हमारे पूज्य अरिहंतों आचार्यों एवं ऋषि—मुनियों ने वर्तमान मानव पर्याय में सुख , शांति एवं स्वस्थ जीवन जीने की कला के साथ—साथ आगामी कला में मोक्ष सुख की प्राप्ति के अनेक सूत्र दिये हैं, उन सूत्रों में एक सूत्र है रात्रि भोजन त्याग अर्थात् दिवा भोजन। भारतीय संस्कृति के समस्त धर्मग्रंथों में रात्रि भोजन त्याग अर्थात् दिवा भोजन को उचित ठहराया है, किन्तु जितना विस्तृत , समीक्षात्मक, वैज्ञानिक तथ्यों से सहित सुंदर विवेचन जैन ग्रंथों में मिलता है उतना अन्य किसी धर्म ग्रंथों में नहीं मिलता । मानव की प्रकृति, स्वभाव शरीर एवं दिवा भोजन आदि पर अनेक वैज्ञानिकों ने शोध कार्य किये हैं। उन सभी ने रात्रि भोजन को अनुचित ही ठहराया है।
रात्रि भोजन प्रारंभ कब , क्यों, कैसे ?
जिस भारत भूमि पर हम निवास कर रहे हैं उस पर पहले भोगभूमि थी, परंतु जब भोगभूमि का अवसान होने लगा तब सूर्य , चन्द्र, तारे, आकाश में दिखाई देने लगे थे। कल्पवृक्षों से फल, रस, वस्त्र, प्रकाश आदि उपलब्ध होना बंद हो गये और भी अनेक प्रकार के परिवर्तन देखकर समस्त मानव जाति घबरा गयी और अपनी आजीविका की समस्या को लेकर प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के पिता अंतिम कुलकर नाभिराय (मनु) के पास पहुँचे, उन्होंने उन समस्याओं के समाधान हेतु उन्हें आदिनाथ के पास भेजा। आदिनाथ स्वामी ने असि, मसि, कृषि, शिल्प , विद्या और वाणिज्य इन षट् कर्मों का उपदेश देकर कहा कि जीवन निर्वाह के लिए दया, अहिंसादि के पालन और स्वस्थ रहने के लिए दिन में श्रम कर, एक या दो बार शुद्ध शाकाहारी भोजन करो और रात्रि में विश्राम करो। इस प्रकार रात्रि भोजन पूर्णत: निषिद्ध था, परंतु कालांतर में युग परिवर्तन के साथ इसका प्रारंभ क्यों हुआ इस पर दृष्टिपात करने पर अनेक कारण सामने आये हैं जैसे— रात्रि भोजन के कुप्रभावों की सही जानकारी का अभाव। सामाजिक और नौकरी पैशे की अव्यवस्थाएँ । कार्यालयों और दुकानों में भोजन अवकाश का समय निर्धारित न होना। असमय में बच्चों का स्कूल कालेज और टयूशन आदि पढ़ाई करना। सुबह की चाय, नाश्ता, लंच और स्वल्पाहार आदि प्रारंभ होने से दिन में निर्धारित समय पर भूख नहीं लगना। मन और इंद्रियों पर नियंत्रण का अभाव। भौतिक सुविधाओं की बढ़ती आवश्यकता और उनकी पूर्ति के कुप्रयास करना। आर्थिक समस्याओं के समाधान हेतु रात—दिन श्रम करना। सूर्य और कृत्रिम प्रकाश में अंतर की जानकारी का अभाव होना। रात्रि भोजन करने संबंधी तथाकथित मिथ्या धारणाएँ और भ्रामक प्रचार होना। पाश्चात्य संस्कृति व आधुनिकता का चरम सीमा पर प्रभाव होना। विवाह, पार्टी आदि में सामूहिक रात्रि भोज को देखकर रात्रि भोजन त्यागी को व्यंग्य तर्क—वितर्क करके जबरन रात्रि भोजन करने को बाध्य करना। टी.