साध्वी युगल निधि—कृपा
जिन्दगी के प्रथम क्षण से लेकर आखिरी क्षण तक और जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य एक ही इच्छा रखता है कि मेरा जीवन स्वर्ग बने, सुवासमय बने और पवित्रता की प्रतिमा बने। चाह के अनुसार हर इन्सान राह ढूँढता है, लेकिन विडंबना यह है कि जो जीवन स्वर्ग के समान होना चाहिए था वह उसे नरक सा महसूस हो रहा है। यहाँ तक कि कुछ लोगों को अपने जीवन से ऊब पैदा हो गई है। राग—द्बेष की दुर्गन्ध के कारण जिन्दगी बोरडम सिद्ध हो रही है।
अत: वे कहते हैं, हमें जीवन घसीटना पड़ रहा है अर्थात् उनके लिए जीवन एक बोझ है, साँसों का खजाना लुटाना मात्र है । ऐसे में वे जीते नहीं, सिर्पâ उम्र को पीते हैं। इसी कारण परम ज्ञानी पुरूष कहते हैं— अगर आप चाहो सुख और मिले दु:ख तो जानना आपके जीवन—प्रबन्धन की योजना में कहीं गड़बड़ है या मूल में कोई भूल है। उसी भूल को खोजना है और सुधारना भी है ।
हालाँकि हर इन्सान अपने जीवन का मास्टर प्लान बहुत सावधानी से और सोच समझकर बनाता है तथापि भूलें क्यों रह जाती हैं, इसका कारण जानना होगा। इसी संदर्भ में भगवान महावीर से उनके शिष्य गौतम स्वामी ने पूछा, ‘भंते! जिस संसार में हमने जन्म लिया है वह संसार कैसा है ? भगवान ने फरमाया—‘अहो दुक्खो हु संसारो जत्थ कीसन्ति जन्तुणो।‘ अर्थात् यह संसार दु:खमय है, जहाँ प्राणी दिन—रात कष्ट पाते हैं। अत: संसार का दूसरा नाम दु:ख है। इसे दु:खालय भी कहा गया है। यहाँ दु:ख ही मिल सकता है।
दु:खालय में बैठकर सुख की कामना करना ऐसा है जैसे मेडीकल स्टोर में चावल या चीनी की मांग करना। सच्चाई यह है , सुख संसार में नहीं है। तथापि आश्चर्य है, इस दु:खमय संसार को इन्सान छोड़ना क्यों नहीं चाहता ? कारण स्पष्ट है, इन्सान के मन में सुख को लेकर तीन भ्रान्तियाँ हैं। इस संसार में कभी तो सुख मिलेगा यह पहली भ्रान्ति है। वह सोचता है, मैंने लाइफ की प्लानिंग ऐसे सेट कर ली है कि चालीस नहीं तो पचास वर्ष पार करने के बाद तो मुझे सुख अवश्य मिलेगा।
यूँ उम्र के साथ आशा भी बलवान होती है। दूसरी भ्रान्ति है, कहीं तो सुख मिलेगा । घर में नहीं मिला तो ऑफिस में मिलेगा। स्वदेश में नहीं मिला तो विदेश में मिलेगा। अपनों से नहीं मिला तो पराये से मिलेगा। चूँकि उम्मीद पर दुनिया कायम है। तीसरी भ्रान्ति है, किसी से तो सुख मिलेगा। पति या पत्नी से नहीं मिला तो बेटे से मिलेगा। अमुक वस्तुएँ मेरे पास होंगी तो मैं ‘सुख’ नगरी का राजा बनूँगा या अमुक टारगेट सफल हो जाये तो सुख मिलेगा।
वस्तुत: संसार में सुख कम और दु:ख ज्यादा है, मजा कम एवं सजा ज्यादा है, मौज कम तथा मौत ज्यादा है। यहाँ सुख चार हैं तो दु:ख हजार हैं। इसलिए संसार में रहते हुए सुख का गारंटी कार्ड सभी लेना चाहते हैं। आपके मन में प्रश्न होगा, जब संसार में सुख मिल नहीं सकता तो सुख की गारंटी कार्ड का क्या मतलब है ? इसके लिए हमें सुख की वास्तविकता को जानना होगा।
