घर के किसी एकान्तस्थान या पार्क आदि खुले स्थान में बैठकर मन को एकाग्रचित्त करें और सर्वप्रथम एक गीत के द्वारा अध्यात्मरस में निमग्न होने का पुरुषार्थ करें- ध्यान की साधना से मन, वचन, काय तीनों पवित्र एवं स्वस्थ होते हैं। पद्मासन मुद्रा ध्यान के लिए सर्वश्रेष्ठ मानी गई है, वह ब्रह्मचर्य सिद्धि के लिए रामबाण औषधि के समान है। इसके लिए पहले बायां पैर दाहिने पैर की जांघ पर पुन: दाहिना पैर बाएं पैर की जांघ पर रखकर बैठा जाता है। यदि पद्मासन न लगा सके तो अर्ध पद्मासन (बायां पैर नीचे और दाहिना पैर बाएं पैर की जांघ पर रखकर बनता है) या सुखासन (पालकी बांधकर सुखपूर्वक बैठना) से बैठकर दोनों हाथ की हथेली गोद में रखें (बाएं हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रखकर)। पद्मासन प्रतिमा के समान शांतमुद्रा में बैठकर एक प्रार्थना गीत पढ़ें-(गीत)
तर्ज-मनमंदिर में आय जइयो…………….
आतम में ध्यान लगाना है, परमातम मिलेगा।
अपने प्रभू को ध्याना है, शुद्धातम मिलेगा।।टेक.।।
मन में जो माया व ममता भरी है, उससे सदा बेचैनी रही है।
चैन की वंशी बजाना है, परमातम मिलेगा।।१।।
वचनों में कटुता कषाय भरी है, अच्छे वचन वह कहती नहीं है।
वाणी को सुन्दर बनाना है, परमातम मिलेगा।।२।।
काया है नश्वर आत्मा अनश्वर, आत्मा को ध्याने से होता संवर।
उसके ही गुण हमें गाना है, परमातम मिलेगा।।३।।
आत्मा को ध्याओ आत्मा में आओ, कुछ देर तल्लीन उसमें हो जाओ।
‘‘चन्दना’’ उसे ही सजाना है, परमातम मिलेगा।।४।।
पुन: अध्यात्म रस में लीन होकर आँखों को कोमलता से बंद करें और नौ बार ॐकार की ध्वनि करने के पश्चात् ध्यान के कुछ सूत्र पदों का उच्चारण करें-
इसके पश्चात् आरंभ परिग्रह का त्याग करते हुए निराकुल भाव से मानसिक और शारीरिक शिथिलता की अनुभूतिपूर्वक चित्त की अन्तर्यात्रा में अपने ही शरीर के अवयवों में तीनों लोकों के स्वरूप का चिन्तन करें-(वसुनंदि श्रावकाचार के आधार से)अपने नाभिस्थान में सुमेरुपर्वत की कल्पना करके उसके नीचे अधोभाग में अधोलोक का ध्यान करें, नाभि के पार्श्र्ववर्ती द्वितीय तिर्यग्विभाग में तिर्यग्लोक—मध्यलोक का ध्यान करें। नाभि से ऊध्र्वभाग में ऊध्र्वलोक का चिन्तवन करें। स्कन्ध पर्यन्त (कंधो तक) भाग में कल्प विमानों का, ग्रीवा स्थान पर (गले में) नव ग्रैवेयकों का, हनुप्रदेश अर्थात् ठोड़ी के स्थान पर नव अनुदिशों का, मुख प्रदेश पर विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तर विमानों का ध्यान करें। ललाट प्रदेश में सिद्धशिला तथा उसके ऊपर उत्तमांग (मस्तक पर) में लोकशिखर के समान सिद्धक्षेत्र का दर्शन करते हुए अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठियों को नमन करें। ध्यान की शृँखला में यथास्थान तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालयों की भी वंदना करते जाएं। जैसे-अधोलोक में सात करोड़ बहत्तर लाख (७,७२०००००) जिनमंदिर हैं, मध्यलोक में चार सौ अट्ठावन (४५८) एवं ऊध्र्वलोक में चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस (८४,९७०२३) जिनालय हैं। उन सभी में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं अत: कुल मिलाकर तीन लोक के आठ करोड़ छप्पन लाख सत्तानवे हजार चार सौ इक्यासी (८,५६९७४८१) जिनमंदिरों में नौ सौ पच्चीस करोड़ त्रेपन लाख सत्ताइस हजार नौ सौ अड़तालीस (९२५,५३२७९४८) जिनप्रतिमाओं को ध्यान में ही नमन करते हुए तीन लोक की यात्रा पूर्ण करें पुन: अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला पर विराजमान अनन्तानन्त सिद्ध भगवन्तों की वंदना में लीन होकर स्वयं को भी सिद्धालय में विराजमान कर लें। इस प्रकार आत्मा के ऊध्र्वगमन स्वभाव का चिन्तन करते हुए अनुभव करें-मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ (३ बार)। पुन: निम्न पद्य बोलते हुए ध्यान को सम्पन्न करें-
तीनों लोकों के सब जिनगृह, हैं आठ कोटि छप्पन सुलक्ष।
सत्तानवे सहस चार सौ हैं, इक्यासी प्रमित कहें शाश्वत।।
नौ सौ पच्चीस कोटि त्रेपन, लाख सत्ताइस सहस कही।
नौ सौ अड़तालिस जिनप्रतिमा, प्रतिजिनगृह इक सौ आठ कही।।
ध्यान का लक्षण-एकाग्रचिन्तानिरोध होना अर्थात् किसी एक विषय पर मन का स्थिर हो जाना ध्यान कहलाता है। यह ध्यान उत्तम संहनन वाले मनुष्य के अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनट) तक ही हो सकता है। ध्यान के चार भेद माने हैं। जिनके लिए कहा भी है-
अर्थात् हे भगवन्! आर्त-रौद्र इन दो दुध्र्यानों को आपके प्रसाद से निर्मूल करके मैं धर्मध्यान को प्राप्त करके क्रम से मोक्ष को प्राप्त करूंगा। सारांश यह है कि आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार प्रकार के जो ध्यान हैं वे चारों गतियों को प्राप्त कराने में अपना सहयोग प्रदान करते हैं अर्थात् आर्तध्यान से तिर्यंच-पशुगति, रौद्रध्यान से नरकगति, धर्मध्यान से देव और मनुष्यगति तथा शुक्लध्यान से सिद्धगति की प्राप्ति होती है।