वी. सिनेमा आदि पर रात्रि भोजन में मौज मस्ती का प्रदर्शन होना और लारी, होटल, भोजनालय आदि में रात—दिन चाय—नाश्ता और भोजन का उपलब्ध होना। इसके अलावा, धार्मिक अनास्था के कारण धर्म और मोक्ष पुरूषार्थ के अभाव हो जाने और आधुनिकता बढ़ने से इस आधुनिक विज्ञान के परिवेश में न धर्माचरण, न सदाचरण, न जैनाचार और न कुलाचार रहा बल्कि जैसा मन में विचार आया अथवा जैसा वैज्ञानिकों ने कहा वैसा आचरण करने लगे। यदि कोई आस्थावान् धर्माचरण का पालन करते हुए रात्रि भोजन त्याग करता है तो उसे पतित करने के लिए अनेक तर्क कुतर्क करने लगे।
तर्क कुतर्क और रात्रि भोजन
कुतर्क करने वालों के सामने मौन रखना श्रेष्ठ है। यदि मौन न रह सके तो सटीक जवाब देकर मुख बंद करना चाहिए। हमारा भोजन मन बदलने का ट्रांसफार्मर है। प्राकृतिक नियमों के सामने तर्क नहीं, आस्था और तदनुरूप क्रिया चलती है। भारतीय संस्कृति का मूल आधार परिश्रम कर आजीविका चलाना, परस्पर सहयोग एवं शाकाहारी दिवा भोजन रहा है, परंतु जैसे—जैसे युग परिवर्तन होता गया वैसे —वैसे रहन सहन, खान—पान, बोल—चाल आदि में भी परिवर्तन होता गया। पहले लोग धर्मात्माओं के पीछे चलते थे, फिर परिवर्तन हुआ योद्धाओं के पीछे चलने लगे, फिर समय परिवर्तन हुआ धन के पीछे पड़ गये, अभी नेता और अभिनेता के पीछे पड़े हुए हैं। धर्म कर्म समाप्त सा हो गया है और विषय भोगों की पुष्टि के लिए धन संग्रह ही एक मात्र दृष्टि में रह जाने से जब चाहे, जैसा चाहे, वैसा खान—पान प्रारंभ हो गया है। युग परिवर्तन के इस दौर में आज तर्क उठने लगा कि रात्रि भोजन करने से क्या होता है ? उस प्राचीन काल में जब प्रकाश नहीं था, खाने को पर्याप्त भोजन नहीं था, ज्ञान नहीं था और इतनी व्यस्त जिंदगी नहीं थी, इसलिए रात्रि में भोजन नहीं करते थे, परंतु आज इन सबसे विपरीत परिस्थितियाँ, अत: रात्रि भोजन करने से कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसा तर्क देने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि जितने भी अन्याय, अत्याचार होते हैं वे प्राय: रात्रि के अंधकार में ही होते हैं । जो व्यक्ति निशाभोजी (रात्रिभोजी) होते हैं उनके अधिकांश परिणाम अन्याय, अत्याचार और पाप रूप ही होते हैं। स्मरण रहे कि भोजन हमारे मन को बदलने का ट्रांसफार्मर है क्योंकि जैसा भोजन करते हैं वैसे विचार आते हैं, और जैसे विचार आते हैं वैसा चरित्र निर्माण होता है। धर्म ग्रंथों में रात्रि भोजन हिंसादि पापों का कारण होने से त्याज्य बताया