कुछ लोग संसार को दु:खमय नहीं मानते , क्योंकि उन लोगों ने कभी दु:ख को झेला नहीं, इसलिए उनका दु:ख से परिचय नहीं है । उनका कहना है , हम सुखपूर्वक जीते हैं। इसलिए जानना होगा वे किसमें सुख मानते हैं, उनके सुख की परिभाषा क्या है ? जिस सुख को प्राप्त करने के लिए आज इन्सान दिन—रात दौड़ रहा है तथा जिसे सुख समझता है वह रिलेटिव (सापेक्ष) सुख है जिसे अभिप्राय या मान्यता का सुख भी कहा जाता है।
हमें इस रिलटिव सुख की गहराई को समझना होगा। सबसे पहले इतना निश्चित रूप से जान लो कि सापेक्ष सुख अस्थायी है, पराधीन है और इसके पीछे निश्चित रूप से दु:ख आता है। चूँकि यह सुख दु:खालय के पत्ते पर ही पोस्ट होता है। इस अस्थायी सुख के पीछे काल का पहिया लगा होने से उसका अंत निश्चित है। इसलिए सापेक्ष सुख का हार्द समझाते हुए ज्ञानी कहते हैं, जिस सुख के पीछे लालसा हो और जिसे पाने के बाद भी इच्छा शांत न होती हो वह क्षणिक सुख है। इस सुख को भलीभाँति पहचानने हेतु हमें ७ए को जानना होगा।
ए—१. स्वास्थ्य का सुख— यह पहला सापेक्ष सुख है।मेरा शरीर स्वस्थ रहे, ऐसा सभी चाहते हैं, किन्तु शरीर का सुख इतना कमजोर है कि खाने में जरा सी गड़बड़ हो जाए या मौसम में खराबी आ जाए तो स्वास्थ्य का सुख कपूर की भाँति उड़ जाता है।
ए—१. कहता है, जीवन का उपयोग तभी तक है जब तक स्वास्थ्य सुरक्षित है। पल—पल परिवर्तनशील शरीर से संबंधित स्वास्थ्य का सुख स्थायी वैâसे हो सकता है ? यह जान लेने पर भी हम प्राणांत की घड़ी तक स्वास्थ्य सुख की चाहना रखते हैं।
ए—२.सुख को टिकाने हेतु इन्सान अनेक तकनीक अपनाता है। आज स्थिति यह है कि स्वास्थ्य को लेकर प्रत्येक व्यक्ति इस हद तक शोध करता है मानो वह उसका डॉक्टर बनना चाहता है।इतना ही नहीं शरीर के खातिर वह अनेक तरह की हिंसाजन्य दवाइयाँ और पूरक आहार लेने में भी नहीं चूकता।
इस प्रकार अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक इन्सान अनेक तरह के उपचार से गुजरता है, किन्तु इन सब के पीछे वह भूल जाता है कि स्वास्थ्य का सुख रिलेटिव है, स्थायी नहीं है। याद रखना , शरीर में १६ महारोग हैं और पाँच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानवें हजार पाँच सौ पिच्यासी (५,६८,९९,५८५) छोटे—छोटे रोग समाये हुए हैं।
इसलिए यह शरीर कुछ भी सहने में असमर्थ है। शरीर का तापमान यदि सामान्य से कम हो जाए तो गिर पड़ने की स्थिति और ज्यादा हो जाए तो अनेक मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। सचमुच! यह शरीर कितना कमजोर है। आप्त पुरूष कहते हैं, शरीर की वास्तविकता को अवश्य जान लेना कि यह सुख क्षणिक है, शाश्वत नहीं है।
अस्थायी है, संपूर्ण नहीं है। ऐसा चिन्तन करने से सुन्दर शरीर के साथ संपूर्ण स्वास्थ्य का सुख मिलने पर भी अहंकार नहीं आएगा और यह सुख जब न मिले तो मन में शिकायतें भी नहीं उभरेंगी। अत: जिन्दगी के हर मोड़ पर याद रखना, स्वास्थ्य का सुख सापेक्ष सुख है।