पूर्ण ध्यान किसे हो सकता है ?-उपर्युक्त परिभाषा के अनुसार तो संसार के प्रत्येक प्राणी को हर समय कोई न कोई ध्यान रहता ही है तथापि इनमें प्रारंभ के दो (आर्त-रौद्र) ध्यान संसार के कारण हैं और ‘‘परे मोक्ष हेतू’’ सूत्र से धर्मध्यान चतुर्थ गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है। धवला ग्रंथ में दशवें गुणस्थान तक भी धर्मध्यान माना है और शुक्लध्यान तो उत्तम संहननधारी महामुनियों के तथा केवली भगवान के ही होता है।
गृहस्थजन भी ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं!- ज्ञानार्णव ग्रंथ में श्री शुभचन्द्राचार्य ने कहा है कि ‘‘आकाश में पुष्प खिल सकते हैं और गधे के सींग हो सकते हैं किन्तु किसी भी देश या काल में गृहस्थाश्रम में ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है।’’ फिर भी धर्मध्यान की सिद्धि के लिए गृहस्थाश्रम में भी ध्यान का अभ्यास और भावना तो करनी ही चाहिए। संसार में अनेक प्रकार की भौतिक चिन्ताओं में उलझे मन को कुछ विश्रान्ति देने के लिए श्रावकों को पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन ध्यानों का अभ्यास करना चाहिए। यद्यपि इन पिण्डस्थ आदि ध्यानों की सिद्धि तो कठिन है फिर भी प्रतिदिन किया गया अभ्यास, भावना, संतति और चिंतन इन नामों की सार्थकता को तो प्राप्त कर ही लेता है और कालान्तर में वही अभ्यास ध्यान की सिद्धि में सहायक बन जाता है। ऊपर कहे गये धर्मध्यान के अंतिम भेद संस्थान-विचय के ही ये पिण्डस्थ आदि चार भेद माने गये हैं। सो यहाँ क्रमानुसार पिण्डस्थ ध्यान के बारे में ही बताया जा रहा है।
कहाँ बैठकर ध्यानाभ्यास करें ?- मन चूँकि अत्यन्त चंचल है अत: उसे नियंत्रित करने एवं ध्यान की ओर उन्मुख करने के लिए जिनमंदिर पूर्ण उपर्युक्त स्थान होते हैं। यदि मंदिर की सुविधा उपलब्ध नहीं है तो घर के किसी एकांत स्थान (पूजाघर-चैत्यालय) में बैठ सकते हैं अन्यथा किसी पार्क आदि खुले स्थान का कोई हिस्सा भी ध्यान करने के लिए उचित रहेगा। जहाँ आप ५ मिनट से लेकर शक्ति अनुसार १ घण्टे तक भी बैठने में स्वाधीनता और निर्विकल्पता का अनुभव कर सके, उस स्थान का चयन कर लें तथा भूमि पर चटाई या दर्भासन (डाभ का शुद्ध आसन) बिछाकर ध्यान करने हेतु बैठ जावें। केवल भूमि पर बैठकर ध्यान न करें। ध्यान के समय मुख पूर्व दिशा या उत्तर दिशा की ओर करें क्योेंकि पूर्व से निकलने वाले सूर्य की तेजस्वी किरणों की तरंगें प्रत्यक्ष-परोक्ष दोनों प्रकार से मन-मस्तिष्क को सौर ऊर्जा प्रदान करती हैं जो आत्मा में तेजस्विता के साथ-साथ शारीरिक स्वस्थता को भी देने वाली हैं। इसी प्रकार उत्तर दिशा मनोरथ सिद्धि में सहायक मानी गई है जो अपनी ओर अभिमुख हुए मानव की समस्त समस्याओं का समाधान करके उसमें नवजीवन का संचार करती है।
किस मुद्रा में बैठें ?- ध्यान के लिए पद्मासन मुद्रा सर्वश्रेष्ठ मानी गई है वह ब्रह्मचर्य सिद्धि के लिए रामबाण औषधि के समान है। इसके लिए पहले बायाँ पैर दाहिनी जाँघ पर रखते हैं पुन: दाहिना पैर बायीं जाँघ पर रखकर, बाएँ हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखकर भगवान के समान शांत मुद्रा में बैठकर आँखों को कोमलता से बंद करें। यदि इस पद्मासन से बैठने में अधिक तकलीफ महसूस हो तो अर्धपद्मासन (बायाँ पैर नीचे और दाहिना पैर उसकी जाँघ पर रखकर) से बैठें अथवा सुखासन से भी बैठकर ध्यानाभ्यास किया जा सकता है।
ध्यान का शुभारंभ ॐ की ध्वनि से करें-शरीर की सुषुम्ना नाड़ी एवं मस्तक के ब्रह्म भाग को जागृत करने हेतु ‘‘ॐ’’ बीजाक्षर का नाद परम आवश्यक है। ध्यान को प्रारंभ करने हेतु सर्वप्रथम स्थिरतापूर्वक नौ बार इस ॐकार की ध्वनि करें। ध्वनि के उच्चारण में जहाँ कंठ, तालु, होंठ, नासिका आदि इन्द्रिय एवं उपांगों का अवलम्बन लेना होता है, वहीं ध्वनि के उन क्षणों में अपनी अन्तर्दृष्टि नाभिस्थान पर होनी चाहिए। उस समय अनुभव में नाभिस्थान से उठते हुए आध्यात्मिक तेजपुंज की एक लकीर ऊपर उठती हुई धीरे-धीरे ॐ के साथ मस्तक के रन्ध्र (ब्रह्म) भाग तक जाएगी, यही आध्यात्मिक ऊर्जा आत्मिक शक्ति को प्रदान करती है। ॐ की यह ध्वनि यदि दिन में तीन बार पूर्ण विधि के साथ की जाए तो माइग्रेन, साइनस, ब्लडप्रेशर आदि अनेक बीमारियों का इलाज बिना दवाई लिए हो जाता है। इसके कई साक्षात् उदाहरण भी देखने को मिले हैं। इस ध्वनि के पश्चात् आत्मिक शांति हेतु ध्यान के कुछ सूत्रपदों का उच्चारण करें- (१) ज्ञानानन्दस्वरूपोऽहं (शक्तिरूप मे मेरी आत्मा अनन्तज्ञानरूप है) (२) परमानन्दस्वरूपोऽहं (मेरी आत्मा में परम आनन्द का स्रोत प्रवाहित हो रहा है) (३) चिच्चैतन्यस्वरूपोऽहं (शुद्ध चैतन्य स्वभाव से युक्त मेरी आत्मा है) (४) चिन्मयज्योतिस्वरूपोऽहं (चैतन्य की परमज्योति से मैं समन्वित हूँ) (५) चिच्चिंतामणिरूपोऽहं (चैतन्यरूप चिन्तामणिरूप से युक्त मेरी आत्मा है) (६) शुद्धबुद्धस्वरूपोऽहं (शुद्ध बुद्ध स्वभाव से मैं समन्वित हूँ) (७) नित्यनिरंजनरूपोऽहं (निश्चयनय से समस्त कर्मरूपी अंजनकालिमा से मैं रहित हूँ) पुन: अपने मन में पूर्ण स्वस्थता का अनुभव करते हुए पिण्डस्थ ध्यान के लिए तैयार हो जाएँ अर्थात् पिण्ड-शरीर में स्थित आत्मा का चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है। इसमें पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्वरूपवती ये पाँच धारणाएँ होती हैं।
पार्थिवी धारणा (चित्त की चंचलता में रुकावट)
शरीर पर कम से कम परिग्रह हो और निराकुल चित्त होकर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से चटाई पर बैठकर इस धारणा के अन्तर्गत विचार कीजिए- मध्यलोक प्रमाण एक राजू (असंख्यातों मील का) विस्तृत बहुत बड़ा गोल क्षीरसमुद्र है अर्थात् जम्बूद्वीप से लेकर अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात योजन का क्षीरसागर ध्यान में देखें। दूध के समान सफेद जल से वह समुद्र लहरा रहा है और समुद्र के बीचोंबीच में एक लाख योजन (४० करोड़ मील) विस्तार वाला खिला हुआ एक दिव्य कमल है, जिसमें एक हजार पत्ते हैं, वे सब पत्ते सुवर्ण के समान चमक रहे हैं। कमल के बीच की कर्णिका सुमेरुपर्वत के समान ऊँची उठी हुई है, वह पीले रंग की है और अपनी पराग से दशों दिशाओं को पीत प्रभा से सुशोभित कर रही है। भव्यात्माओं! जैन आगम की भाषा में ऊपर समुद्र और कमल आदि का प्रमाण बताया है, इसका सारांश यह है कि आप अपने चिन्तन में जितना बड़ा से बड़ा समुद्र देख सके, देखें और उसके बीच में एक हजार आठ पंखुड़ियों का कमल देखें। मन को सुमेरु के समान ऊँचा मानकर कमल की कर्णिका को ऊँची उठी हुई देखें। पुन: आप देखिए कि उस कर्णिका पर एक श्वेत वर्ण का ऊँचा सिंहासन है उस पर मैं भगवान् आत्मा के रूप में विराजमान होकर ध्यान में तल्लीन हूँ। यहाँ भावों की उच्चता ही कर्मों की निर्जरा कराएगी, आध्यात्मिक ज्योति से आत्मा प्रकाशित हो जायेगी। यही आध्यात्मिक ऊर्जा है जिससे शारीरिक और मानसिक शक्ति प्राप्त होती है। इस समय आप मन ही मन निम्न पंक्तियाँ पढ़ें-
मेरा तनु जिनमंदिर उसमें, मन कमलासन शोभे सुन्दर।
उस पर मैं ही भगवान् स्वयं, राजित हूँ चिन्मय ज्योतिप्रवर।।
मैं शुद्ध बुद्ध हूँ सिद्ध सदृश, कर्मांजन का कुछ लेप नहीं।
मैं नमूँ उसी शुद्धात्मा को, मेरा पर से संश्लेष नहीं।।
(इसके साथ ही शांति और शिथिलता का सुझाव दीजिए।
शांत………………….. शिथिल……………..)
अनंतर आप ऐसा चिंतवन कीजिए कि मेरी आत्मा सम्पूर्ण राग-द्वेषमय संसार को और समस्त कर्मों को नष्ट करने में सक्षम है। ऐसा बार-बार विचार करते हुए अपने उपयोग को उसी में तन्मय कर दीजिए। यहाँ ध्यान के निम्न सूत्र पदों को पढ़ लीजिए- ‘‘ज्ञानपुंजस्वरूपोऽहं, नित्यानंदस्वरूपोऽहं, सहजानंदस्वरूपोऽहं, परम-समाधिस्वरूपोऽहं, परमस्वास्थ्यस्वरूपोऽहं।’’ इस चिन्तनधारा के साथ प्रथम पार्थिवी धारणा समाप्त हुई और अब द्वितीय धारणा के लिए अगला दिन निर्धारित कीजिए, ताकि एक दिन का अभ्यास दीर्घकालीन न होने पाए अन्यथा मस्तिष्क पर भार अनुभव होने लगेगा।
आग्नेयी धारणा’’ (कर्मों को जलाने की एक प्रक्रिया)
इस धारणा के अन्तर्गत चिन्तन कीजिए कि मेरे नाभिस्थान में सोलह दलों वाला खिला हुआ एक सफेद कमल है। उस कमल की कर्णिका पर ‘‘र्हं’’ बीजाक्षर पीली केशर से लिखा हुआ देखिए, पुन: दिशा के क्रम से प्रत्येक दलों (पत्तों) पर केशर से ही अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ¸, ऌ, ॡ¸, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, इन सोलह स्वरों को लिख लें। पुन: इन सोलहों स्वर एवं र्हं बीजाक्षर पर अपने मन को केन्द्रित करके इनका ध्यान कीजिए। मन को अशुभ से शुभ की ओर ले जाने की यह एक उत्तम प्रक्रिया है, उस समय शारीरिक और मानसिक स्थिरता की परम आवश्यकता है अत: चंचल चित्तरूपी बंदर को एकदम अनुशासित रखिए तब आपको ये अक्षर और कर्णिका का महामंत्र स्पष्ट दिखने लगेगा। इसके आगे आप देखें कि इसी कमल के ठीक ऊपर हृदय स्थान पर औंधा मुँह करके (नीचे को लटकता हुआ) एक मटमैले रंग का आठ दल का कमल बना हुआ है, उसके आठों दल पर क्रम से ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, वेदनीय कर्म, मोहनीय कर्म, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अन्तराय इन आठों कर्मों के नाम काले रंग से लिखे हुए हैं। पुनश्च ध्यान की अगली शृँखला में