फास्ट फूड यानि ‘फटाफटी आहार’ के कुनबे में ऐसे सभी आहार आते हैं जिसे मिनटों में तैयार कर परोसा जा सकता है। यह शब्द बीसवीं सदी के छठे दशक में प्रचलन में आया और वर्ष १९५१ में इसने अंग्रजी शब्दकोश में अपना स्थान ग्रहण किया। यहाँ अपने बाल पाठकों को यह बताना जरूरी है कि यूँ भूख को शांत करने के लिए हमारे देश में चिवड़ा और सत्तू जैसे फटाफट इस्तेमाल किए जा सकने वाली आहार सामग्रियाँ सैकड़ों वर्षों से प्रचलन में हैं, लेकिन यहाँ हम जिस फास्ट फूड की बात कर रहे हैं, उसमें ऐसी खाद्य सामग्री शामिल नहीं है। सामान्यतया अल्प समय में खाने के लिये तैयार किये जा सकने वाले किसी आहार को यूँ तो फास्ट फूड के कुनबे का सदस्य माना जा सकता है, लेकिन यहाँ हम जिस फास्ट फूड की बात कर रहे हैं उसमें, रेस्टोरेंट या परचून की दुकानों में पैकेटों अथवा डिब्बों में मिलने वाले वे आहार शामिल हैं जिन्हें पहले से पकाई या तपाई हुई खाद्य सामग्रियों से तैयार किया जाता है। दरअसल, आहार के हिसाब से किसी भी मनुष्य की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए उसके द्वारा खाए जाने वाले खाद्य पदार्थों में छियालीस पोषाहारों का होना बहुत जरूरी है। पोषण विज्ञान में इन छियालीस पोषाहारों को ‘अनिवार्य पोषाहार’ कहा जाता है। वास्तव में किसी भी अनिवार्य पोषाहार का मतलब आहार में मौजूद उस पोषाहार से है जो शरीर को हमारे द्वारा खाये और पचाए हुए भोजन से मिलना चाहिए। हमारे लिए पानी, तेरह विटामिन, लिनोलीइक अम्ल, आठ या नौ एमिनो अम्ल , इक्कीस खनिज तथा ग्लूकोज ‘अनिवार्य पोषाहार’ है। इनमें से किसी का भी अभाव हमारे शरीर के लिए नुकसानदेह हो सकता है। चिंता की बात यह है कि आजकल प्रचलित फास्ट फूड में इनमें से अधिकांश पोषाहारों की कमी होती है। सामान्य तौर पर बढ़ते बच्चों को रोजाना तकरीबन १५००—१८०० कैलोरी की जरूरत है। सही शारीरिक विकास के लिए उनके आहार में कार्बोहाइड्रेट, वसा और प्रोटीन उचित अनुपात में होने चाहिये। बाजार में फास्ट फूड के नाम पर जो चीजें सहज उपलब्ध हैं, उनमें कार्बोहाइड्रेट और वसा तो होती है, लेकिन प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में नहीं रहता है। यही नहीं उनमें पड़ने वाले कृत्रिम नमक और प्रिजर्वेटिव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। प्रोटीन की कमी के कारण बच्चों और किशोरों के सहज शारीरिक विकास में विसंगतियाँ आ सकती हैं। आहार से प्राप्त होने वाले प्रोटीनों से हमें वे सभी एमिनो अम्ल मिलते हैं जिनसे शरीर में अनेक उपयोगी रसायनों का निर्माण होता है। बहरहाल, हमारे देश में आधुनिक फास्ट फूड से सामान्य लोगों का परिचय वर्ष १९८२ में तब हुआ जब चंद मिनट में तैयार होने वाले नूडल्स बाजार में आये। धीरे—धीरे इस सूची में प्रेंच प्रई, चाउमिन, बर्गर , पिज्जा, पास्ता, बफलो विंग, ब्रेडस्टिक और गार्लिक ब्रेड जैसे मिनटों में खाने के लिए उपलब्ध उत्पाद शामिल होते गए। आजकल बच्चों और किशोरों में फास्ट—फूड के प्रति तेजी लगाव बढ़ रहा है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार महानगरों में ६० फीसदी बच्चों को फास्ट फूड का चस्का हुआ लगा हुआ है।