ए—२.सम्पत्ति का सुख— यह दूसरा सापेक्ष सुख है। हर इन्सान चाहता है मेरे जीवन में धन सम्पत्ति हो। यह सच है, बिना पैसे के जीवन नहीं चल सकता। अत: संपत्ति का सुख जीवन में बहुत बड़ी भूमिका अदा करता है। यह सुख इन्सान के मन को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है। जैन दर्शन के अनुसार मनुष्य में दस प्राण होते हैं, परन्तु आजकल पैसा ग्यारहवाँ प्राण है, जिसके अभाव में इन्सान दस प्राण होते हुए भी निष्प्राण है।
कहना होगा, धन—दौलत मात्र साधन नहीं ऑक्सीजन है। इसके बिना दस प्राणों का वेंटीलेटर भी मानो फैल हो जाता है। कहते हैं, पुराने जमाने में राजा के प्राण तोते में बंद होते थे, ऐसे ही इन्सान के प्राण आज पैसे में अटके हुए हैं। चूँकि कलियुग में सबके जीवन का एक ही स्वर है, पैसा। किन्तु सत्य यह है, धन भी सापेक्ष सुख देता है।
चाहे जितनी दौड़ धूप कर लो या कमरतोड़ मशक्कत कर लो, परन्तु यह विशेष ज्ञातव्य है, यह सुख अल्पजीवी है, पुण्य के अधीन है और एक निश्चित अवधि तक रहता है। याद रहे, पैसा मेहमान की भाँति है, जो बिना निमंत्रण के नहीं आता और हमेशा के लिए नहीं रहता। उसके जाने की संभावना सदाकाल जीवित रहती है। अत: धन का न ममत्व करना न अभिमान , बल्कि सदुपयोग करना चाहिए।
ए—३.सुविधा का सुख— यह तीसरा सापेक्ष सुख है। सुख केवल संपत्ति से नहीं मिलता, बल्कि संपत्ति द्वारा जुटाई गई सुविधा से मिलता है। हर व्यक्ति चाहता है, मेरे घर में गाड़ी , फर्नीचर, एयर कंडीश्नर, कूलर, कम्प्यूटर, नौकर—चाकर आदि की जो सुविधाएँ हैं वे सदा बनी रहें और इसका लेवल भी सदा बढ़ता रहे, ताकि जीवन आसानी से जिया जा सके। कुदरत का कानून कहता है, यहाँ हर सुविधा अपूर्ण है।
इसलिए जितनी सुविधाएँ बढ़ी हैं उतनी दुविधाएँ भी बढ़ी हैं। जितनी लालसा बढ़ती है उतना ही तनाव भी बढ़ता है। ध्यान रहे, सुविधाओं का जितना विकास हुआ है उतना ही क्षमता का ह्रास हुआ है। अत: ध्यान देना, सुविधाएँ भी रिलेटिव सुख मात्र हैं वास्तविक नहीं।
ए—४.संबंधों का सुख— यह चौथा सापेक्ष सुख है। यह संसार नानाविध दु:खों से भरा होने के कारण यहाँ सर्वत्र दु:ख ही दु:ख है। यहाँ कोई किसी का नहीं है। न कोई शरण दे सकता है और न सहयोग देने में समर्थ है। संबंधों का सुख जिसके पास है वे इस बात को नहीं मानते। वे मानते, वे सोचते हैं, मेरा संबंध तो सभी के साथ बड़ा अच्छा है। एक फोन करो तो दस लोग इकट्ठे हो जाएं, ऐसे संबंध मैंने बना रखे हैं।
इस प्रकार अपने द्वारा बनाये गये इन संबंधों से जब उसे सुख मिलता है तो वह मान लेता है , मैं सुख के अम्बार पर बैठा हूँ। यह सच है, जो संबंध बनते हैं या बनाये जाते हैं, वे ही दिन बिगड़ते हैं। कहा भी है, कुछ लोग संबंधों का जंगल बनाते हैं तो कुछ लोग संबंधों की बगिया बना लेते हैं । संबंधों का जंगल बनाने वाले सदा उलझे रहते हैं। चूंकि उन्हें संवेदना नहीं मिलती । संबंधों की बगीची बनाने वाले खुद भी सुवासित रहते हैं और दूसरों को भी सुगंध बांटते हैं।