है, क्योंकि सूर्य प्रकाश के अभाव में अथवा कृत्रिम प्रकाश मे अनेक सूक्ष्म जीव कीट पतंगे आदि भोज्य पदार्थों में गिर जाते हैं और उनके भोज्य पदार्थों में मिल जाने पर उसे खा लेना सीधा—सीधा मांसाहार ही है। आज कुतर्क से अपनी कमजोरियों को छुपाने का प्रचलन बढ़ रहा है और धार्मिक आस्था भाव घट रहा है। ऐसे ही कुछ कुतर्क करने वाले लोगों की एक घटना यहाँ प्रासंगिक है। एक क्लब में रात्रि भोजन का आयोजन किया गया, वहाँ अनेक लोग आमंत्रित किये गए। उनमें जैन और सरदार दो मित्र भी आमंत्रित किये गये । जैन बंधु ने रात्रि भोजन करने से मना किया, तो सरदार मित्र ने पूछा— ‘‘क्यों भाई आप रात्रि भोजन क्यों नहीं करते? जैन साहब ने हिंसा, कीट—पतंगे आदि की थोड़ी बात कहना प्रारंभ किया ही था कि सरदार जी बीच में तपाक से बोले—’’ अरे जैन साहब आप भी कहाँ बेकवर्ड जमाने की सोचते हैं। इतने पढ़े—लिखे फॉरवर्ड होने के बाद भी आपको इतना भी ज्ञात नहीं कि वह जमाना अलग था जब लोग जंगलो में घास—फूस की कुटिया बनाकर रहते थे, रात्रि में कोई काम नहीं था और प्रकाश की समुचित व्यवस्था नहीं थी यदि हो भी जाती तो अनेक कीट पतंगे आकर भोजन में गिर जाते थे।’’ सरदार जी की बातें सुनकर अन्य लोग भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहने लगे ,सरदार जी ठीक कह रहे हैं अब समय बदल गया है, यह वैज्ञानिक युग है इस युग में रात्रि के समय भी दिन जैसा प्रकाश रहता है। स्टेडियम में तो रात को बिजली की रोशनी में मैच (खेल) भी खेले जाते हैं और अब मकान भी ऐसे बनाये जाते हैं कि कीट—पतंगे आदि से बचाव संभव है। अत: रात्रि भोजन करने में क्या हर्ज है। जैन मित्र ने अपने सरदार मित्र के कुतर्क को सुनकर अविलंब उत्तर देते हुए कहा— ‘‘ आप ठीक कहते हैं परंतु आप यह तो बतायें कि पुराने जमाने में जब बाल बनवाने के साधन उपलब्ध नहीं थे तब लोग दाढ़ी मूँछ और सिर के बाल रखते थे, परंतु आज तो जगह—जगह बाल बनवाने के सैलून खुल गये फिर आप सिर, दाढ़ी और मूँछ के बाल क्यों नहीं कटवाते ? अपने जैन मित्र का तर्क सुनके सरदारजी की बोलती बन्द हो गई। कुतर्क करने वालों के प्रश्नों के कुतर्क में उत्तर देकर ही चुप किया जाता है, पर मैं इन दोनों मित्रों के तर्क वितर्क से सहमत नहीं हूँ क्योंकि न तो सरदार जी रात्रि भोजन निषेध के कारणों से परिचित हैं तथा न ही जैन साहब सिक्खों के केश धारण करने की परम्परा से, बस दोनों ही कुतर्की हैं। दोनों को ज्ञात नहीं कि रात्रि भोजन त्याग की वैज्ञानिकता क्या है ? प्रकृति से इसका संबंध क्या है ? कर्म बंध क्यों और कैसे होते हैं और उन कर्मों का फल क्या है ?
