आचार्य विनम्रसागर जी
कहते हैं पूत के पाँव पालने में दिखाई देते हैं।इसका मतलब पालने में पूत को देखना नहीं, उसके पावों से कुछ भी नजर नहीं आयेगा। इसका मतलब यह है कि हमारे अंदर जो बचपन में संस्कार डल जाते हैं वे ही स्वभाव से लगने लगते हैं। वे संस्कार हम पूरी जिन्दगी में भूल नहीं पाते हैं अथवा यूँ कहें कि पूरी जिन्दगी हम उन्हीं संस्कारों के आधार पर चलते हैं।
किसी मनौवैज्ञानिक ने कहा है कि सात साल के बच्चे के संस्कार सत्तर वर्ष तक कायम रहते हैं। अभिमन्यु के संस्कार गर्भ में पैदा हुए और सोलह वर्ष बाद प्रकट हो गये। हिटलर बहुत ही पापी और खतरनाक व्यक्ति था। उसने हजारों व्यक्तियों को जान से मार दिया लेकिन जब मरा तो लड़ाई में बिल्लियों से डर के भागने पर मरा उसके जीवन पर खोज की गई ।
बाद में पता चला कि हिटलर इतना क्रूर व्यक्ति होते हुए भी बिल्ली से इसलिए डर गया था कि बचपन में उसकी छाती पर एक बार बिल्ली चढ़ गई थी जिससे इतनी जोर से डर गया था कि कई वर्षों तक नहीं भूल पाया । ये उसके संस्कार ही हैं। भगवान राम पूर्वभवों में रात्रि आहार जल त्याग करते चले आ रहे थे तो कई भवों के संस्कारों ने बलभद्र पद प्राप्त कराया और उन्हीं संस्कारों ने जीवन में मर्यादा पैदा की।
अत: हमें कुसंस्कारों से निरंतर बचते हुए सुसंस्कारों को अपनाना चाहिए यही जीवन की नींव है। संस्कार देने में माँ और पिता को पूर्णत: सजग रहना चाहिए। एक बालक जब गर्भ में प्रवेश करता है तब से ही माता—पिता के विचारों से परिचित होने लगता है।
नौ माह में वह पूर्णत: परिचित हो जाता है। यदि उसमें गर्भ के समय प्रतिरोध करने की शक्ति होती तो वह वहीं कर देता और यदि कोई अच्छी बात ग्रहण करने की क्षमता होती तो वह वहीं आचरण में उतारकर बता देता । इस प्रभाव के कारण वह जन्म लेने के बाद ये अभिव्यक्त करके बता देता है।
बच्चों का दिल बिल्कुल साफ और सुन्दर निष्कषाय रहता है। उनके अंदर विकार नहीं होते इसलिये वे बच्चे सभी लोगों को बहुत ही प्यारे लगते हैं । यदि बच्चों जैसा सुसंस्कारित जीवन हम बड़ी उम्र तक जियें तो जीवन ऐसा आदर्श बन जायेगा कि उसे देखकर स्वयं अपने आप में आनन्द होगा और दूसरों में भी आनन्द को पैदा करवाएगा।
एक पत्थर शिल्पकार की चोटों को सहता है और सहते—सहते जब वह परमात्मा में परिवर्तित हो जाता है तब उसे उस संस्कार का फल मिलता है। यदि आपके परिवार में सम्पन्नता और संस्कार है तो आपका परिवार देवों के घर से कम नहीं है। लक्ष्मी भी वहीं ठहरती है जहाँ घर में प्रेम वात्सल्य और धर्म का माहौल होता है। यदि घर में प्रेम से न रहें तो मर के भी कहीं प्रेम न मिलेगा और घर में प्रेम है तो मर के भी प्रेम मिलेगा ।
जिसने जीते जी जिन्दगी देवताओं सी न बना पाई वो देवता कभी न बन सकेगा। नरक में वो ही जाते हैं जो जीवन नरक सा जीते हैं । अत: हम सभी के अंदर संस्कारों में देवत्वपना होना जरूरी है अन्यथा हम अपने जीवन में कोई भी आत्मिक खुशबू वाले फूल नहीं खिला पायेंगे। परमात्मा गीत से नहीं, गहनों से नहीं, गहन तर्क से नहीं, गहन अनुभव से खुश होता है। परमात्मा पवित्र गीतों को नहीं पवित्र आचरण को चाहता है। वे सुसंस्कार ही जीवन को मंजिल तक ले जा सकते हैं अन्य कोई नहीं ले जा सकता है।
‘‘विरागवाणी’’ जून २०१४