देखें और अनुभव करें कि नाभिकमल की कर्णिका के ‘‘र्हं’’ महामंत्र के रेफ से धुँआ निकल रहा है, कुछ ही क्षणों में उस धुँए में से अग्नि के स्फुलिंगे (चिंगारियाँ) निकलने लगीं तब अग्नि की लौ ऊपर को उठकर आठ कर्म वाले कमल को जलाने लगी और धीरे-धीरे वही अग्नि ज्वाला बनकर मस्तक के ऊपर पहुँच गई, पुन: वह अग्नि त्रिकोणाकार मण्डल के आकार में परिवर्तित हो गर्ई अर्थात् अग्नि की एक लकीर मस्तक के दार्इं ओर, एक बार्इं ओर गई और नीचे दोनों लकीरों के मिल जाने से शरीर का त्रिकोणाकार अग्निमंडल बन जाता है। इस समय यह चिन्तन करें कि धधकती हुई यह अग्नि अंदर में तो कमलों को जला रही है और बाहर में औदारिक शरीर को भस्म कर रही है। चिन्तन के इन क्षणों में घबड़ाघट बिल्कुल नहीं होना चाहिए क्योंकि इस ध्यान के माध्यम से अनेक भवों में संचित पापकर्म तो नष्ट होंगे ही, साथ में तमाम शारीरिक रोगों का विनाश होकर स्वस्थता का अनुभव भी होगा। अब आगे देखें कि अग्निमंडल के त्रिकोणाकार की तीनों लकीरों में ‘‘रं रं रं’’ ऐसे अग्निबीजाक्षर लिखे हुए हैं और तीनों कोणों पर स्वस्तिक बने हैं तथा स्वस्तिक के पास भीतरी भाग में ‘‘ॐ र्रं’’ ऐसे बीजाक्षर लिखे हुए हैं। पुन: चेतावनी दी जा रही है कि जलती हुई अग्नि को देखकर मन को विचलित नहीं करना है क्योंकि आत्मा चिच्चैतन्यस्वरूप अमूर्तिक है अत: अग्नि के द्वारा वह कभी जल नहीं सकती है, यह तो अशुभ कर्मों को जलाने का एक तरीका है और इसमें सफलता प्राप्त करते ही आपको परम स्वस्थता की अनुभूति होगी। इस धारणा में ध्यान की समापन बेला में अब पुन: देखिए कि वह अग्नि धीरे-धीरे शांत हो गई है, जिससे हमारी आत्मा पर राख का पुंज इकट्ठा हो गया है। पुन: पाँच दीर्घ श्वांस लेते हुए आज के ध्यान को तीन बार निम्न वाक्य बोलते हुए समाप्त कीजिए- ‘‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, मुझे कोई रोग नहीं है।’’ इस प्रकार पिण्डस्थ ध्यान के प्रकरण में दो धारणाओं का यहाँ वर्णन किया गया है। आगे की धारणाएँ अगले दिन के ध्यान में करें। नोट-उपर्युक्त ध्यान के प्रयोग से अनेक भाइयों को ब्लडप्रेशर, शुगर एवं हार्ट की बीमारियों में आशातीत लाभ मिला है एवं कई बहनों ने माइग्रेन, सिरदर्द, साइनस एवं शरीर के दर्दों में काफी आराम का अनुभव किया है अत: पाठकगण भी इसे दिन में एक दो अथवा तीन समय प्रयोग करे अपने अनुभव से हमें अवगत करावें तो ध्यान की सार्थकता का परिचय अन्य लोगों को भी प्राप्त हो सकेगा। अब इसी शृँखला में प्रस्तुत हैं पिण्डस्थ ध्यान की अगली धारणाएँ-
१.सर्वप्रथम आप मंदिरजी की स्वाध्यायशाला में अथवा घर के किसी एकांत स्थान में स्थिरचित्त होकर ध्यान के लिए पद्मासन, अर्धपद्मासन या सुखासन से बैठकर आँखें कोमलता से बंद करें।
२.बाएँ हाथ की हथेली पर दाएँ हाथ की हथेली रखकर शरीर को तनावमुक्त करें। पृष्ठ रज्जु बिल्कुल सीधी हो, न अधिक अकड़न न अधिक झुकाव हो किन्तु निराकुल, शान्तचित्त होकर बैठें।
३. इसके पश्चात् ॐ की नव बार ध्वनि निकालते हुए दीर्घ श्वांस का अभ्यास करें। पुन: मानसिक स्थिरता के लिए ध्यान के कुछ सूत्रपदों का उच्चारण कीजिए- अनन्तज्ञानस्वरूपोऽहं, अनन्तदर्शनस्वरूपोऽहं, अनन्तवीर्यस्वरूपोऽहं, सहजानन्दस्वरूपोऽहं अब ध्यान की धारा में अपने चित्त को प्रवाहित कीजिए और पार्थिवी तथा आग्नेयी धारणा के अन्तर्गत जो-जो आपने चिन्तन किया था कि क्षीरसागर के मध्य ऊँचे कमल की कर्णिका पर एक सिंहासन के ऊपर मैं एक स्वच्छ अन्तरात्मा के रूप में विराजमान हूँ और चिन्तन के आधार पर मुझे अपने को परमात्मा बनाना है।
श्वसना (वायवी) धारणा-अब देखिए कि आकाश में चारों तरफ से प्रलयकारी तेज हवा चलने लगी। यह हवा मेरुपर्वत को भी प्रकम्पित कर देने को आतुर है किन्तु आप चिन्ता मत कीजिए क्योंकि आपकी ध्यानस्थ आत्मा को यह वायु अणुमात्र भी हिला नहीं सकती है। वायुमण्डल गोल आकाररूप से परिणत हो गया है, इस मण्डल में जगह-जगह ‘स्वाय-स्वाय’ ये वायु के बीजाक्षर सफेद रंग से लिखे हैं। आगे देखें कि वह प्रलयंकारी वायु मेरे शरीर में प्रविष्ट हो गई है और वह त्रिकोणाकार शरीर पर ढ़की हुई भस्म ढाक को उड़ा रही है अर्थात् इस हवा से कर्मों की रज उड़ गई और आत्मा स्वच्छ हो गई है। इस वायवी धारणा के समय निम्न मंत्र का चिन्तन कीजिए- ‘‘ॐ ह्रीं अर्हम् श्रीजिनप्रभंजनाय कर्मभस्मविधूननं कुरू कुरू स्वाहा’’ पुन: अनुभव करें कि यह वायु रुक गई है और हवा की हलचल समाप्त हो गई है। मैं अब ज्ञान का पुंज बन गया हूँ, सम्पूर्ण अज्ञानता मेरे हृदय से दूर हट गई है। इतना चिन्तन भी आपको बहुत शांति तथा सुख प्रदान करेगा अत: मात्र यह अनुभव कीजिए कि मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ मुझे कोई रोग नहीं है। तीन बार पुन: महामंत्र का स्मरण करते हुए तीन बार दीर्घ श्वासोच्छ्वास लें और आँख खोलकर, हाथ जोड़कर, पंचपरमेष्ठियों को नमन करते हुए निम्न पद्य बोलें-