शारीरिक संरचनानुसार भोजन
रात्रि भोजन त्याग के महत्व को जानने के साथ—साथ हमें शारीरिक संरचना को जानना भी परम आवश्यक है।संसार में प्रत्येक जाति के प्राणियों की अपनी अलग—अलग संरचना होती है, अलग—अलग आकार—प्रकार से भोजन करने और पचाने की प्रक्रिया होती है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य मानव शरीर है, क्योंकि वे इस ऊहापोह में है कि ऐसी कौन सी मशीन है जिसे विधाता ने मानव शरीर में लगाई है, जो सैंकड़ो वर्षों तक निरंतर चलती रहती है, जो अनेकों यन्त्रों को एक दूसरे से संबंधित किये हैं, जो संवेदना से युक्त होती है, जो अच्छे बुरे का ज्ञान करा देती है, जो अन्दर रासायनिक पदार्थों को तैयार करके आवश्यकता पड़ने पर निकालती रहती है, तो अन्दर ही अन्दर भोजन पचाकर आवश्यक ऊर्जा देती रहती है और बाहरी रोगाणुओं से अपनी सुरक्षा करती रहती है परन्तु जो इस शरीर के प्रकृति विरूद्ध कार्य करता है उसे तत्काल दण्ड भी देती है। यह शरीर वैज्ञानिकों के लिए भले ही आश्चर्यकारी हो, परंतु जैनाचार्यों के लिए यह कोई आश्चर्यकारी नहीं है, क्योंकि जैन धर्म प्रर्वतक पूज्य तीर्थंकरों ने अपने दिव्य ज्ञान से जान कर बताया है कि हमारे शरीर को न किसी वैज्ञानिक ने बनाया है और न किसी भगवान या अल्ला—खुदा ने बनाया है, इसे बनाने वाले प्रत्येक जीव के अपने—अपने कर्म हैं। वे कर्म मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं— भाव कर्म , द्रव्य कर्म और नोकर्म । रागद्वेष आदि परिणामों को भाव कर्म कहते हैं। भाव कर्मों से पुद्गल द्रव्य कर्म वर्गणाओं का ग्रहण होता है उसे ही द्रव्य कर्म कहते हैं जो ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय के भेद से ८ प्रकार के होते हैं। जिस प्रकार खाया हुआ भोजन ही रस,रक्त, मांस,मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सप्त धातुओं में परिणमन कर जाता है। ठीक उसी प्रकार जीवों द्वारा किये गये राग—द्वेष आदि परिणामों से पुद्गल वर्गणाएँ ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूप परिणमन कर जाती हैं। किसी कार्य को निष्पन्न होने के लिए अंतरंग और बहिरंग ऐसे दो कारणों की आवश्यकता होती है । दुनिया में कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं हो सकता है। कारणों की खोज करने वाले ही महापुरूष, वैज्ञानिक या दिव्य ज्ञानी कहे जाते हैं। भगवान् आदिनाथ से लेकर महावीर पर्यन्त २४ तीर्थंकर हुए हैं। जिन्होंने अपने दिव्य ज्ञान से इस शरीर निर्माण के कारणों को जानकर बताया कि लोक में मूलभूत जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छ: द्रव्य हैं उनका कभी विनाश नहीं होता है। मात्र उनकी पर्याय उत्पन्न होती है और मिटती है। इसी बात को ‘‘ कुन्द—कुन्द आचार्य देव पंचास्तिकाय’’ में लिखते हैं—
उत्पत्तीव विणासो दव्वस्क्ष णात्थि अत्थि सव्भावो।
विगमुप्पाद धुवत्तं करेंति तस्येपव पज्जाया।।
