने आचार्यश्री के चरणों में भक्ति सुमन समर्पित करते हुए निर्विघ्न प्रतिष्ठा सम्पन्न होने की मंगल कामना की, आचार्यश्री ने मंगल आशीर्वाद दिया। आचार्यसंघ को यहाँ धर्मशाला नंबर दो में ठहराया गया। आचार्यश्री आदि मुनिगण बड़े हॉल में ठहरे। यहाँ संघ में स्वाध्याय और चर्चा को देखने-सुनने के लिए तथा संघ के दर्शनों के लिए भक्तों का तांता लग गया।