संसार के भ्रमण से अति दूर हैं जो, ऐसे जिनेन्द्रपद में नित ही नमूँ मैं।
सम्पूर्ण सिद्धगण को सब साधुओं को, वंदूँ सदा सकल कर्म विनाश हेतू।।१।।
पुन: अगली वारुणी धारणा में प्रवेश करें।
वारुणी धारणा-अब चिन्तन करें कि आकाश में बादल छा गए हैं, बिजली चमक रही है और देखते ही देखते मूसलाधार बरसात शुरू हो गई। आकाशमण्डल में चारों ओर ‘‘पं पं पं’’ बीजाक्षर लिखे हुए हैं। वर्षा की अमृत सदृश बूँदें मेरी आत्मा का प्रक्षालन कर रही हैं। इस दृश्य का चिन्तन करते हुए निम्न मंत्र पढ़ें- ‘‘ॐ ह्रीं अर्हम् श्रीजिनपर्जन्याय कर्ममलप्रक्षालनं कुरू कुरू स्वाहा।’’ इस प्रकार वर्षा से शुद्ध होकर मेरी आत्मा स्फटिक के समान शुद्ध हो रही है। मंत्र पढ़िए—ॐ ह्रीं शुद्धात्मने नम:, ॐ ह्रीं विश्व-रूपात्मने नम:, ॐ ह्रीं परमात्मने नम:। अब आगे पंचम तत्वरूपवती धारणा का अवलम्बन लीजिए-
तत्वरूपवती धारणा- उपर्युक्त मंत्रों के उच्चारण के पश्चात् शरीर में शिथिलता एवं शांति का सुझाव देते हुए मन को स्थिर करें, पुन: चिन्तन करें कि मेरी आत्मा सप्तधातु से रहित पूर्णचन्द्र के समान प्रभाव वाली सर्वज्ञ के सदृश बन गई है। अब मैं अतिशय से युक्त, पंचकल्याणकों की महिमा से समन्वित होकर देव, दानव, धरणेन्द्र आदि से पूजित हो गया हूँ। अनन्तर मैं आठ कर्मों से रहित निर्मल पुरुषाकार, नित्य, निरंजन परमात्मा बन गया हूँ। यह चिन्तन करते-करते आप पिण्डस्थ ध्यान की चरम सीमा तक पहुँच गए हैं।
अपने पिण्ड- शरीर के अंदर स्थित आत्मा का ध्यान ही पिण्डस्थ ध्यान है। इसका निश्चल ध्यान करने वाले योगीजन अन्य लोगों से दु:साध्य ऐसे मोक्षसुख को भी प्राप्त कर लेते हैं तो अन्य शारीरिक सुखों की तो बात ही क्या है। जिस प्रकार से सूर्य के उदित होते ही उल्लू पलायमान हो जाते हैं उसी प्रकार से इस पिण्डस्थ ध्यानरूपी धन के समीप होने पर विद्या, मण्डल, मंत्र, यंत्र, इंद्रजाल के आश्चर्य, सिंह, सर्प तथा दैत्य आदि नि:सारता को प्राप्त हो जाते हैं एवं भूत, पिशाच, ग्रह, राक्षस आदि कुछ भी उपद्रव करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। ऐसा इस ध्यान का अचिन्त्य प्रभाव जानना चाहिए।
मेरे हृदयाम्बुज में नितप्रति, चिन्मय ज्योति भगवान रहे।
मेरे अन्तर में आनंदघन, अमृतमय पूर्ण प्रवाह बहे।।
वह ही आनन्द घनाघन हो, कलिमल को दूर करे क्षण में।
सब दुरित सूर्य का ताप शमन, कर शाश्वत शांति भरे मुझमें।।
पुन: आँखें खोलकर हाथ जोड़कर परमात्मा को नमन करते हुए ध्यान को सम्पन्न कीजिए। अब पदस्थ ध्यान का वर्णन प्रारंभ किया जाता है। पदस्थ ध्यान क्या है ?-पवित्र मंत्रों के अक्षर पदों का अवलम्बन लेकर उसमेें तल्लीन हो जाना पदस्थ ध्यान कहलाता है। इसके बहुत भेद हो जाते हैं, जो कि विभिन्न मंत्रों पर आधारित हैं।
पिण्डस्थ ध्यान को पदस्थ से पूर्व क्यों बतलाया है ?- गृहस्थाश्रम के अनेकों प्रपंचों में उलझे हुए मन को कोई भी एक मंत्र पर किंचित् क्षण के लिए भी टिका नहीं सकता है और मन को खाली बैठना भी आता नहीं, अत: वह इधर-उधर के चक्कर में ही पुन: घूमने लगता है अत: उसके लिए जितनी भी सामग्री दी जाएगी, उतना ही अच्छा है क्योंकि उतनी देर तक तो कम से कम वह बाहर के विषयों से अपने को हटाकर इन धारणाओं के चिन्तन में ही उलझेगा तो अच्छा ही है। यदि एक पद पर ही मन को स्थिर करना सरल होता तो आचार्य पहले पदस्थ ध्यान को कहकर फिर पिण्डस्थ को कहते। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पिण्डस्थ ध्यान का ही पहले अभ्यास करना चाहिए। अनन्तर उसमें परिपक्व हो जाने के बाद पदस्थ ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।
पदस्थ ध्यान कैसे प्रारंभ करें ?- सर्वप्रथम आप शुद्ध मन से शुद्धवस्त्र धारण कर किसी एकांत स्थान अथवा पार्क जैसे खुले स्थान पर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाएं। शरीर पर पहने हुए वस्त्रों के अतिरिक्त समस्त परिग्रह को त्यागकर स्वाधीनता का अनुभव करते हुए तन-मन में शिथिलता का सुझाव दें और हाथ जोड़कर प्रार्थना करें-
तर्ज-मैं चंदन बनकर तेरे…………..
हे प्रभु! मैं अपने आतम में ऐसा रम जाऊं।
संसार के बंधन से मैं मुक्त हो जाऊं।।हे प्रभु.।।
संकल्प विकल्पों का यह सागर संसार है।
सागर की तरंगों से अब, मैं ऊपर उठ जाऊं।। हे प्रभु.।।१।।
दु:खों की पर्वतमाला कब टूट पड़ेगी मुझ पर।
उस पर्वत पर हे भगवन्! मैं कैसे चढ़ पाऊं।।हे प्रभु.।।२।।
आतम सुख के अमृत में मैं डूब गया अब स्वामी।
उसका आस्वादन लेकर, ‘‘चन्दना’’ सहज सुख पाऊं।।हे प्रभु.।।३।।
अथवा यह दूसरी प्रार्थना भी बोल सकते हैं—
तर्ज-कभी राम बनके………………….
