जम्बूद्वीप से पूर्व विदेह में पुष्कलावती देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरी में राजा वङ्कासेन राज्य करते थे जो कि तीर्थंकर थे। उनकी रानी का नाम श्रीकांता था। सुविधि राजर्षि, जो कि अच्युतेन्द्र हुए थे, उनका जीव स्वर्ग से चयकर श्रीकांता रानी के ‘वज्रनाभि’ नाम का पुत्र हुआ। पहले कहे हुए सिंह, सूकर, वानर और नकुल के जीव भी, जो कि अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हुए थे, वे उन्हीं रानी से क्रमशः विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के पुत्र हो गये। वज्रजंघ की पर्याय में जो मतिवर आदि मंत्री के जीव थे, वे राजा वज्रजंघ के मरने के बाद दीक्षा लेकर अंत में मरकर ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुए थे, वे भी उन्हीं श्रीकांता रानी के क्रमशः सुबाहु, महाबाहु, पीठ और महापीठ नाम के पुत्र हो गये। श्रीमती का जीव केशव, जो कि अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र हुआ था, वह भी वहाँ से चयकर उसी नगरी में कुबेरदत्त वणिक् की अनंतमती भार्या से ‘धनदेव’ नाम का पुत्र हो गया जो कि चक्रवर्ती वङ्कानाभि का गृहपति रत्न हुआ है। किसी समय तीर्थंकर वज्रसेन को वैराग्य होते ही लौकांतिक देवों ने आकर प्रभु की पूजा-स्तुति करके दीक्षा की अनुमोदना की। राजा वज्रसेन ने भी युवा पुत्र वज्रनाभि को समस्त पृथ्वी का राज्यभार सौंप पट्ट बाँध करके मुकुटबद्ध राजाओं से नमस्कार कराते हुए ऐसा आशीर्वाद दिया ‘तू बड़ा भारी चक्रवर्ती हो’ और आप देवों द्वारा आनीत पालकी में बैठकर आम्रवन में पहुँचे, जहाँ एक हजार राजाओं के साथ स्वयं दीक्षा ग्रहण कर ली। इधर राजा वज्रनाभि की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ और उधर पिता वज्रसेन को केवलज्ञान प्रगट हो गया था। राजा वज्रनाभि चक्ररत्न से छह खंड वसुधा को जीतकर छियानवे हजार रानियों से युक्त एकछत्र साम्राज्य का उपभोग कर रहे थे। किसी समय पिता वज्रसेन तीर्थंकर से धर्मोपदेश सुनकर सम्पूर्ण साम्राज्य को जीर्ण-तृण के समान मानकर एक क्षण में त्याग कर दिया और सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं, एक हजार पुत्रों, आठ भाइयों और धनदेव के साथ-साथ मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से पिता वज्रसेन तीर्थंकर के समवसरण में ही जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। तेरह प्रकार का चारित्र, बारह प्रकार का तप, बाईस परीषह आदि उत्तर गुणों का पालन करते हुए उन मुनिराज ने तीर्थंकर के पादमूल में सोलहकारण भावनाओं का चिंतवन किया था। उन सोलहकारण भावनाओं के नाम निम्न प्रकार हैं- १. दर्शनविशुद्धि २. विनयसंपन्नता ३. शीलव्रतेष्वनतिचार ४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ५. संवेग ६. शक्तितस्त्याग ७. शक्तितस्तप ८. साधु समाधि ९. वैयावृत्यकरण १०. अर्हद्भक्ति ११. आचार्यभक्ति १२. बहुश्रुतभक्ति १३. प्रवचनभक्ति १४. आवश्यक अपरिहाणि १५. मार्गप्रभावना और १६. प्रवचनवत्सलता। सम्यग्दर्शन को विशुद्ध रखना, विनय से सम्पन्न होना, शीलव्रतों में अतिचार न लगाना, नित्य ही ज्ञानोपयोग में लीन रहना, संसार से भीरुता, शक्ति के अनुसार तप करना, ज्ञान और संयम के साधनभूत पदार्थों का त्याग (दान) करना, साधुओं के व्रतादि में विघ्न आने पर उन्हें दूर करना, साधुओं की वैयावृत्ति करना, अरहंत भगवान् की भक्ति, आचार्य की भक्ति, बहुश्रुत मुनियों की भक्ति और प्रवचन की भक्ति करना, आवश्यक क्रियाओं का पूर्णरूप से पालन करना, जैन धर्म की प्रभावना करना तथा धर्मात्माओं में अखंड प्रेम रखना, इस प्रकार की सोलह भावनाओं का उत्कृष्ट रीति से चिंतन करते हुए उन धीर-वीर वज्रनाभि मुनिराज ने तीन लोक में क्षोभ उत्पन्न करने वाली तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया। उन मुनिराज को ऋद्धियों की बिल्कुल भी इच्छा नहीं थी फिर भी अणिमा, महिमा आदि गुणों सहित विक्रिया ऋद्धि प्रगट हो गई। कोष्ठ बुद्धि, बीज बुद्धि आदि बुद्धि ऋद्धियाँ भी उत्पन्न हो गर्इं। जगत् का हित करने वाली जल्लौषधि, सर्वौषधि आदि ऋद्धियों ने भी उनका वरण किया, यद्यपि मुनिराज ने घी, दूध आदि रस का त्याग कर दिया था तो भी घी, दूध आदि को झराने वाली अनेकों रस ऋद्धियाँ भी प्रगट हुई थीं। वे बल ऋद्धि के प्रभाव से कठिन से कठिन परीषह भी सह लेते थे। अक्षीण ऋद्धि के बल से वे जिस दिन जिस घर में आहार लेते थे, उस दिन उस घर में अन्न अक्षय हो जाता था-चक्रवर्ती के कटक को भोजन कराने पर भी वह भोजन क्षीण नहीं होता था। इस प्रकार वे मुनिराज सदैव छठे-सातवें गुणस्थान में चढ़ते-उतरते रहते थे। परिणामों की विशुद्धि से वे सातिशय अप्रमत्त नाम सातवें गुणस्थान से आगे बढ़कर उपशम श्रेणी में चढ़ गये अर्थात् आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच गये। अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर वे मुनि नीचे उतर कर पुनः स्वस्थान अप्रमत्त नामक सातवें गुणस्थान में स्थित हो गये। उसका खास कारण यह है कि ग्यारहवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त ही है। तत्पश्चात् आयु के अंत में श्रीप्रभ पर्वत पर पहुँचकर वङ्कानाभि महामुनि ने प्रायोपगमन संन्यास ग्रहण कर लिया। वे उस समय स्वयं तथा पर से किंचित् भी शरीर का उपचार नहीं करते थे, न कराते ही थे। उस समय उनके शरीर में चर्म और हड्डी मात्र ही शेष रह गई थी, तो भी वे निश्चलचित्त निराकुलता से ध्यानस्थ थे। वे द्वितीय बार उपशम श्रेणी पर आरूढ़ हुए और पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान को पूर्ण कर उत्कृष्ट समाधि को प्राप्त हुए। अंत में उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि पहुँचे और वहाँ अहमिंद्र पद को प्राप्त हो गए।