खयाल रहे, संबंध सेल्फ डिजाल्विंग स्टीचेस के समान हैं जो निर्धारित अवधि के बाद स्वत: गल जाते हैं। चाहे कितने ही प्रगाढ़ रेशमी धागे से आप संबंधों के वस्त्र में टांके लगा लो, तो भी उसकी अंतिम नियति यही है। ध्यान रहे, सेल्फ डिजाल्विंग टांके शरीर को जोड़कर गलते हैं, किन्तु संबंधों के टाँके मन को फाड़कर गलते हैं।
याद रखना, अन्तत: कोई भी सम्बन्ध वास्तविक नहीं है और ये सब क्षणिक सुख देने वाले हैं। कभी सोचा! जितने भी संबंध हैं वे सब जन्म लेने के बाद ही जुड़े हैं और इस दुनिया से विदा होने के पूर्व समाप्त हो जाएँगे। इसलिए संबंधों का सुख भी अस्थायी है, सदा रहने वाला नहीं है।
ए—५.सम्मान का सुख— यह पाँचवां सापेक्ष सुख है। हर प्राणी को सम्मान प्रिय है। अगर किसी को सम्मान न मिले तो वह अपनी प्रतिभा को मिट्टी में मिला देता है। प्रतिभा की यह नियति है, वह सदा सम्मान से निखरती है। कहते हैं, जीवन की नौका को अगर सम्मान और प्रतिष्ठा का बंदरगाह न मिले तो वह उदासी के टापू पर जा लगती है।
सम्मान का पोषण मिले तो हर इन्सान खुशी की जिन्दगी जीता है। याद रखना, यह प्रतिष्ठा का सुख भी टिकाऊ नहीं है, अस्थायी है, चेंजेबल है, बदलने वाला है। दस वर्ष पहले आपको जितना आदर मिल रहा था जरूरी नहीं आज भी आपको उतना सम्मान मिले और आज जो सत्कार मिल रहा है वह भी शायद पाँच साल के बाद न मिले ।
चूँकि सम्मान की स्थितियाँ बदलती रहती हैं। यह पूर्णत: स्पष्ट है, किसी भी इन्सान को हर बार सम्मान का सुख नहीं मिलता और मिले भी तो डिग्री का अन्तर पड़ जाता है। चूँकि आज जो लोग आपके सम्मान में खुशी से तालियाँ बजा रहे हैं वे ही कल गालियाँ भी दे सकते हैं।
याद रखना , प्रतिष्ठा का सुंदर पंछी जीवन की डाल पर थोड़ी देर चहचहाता है और फिर उड़ जाता है। चूँकि प्रतिष्ठा का अर्जन जितना दुरूह है उससे अनेक गुणा दुष्कर है उसे हजम करना या टिकाये रखना। यह हकीकत है, जिसे सम्मान प्रिय होगा उसे अपमान अप्रिय होगा। फलत: अपमान का दु:ख भी ज्यादा महसूस होगा। इस तरह सम्मान का सुख भी रिलेटिव है, ढलने वाला है तभी तो वह दु:ख में बदल जाता है।
ए—६.सौभाग्य का सुख— यह छठा सापेक्ष सुख है । व्यक्ति सोचता है , मैं सौभाग्यशाली हूँ, क्योंकि मेरी पूरी जिन्दगी सौभाग्य की मीठी छांव में गुजरी है। जब तक पढ़ाई का दौर चला, मैं बड़ा भाग्यशाली रहा। व्यापार किया तो वहाँ भी मैंने अपने भाग्य का प्रभाव देखा। जिन्दगी में जो भी छोटे—बड़े सुख मिले हैं वे सौभाग्य के कारण ही मिले हैं। इस प्रकार जिसने सौभाग्य का फल चखा हो वह चाहता है मैं सदा सौभाग्यशाली बना रहूँ ।
अर्थात् मेरे जीवन सिक्के के दोनों ओर सौभाग्य ही खुदा हो ताकि दुनिया के बाजार में जब भी सिक्का उछले तो विजय की स्थिति ही बनी रहे। सभी जानते हैं, सौभाग्य भी एक दिन दुर्भाग्य में बदल जाता है। चूँकि भाग्य हवा की भाँति चंचल है, वह बर्फ की तरह हर पल पिघलता है। इस भाग्य का घमंड करने जैसा नहीं है। अगर भाग्य के बर्पâ पर नई परत नहीं जमाई जाएगी तो उसकी अंतिम लेयर पिघल कर कब समाप्त हो जायेगी, पता भी नहीं चलेगा। कुल मिलाकर सौभाग्य को सदा टिकाये रखना नामुमकिन होने से यह सुख भी स्थायी नहीं है।