निज ध्यान करने, गुणगान करने,
चले आना आतम में चले आना।।टेक.।।
बड़ा चंचल है मन इसको बांधो। बड़ा नश्वर है तन इसको साधो।।
शुद्धात्म भजने, परमात्म भजने, चले आना आतम में चले आना।।१।।
कभी ऊँकार में मन रमाओ। कभी मन में प्रभू को बसाओ।।
मंत्र जाप करने, मन का पाप हरने, चले आना आतम में चले आना।।२।।
मन के मंदिर में वेदी बनाओ। उस पे आतम प्रभू को बिठाओ।।
स्वातम ध्यान करने, मन एकाग्र करने, चले आना आतम में चले आना।।३।।
भावों का छत्र प्रभु पे लगाओ। ‘‘चन्दना’’ श्रद्धा चंवर ढुराओ।।
प्रभु को प्राप्त करने, आतम लाभ वरने, चले आना आतम में चले आना।।४।।
इसके पश्चात् बाएँ हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रखकर, आँखें कोमलता से बंद करके भगवान् के समान शान्तमुद्रा में बैठ जाएं और ॐकार का नाद करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए आत्मशांति का अनुभव करें- १. ॐ अर्हत्स्वरूपोऽहं २. ॐ तीर्थस्वरूपोऽहं ३. ॐ जिनस्वरूपोऽहं ४. ॐ सिद्धस्वरूपोऽहं ५. ॐ आत्मस्वरूपोऽहं पुन: अपनी अन्तर्यात्रा प्रारंभ कर दें, इस यात्रा का लक्ष्य बिन्दु है-ॐ बीजाक्षर। कल्पना कीजिए कि मेरे ठीक सामने केशरिया वर्ण का एक ‘‘ॐ’’ मंत्र विराजमान है। इसी ॐ पर मन को केन्द्रित करें, ॐ के प्रत्येक अवयव में केशरिया रंग भरा हुआ देखें। अनुभव करें…..मन को बाहर न जाने दें…..शिथिलता का सुझाव देते हुए ध्यान की अगली शृँखला में प्रवेश करें और चिन्तन करें कि- ‘‘ॐ’’ यह प्रणवमंत्र है, यह पंचपरमेष्ठी वाचक मंत्र समस्त द्वादशांग का वाचक है। इसमें यथास्थान पाँचों परमेष्ठियों को विराजमान करते हुए उनके दर्शन करें-ॐ के अंदर प्रथम सिरे पर ‘‘अरिहंत’’ भगवान् को देखें और ‘‘णमो अरिहंताणं’’ पद का स्मरण करते हुए भावों से ही अरिहंत परमेष्ठी को नमन करें और आगे चलें अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला पर, जहाँ सिद्ध भगवान विराजमान हैं। आठों कर्मों से रहित, निराकार-अशरीरी सिद्ध भगवान की प्रतिमा पर मन को एकाग्र करते हुए आप ‘‘णमो सिद्धाणं’’ पद का स्मरण करें और उन्हें नमन करते हुए अपने मनवांछित कार्य की सिद्धि करें। पुनश्च तीसरे परमेष्ठी आचार्य देव हैं उनके दर्शन करने के लिए ॐ के मध्य भाग पर मन को लाएं और चिन्तन करें कि पिच्छी-कमण्डलु से सहित एक दिगम्बर मुनिराज यहाँ विराजमान हैं, ये ही चतुर्विध संघ के नायक आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। इनके चरणों में श्रद्धापूर्वक नमन (भावों से ही) करें और ‘‘णमो आइरियाणं’’ पद का मानसिक उच्चारण करते हुए ‘‘ॐ’’ की मात्रा अर्थात् बड़े ऊ के आकार में लिखा गया जो ओकार है उसमें चतुर्थ उपाध्याय परमेष्ठी को दिगम्बर मुनि मुद्रा में अध्ययन-अध्यापन करते हुए देखें। इनके दर्शन से अज्ञान का नाश एवं ज्ञान का विकास होगा, ‘‘णमो उवज्झायाण्’’ के उच्चारणपूर्वक उनके चरणों में नमस्कार करें और अंतिम परमेष्ठी सर्वसाधुओें के दर्शन करने हेतु ‘‘ॐ’’ के निचले भाग में अपनी यात्रा का पड़ाव डालें। पुन: चिन्तन करें कि यहाँ सामायिक अवस्था में लीन महान सन्त-साधु विराजमान हैं, जो संसार, शरीर, भोगों से पूर्ण विरक्त हैं। उनके दर्शन करते हुए मन को केन्द्रित कर दें, उनकी वीतरागी मुद्रा पर उक्त निम्न पंक्तियाँ पढ़ते हुए तल्लीन हो जाएँ, ताकि मन कहीं बाहर न जाने पावे-
हे गुरुवर! तेरी प्रतिमा ही, तेरा अन्तर दर्शाती है।
यह नग्न दिगम्बर मुद्रा ही, प्राकृतिक रूप दर्शाती है।।
अर्थात् जिनकी काया से ही बिना कुछ बोले ही मोक्षमार्ग का दिग्दर्शन हो रहा है ऐसे साधु परमेष्ठी के चरणों में नतमस्तक होकर ‘‘णमो लोए सव्वसाहूणं’’ का उच्चारण करें और अपनी आत्मा में ये विलक्षण आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति का अनुभव करें। दो मिनट के लिए मन को यहीं स्थिर कर दें, शरीर में शिथिलता एवं शांति का सुझाव दें, पुनश्च- परमेष्ठियों की शक्ति से समन्वित अनन्तशक्तिमान् ॐ मंत्र के चारों ओर एक गोलाकार से निकलती हुई सूर्य की किरणों का दर्शन करें अर्थात् एक सूर्यबिम्ब में विराजमान ॐ बीजाक्षर पर चित्त को केन्द्रित करें, तब सूर्य जैसा प्रकाश मन-मस्तिष्क में भरता महसूस होगा एवं उस समय अनुभव करें- ‘‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ, मुझे कोई रोग नहीं है’’ (तीन बार इस वाक्य को बोलें) पुन: महामंत्र के स्मरणपूर्वक तीन बार दीर्घ श्वासोच्छ्वास लें और आँखों को अभी बंद रखते हुए ही निम्न श्लोक का उच्चारण करें-
अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा कुर्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।
