आत्मा के रहस्य को बतलाने वाले समयसार ग्रन्थ का गुरुमुख से अध्ययन करने पर ही आचार्यश्री कुन्दकुन्द स्वामी का अभिप्राय समझा जा सकता है अन्यथा वह महान शास्त्र शस्त्र का कार्य करके मानव को घायल कर देता है। गाथा नं. ३८ में आचार्य भगवन्त महामुनियों को संबोधित करते हुए कहते हैं—
अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणभइओ सदारूवी।
णवि अत्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तं पि।।
अर्थ
मैं एक हूँ, निश्चित ही शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमय हूँ और सदा अरूपी हूूँ। अन्य परद्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा कुछ नहीं है। इसकी आत्मख्याति टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि कहते हैं कि— यो हि नामानादिमोहोन्मत्त अर्थात् जो यह आत्मा अनादिकालीन मोह से उन्मत्त होने से अत्यन्त अज्ञानी हुआ था सो उसे संसार से विरक्त ऐसे गुरु ने—दिगम्बर मुनि ने बार-बार समझाया तब जैसे-तैसे बड़े प्रयत्न से यह समझकर ‘‘जैसे अपने हाथ की मुट्ठी में सोना रखा था
उसे भूलकर फिर उसे याद कर देख लेवें ’’ इस न्याय से अपनी परमेश्वरीस्वरूप आत्मा को जानकर श्रद्धान करके और उसी में आचरण रूप उसमें तन्मय होकर अच्छी तरह आत्माराम हो गया। तब चितन करने लगा कि ‘‘मैं नियम से अपने ही अनुभव से प्रत्यक्ष चैतन्य मात्र ज्योतिस्वरूप आत्मा हूँ ’’।
उपर्युक्त कथन शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से किया गया है। इसके विशेषार्थ में गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी ने लिखा है— ‘‘अनादिकाल से यह जीव मोह के उदय से अज्ञानी हो रहा था। जब दिगम्बर मुनिराज श्रीगुरु ने करुणा करके आत्मा का बोध कराया तब इसने यह समझ लिया कि ‘‘मैं एक हूूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञान दर्शनमय हूँ, अर्मूितक हूँ, मेरा अन्य अणुमात्र भी परद्रव्य कुछ नहीं है ’’ ऐसा भाव होने से दर्शन-ज्ञान-चारित्र के साथ एकता हुई।
मतलब पहले भेदरत्नत्रय को ग्रहण कर छठे गुणस्थान में प्रवृत्ति रूप चारित्र को पालने लगा पश्चात् अभेद रत्नत्रय के बल से श्रेणी में आरोहण कर पूर्णज्ञानी बन गया, तब मोहकर्म का जड़मूल से नाश हो गया। जैसे समुद्र की आड़ में कुछ आ जाये तब जल नहीं दिखता और जब आड़ दूर हो जाए तब प्रकट दिखता हुआ सब लोगों को प्रेरणा देने योग्य हो जाता है कि आओ! इसमें डुबकी लगाओ।
वैसे ही यह आत्मा मोह से भ्रमित होकर आच्छादित हो रहा था तब इसका प्रारूप नहीं दिखता था पुनः जब भ्रम दूर हुआ तब इसका स्वरूप प्रगट हुआ अतः आचार्यदेव प्रेरणा देते हैं कि यह आत्मा ज्ञान से लबालब भरा हुआ होने से महान समुद्र है। इसमें शांत रस रूप जल भरा हुआ है। इस ज्ञानसमुद्र में आप सभी लोग एक साथ निमग्न हो जाओ, खूब अवगाहन कर अनादिकालीन संसार ताप को दूर कर पूर्ण सुख का अनुभव करो।’’
इस गाथा की टीका में स्वयं अमृतचन्द्र सूरि ने भी कहा है कि निवण्ण गुरु के द्वारा प्रतिबोधित किए जाने पर मैं ज्ञानी हुआ हूँ। यहाँ निवण्ण गुरू से रत्नत्रयधारी आचार्य कुन्दकुन्द आदि दिगम्बर मुनि ही विवक्षित हैं। बिना गुरू के ज्ञान नहीं होता ऐसा ‘‘ज्ञानार्णव’’ में भी कहा है। यथा—
न हि भवति निवगोपक मनुपासित गुरुकुलस्य विज्ञानम्।
प्रकटितपश्चिमभागं पश्यत नृत्यं मयूरस्य।।
अर्थात् जिसने गुरुकुल की—मुनिसंघ की उपासना नहीं की, उसका विज्ञान-भेदज्ञान-कला या चतुराई प्रशंसा करने योग्य नहीं है किन्तु निन्दा सहित होता है। देखो! गुरू से नहीं सीखने वाला मयूर नृत्य करते समय अपना पृष्ठ भाग उघाड़ कर नृत्य करता है इसीलिए गुरुमुख से शास्त्रों का अध्ययन करना आवश्यक बताया गया है।
श्री जयसेनाचार्य ने तो व्यवहारनय और निश्चयनय की उपेक्षा को पुनः-पुनः कहा है इसलिए शुद्धनय से ही मैं टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावस्वरूप हूँ ऐसा निर्णय करना चाहिये पुनः व्यवहार नय के अवलंबन से आत्मा को शुद्ध करने के उपायभूत भेदरत्नत्रय को ग्रहण करना चाहिये तभी इस ग्रंथ को पढ़ने की सार्थकता है।