भागती —दौड़ती जिंदगी में लोगों के पास इतना वक्त नहीं रह गया है कि वे सेहतमंद भोजन कर सके, अत: वे इधर—उधर कुछ भी खाकर अपना काम चला लेते हैं। बड़े—बड़े शहरों के अलावा छोटे—छोटे शहरों में भी तेजी से फैलती फास्ट फूड और फास्ट लाइफ संस्कृति हमारे अपनों को बीमारियों का शिकार बना रही है। हमारे देश की आधी से अधिक आबादी गरीबी और कुपोषण की मार झेल रही है तो दूसरी ओर पश्चिमी संस्कृति की नकल के कारण नवधनाढ्यों और रईसों की नई पीढ़ी फास्ट फूड के बढ़ते प्रचलन के कारण दिल की बीमारियों की गिरफ्त में आ रही है। दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों तथा छोटे—बड़े शहरों में कोई फास्ट फूड कंपनियों के अंधाधुंध तरीके से फैलते जाल के कारण पनप रही ‘फास्ट फूड संस्कृति’ की वजह से मोटापा, मधुमेह, रक्तचाप और हृदय की बीमारियों का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है। युवा पीढ़ी में चीजबर्गर, पिज्जा, चॉक्लेट, आइसक्रीम तथा चाउमीन, छोले—भटूरे जैसे फास्ट फूड के प्रति बढ़ता लगाव उनकी सेहत को चौपट कर रहा है। दरअसल, बाजार, में मिलने वाली सभी फास्ट फूड सामग्रियों में कुछ ऐसे रसायन होते हैं, जिनकी वजह से हमारे शरीर में बुरे कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढ़ता है, मधुमेह होने का खतरा बढ़ता है। शरीर की रोगों से लड़ने की ताकत में कमी आती है और डीएनए को नुकसान पहुँचता है। फास्ट फूड की इन बड़ी—बड़ी कंपनियों के नाम आज बड़ों के बजाय हमारे बच्चे, किशोर और युवा अधिक जानते हैं। फास्ट फूड की बड़ी शृंखलाओं में करोड़ों ग्राहकों तक पहुँच बनाने वाली कंपनियों के उत्पादों को आप सीधे अपने घर मंगवा सकते हैं। यही वजय है कि ऐसे खाद्य उत्पादों ने हम लोगों के घरों में अपनी पहुँच तेजी से बना ली है। वैज्ञानिक अध्ययनों से यह साबित हो चुका है कि जो व्यक्ति जितने अधिक वजन का होगा, उसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह और उच्च रक्त कोलेस्ट्रॉल की समस्यायें उतनी ही अधिक होंगी। मौजूदा समय में आनन—फानन में तैयार होने वाले फास्ट फूड, वसायुक्त खाद्य पदार्थों, अत्यधिक मीठी वस्तुओं और डिब्बाबंद खाद्य सामग्रियों के प्रयोग के कारण लोगों के शरीर में बुरे कोलेस्ट्रॉल की मात्रा बढ़ रही है। कोलेस्ट्रॉल बढ़ने से हृदय को ऑक्सीजन समृद्ध रक्त पहुँचाने वाली धमनियों में अवरोध पैदा हो जाता है जिससे हृदय की मांसपेशियों को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है। फास्ट फूड को बनाने के लिए अधिक मात्रा में वसा तथा कार्बोहाइड्रेट का इस्तेमाल होता है। ये दोनों हमारे हृदय को नुकसान पहुँचाते हैं। इसके अलावा फास्ट फूड में अधिक नमक होने के कारण सोडियम का अंश भी बहुत अधिक होता है। यह रक्त दाब तथा हृदय रोग की आशंका को बढ़ाता है। दुनिया के विभिन्न देशों के स्वास्थ्य संगठनों द्वारा चेतावनी दिये जाने के बावजूद आज भी फास्ट फूड बनाने वाली कम्पनियाँ धड़ल्ले से अपने उत्पादों को तैयार करने में संश्लेषित रसायनों, ट्रांस—फैट्स (हाइड्रोजन कृत तेलों में मौजूद) चीनी की उँची मात्रा, मिठास पैदा करने वाले कृत्रिम रसायनों, हाई—फुक्टोज कॉर्न सिरप, और कतिपय पेट्रो—रसायनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। उनके द्वारा तैयार किये जाने वाले कुछ आहारों और पेयों में टरशियरी ब्यूटिल हाइड्रोक्विनोन का इस्तेमाल परिक्षक यानी बतौर प्रिजर्वेटिव किया जाता है।