इस मंगलपाठ के अनन्तर हाथ जोड़कर पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते हुए आँखों को खोलें। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में ॐ बीजाक्षर की यह संक्षिप्त ध्यान प्रक्रिया बतलाई गई है। आगे इसी तरह से ह्रीं, क्लीं, अर्हं, असिआउसा आदि बीजाक्षरों को भी अपने उत्तमांगों में स्थापित करके इनका ध्यान भी किया जा सकता है।
ध्यान की उपयोगिता-स्वास्थ्य का पहला लक्षण मेरुदण्ड लचीला और स्वस्थ रहे। मेरुदण्ड को लचीला रखने के लिए मेरुदण्ड की क्रियाएँ और सीधा बैठना आवश्यक है। मेरुदण्ड के मात्र सीधा रहने से प्राण-धारा का सन्तुलन होने लगता है, जिससे व्यक्ति शक्तिशाली और प्राणवान बनता है। दीर्घ श्वांस से एकाग्रता आती है और गुस्सा शांत होता है। योगनिद्रा से तनाव में कमी और शांति मिलती है। विधायक सोच और मंगल भावना से मैत्री का विकास होता है। योग और मुद्राओं से स्वभाव बदलता है।
ह्रीं का ध्यान-ह्रीं क्या है ? ह्रीं एक बीजाक्षर वर्ण है। इस एक ह्रीं के अन्दर चौबीस तीर्थंकर समाहित हैं जो कि भिन्न-भिन्न वर्ण के हैं-
वरनाद द्वितीया चंद्र सदृश, बिन्दू नीली है कला लाल।
ईकार हरित ह्र पीत इन्हीं में, उन-उन वर्णी जिन कृपालु।।
चंदाप्रभु पुष्पदंत शशि में, बिन्दू में नेमी मुनिसुव्रत।
श्री पद्मप्रभु जिन वासुपूज्य हैं, कमलवर्ण सम कलामध्य।।१।।
ई मात्रा मध्य सुपार्श्व पार्श्व, ह्र बीज में सोलह तीर्थंकर।
ऋषभाजित संभव अभिनन्दन, सुमती शीतल श्रेयोजिनवर।।
श्री विमल अनंत धर्म शांति, कुंथू अर मल्लि नमी सन्मति।
ये ह्रीं मध्य चौबिस जिनवर, इनको वंदूँ ध्याऊँ नितप्रति।।२।।
ध्यान प्रारंभ करें- सर्वप्रथम आप शुद्ध मन से शुद्ध वस्त्र धारण कर किसी एकांत स्थान अथवा पार्क जैसे खुले स्थान पर पद्मासन, अर्धपद्मासन अथवा सुखासन से बैठ जाएँ। शरीर पर पहने हुए वस्त्रों के अतिरिक्त समस्त परिग्रह को त्याग कर स्वाधीनता का अनुभव करते हुए तन-मन में शिथिलता का सुझाव दें और हाथ जोड़कर प्रार्थना कीजिए-
तर्ज-आवाज देकर तुम्हें………….
चलो मन को अन्तर की यात्रा कराएँ। भटकते विचारों को मन से हटाएँ।।
मेरी आतमा सत्य शिव सुन्दरम् है। कुसंगति से उसमें हुआ मति भरम है।।
पुरुषार्थ कर शुद्ध आतम को ध्याएँ। भटकते विचारों को मन से हटाएँ।।१।। चलो……
न हम हैं किसी के न कोई हमारा। सभी से जुदा आतमा है निराला।।
उसे ‘चन्दना’ खोज करने से पाएँ। भटकते विचारों को मन से हटाएँ।।२।। चलो…..
इसके पश्चात् बाएँ हाथ की हथेली पर दाहिने हाथ की हथेली रखकर आँखें कोमलता से बंद करके भगवान के समान शांत मुद्रा में बैठ जाएँ और ॐकार का नाद करते हुए निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुए आत्म शांति का अनुभव करेें- १. श्री सुखसम्पन्नोऽहं २. ह्रीं गुणसम्पन्नोऽहं ३. धृतिगुणसम्पन्नोऽहं ४. श्रीगुणसम्पन्नोऽहं ५. कीर्तिसम्पन्नोऽहं पुन: अपनी अन्तर्यात्रा प्रारंभ कर दें, इस यात्रा का लक्ष्य बिन्दु है-ह्रीं बीजाक्षर। चौबीस तीर्थंकरों को नमन करते हुए ध्यान का प्रथम चरण प्रारंभ करें-
१. ध्यान का प्रथम चरण’ -सबसे पहले चित्त के द्वारा ‘ह्रीं’ पद लिखें। ह्र, ई की मात्रा, कला (लाइन) चन्द्राकार, बिन्दु। पूरा ह्रीं देखें……अनुभव करें……दिख रहा है। शांत….दर्शन करें। (२ मिनट)
२. ध्यान का द्वितीय चरण- यह ह्रीं पद पाँच रंगों से युक्त है। कहाँ कौन सा वर्ण है, देखें….लाल वर्ण की कला देखकर पुन: सर्वप्रथम पीत वर्ण का ह्र देखें। दो लाइनों में लिए गए ह्र के अन्दर तपाए हुए स्वर्ण के समान पीला-पीला रंग भरा हुआ है। देखें….अनुभव करें….दिख रहा है। शांत…..दर्शन (१ मिनट) पुन: ईकार की मात्रा हरे रंग की देखें। दो लाइनों में खींची गई इस मात्रा के अन्दर मरकत मणि के समान हरा रंग भरा हुआ है। देखें…..दिख रहा है…..अनुभव करें….शांत….दर्शन (१ मिनट) इसके पश्चात् लाइन (कला) लाल वर्ण की देखें। दो लाइनों से युक्त इस कला के अंदर मूंगे के समान लाल-लाल रंग भरा हुआ है। देखें….अनुभव करें……दिख रहा है…..शांत…..दर्शन (१ मिनट) अब आगे चित्त को सभी बाह्य विकल्पों से खींचकर अन्दर की ओर ले आएं और ह्रीं के दार्इं ओर ऊपर श्वेत वर्ण का अर्धचन्द्र देखें। चमकता हुआ अर्ध चन्द्रमा बिल्कुल दूध जैसा सफेद। अनुभव करते हुए देखें…..दिख रहा है। इस चन्द्रमा को देखने से चित्त-हृदय धवल चाँदनी के सदृश स्वच्छ-निर्मल हो जाएगा। शांत….दर्शन (१ मिनट) यह पूरी पंचवर्णी ह्रीं एक बार पूरी तौर से देख जाएं। शांत….दर्शन।