ए—७.सद्गति का सुख— यह सातवाँ सापेक्ष सुख है। सद्गति यानी अच्छी या श्रेष्ठ गति का मिलना । जहाँ जन्म से ही सुसंस्कार मिलते हैं । इस बार हम मनुष्य बने हैं, किन्तु सदा मनुष्य नहीं बने रहेंगे , यहां के बाद कहाँ पैदा होंगे मालूम नहीं। इसलिए यह भी सापेक्ष सुख है, वास्तविक नहीं। सार यह है कि जो सुख आज हमें ७ए के रूप में मिला है, वह सदा रहने वाला नहीं है चूँकि यह फिसलू सुख है। कुछ सुख मौत आने से पहले विदा हो जाते हैं तो कुछ मौत के साथ समाप्त हो जाते हैं ।
तात्पर्य यह है कि संसार के सारे सुख चपल एवं विनाशी हैं। आत्मा अखंड एवं अविनाशी है। इसलिए आत्मसुख जो वास्तविक और स्थायी है, उसे जीवन का लक्ष्य बनाओ। मनुष्य जन्म की सार्थकता शाश्वत सुख की प्राप्ति में है। शाश्वत सुखृरियल सुख या स्थायी सुख। प्रश्न होगा, ऐसा सुख हमें कैसे मिल सकता है?
खयाल रहे, इस सुख का संबंध न वस्तु से है न व्यक्ति से है। न परिस्थितियों से है न घटना से है और न ही यह सुख शरीर से संबंधित है। इस अनन्त सुख का सीधा संबंध आत्मा से है। भगवान महावीर कहते हैं, अनन्त सुख सबकी आत्मा में रहा हुआ है। इसलिए आत्मा में रहे हुए गुणों को जितना विकसित करेंगे उतना हमें आत्मिक सुख का एहसास होगा। जिस सुख के पीछे दु:ख नहीं आता उसे वास्तविक सुख कहते हैं। इस सुख में कोई परिवर्तन नहीं है , इसका कभी अंत नहीं होता और यह सुख एक बार मिल जाए तो हमेशा के लिए रहता है। स्पष्ट है , इस आत्मिक सुख की तीन विशेषताएँ हैं—
ख्याल रहे, यह सुख पुण्य पर आधारित नहीं है, इसे पुरूषार्थ द्वारा प्रकट किया जा सकता है। जितना हमारा पुरूषार्थ जागेगा उतने गुण हमारे भीतर प्रकट होंगे। अर्थात् आत्मिक गुणों का र्इंधन सम्यक् पुरूषार्थ है। जैन एक व्यक्ति में उदारता का गुण है तो वह अपनी संगृहीत पूँजी अनाथ अपंगों की सेवा में लगाता है। इस तरह दान के पुरूषार्थ से उसका उदारता का गुण सदा विकसित रहता है।
ऐसा पुरूषार्थ प्रज्वलित रहा तो आत्मिक गुणों की मशाल सदा ज्योतिर्मय रहेगी वर्ना तो मन की आकांक्षाएँ अनंत हैं। किसी के पास एक हजार का सुख है तो किसी के पास सौ करोड़ का सुख है। लालसा और स्वार्थ के कारण यदि वह अपने उदारता के गुण को विकसित नहीं करेगा तो आत्मिक सुख को कैसे प्रकट करेगा ?
ज्ञातव्य है, आत्मा में रहे हुए क्षमा, कोमलता, विनम्रता, उदारता, सहजता, निस्पृहता, सरलता आदि अनन्त गुण मोह, लोभ , क्रोध, अहंकार, कपट एवं राग—द्वेष से ढके हुए हैं। इन गुणों को जागृत करने का पुरूषार्थ करना ही सच्चे सुख को प्रकट करने की विधि है। एक गुण को प्रकट करने पर भी सुख मिलता है तो जिस दिन समस्त आत्मगुणों को प्रकट करने का पुरूषार्थ संपूर्ण रूप से सफल होगा उस दिन जो सुख मिलेगा वह वास्तविक सुख होगा। जिसे हम आत्मिक सुख, अनंत सुख या मोक्ष का सुख कहते हैं।