यहाँ यह तथ्य गौरतलब है कि यदि इस रसायन की सिर्फ एक ग्राम मात्रा हमारे शरीर में पहुँच जाए तो हम मतली, वमन, घुटन और चक्कर आना जैसे लक्षणों से पीड़ित हो सकते हैं। फास्ट फूड में पाये जाने वाले एक दूसरे रसायन मोनोसोडियम ग्लूटामेट के सेवन से भी सरदर्द, मतली, सीने के दर्द और कमजोरी के मामले सामने आये हैं। इस रसायन के सेवन से भूख महसूस करने की इच्छा में बढ़ोतरी होती है। फलस्वरूप, बहुत सारा फास्ट फूड खाने के बावजूद हमारी भूख शांत नहीं होती है और हम जरूरत से अधिक आहार खा जाते हैं। फास्ट फूड बनाने में इस्तेमाल किया जाने वाले रसायन डाइमेथिल पोली सिलोक्सेन, सोडियम फास्फैट और अन्य दूसरे संश्लेषित रसायन भी हमारे लिए नुकसानदेह होते हैं। प्राकृतिक रूप से दूध में मौजूद केसीन प्रोटीन को ‘फास्ट—फूड का निकोटिन’ कहा जाता है। दरअसल, फास्ट फूड बनाने के लिए जिस केसीन का इस्तेमाल किया जाता है, उसे बनाने के लिए कैल्शियम हाइड्रोजन फॉस्फैट रसायन का इस्तेमाल किया जाता है। इस तरह से बनाए जाने वाले केसीन का हमारे दिमाग पर नशीला प्रभाव पड़ता है और फलस्वरूप हम उन फास्टफूड को खाने के आदि हो जाते हैं भले ही वे सिगरेट की तरह हमारे शरीर के लिए नुकसानदेह हों। वास्तव में अधिकांश फास्ट फूड आइटमों में ऐसे रसायन मिलाए जाते हैं जो उनके स्वाद को बढ़ाकर बच्चों को अपने मकड़जाल में पंâसा लेते हैं। साथ ही हमें अपने बच्चों को यह भी समझना होगा कि चिप्स, कुकीज, कैडी बार, मफिन्स, प्रइड फूड जैसे पूफूडइटमों में हाईड्रोजन कृत तेल और ट्रांस फैट्स होते हैं और इनमें हमारे शरीर को उचित पोषाहार नहीं मिल पाते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यदाकदा फास्ट पूफूड सेवन से कोई इनके मकड़जाल में नहीं फंसता है लेकिन यदि किसी वजह से कोई इनका निरंतर सेवन करता है तो फिर वह इनका आदी हो जाता है और बाद में ऐसे बच्चे और किशोर घरों में बनने वाले स्वस्थ और परंपरागत भोजन को देख नाक —भौं सिकोड़ने लगते हैं। दरअसल, अपनी व्यस्तताओं के चलते पहले तो अधिकांश अभिभावक खुद ही अपने बच्चों को फास्ट फूफूड तहत आने वाले आहार देते हैं और फिर जब ये बच्चे उसके आदी हो जाते हैं, या ऐसे बच्चों और किशोरों के स्वास्थ्य पर उनका बुरा प्रभाव दिखने लगता है,तब वे अपनी गलती पर पछताते नजर आते हैं। सभी अभिभावकों को यह याद रखने की जरूरत है कि चिकित्सकों के अनुसार तकरीबन ६० फीसदी बच्चों को बीमारियाँ उनके गलत खानपान की वजह से होती हैं। साथ ही हमें बच्चों और किशोरों को भी फास्ट फूफूड जुड़ी वैज्ञानिक जानकारी देनी चाहिए ताकि वे खुद भी अपने आहार के प्रति सतर्क रहें।