३. ध्यान का तृतीय चरण- पंचवर्णी ह्रीं में क्रम-क्रम से चौबीसों तीर्थंकर विराजमान करें। सर्वप्रथम पीले ‘ह्र’ के अंदर पीतवर्ण के सोलह तीर्थंकर हैं। देखें…..ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, शीतल, श्रेयांस, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, नमि और वर्धमान। चित्त को एकाग्र करके सोलह तीर्थंकरोें को देखने का प्रयास करें। देखें….दिख रहे हैं….शांत……। पुन: हरी ईकार मात्रा के अन्दर हरितवर्ण के २ तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ को विराजमान करें। देखें……अनुभव करें। दिख रहा है….शांत…..दर्शन। इसके पश्चात् क्रमानुसार लालवर्ण की कला (लाइन) के अंदर लाल वर्ण के दो तीर्थंकर पद्मप्रभु और वासुपूज्य भगवान को विराजमान करें। देखें…..अनुभव करें……शांत…..दिख रहा है। अब श्वेत वर्ण के अर्ध चन्द्र में चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत इन दो तीर्थंकरों को विराजमान करके देखें। शांत…..देखें…….दिख रहा है। अन्त में नीली बिन्दु में नीलवर्ण के तीर्थंकर नेमिनाथ, मुनिसुव्रत को विराजमान करें। देखें……दिख रहा है। इस प्रकार क्रम से पूरी पंचवर्णी ह्रीं के अंदर क्रम-क्रम से विराजमान समस्त तीर्थंकरों को एक बार देख जाएं। शांत……शांत……। चित्त की यात्रा पूरी होने वाली है। देखें….अनुभव करें……पूरा ह्रीं दिख रहा है। ध्यान का अंतिम चरण-‘मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ मुझे कोई रोग नहीं है’ (तीन बार इस वाक्य को बोलें) पुन: महामंत्र के स्मरणपूर्वक तीन बार दीर्घ श्वासोच्छ्वास लें। श्वांस छोड़ते समय पेट अन्दर और श्वांस भरते समय पेट बाहर और आँखों को अभी बंद रखते हुए निम्न श्लोक का उच्चारण करें-
शिवं शुद्ध बुद्धं, परं विश्वनाथम्। न देवो न बन्धु: न कर्ता न कर्म।।
न अंगं न संगं न इच्छा न कायं। चिदानंद रूपं नमो वीतरागम्।।
इस मंगलपाठ के अनन्तर हाथ जोड़कर पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करते हुए आँखें खोलें। इस प्रकार पदस्थ ध्यान में ह्रीं बीजाक्षर की यह संक्षिप्त ध्यान प्रक्रिया बतलाई गई है। आप उपर्युक्त ध्यान प्रक्रिया से शारीरिक एवं आत्मिक लाभ प्राप्त करें, यही हार्दिक भावना है। इस पदस्थ ध्यान में इन मंत्रों का ध्यान करना ही कहा है अर्थात् इन मंत्रों को हृदय, ललाट, नाभि, मस्तक, कंठ आदि स्थानों में स्थापित करके उस पर उपयोग को स्थिर करना चाहिए।
जाप्य-यदि आप ऐसा ध्यान करने में असमर्थ हैं तो आप इन मंत्रों की जाप्य भी कर सकते हैं। जाप्य करने के वाचक, उपांशु और मानस ऐसे तीन भेद हैं। वाचक जाप में शब्दों का उच्चारण स्पष्ट होता है। उपांशु में भीतर ही भीतर शब्द कंठ स्थान में गूंजते रहते हैं बाहर नहीं निकल पाते हैं किन्तु मानस जाप में बाहरी और भीतरी शब्दोच्चारण का प्रयास रुक जाता है, हृदय में ही मंत्राक्षरों का चिंतवन चलता रहता है। यही क्रिया ध्यान का रूप धारण करती है। वाचिक जाप से सौ गुणा अधिक पुण्य उपांशु जाप से होता है और उससे हजार गुणा अधिक पुण्य मानस जाप से होता है। महामंत्र के जाप मेें प्राणायाम विधि का विधान है अर्थात् णमोकार मंत्र के तीन अंश करिये ‘‘णमो अरहंताणं’’ इस पद के उच्चारण के साथ श्वांसवायु को अंदर ले जाइये और ‘‘णमो सिद्धाणं’’ इस पद के उच्चारण के साथ श्वांस वायु को बाहर निकालिये। इसी तरह ‘णमो आइरियाणं’ में श्वांस खींचना और ‘णमो उवज्झायाणं’ में श्वास को छोड़ना तथा ‘णमो लोए’ में श्वांस लेना और ‘सव्व साहूणं’ पद में छोड़ना। इस तरह एक गाथा महामंत्र के उच्चारण में तीन श्वासोच्छ्वास होते हैं। मुनियों की देववंदना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि प्रत्येक क्रियाओं में स्वासोच्छ्वास की गणना से ही महामंत्रपूर्वक कायोत्सर्ग करने का विधान है तथा श्रावकों के लिए भी ऐसा ही विधान है अत: इस महामंत्र का नव बार जाप करने से २७ उच्छ्वास होते हैं एवं १०८ जाप करने से ३०० उच्छ्वास हो जाते हैं। यह महामंत्र सर्वश्रेष्ठ अपराजित मंत्र है। ऐसे ही ‘अरहंत सिद्ध’ ‘अ सि आ उ सा’ ‘नम: सिद्धेभ्य:’ आदि अनेकों मंत्र हैं।
शांति मंत्र- ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथाय जगत् शांतिकराय सर्वोपद्रव शांतिं कुरु कुरु ह्रीं नम:। शांति की इच्छा करते हुए सदैव इस मंत्र का जाप करना चाहिए। अंगुलियों पर जाप करना या मणियों की अथवा सूत की माला पर भी जाप करना चाहिए। प्लास्टिक या लकड़ी की माला से जाप नहीं करना चाहिए। यह जाप पदस्थ ध्यान नहीं है किन्तु उस ध्यान के लिए प्रारंभिक साधन मात्र है।
रूपस्थ ध्यान- अरिहंत भगवान् के स्वरूप का विचार करना अर्थात् भगवान् समवसरण में द्वादश सभाओं के मध्य विराजमान हैं। उनका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है।
रूपातीत- सिद्धों के गुणोें का चिंतवन करना अर्थात् सिद्ध भगवान् अमूर्तिक, चैतन्यस्वरूप, पुरुषाकार निरंजन परमात्मा हैं, वे लोकाग्र में विराजमान हैं। तत्पश्चात् अपने आपको सिद्धस्वरूप समझकर उसी में लीन हो जाना, सो यह रूपातीत ध्यान है। इस प्रकार पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत इन चारों प्रकार के ध्यानों का अभ्यास करते हुए शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता प्राप्त होती है।