अर्थात् द्रव्य का न कभी नाश होता है न उत्पन्न किया जा सकता है, मात्र उसकी पर्याय उत्पन्न होती है और विनाश को प्राप्त होती है जैसे पानी को उबाल कर गैस बना दिया जाये तो उसका विनाश नहीं हुआ बल्कि एक द्रव्य रूप पर्याय से दूसरी गैस रूप पर्याय को प्राप्त हुआ है। इसी बात को वैज्ञानिकों ने स्वीकार करते हुए कहा कि ‘‘ किसी पदार्थ को न हम बना सकते हैं और न मिटा सकते हैं मात्र उसके रूप में परिवर्तन कर सकते हैं। ’’ इस सिद्धांत को अविनाशिता के सिद्धांत से जाना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार जीव भी एक द्रव्य है और इस जीव द्रव्य का कभी नाश नहीं होता है। मात्र मनुष्य, हाथी, कुत्ता, बिल्ली, चींटी आदि शरीर रूपी पर्यायें अपने कर्मानुसार प्राप्त होती हैं और नष्ट होती हैं, इस प्रकार एक ही जीव अनन्त पर्यायों को प्राप्त कर चुका है। जब जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करता है तब उसके शरीर में अन्तरंग कारण नाम कर्म और बहिरंग कारण मेल—फीमेल (नर/मादा) के सहयोग से रज, वीर्य का मिलना होती है। वह जीव शरीर निर्माण योग्य अपने—अपने कर्मानुसार आहार वर्गणा ग्रहण करता है और इससे शरीर इन्द्रिय श्वासोच्छवास, भाषा आदि रूप छह पर्याप्तियां पूर्ण कर मानव, पशु, पक्षी आदि जिस गति का उदय होता है, उसके अनुसार शरीर का निर्माण करता है। यहाँ इन सबको जानने की आवश्यकता इसलिए है कि जैन धर्म वैज्ञानिक है, परन्तु वैज्ञानिक किस प्रकार से है, इसको समझने के लिए संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया है। ‘‘ जैनाचार्य समंतभद्र स्वामी’’ ने शरीर को यंत्र की उपमा देते हुए कहा है—
अजंगमं जंगमनेय यन्त्रं यथा तथा जीव धृतं शरीरम् ।
वीरभत्सु पूति क्षयि तापकं च स्नेहो वृथात्रेहि हितं त्वमाख्य:।
अर्थात् शरीर एक यंत्र है जिसे चलाने वाला जीव है बिना जीव के चल नहीं सकता जैसे बिना ड्राइवर के कोई यंत्र नहीं चला सकता । यहाँ यह समझना आवश्यक है कि शरीर यंत्र कैसे है? इस बात को एक उदाहरण से समझें— जैसे किसी यंत्र को फिट करने (लगाने) हेतु एक मकान की आवश्यकता होती है। जो र्इंट, चूना, पत्थर आदि से तैयार किया जाता है वैसे ही हमारे शरीर में अस्थियों का एक ढाँचा होता है जो औदारिक शरीर नामकर्म से बनता है। यह शरीर तींन माजला मकान के समान है। पहली मंजिल गर्दन से ऊपर, दूसरी मंजिल गर्दन से नाभि तक और तीसरी मंजिल नाभि से पैरों तक है। इन तीनों मंजिलों में अलग—अलग यंत्र लगे हैं जो एक दूसरे से बन्धन नामकर्म के उदय से संबंधित हैं। हड्डियों में मजबूती संहनन नाम कर्म से, आकार—प्रकार संस्थान नामकर्म के उदय से और यकृत, अंगुली, आँख, नाक, कान, जीभ, किडनी, हृदय आदि अंगोपांग नामकर्म के उदय से प्राप्त होता है। अलग—अलग प्राणियों के शरीर अलग—अलग प्रकार के होते हैं,जैसे पेड़—पौधे, केंचुआ, चींटी, मक्खी, गाय, मनुष्य आदि रूप शरीर जाति कर्म के उदय से प्राप्त होते हैं। शरीर में परिवर्तन भी सम्भव है जो नामकर्म के उप भेदों के परिवर्तन के अनुसार परिवर्तित होते हैं। जैसे कोई व्यक्ति सांवला हो तो सफेद हो सकता है इसके परिवर्तन में वैज्ञानिकों ने ‘‘पिगमेंट’’ (मैलानिन) कारण माना है। परंतु जैन कर्म सिद्धान्तानुसार यह परिवर्तन वर्ण नामकर्म के उदय से होता है। वेद मोहनीय कर्म के उदय से होता है। वेद कर्म के स्त्री, पुरूष और नपुंसक ये तीन उत्तर भेद हैं। इस