जैनेश्वरी दीक्षा लेने के बाद दिगम्बर जैन साधु-साध्वी आत्महित की ओर अग्रसर होते हैं क्योंकि आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव के वचनानुसार ‘‘आदहिदं कादव्वं, जइ सक्कइ परहिदं च कादव्वं। आदहिद परहिदादो आदहिदं सुट्ठकादव्वं। अर्थात् साधु को सर्वप्रथम आत्महित की ओर ध्यान देना चाहिए, पुनः परहित भी जितना संभव हो करें किन्तु परहित करते हुए आत्महित से कभी विमुख नहीं होना चाहिए। साधुओं के प्रातःकाल निद्रा से उठते ही कृतिकर्म प्रारम्भ हो जाते हैं।
जिनमें सबसे पहले पश्चिमरात्रिक स्वाध्याय, पुनः रात्रिक प्रतिक्रमण और उसके बाद वर्तमान में कई साधु संघों में प्रातः सामायिक के पश्चात् सामूहिक प्रतिक्रमण होता देखा जाता है अतः मेरे मन में इच्छा जागृत हुई कि आगम के आधार से इस विषय को स्पष्ट करना चाहिए। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने आगम की भाषा में ‘दिगम्बर मुनि’ एवं ‘‘मुनिचर्या’’ नामक ग्रन्थ में भी इन विषयों का खुलासा किया है।
उसी को आधार बनाकर मैं यहाँ ‘‘साधुओं के प्रातःकालीन सामायिक, प्रतिक्रमण’’ के बारे में कुछ प्रमाण उपस्थित करती हूँ— अनगार धर्मामृत के आठवें अध्याय में छह आवश्यक क्रियाओं का वर्णन करके नवमें अध्याय में नित्य-नैमित्तिक क्रियाओं का अथवा आवश्यक क्रियाओं के प्रयोग का वर्णन बहुत ही सरल ढंग से किया है।
यथा— अर्धरात्रि के दो घड़ी अनन्तर से अपररात्रिक स्वाध्याय का काल हो जाता है। उस समय पहले ‘‘अपररात्रिक’’ स्वाध्याय करके पुनः सूर्योदय के दो घड़ी शेष रह जाने पर स्वाध्याय समाप्त कर ‘‘रात्रिक प्रतिक्रमण’’ करके रात्रियोग समाप्त कर देवें।
फिर सूर्योदय के समय से दो घड़ी (४८) मिनट ‘‘देववंदना’’ अर्थात् सामायिक करके ‘‘गुरुवंदना’’ करें। पुनः पौर्वाण्हिक स्वाध्याय प्रारम्भ करके मध्याह्न के दो घड़ी शेष रहने पर स्वाध्याय समाप्त कर देवें।’’ अनगार धर्मामृत के नवमें अध्याय के सातवें श्लोक में रात्रिक प्रतिक्रमण का उल्लेख निम्न प्रकार से आया है—
स्वाध्यायामत्यस्य निशाद्विनाद्रिका शेषे प्रतिक्रम्य च योगमुत्सृजेत्।।७।।
अर्थात् योगनिद्रा—धर्मध्यान सहित निद्रा के द्वारा शरीर की थकान को दूर करके अर्थात् ४ घड़ी (९६ मिनट तक) अर्धरात्रि में नींद लेकर पुनः जागकर अपररात्रिक—वैरात्रिक स्वाध्याय समापन कर रात्रिक प्रतिक्रमण करके योगभक्ति के द्वारा रात्रियोग का विसर्जन कर देवें। उपर्युक्त कथन के अनुसार अर्धरात्रि में मात्र ४ घड़ी शयन करना यह उत्कृष्ट मार्ग है।
आजकल मुनि- आर्यिकाएँ पाँच, छह घंटे भी सोते हैं क्योंकि नींद कम लेने से शरीर में थकान बनी रहती है अतः अपने स्वास्थ्य के अनुसार शरीर को स्वस्थ रखते हुए कम से कम निद्रा लेना चाहिए, यही अभिप्राय समझना।
प्रतिक्रमण का क्या लक्षण है ?