प्रकार कर्म का विस्तार बहुत लम्बा—चौड़ा है परन्तु यहाँ इसकी ज्यादा गहराई में न जाकर मात्र शरीर को समझना है जिसे यहाँ यंत्र की उपमा दी जा सके। इस शरीर को एक फैक्ट्री की उपमा दी जा सकती है क्योंकि जैसे फैक्ट्री में बहुत से यंत्र लगे होते हैं वैसे ही हमारे शरीर में पोषक तत्वों का निर्माण करने वाले अनेक यंत्र लगे हैं। पोषक तत्वों के निर्माण के बाद बचे मलमूत्र आदि अवशिष्ट पदार्थों को निष्कासित करने वाले नासिका, हृदय, फैफड़े आदि चिमनी के रूप में यन्त्र लगे होते हैं। दुनिया का हिसाब—किताब रखने वाला सबसे बड़ा ऑटोमेटिक सुन्दर कम्प्यूटर भी हमारे मष्तिष्क के रूप में लगा है। ये सभी यन्त्र किसी परमात्मा या वैज्ञानिक द्वारा नहीं चलाये जाते बल्कि इनको चलाने वाली चैतन्य शक्ति और निज परिणामों द्वारा बांधे गये अदृश्य कर्म हैं। इन अदृश्य कर्मों से द्रव्य शरीर रूपी नोकर्म की रचना होती है। द्रव्य कर्म फिल्म की रील के समान हैं और नोकर्म पर्दे के समान हैं । इस नोकर्म रूप शरीर में पांच इन्द्रियां हैं। ये इन्द्रियाँ द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार की हैं द्रव्य इन्द्रियाँ भी निर्वृत्ति और उपकरण के भेद से दो प्रकार से हैं। आँख के जो पुतली, गोलक आदि उपकरण हैं उनका परिवर्तन भी संभव है इसी कारण वैज्ञानिक इन्हें परिवर्तित कर देते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं, परन्तु जब तक भीतरी कर्मों का उदय रहता है तब तक आँख आदि उपकरण चलते रहते हैं।यदि अन्तरंग कर्मों का क्षयोपशम नहीं होता तो वे यंत्र फिट रहने पर भी अपना कार्य बन्द कर देते हैं और वैज्ञानिकों का प्रयास भी निष्फल हो जाता है। शरीर संरचनानुसार प्रत्येक प्राणी के भोजन का समय और प्रकार निर्धारित किया गया है। जिन प्राणियों के दाँत, नाखून सपाट व चपटे, आँतें लम्बी, अंधेरे में आँखों से दिखाई नहीं देना, भोजन चबा—चबा कर करने और पानी में मुख डालकर पीने वाले होते हैं वे सभी शाकाहारी हैं। जिन प्राणियों के दाँत और नाखून पैने होते हैं , जीभ से पानी पीते हैं, भोजन को बिना चबाए सीधे निगल जाते हैं, आँतें छोटी होती हैं वे मांसाहारी होते हैं। उनकी रात में आँखें चमकती हैं। उन्हें रात्रि के कम प्रकाश में दिखता है इसलिए वे रात्रि भोजी होते हैं।शाकाहारी प्राणियों की शरीर संरचनानुसार मानव शरीर की रचना होती है। अत: जैसे शाकाहारी पशु पक्षी शाम को ही अपने गंतव्य स्थान पर जाकर समस्त क्रिया कलाप बंद करके विश्राम करते हैं। वैसे ही मनुष्य को अपने भोजनादि क्रिया कलापों को बंद रखना चाहिए। जो इस प्रकृति के नियम विरूद्ध जाता है उसे प्रकृति कभी क्षमा नहीं करती, बल्कि जीवन को ही नष्ट कर देती है। वर्तमान युग में नित नये रोग बढ़ते जा रहे हैं इसका कारण भोजन पान की अनियमितता है। मानव को दिन में मात्र दो बार भोजन लेना चाहिए। वह एक दिन में कई बार खाने लगा और रात में भी खाने लगा जिसका समाधान अनेक रोगों को उत्पन्न कर दण्डात्मक रूप से प्रकृति ने निकाला है। इससे बचने का उपाय यही है कि दिन में नियमित भोजन किया जाय और रात्रि भोजन त्याग कर प्रकृति के नियमानुसार जीवन का निर्वाह किया जाय।