प्रमाद आदि से उत्पन्न होने वाले दोषों का विशोधन करना प्रतिक्रमण है। दिगम्बर मुनि ग्रन्थ में प्रतिक्रमण के सात भेद होते हैं—दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुमासिक, वार्षिक और औत्तमर्थिक
१. दिवस सम्बन्धी दोषों के विशोधन हेतु सायंकाल में जो प्रतिक्रमण किया जाता है वह दैवसिक प्रतिक्रमण है। जो कि ‘‘जीवे प्रमादजनिताः’’ आदि पाठरूप से पढ़ा जाता है।
२. रात्रि सम्बन्धी दोषों के निराकरण हेतु जो पश्चिम रात्रि में प्रतिक्रमण किया जाता है वह रात्रिक प्रतिक्रमण है।
३. आहार के लिये जाते समय, गुरुवंदना और देववंदना के लिए जाते समय, शौचादि के लिए जाते समय जो जीवों की विराधना हुई हो उसके दोषों को दूर करने के लिए ‘‘पडिक्कमामि भंते! इरियावहियाए’’ इत्यादि पाठ बोलकर महामंत्र का नव बार जाप्य किया जाता है वह ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण है।
४. प्रत्येक मास में पन्द्रह दिन वा चतुर्दशी या अमावस्या अथवा पूर्णिमा को जो वृह्दप्रतिक्रमण किया जाता है वह पाक्षिक प्रतिक्रमण है।
५. कार्तिक मास के अन्त में और फाल्गुन मास के अन्त में चतुर्दशी अथवा पूर्णिमा को चातुमासिक प्रतिक्रमण किया जाता है।
६. आषाढ़ मास के अन्त में चतुर्दशी या पूर्णिमा के दिन वार्षिक प्रतिक्रमण किया जाता है।
७. मरणकाल में सम्पूर्ण दोषों की आलोचना करके जो यावज्जीवन चतुराहार का त्याग कर दिया जाता है वह उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है।
इनसे अतिरिक्त लोच प्रतिक्रमण, गोचरी प्रतिक्रमण, अतिचार प्रतिक्रमण आदि लघु प्रतिक्रमण होते हैं जो कि ईर्यापथ आदि में सम्मिलित हो जाते हैं।
पाँच वर्ष के अन्त में जो गुरु के सानिध्य में बड़ा प्रतिक्रमण होता है वह यौगिक या योगांतिक कहलाता है। यूँ तो अनगार धर्मामृत में वृह्दप्रतिक्रमण के भी सात भेद बताए हैं जो यथासमय साधुजन करते हैं किन्तु यहाँ दैनिक क्रियाओं के अन्तर्गत प्रतिदिन दो बार प्रतिक्रमण करने के विषय में ही बताया गया है कि सायंकालीन दैवसिक प्रतिक्रमण तो प्रायः सभी आचार्य, मुनि, गणिनी एवं आर्यिका संघों में एक समान ही चलता है किन्तु प्रातःकालीन (रात्रिक) प्रतिक्रमण में काफी परिवर्तन देखा जा रहा है।
कोई-कोई साधु तो प्रातःकाल दशभक्ति का मात्र पाठ करके अपनी क्रिया को पूर्ण मान लेते हैं एवं किन्हीं संघों में प्रातः सामायिक के बाद चर्तुिवध संघ के साधु एकत्रित होकर प्रतिक्रमण और गुरुवंदना करते हैं। कहीं प्रतिक्रमण में दंडक पढ़ने की परम्परा है तो कहीं पूरे दंडक सभी भक्तियों से पूर्व पढ़े जाते हैं।
गणिनी आर्यिका संघों में भी प्रायः सामायिक के पश्चात् ही प्रतिक्रमण करने की परम्परा है किन्तु पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने जब-जब भी आगम के परिप्रेक्ष्य में पं. पन्नालाल जी सोनी, पं. खूबचन्द जी शास्त्री आदि से चर्चाएं कीं तब-तब यही निर्णय निकला था कि पूरे दंडकपूर्वक प्रतिक्रमण पहले करके सामायिक बाद में ही करना चाहिए इसीलिए आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के चर्तुिवध संघ में सदैव सुबह ब्रह्ममुहूर्त में मुनियों का अपने स्थान पर, आर्यिका ओं का अलग अपने स्थान पर सामूहिक प्रतिक्रमण होता था।
आज भी उस परम्परा में हम लोग प्रतिक्रमण के बाद ही प्रातःकालीन सामायिक करते हैं। कृपया गुरुजन इस पर चिन्तन करके आगमोक्त क्रिया को अपने संघों में संचालित करें, यही मेरा नम्र निवदेन है।